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पूर्व स्वर
प्रस्तुत ग्रध्याय 'लोक-विजय' है । यह मानव-मन के द्वन्द्वों एवं ग्रात्म स्वीकृतियों का दर्पण है । साधक ग्रात्मपूर्णता के लिए समर्पित जीवन का एक नाम है | सम्भव है मन की हार और जीत के वीच वह भूल जाये । महावीर अनुत्तरयोगी श्रात्मदर्शी थे । साधकों के लिए उनका मार्ग-दर्शन उपादेय है । इस अध्याय में साधक की हर सम्भावित फिमलन का रेखाङ्कन है । साधना के राजमार्ग पर बढ़े पाँव शिथिल या म्खलित न हो जाय, इसके लिए हर पहर सचेत रहना साधक का धर्म है ।
प्रस्तुत अध्याय अन्तरङ्ग एवं बहिरङ्ग का स्वाध्याय है । असंयम से निवृत्ति और संयम से प्रवृत्ति – यही इस अध्याय के वर्ग-शरीर की अर्थ-चेतना है । निजानन्द-रसलीनता ही साधक का सच्चा व्यक्तित्व है । इस ग्रात्मरमरणता का ही दूसरा नाम ब्रह्मचर्य है ।
माधना के लिए चाहिए ऊर्जा । ऊर्जा मामर्थ्य की हो मुखछवि है । शरीर या इन्द्रियों को ऊर्जा जर्जरता की थोर याताशील है । इसे नव्य-भाव अर्थवत्ता के साथ नियोजित एवं प्रयुक्त कर लेने में इसकी महत् उपादेयता है । दीपक बुझने ने पहले उसकी ज्योति का उपयोग करना ही प्रज्ञा-कौशल है । मृत्यु के बाद कैसे करेंगे मृत्युंजयता !
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माधक अहर्निश साधना के लिए ही कटिवद्ध होता है । उसके लिए समग्रता से बल-पराक्रम का प्रयोग करना साधक की पहचान है । अतः साधक को विराम और विश्राम कैसे शोभा देगा ? प्रस्थान- केन्द्र से प्रस्थित होने के बाद उसका सम्मोहन और कर्पण विसर्जित करना अनिवार्य है ।
वान्त का आकर्परेण पराजय का उत्सव है । पूर्वं मम्बन्धों का स्मरण कर उनके लिए मुंह से लार टपकाना श्रमण-धर्म की सीमा का अतिक्रमण है । यह तो त्यक्त प्रमत्तता एवं इन्द्रिय-विलासिता का पुनः ग्रङ्गीकरण है । ममत्व से मुक्त होना