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१११. काम दुरतिक्रम है।
११२. जीवन दुष्प्रतिबृह/वृद्धिरहित है।
११३. यह पुरुष निश्चयतः काम-कामी है।
११४. यह शोक करता है, जीर्ण/ज्वरित होता है, तप्त होता है, परितप्त होता है।
११५. आयतचक्ष/दीर्घदर्णी और लोकविपश्यी लोक के अधोभाग को जानता है,
ऊर्ध्वभाग को जानता है, तिर्यक्भाग को जानता है ।
११६. अनुपरिवर्तन करने वाला गृद्ध-पुरुष इस मृत्युजन्य सन्धि को जानकर
[निष्काम बने । ]
११७. जो वन्धन से प्रतिमुक्त है, वही वीर प्रशंसित है ।
११८. [ देह ] जैसी भीतर है, वैसी बाहर है; जैसी वाहर है, वैसी भीतर है ।
११६. मनुष्य देह के भीतर-से-भीतर अशुचिता देखता है, उसे पृथक्-पृथक् छोड़ता
है। पंडित इसका प्रतिलेख/चिन्तन करे ।
१२०. वह मतिमान् पुरुप यह जानकर लालसा का प्रत्याशी न बने ।
१२१. वह तत्त्व-ज्ञान से स्वयं को विमुख न करे ।
१२२. निश्चय ही यह पुरुष [ विचार करता है कि ] 'मैंने किया या करूंगा।'
वह बहुमायावी है।
१२३. वह मूर्ख उस कृतकार्य को वारम्वार करता है।
१२४. वह अपने लोभ और वैर को बढ़ाता है । १२५. इसीलिए कहा जाता है कि ये [लोभ और वैर] संसार-वृद्धि के लिए हैं ।
शस्त्र-परिज्ञा
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