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१३८. वह स्वयं के अति प्रमाद से पृथक-पृथक अवस्थाओं को प्राप्त करता है।
१३९. जिनसे ये प्राणी व्यथित हैं, उन्हें प्रतिलेख करके भी वे निराकरण नहीं
कर पाते हैं।
१४०. यह परिज्ञा कही गयी है । इससे कर्म उपशान्त होते हैं ।
१४१. जो ममत्व-मति को त्याग करता है, वह ममत्व को त्याग करता है।
१४२. वही दृष्टिपथ मुनि है, जिसके ममत्व नहीं है ।
१४३. वही परिज्ञात मेधावी (मुनि) है ।
१४४. लोक को जानकर एवं लोक-संज्ञा को छोड़कर वह बुद्धिमान [ मुनि ! पराक्रम करे।
-ऐसा मैं कहता हूँ। १४५. वीर-पुरुप अरति को सहन करता है ।
वीर-पुरुप रति को सहन नहीं करता है। वीर-पुरुप अविमन/निर्विकल्प है, इसलिए वीर-पुरुप रंज नहीं करता है ।
१४६. शब्द और स्पर्श को सहन करते हुए मुनि इस जीवन को तुष्टि और
जुगुप्सा को मौनपूर्वक देख-परखकर कर्म-शरीर अलग करे ।
१४७. समत्वदर्शी वीर-पुरुप नीरस और रूक्ष भोजन का सेवन करते हैं ।
१४८. मुनि इस घोर संसार-सागर से तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहा गया है।
-ऐसा मैं कहता हूँ। १४६. प्राज्ञारहित मुनि दुर्वसु/अयोग्य है। १५०. वह तुच्छ है, कहने में ग्लानि का अनुभव करता है।
१५१. वह वीर प्रशंसनीय है, जो लोक-संयोग को छोड़ देता है ।
लोक-विजय