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द्रप्टा अपने अस्तित्व का पहरेदार है। द्रष्टाभाव, साक्षीभाव मन के कर्दम से उपरत होकर प्रात्म-गगन में प्रस्फुटित होने का प्रथम प्रायाम है।
मन का विखराव वाह्य जगत के सौजन्य से होता है। इस विखराव में चेतना दोहरा संघर्ष करती है। पहला संघर्ष चेतना के आदर्श और वासना-मूलक पक्षों में होता है तथा दूसरा उस परिवेश के साथ होता है, जिसमें मनुष्य अपनी इच्छा/वासना की पूर्ति चाहता है । यह संवर्प ही प्रात्म-ऊर्जा को विच्छिन और कुण्ठित करता है।
___ 'शीतोष्णीय' वह अध्याय है, जो आदर्श और यथार्थ, प्राभ्यन्तर और वाह्य, गति और स्थिति, व्यक्ति और समाज में मन्तुलन लाने का पाठ पढ़ाता है । विक्षोभ उत्तेजना तथा संवेदना से उत्पन्न होता है। प्रस्तुत अध्याय विक्षोभ-निवारण हेतु समत्व योग को अचूक मानता है।
मनुष्य अनेक चिनवान है । इसलिए वह अनगिनत चित्तवृत्तियों का समुदाय है। इच्छा चितवृत्ति की ही सहेली है । इच्छात्रों का भिक्षापान दुष्पूर है। इच्छापूति के लिए की जाने वाली थम-साधना चलनी में जल भरने जैसी विचारणा है। चित्त के नाटक का पटापेक्ष कैसे किया जाये, प्रस्तुत अध्याय यही कौशल सिखाता है।
___ साधक का धर्म है-चारित्रगत वारीकियों के प्रति प्रतिपग/प्रतिपल जगना । प्रमाद एवं विलासिता की चपेट में आ जाना साधना-पथ में होने वाली दुर्घटना है । वह अप्रमत्त नहीं, घायल है।
. साधक महापथ का पांथ है । अप्रमाद उसका न्यास है। मौन मन ही उसके मुनित्व की प्रतिष्ठा है। अप्रमत्तता, अनासक्ति, निष्कपायता, समदर्शिता एवं स्वावलम्बिता के अंगरक्षक साथ हों, तो साधक को कैसा खतरा । प्रात्म-जागरण का दीप पाटी याम ज्योतिर्मान रहे, तो चेतना के गहराव में कहाँ होगा अन्धकार और कहाँ होगा भटकाव !