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५०. जो मनुप्य ध्र वचारी हैं, वे इस प्रकार के जीवन की आकांक्षा नहीं करते ।
५१. जन्म-मरण को जानकर दृढ़ संक्रमण/चारित्र में विचरण करे ।
५२. मृत्यु का समय निश्चित नहीं है ।
५३. सभी प्राणियों को प्रायुष्य प्रिय है, सुख शाता/अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल
है, वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है और जीवन की कामना है ।
५४. सभी के लिए जीवित रहना प्रिय है ।
उनमें परिगृद्ध होकर मनुष्य द्विपद (दास-दासी) और चतुप्पद (पशु) को नियुक्त करके विविध - मन, वचन, काया से संचय करता है। वह उनमें अल्प या अधिक उन्मत्त होता है।
५६. वह वहाँ उपभोग के लिए गृद्ध होकर बैठता है।
५७. तव वह किसी समय विविध, परिथेष्ठ, प्रचुर एवं महा-उपकरण चाला हो
जाता है।
५८. उसकी उस सम्पत्ति को किसी समय सम्बन्धीजन वाट लेते हैं, चोर चुरा
ले जाते हैं, राजा छीन लेता है, नष्ट हो जाता है, विनष्ट हो जाता है, अग्नि से जल जाता है।
५६. इस प्रकार वह दूसरे के अर्थ के लिए क्रूर कर्म करने वाला अज्ञानी है।
उस दुःख से मूढ़ व्यक्ति विपर्यास को प्राप्त करता है।
६०. निश्चय ही, मुनि/भगवान् महावरेर के द्वारा यह प्रवेदित है ।
६१. ये न तो प्रवाह को पार करने वाले हैं। ये न ही तट को प्राप्त करने वाले
हैं और न ही तट तक पहुँचने वाले है । ये अपारगामी है, इसलिए ये पार नहीं हो सकते।
शस्त्र-परिजर