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आदर्श-जीवन ।
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बालक चौंक पड़ा। उसके सुख स्वप्नकी सुंदर मूर्तिके निर्माणमें वाधा पड़ गई। उसके नेत्रोंमें जल भर आया । उससे उठा न गया । वह करुणा पूर्ण दृष्टिसे महात्माकी ओर देखता रह गया । उस दृष्टिने महात्माके हृदय पर गहरा असर किया । वे उठे; बालकके पास गये और पितृप्रेमसे उसके मस्तक पर हाथ रखकर बोले:-" वत्स ! इस तरह क्यों बैठा
बालकने महात्माके दोनों पैर पकड़ लिए। उसकी आँखोंसे जलधारा बह चली। जुबानसे शब्द न निकले। दोनों पैर वाष्पोष्ण वारिसे परिप्लावित हो गये ।
महात्मा बालकको उठानेका प्रयत्न करते हुए स्नेह गद्गद कण्ठसे बोले:-" भद्र ! क्या दुख है ? धन चाहता है ?"
बालक पैर छोड़ उठ खड़ा हुआ और आँखें पौंछते हुए बोला:-" हाँ,
महात्मा:-" कितना" बालकः-“ गिन्ती मैं नहीं बता सकता।" म०-" अच्छा किसीको आने दे।" बा०-" नहीं मैं आपहीसे लेना चाहता हूँ।" म.-" हम पैसा टका नहीं रखते।"
बा०-“ मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है । वह तो विनश्वर है।"
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