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कुछ जन्म से ठुड्डी तक, तो कुछ छेदन सं टुड्डी तक, कुछ जन्म से होठ तक, तो कुछ छेदन से होठ तक, कुछ जन्म मे दांत तक, तो कुछ छेदन से दांत तक, कुछ जन्म से जीभ तक, तो कुछ छेदन से जीभ तक, कुछ जन्म से तालु तक, तो कुछ छेदन से तालु तक, कुछ जन्म से गले तक, तो कुछ छेदन से गले तक, कुछ जन्म से गाल तक, तो कुछ छेदन से गाल तक, कुछ जन्म से कान तक, तो कुछ छेदन से कान तक, कुछ जन्म से नाक तक, तो कुछ छेदन से नाक तक, कुछ जन्म से आँख तक, तो कुछ छेदन से आँख तक, कुछ जन्म से भौंह तक, तो कुछ छेदन से मोह तक, कुछ जन्म से ललाट तक, तो कुछ छेदन से ललाट तक, कुछ जन्म से शिर तक, तो कुछ छेदन से शिर तक,
८१. कोई मूछित कर दे, कोई वध कर दे ।
[ जिस प्रकार मनुष्य के उक्त अवयवों का छेदन-भेदन कष्टकर है, उसी प्रकार अग्निकाय के अवयवों का । ]
८२. वही मैं कहता हूँ
प्राणी पृथ्वी के आश्रित हैं, तृण के आश्रित हैं, पत्नों के आथित हैं, काप्ठ के आश्रित हैं, गोवर-कण्डे के आश्रित हैं, कचरे के आश्रित हैं।
८३. संपातिम प्राणी अग्नि में आकर गिरते हैं और अग्नि का स्पर्श पाकर कुछ
संकुचित होते हैं । वे वहाँ परितप्त होते हैं और जो वहाँ परितप्त होते हैं, वे वहाँ मर जाते हैं।
८४. शस्त्र-समारम्भ करने वाले के लिए यह अग्निकायिक वध-वन्धन अनात है।
८५. शस्त्र-समारम्भ न करने वाले के लिए यह अग्निकायिक वध-बन्धन ज्ञात है।
८६. उस अग्निकायिक हिंसा को जानकर मेवावी न तो स्वयं अग्नि-गस्त्र का
उपयोग करता है, न ही अग्नि-शस्त्र का उपयोग करवाता है और न ही अग्नि-शस्त्र के उपयोग करने वाले का समर्थन करता है।
शस्त्र-परिज्ञा