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८६. भंगुर - धर्म / शरीर-धर्म की संप्रेक्षा करो ।
८७. देख ! ये पर्याप्त नहीं हैं ।
८८. इनसे तुम दूर रहो ।
८९. हे मुने ! इन्हें महाभय रूप देखो |
६०. किसी का भी प्रतिपात ( वध ) मत करो ।
१. वह वीर प्रशंसनीय हैं, जो आदान [ संयम-जीवन ] से जुगुप्सा नहीं करता । ६२. मुझे नहीं देता, यह सोचकर क्रोध न करे । थोड़ा प्राप्त होने पर न खीजे ।
९३. प्रतिपेध हो, तो लौट जाए ।
६४. इस प्रकार मौन की उपासना करे ।
पंचम उद्देशक
५. जिनके द्वारा विविध प्रकार के शस्त्रों से लोक में कर्म समारम्भ किये जाते हैं, जैसे कि वह अपने पुत्र, पुत्री, वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजकर्मचारी, दास, दासी, नौकर, नौकरानी का आदेश देता है नाना उपहार, सायंकालीन भोजन तथा प्रातः कालीन भोजन के लिए ।
६. वे इस संसार में कुछ लोगों के भोजन के लिए सन्निवि और सन्निचय करते हैं ।
७. वह संयम स्थित, अनगार, आर्यप्रज्ञ, आवेदर्शी, अवसर-द्रष्टा, परमार्थ - नाता अग्राह्य का न ग्रहरण करे, न करवाए और न समर्थन करे ।
शास्त्र - परिज्ञा
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