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प्रथम उद्देशक
१. सुषुप्त अमुनि है, मुनि सदा जागृत है ।
२.
लोक में दुःख को अहितकर समझें ।
३. लोक के समय [आचार] को जानकर शस्त्र से उपरत हों।
४. जिसको ये शब्द रूप, रस, गंध और स्पर्श भली-भाँति ज्ञात है, वह आत्मज्ञ,
ज्ञानज, वेदज्ञ, धर्मज्ञ और ब्रह्मज्ञ है ।
५.
जो लोक को प्रज्ञा से जानता है, वह मुनि कहा जाता है।
६. ऋजु धर्मविद्-पुरुप आवर्त/संसार की परिधि के सम्बन्ध को जानता है।
७. वह शीत-उष्ण का त्यागी निर्ग्रन्थ अरति-रति को सहन करता है, कठोरता
का अनुभव नहीं करता है।
८.
इस प्रकार जागृत और वैर ने उपरत वीर-पुरुप दुःखों से मुक्त होता है ।
६.
सतत मूढ़ नर जरा और मृत्युवश धर्म को नहीं जानता है ।
१०. प्राणी को आतुर देखकर अप्रमत्त रहे ।
११. हे मतिमन् ! इस तरह मानकर देख ।
१२. यह दुःख हिंसज है, ऐसा जानकर मायावी और प्रमादी वारम्वार गर्भ/
जन्म प्राप्त करता है।
शीतोष्णीय