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१५२. वह हिंसा अहित के लिए है ओर वही अवोधि के लिए है ।
१५३. वह साधु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्य मार्ग पर उपस्थित होता है ।
१५४. भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता हैयही [ हिंसा ] ग्रन्थि है,
यही मोह है,
यही मृत्यु है,
यही नरक है ।
१५५. यह आसक्ति ही लोक हैं ।
१५६. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वायु-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर वायुकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है ।
१५७. वही मैं कहता हूँ
कुछ जन्म से अन्धे होते हैं, तो कुछ छेदन से अन्धे होते हैं, कुछ जन्म से पंगु होते हैं, तो कुछ छेदन से पंगु होते हैं, कुछ जन्म से घुटने तक, तो कुछ छेदन से घुटने तक, कुछ जन्म से जंघा तक, तो कुछ छेदन से जंघा तक, कुछ जन्म से जानु तक, तो कुछ छेदन से जानु तक, कुछ जन्म से उह तक, तो कुछ छेदन से उरु तक, कुछ जन्म से कटि तक, तो कुछ छेदन से कटि तक, कुछ जन्म से नाभि तक, तो कुछ छेदन से नाभि तक, कुछ जन्म से उदर तक, तो कुछ छेदन से उदर तक, कुछ जन्म से पसली तक, तो कुछ छेदन से पसली तक, कुछ जन्म से पीठ तक, तो कुछ छेदन से पीठ तक, कुछ जन्म से छाती तक तो कुछ छेदन से छाती तक, कुछ जन्म से हृदय तक, तो कुछ छेदन से हृदय तक, कुछ जन्म से स्तन तक, तो कुछ छेदन से स्तन तक कुछ जन्म से स्कन्ध तक, तो कुछ छेदन से स्कन्च तक, कुछ जन्म से वाहु तक, तो कुछ छेदन से वाहु तक, कुछ जन्म से हाथ तक, तो कुछ छेदन से हाथ तक,
शस्त्र-परिज्ञा
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