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४.
प्रथम उद्देशक
जो गुण है. वह मूल स्थान है । जो मूल स्थान है, वह गुग्गा है ।
६. इस प्रकार रात-दिन संतप्त होता हुआ कान या अकाल में विचरण करने वाला, संयोग-ग्रर्थी/परिग्रही, श्रर्थ-लोमी, ठगी, दु:साहनी, दत्तचित्त पुरुष पुन: पुन: शस्त्र / संहार करता है ।
५.
इन प्रकार वह गुग्गार्थी [विपानवत ] महत् परिनाम से पुनः पुनः प्रमाद में रत होता है । जैसे कि मेरी माता, मेरा पिता, मंग नाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरा पुत्र, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रवतू मेरा मित्र, स्वजन, कुटुम्बी, परिचित, मेरे विविध उपकरण, परिवर्तन / धन-सम्पत्ति का प्रादानप्रदान, भोजन, वस्त्र इनमें ग्राम प्रमत्त होकर संसार में वास
करता है ।
निश्चय ही उस [ गंगार ] में कुछ मनुष्यों का प्रायुष्य ग्रन्थ है । जैसे कि-श्रोत्र-परिज्ञान से परिहीन होने पर, चक्षु परिज्ञान से परिहीन होने पर, प्रागु-परिज्ञान से परिहीन होने पर, रमना - परिज्ञान से परिहीन होने पर, स्व-परिज्ञान से परिहीन होने पर,
निश्चय ही इनसे अभिक्रान्त श्रायुष्य का संप्रेक्षण कर वे कभी मुभाव को प्राप्त करते हैं ।
शस्त्र-परिज्ञा
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