Book Title: Vrundavanvilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Hiteshi Karyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः जैनहितैषीके चौथे वर्षका उपहार । काशीवासी कविवर बाब वृंदावनजी रचित वृन्दावनविलास। जिसे देवरी (सागर) निवासी श्रीनाथूराम प्रेमीने सम्पादन किया और बम्बईस्थ-श्रीजैनहितैषीकार्यालयनेनिर्णयसागरप्रेसमें मुद्रितकराके प्रकाशित किया। TRENabalatarrathikavahitvoiantvashatolatestosonlosarokarane.g श्रीवीरनिर्वाण सवत् २४३४। - नं.१. | इस ग्रंथकी रजिष्टरी हो गई है हमारी आज्ञाके विना इसे अथवा इसमेंसे किसी स्तोत्र वगैरहको भी न छपावें। Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपरमात्मने नमः। कविवर बाबू वृन्दावनजीका जीवनचरित्र। जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः। नास्ति येषां यशाकाये जरामरणजं भयम् ॥१॥ ते धन्याने महात्मानस्तेषां लोके स्थितं यशः। यैर्निबद्धानि काव्यानि ये वा काव्येषु कीर्तिताः ॥१॥ (कस्यचित्कवे.) ___“वे पुण्यात्मा रससिद्ध कवीश्वर जयवन्त हैं, जिनके यशरूपी शरी*रको कमी जरामरणरूप भय नहीं घेरता ॥ १॥" ___ "वे महात्मा पुरुष धन्य है, और उन्हींका यश ससारमें स्थिर है, जिन्होंने काव्योंकी रचना की है । अथवा जिनकी काव्योंमें कीर्ति गाई गई है ॥ २॥" काशीवासी कविवर बाबू वृन्दावनजीका पौगलिक शरीर आज ससारमें नहीं है। उसका अग्निसंस्कार हुए न्यूनाधिक ५० वर्ष वीत गये । परन्तु * उनका यश-शरीर ज्यों का सो किंबहुना उससे भी अधिक प्रभावशालीरुपमें विराजमान है। और जवतक हिन्दीभाषा तथा उसके जाननेवाले है, तअवतक अजर अमर रहेगा । जो चिरस्थायी यश कवियोंको उनकी प्रतिभा-१ प्रसूत कवितासे प्राप्त होता है, वह यश राजाओंको महाराजाओको तथा । कुवेरसदृश धनियाँको अपना सर्वख लुटा देनेपर भी नहीं मिल सकता। है । कविवर वृन्दावनजीने चार पाच ग्रन्थोंकी रचना करके जैमी कीर्ति * सम्पादन की है, क्या कविताके सिवाय और कोई द्वार ऐसा है, जिससे वैसी कीर्ति प्राप्त हो सकै ? हम तो कहेंगे कि नहीं । महात्मा गृन्दावन-1 जीको धन्य है, जिनका यश उनके उत्तमोत्तम काव्योंकी रचनाके कारण आज प्रत्येक जैनीकी जिज्ञापर नृत्य कर रहा है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 कविवरवृन्दावनजीका __ कविवर वृन्दावनजीकी कविता कैसी है, उसका वर्णन शब्दोसे नही किया जा सकता है। जो लोग कविताके मर्मको जाननेवाले हैं, उन्हें खय * * पाठ करके देखना चाहिये । क्योकि-- "निवेद्यमानं शतशोऽपि जानते स्फुट रसं नानुभवन्ति तं जनाः" ___ कविता बाह्य शाब्दादि विचारसे प्राय सब कवियोकी एक सी होती है। है परन्तु जो लोग मर्मज्ञ हैं, उन्हें उसमें उत्कृष्टता तथा निकृष्टता दिखलाई । देती है। किसी कविने कैसा अच्छा कहा है कि, अपूरै भाति मारत्याः काव्यामृतफले रसः। वणे सर्वसामान्ये स्वादुवित्केवलं कविः॥ * अर्थात् “ सरखतीके काव्यामृतरूपी फलमें एक अपूर्व ही रस है, जो चर्वण करनेमें तो सबको एकसा जान पड़ता है, परन्तु उसका खाद के वल कवि (मर्मज्ञ )ही जानते हैं।" । वृन्दावनजी खाभाविक कवि थे। उन्हें जो कवित्वशक्ति प्राप्त थी, उ* नमें जो कविप्रतिभा थी, उसका उपार्जन पुस्तकोंके अथवा किसी गुरुके द्वारा नहीं हुआ था किन्तु वह पूर्वजन्मके सस्कारसे प्राप्त हुई थी। उनकी कवितामें खाभाविकता और सरलता बहुत है । वनावटी अखामा-1 विक कविता करनेमें जान पड़ता है, उनकी बुद्धि कभी अग्रसर नहीं हुई । गाररसकी कविता करनेकी ओर भी उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। जिस रसके पान करनेसे जरामरणरूप दुख अधिक नहीं सताते है और जिससे ससार प्राय. विमुख हो रहा है, उस अध्यात्म तथा भक्तिरसका मथन करनेमें ही कविवरकी लेखनी इवी रही है । गृहस्थावस्था में रहकर भी केवल शान्तिरसकी ओर प्रवृत्ति देखकर दूसरे लोगोको आश्चर्य होगा। परन्तु जैनियोंके लिये यह एक अति सामान्य विषय है । क्योंकि जैन-1 धर्मकी सम्पूर्ण शिक्षाओका झुकाव प्राय. इसी ओरको रहता है । शान्तिरसको प्रशसामें श्रीमुनिसुन्दरसूरिने कहा है कि* "सर्वनङ्गलनिधौ हृदि यसिन् सङ्गते निरुपमं सुखमेति । - मुक्तिशर्म च वशीभवति द्राक् तं बुधा भजत शान्तरसेन्द्रम् ॥" * अर्थात् “ जिसके हृदयमें प्राप्त होनेसे अनुपम सुखकी प्राप्ति RRRRRRR RR----- Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनचरित्र । होती है और शीघ्र ही मुक्तिलक्ष्मी वशमें हो जाती है, बुद्धिवान् पुरुष सपूर्ण मगलोके समुद्रखरूप उस शान्त रसेन्द्रका अनुभवन सेवन करते हैं।" कविवर वृन्दावनजीकी कविताकी आलोचना करनेके पहिले हम उनकी जीवनचरित्रसम्बधी दो चार बाते जो यहा वहासे एकत्र की गई है, प्रगट कर देना उचित समझते हैं । खेद है कि, अवकाशके अभावसे और काशी, आरा आदि स्थानोमें खय जाकर शोध करनेका अवसर न पानेसे हम कविवरके विषयमें अधिक परिचय देनेको समर्थ नहीं हो सके, तौभी “पीयूषं न हि नि-शेषं पियवेव सुखायते " की उक्तिके अनुसार हमको आशा है कि, यह थोडा भी परिचय पाठकोंको सतोपप्रद हुए विना न रहेगा। 4 सुनामधेय कविवर वावू वृन्दावनजीका जन्म शाहाबाद जिलेके बारा नामक ग्राममें विक्रम संवत् १८४८ में हुआ था । आप जगत्प्रसिद्ध अग्रवाल शके गोयल गोत्रमें उत्पन्न हुए थे। आपके पूर्वपुरुष उक्त प्राम-* में ही रहते थे । वारामें एकवाग अव तक मौजूद है, जिसे लालबाबाका बाग कहते हैं। लालूबाबा अथवा लालजी कविवरके पितामहका नाम था। • वाराका निवास छोड़कर कविवरके वंशधर काशीमें आकर रहने लगे थे। सवत् १८६० में कविवर भी जव कि उनकी उमर केवल १२ क वर्षकी थी, काशीमें आ गये थे। जैसा कि इस पयसे प्रगट होता है:- यानारसी आरा ताके बीच बसै वारा, सुरसरिके किनारा वहां जनम हमारा है । और मडताल माघ सेत चौदै सोम पुष्य, कन्या । *लने भानु अंशसत्ताईस धारा है ॥ साठमाहि काशी आये तहां सतसंग पाये, जैनधर्ममर्म लहि मर्म सब डारा है। सैली सुखदाई । भाई काशीनाथ आदि जहां, अध्यातमबानीकी अखंड बहै धारा है। * कविवरके वशका वर्णन प्रवचनसारकी प्रशस्तिमें बहुत विस्तारसे दिया है, इसलिये हम उसे यहा उद्धृत करते हैं। मार्गशीर्ष गत दोय, और पन्द्रह अनुमानो। नारायन विच चंद्र जानि, औ सतरह जानो। * १ गगाजीके किनारे ।२ सवत् १८४८ माष शुधा १४ सोमवार, पुप्यनक्षत्र, कन्या लस, भानु अश २७ के शुभ मुहूर्तमें कविवरका जन्म हुआ था। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृन्दावनजीका इसी बीच हरिवंशलाल, बाबा गृह जाये। नाम सहारूसाह, साहजूके कहलाये ॥ बाबा हीरानंदसाह, सुन्दर सुत तिनके। पंच पुत्र धनधर्मवान, गुनजुत थे इनके । प्रथमै राजाराम बबा, फिर अभयराज सुनु । उदयराज उत्तम सुभाव, आनन्दमूर्ति गुनु । भोगराज चौथे कहो, जोगराज पुनि जानिये । इन पितु लगि काशी, निवास अस मानिये ॥ अब बाबा खुशहालचन्द, सुतका सुन वरनन । सीताराम सुज्ञानवान, वंदों दिन चरनन ॥ ददा हमारे लालजी, वो कुल औगुन खंडित । तिन सुत धर्मचन्द मो पितु सब, शुभ जसमंडित ॥ तिनको दास कहाय, नाम मो वृन्दावन है। एक बात औ दोय पुत्र, मोकों यह जन है । महावीर है श्रात नाम, सो छोटो जानो। ज्येष्ठ पुत्रको नाम, अजित इमि करि परमानो ॥ मो लघु सुत है शिखरचन्द, सुंदर सुत ज्येष्ठको । इमि परिपाटी जानिये, कहो नाम लघु श्रेष्ठको॥ मंगसिर सित तिथि तेरस, काशीमें तब जानो। विक्रमाब्दगत सतरह से, नवविदित सुमानो ॥ * इस प्रशस्तिसे ऐसा जान पड़ता है कि, पहले इनके वशधर काशीमें ही है रहते थे। पीछेसे वारा चले गये थे, और वारासे फिर काशीमें रहने लगे। थे। हरिवशलाल और खुशहालचन्दमेसे हरिवंशलालका कुटुम्ब तो जोगराजजीकी पीढीतक काशीमें ही रहा है। परन्तु खुशालचन्दका कुटुम्व शायद स्थानान्तर कर गया था। और सवत् १७०९ में फिर काशी आ रहा था। कविवरके पिता बाबू धर्मचन्द्रजी काशीमें बाबरशहीदकी ग लीमें रहते थे। 1 हर्षका विषय है कि, कविवरका वंश आरामें अब तक विद्यमान है । KKHARA Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वंशवृक्ष। हरिवंशलाल खुशालचन्द सीताराम सहारूसाह लालजी हीरानन्दसाह धर्मचन्द राजाराम अभयराज उदयराज भोजराज जोगराज जीवनचरित्र। कविवृन्दावन महावीरप्रसाद अजितदास शिखरचन्द सुन्दरदास पुरुपोत्तमदास हरिदास शिरोमणि हनुमानदास गुलावदास महताव वुलाकचन्द. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R RRRRRRRNA कविवर वृन्दावनजीका यद्यपि उसकी आर्थिक अवस्था पूर्वकी नाई नहीं है, परन्तु साधारण लो गोसे कहीं अच्छी है। * कविवरके ज्येष्ठ पुत्र वावू अजितदासजीका विवाह आरामें बाबू मुन्नीलालजीकी सुपुत्रीसे हुआ था । मुन्नीलालजी आरामें एक प्रतिष्ठित धनी थे। वावू अजितदास प्रायः अपनी ससुरालमें आया जाया करते थे और पीछे वही रहने लगे थे। उसी समयसे उनका कुटुम्ब आरानिवासी हो । गया। आरामें रहते हुए उसे लगभग ६० वर्ष हो गये। * कविवरके दो पुत्रोमेंसे केवल अजितदासजीसे वशकी रक्षा हुई । शि। खरचन्दजीके कोई सन्तान नहीं हुई । अजितदासजीके सुन्दरदास, पुरु षोत्तमदास, और हरिदासनामके तीन पुत्र हुए थे । इन तीनोंका जन्म * आरामें ही हुआ था, जिनमें से सुन्दरदासके कोई सतान नहीं हुई । पुरुषोअत्तमदासके शिरोमणिवीवी नामकी एक पुत्री है, जो कि अभी जीवित हैं, और वावू हरिदासजीके हनुमानदास, गुलावदास, महतावदास, और। । वुलाकचन्दनामके चार पुत्र है। श्रीजीसे प्रार्थना है कि, उनका वश चिरकालतक ससारमें रहै, और उसमें अनेक प्रतिभाशाली कविरत्न उत्पन्न हों। __ वावू अजितदासजी भी अपने पिताके समान कवि थे । कविवर वृन्दावनजीने छन्दशतक नामका जो पिंगलका अन्य बनाया है, वह इन्हीके पढनेके लिये बनाया था। जैसा कि, उसकी प्रशस्तिमें लिखा है_अजितदास निज सुबनके, पढनहेत अभिनन्द । श्रीजिनन्द सुखकन्दको, रच्यो छंद यह वृन्द ॥ ___ कविवरकी इच्छा थी कि गोस्वामी तुलसीदासकृत रामायण सहन । * एक जैनरामायण वनाई जावे, तो ससारका बहुत उपकार हो । परन्तु * उनकी यह इच्छा पूर्ण न हुई । निदान मृत्युके ममय उन्होंने अपने पुत्रमे। कहा कि, जनरामायणको बनाके तुम मेरी एक इच्छाकी पनि मग्ना ।। हर्पका स्थान है कि, अपने पिताकी आजा शिगेधार्ग करके या अजितदासजीने जनरामायण बनाना प्रारम कर दी और उसके ७१ नगारी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनचरित्र। रचना भी कर डाली । परन्तु खेद है कि, असमयमें ही निर्दयी कालने । * उन्हें इस संसारसे उठा लिया। * आरामें बाबू हरिदासजीके पास उक्त रामायण सरक्षित है, और सुना है कि, बाबू हरिदासजी खय उसे पूर्ण करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। उन्हें * हिन्दीकी साधारण कविता करनेका अभ्यास है। कविवरके पिता बाबू धर्मचन्द्रजी काशीमें वावरशहीदकी गलीमें रहते थे। आप बडे भारी धर्मात्मा और गण्यमान्य पुरुष थे । आपकी शारीरिक सम्पत्ति ऐसी अच्छी थी कि, उस समय काशीमें शायद ही कोई उ-* नके समान वलवान हो । कहते हैं, आपको क्षेत्रपाल और पद्मावती दे-1 वीका इष्ट था। एकवार गोपालमन्दिरके अध्यक्ष जैनियोंके पचायती * मन्दिरका मार्ग बन्द करनेपर उतारू हो गये । एक दिन उन सबने रातभरमें मन्दिरके मार्गपर दीवार खडी कर दी ! दूसरे दिन जब * वाबू धर्मचन्द्रजी अपने द्वारपर बैठे हुए दातोंन कर रहे थे, तव व तसे जैनियोंने आकर कहा. "वाबू साहब! आपके रहते हुए पचायती मन्दिरकी राह बन्द कर दी गई। इसके सुनते ही धर्मचन्द्रजीका धार्मिक जोश भभक उठा। वे उसी समय दातोंन फेंककर उठ खडे हुए । जाकर । देखा, तो डेड़ पुरुष ऊची दीवार खड़ी हो गई है। क्रोधमें अपने आपेको । भलकर धर्मचन्द्रजी छलांग मारके दीवारपर चढ गये। और उसे लात से धूसोसे ही उन्होंने चकनाचूर कर डाली । ब्राह्मणोने वडा हल्ला मचाया । सबके सब लाठिया लेकर धर्मचन्द्रजीपर टूट पडे । परन्तु जव धर्मचन्द्रजी उनके सम्मुख लाठी लेकर और यह कहकर कि, " देखें, आज किसकी । माने भैसा जना है " खड़े हो गये, तव किसीका भी साहस न हुआ। इ-* नके पराक्रमको देखकर कोई एक हाथ भी न उठा सका । सबके सब अ-1 पनासा मुह लेकर कलेक्टरकी कोठीपर पहुचे । इधर धर्मचन्द्रजी भी घर *आ कपडे बदलकर साहब वहादुरसे जाके मिले और वारदातका सारा हाल वयान करके न्यायकी प्रार्थना करने लगे । साहव कलेक्टरने उसी * समय आज्ञा देकर जो इस मामलेमें शामिल थे, ऐसे दो हजार आ दमियोंको गिरफ्तार कराया और मुकदमा चलाया । अन्तमें वहुतसे आ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृन्दावनजीका दिमियोंको जैलकी सजा मिली और बहुतसे मुचलका लेकर छोड़ दिये गये । इन्हीं धर्मवीर धर्मचन्द्रजीके यहा कविवर वृन्दावनजीने जन्म लिया था। * कविवरकी माताका नाम सितावो और स्त्रीका रुक्मणि था जैसा कि, छन्दशतककी प्रशस्तिसे विदित होता है । रुक्मणि वडी धर्मपरायणा और पतिव्रता स्त्री थी। कहते हैं कि, उसे लिखना पढ़ना भी अच्छीतरहसे आता था। कविवरका अपनी पतिप्राणा भार्यासे अतिशय प्रेम था। प्रन्थप्रशस्तिमे उसका नाम प्रगट करना ही उनके प्रेमका एक यथेष्ट प्रमाण । है।छन्दशतकका मजुभाषिणी छन्दका उदाहरण, जान पड़ता है कि, उन्होंने * अपनी गुणवती भार्याका आदर्श सम्मुख रखकर ही बनाया था, प्रमदा प्रवीन बतलीन पावनी। दिवशीलपालि कुलरीति राखिनी। जल अन्न शोधि मुनिदानदायिनी। वह धन्य नारि मृदुमंजुमापिनी॥ खेद है कि, वर्तमानमें ऐसी स्त्रिया दुर्लभ हो गई हैं। रुक्मणिके पिताका घर अर्थात् वृन्दावनजीकी ससुराल काशीके ठठेरी बाजारमें थी। उनके श्वसुर एक बड़े भारी धनिक थे । उनके यहा उस समय टकसालका काम होता था। हमारे बहुतसे पाठक इस बातको जानते होंगे कि, पहले सरकारी टकसालें नहीं थी। महाजनोंकी टकसालों* में ही सिक्का तयार होता था। आजकलके समान उस समयकी गवर्नमेंट 1 सोलह आनेमें १० आनेका सिक्का देकर प्रजाकी प्रवंचना नहीं करती थी। " अतु, एक दिन एक किरानी अग्रेज कविवरकी ससुरालमें आया । उस समय वे वहीपर उपस्थित थे। उसने इनके श्वसुरसे कहा कि, "हम तुम्हारा कारखाना देखना चाहता है कि, उसमें कैसे सिके तयार होते हैं" * वृन्दावनजीने बतानेसे इनकार कर दिया, और अधिक बातचीत करनेपर उससे कह दिया, कि “जाओ तुम्हारे सरीखे बहुत किरानी देखे हैं।" पाठकोंको जानना चाहिये कि, प्रजाके हृदयमें उस समय अप्रेजोंका इतना । आतक नही था, जैसा कि आजकल है । उस समयके अग्रेज प्रजासे हि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनचरिन्न । लमिल कर रहनेकी कोशिश करते थे। परन्तु आजकल उनका मस्तक आसमानसे छू गया है । अब वे सर्व साधारणसे मिलनेमें घृणा प्रकाश करते हैं । प्रजा भी अब उन्हें एक हौआ समझती है। * दैवयोगसे कुछ दिन पीछे वही किरानी काशीका कलेक्टर होकर आया। उस समय हमारे कविवर सरकारी खजाची थे । साहब वहादुरने पहली मुलाकातहीमे इन्हें पहचान लिया और जीमें बदला चुकानेकी * ठान ली । वृन्दावनजी बहुत होशयारी और दयानतदारीसे काम करते थे। परन्तु जब अफसर ही दुश्मन बन गया था, तो कहा तक जान बचती। आखिर एक जाल बनाकर साहबने इन्हे तीन वर्षकी जैल दे दी। और इन्हें शान्तिपूर्वक उस अत्याचारको सहना पड़ा । उन दिनो जिलाका * मजिष्ट्रेट ही जिलाका राजा समझा जाता था और मनमानी नव्यावी कर * सकता था। फिर इनका न्याय अन्याय कौन पूछता था। ___ कुछ दिनके पश्चात् एक दिन सबेरे ही साहब कलेक्टर जैल देखने गये। उस समय हमारे कविवर जैलकी कोठरीमे पद्मासन बैठे हुए, "हे दीनबन्धु श्रीपति करुनानिधाननी । अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी।" - इस स्तुतिको बनाते जाते थे और भैरवीमें गाते थे। उनमें यह एक अपूर्व शक्ति थी कि, जिनेन्द्रदेवके ध्यानमें मम होकर वे धाराप्रवाह क*विता कर सकते थे। उन्होने दो लेखक इसी लिये नौकर रख छोडे थे कि-जो कविता वे वनावें, उन्हें लिख लेवें । परन्तु जैलकी कोठरीमें कौन था जो लिख लेता? भगवानकी स्तुति करते समय वे सिवाय भगवानके और किसीको नहीं देखते थे। गाते समय उनकी आसोंसे आस वह रहे थे । साहब बहुत देर उनकी यह दशा देखते रहे और कोठरीके पास खडे रहे। उन्होंने “खजाची बाबू ! खजाची चावू!" कहकर कई बार पुकारा, परन्तु कविवरकी समाधि नहीं टूटी । निदान साहब बहादुर अपने आफिसको लौट गये। थोड़ी देरमे एक सिपाहीके द्वारा यु* लवाकर उन्होंने पूछा, "तुम क्या गाटा था, और रोटा था। ' कविव-y Iरने उत्तर दिया, " अपने भगवानसे तुम्हारे जुल्मकी फरियाद करता। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृन्दावनजीका था!" तव साहबने कहा, “तुम क्या कहटा था, हम सुनना चाहटा । है।" इसपर कविवरने सारी विनती साहवको पढ़कर सुनाई और उसका अर्थ भी समझाया, जिससे पाषाणहृदय अग्रेजका हृदय भी पिघल गया। उसने उसी समय तीन वर्षकी जैलको एक महीनाकी कर दी । और कहा, एक मास पूर्ण हो जाने दो, दो चार दिन बाकी है । इस वीचमें। * आप दिनभर चाहे जहा रहैं, परन्तु रातको जैलमें आकर सो रहा करें। कविवरकी इसी घटनासे "हे दीनबंधु श्रीपति" की विनतीका माहात्म्य इतना बढ़ गया कि, आज वह सारे जैनसमाजमें घर घर गाई जाती है। * और संकटमोचनस्त्रोत्रके नामसे प्रसिद्ध हो गई है। जैल जानेकी घटनाके कविवरकी कवितामें बहुतसे प्रमाण मिलते हैं, जिनमेंसे हम थोड़ेसे यहा उद्धृत करते हैं: "अव मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है। * इन्साफ करो मत देर करो, सुखवृन्द भरो भगवाना है ।" (पृष्ट २) "वृषचन्दनन्दवृन्दको, उपसर्ग निवारो।" (पृष्ठ २०) । "इस वको जिनभक्तको, दुख व्यक्त सतावै। ऐ मात तुझे देखके, करुणा नहीं भावै ॥" "बे जानमें गुनाह मुझसे बन गया सही, ककरीके चोरको कटार, मारिये नहीं ॥" "अब मो दुख देखि द्रवी करुणानिधि,राखहु लाज गहौ मम हाथा ॥" "क्यों न हरौ हमरी यह आपति" इन सब कविताओसे प्रत्येक पुरुष अनुमान कर मकना है कि, अबश्य ही किसी सकटके समयमें उन्होंने ये उदार निकाले है। निम्नलिखिन पद्योसे तो विलकुल ही स्पष्ट हो जाता है कि, वे लकी विपतिमें पर। "श्रीपति मोहि जान जन अपनो, हरो विधन दुख दारिद जेल।" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनचरित्र । "हमें आपका है बड़ा आसरा । सुनो दीनके बंधु दाता वरा।। नृपागारगतिते काढ़िये । अमैदान आनंदको बाढिये ॥" * ऐसा जान पडता है कि, इस ग्रन्थमे जितने स्तोत्र हैं, वे प्रायः सब कारागृहमें बनाये गये है। सबमें उनके हृदयके अपार दुखकी झलक दिखलाई देती है, जिससे पाषाणहृदयमें भी करुणाका प्रादुर्भाव होता है। * काशीके राजघाटपर फुटही कोठीमे एक गार्डन साहव सौदागर रहते है। *थे । उनकी एक बड़ी भारी दूकान थी। सुनते हैं, कुछ दिनो आप उनकी । दूकानका काम करते रहे हैं। एक प्रकारसे आप उनके मैनेजर ही थे। कारखाने में भी कागज पेंसिल आपके साथ रहती थी। आप कामकी र देखभाल करते जाते थे और कविता भी रचते जाते थे । कविता करनेकी शक्ति उनमें ऐसी अद्भुत थी कि, देखने सुननेवाले आश्चर्य करते थे। बात *करते २ वे सुन्दर कविता करके लोगोंका मन हरण कर लेते थे। । कहते हैं, आप जब जिनमन्दिरमें दर्शन करने जाया करते थे, तव निस नवीन स्तोत्र बनाकर दर्शन करते थे। लेखक उनके निरन्तर साथ रहता था, जो उस कविताको तत्काल ही लिख लेता था। सुनते है, दे वीदासजी जिनके थोड़ेसे पद इस ग्रन्थमें सग्रह किये गये हैं, उनके यहा 1 इसी कार्यपर नियत थे । देवीदासजीसे आपका विशेष सौहार्द था । अ नेक पदोंमें वृन्द और देवीका एकत्र नाम देखकर इस बातमे कोई स-1 केन्देह नहीं रहता । कोई २ कहते हैं कि, हमारे कविवर ही अपना नाम * कभी २ देवीदास लिखते थे, क्योंकि उन्हें पद्मावती देवीका इष्ट था।परन्तु १ यह पथ श्रीललितकीर्ति भट्टारककी चिट्ठीमें लिखा है । इससे सन्देह होता है कि, यह पत्र क्या उन्होंने कैदखानेमेसे लिखा था ! पत्रके प्रारममें जो विषय लिखा है, उससे इस पथका तथा इसके ऊपरके सारवती छन्दका सम्बन्ध नहीं मिलता है। कहीं ऐसा न हो कि, किसी स्तोत्रमेंके ये पर हों और चिट्ठी नकल करनेवाले महाशयने भूलसे चिट्ठीमें शामिल कर लिये हों। इन पोंके "दीनके बंधुके दातावरा" आदि सम्बोधन भी जिनदेवके जान पड़ते हैं। जो हो, यदि निश्चय ही जेलखानेमें यह पत्र लिखागया है, तो इस बातका पतारग जाता है कि, सवत् १८९१ में कविवरको 'नृपागारगर्तमें पड़ना पड़ा था। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ कविवर वृन्दावनजीका यह केवल एक प्रम है। क्योंकि यदि ऐसा होता, तो कहीर एकही पदमें देवी और वृन्द दो नाम नहीं लिखे जाते। * देवीदास नामके अनेक कवि हुए हैं। परन्तु अनुसंधान करनेसे विदित हुआ कि, वृन्दावनजीके समयमें उनमें कोई भी नहीं हुए हैं। हमारे कविवरके साथी देवीदासजी भी कवि थे, परन्तु अभीतक उनका कोई खतन । प्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ। काशीके शास्त्रभडारमें जहासे किहमने यह ग्रन्थ संग्रह किया है, कविवर देवीदासजीकृत प्रवचनसारग्रन्थ मिला था, जिससे । हमने समझा था कि, ये ही कविवर वृन्दावनके साथी देवीदासजी होंगे। * परन्तु उसकी प्रशस्ति देखनेसे यह अनुमान ठीक नहीं निकला । प्रवचन* सारके कर्ता देवीदास ओरछा राज्यके अन्तर्गत दुगोडा प्रामके रहनेवाले गोलालारे खरौवा जैनी थे। उन्होंने सवत् १८२४ में उक्त ग्रन्थ बनाया * था। परमानन्दविलास नामका ग्रन्थ भी शायद उन्हीं देवीदासका बनाया हुआ है। * आराके वृद्ध पुरुषोंके द्वारा विदित हुआ है कि, वृन्दावनजीका शरीर सर्व था। अर्थात् न लम्बे न नाटे साधारण कदके पुरुष थे। रंग गेहुँ-१ आ था । धोती मिरजई और पगड़ी यही आपकी साधारण देशी पोशाक थी। कभी २ आप टोपी भी लगाते थे। मृत्युके ५-७ वर्ष पहलेसे । वे उदासीन वृत्तिमें रहने लगे थे। इस लिये केवल एक कोपीन और चा दर ये दो ही वन रखने लगे थे। जूता पहिनना भी छोड़ दिया था। * कविवरको कहते हैं, युवावस्थामें केवल एक भग पौनेका व्यसन था। । उसके गुलाबी नशेमें आप धाराप्रवाह कविता किया करते थे। आपकी गुप्तदान करनेके विषयमें बड़ी भारी ख्याति थी। अनाथं दीन दुखियोंके आप परमबन्धु थे। है आपका खभाव बहुत शान्त था । आरामें एक शीतलगिरि नामके * सन्यासी एकबार आये थे। आप उनसे मिलने गये, तो मैले पैरो ही उनके विछौनेपर चले गये । इससे साधुमहाराजका मिजाज गरम हो गया। तब कविवरने कहा कि, "वाह ! नाम शीतलगिरि और काम ज्वालामुखीका !" यह सुनकर सन्यासीजी लजित हो गये। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनचरित्र । १५ __ आरामें आप प्रायः आया जाया करते थे । वहाके बाबू परमेष्ठीदासजीसे आपका विशेष धर्मस्नेह था । उन्हें कवितासे अतिशय प्रेम था । अध्यात्मशास्त्रों के ज्ञाता भी आप खूब थे। इनके विषयमें कविवरने प्रवचनसारमें लिखा है, संवत चौरानमें सुभाय । भारतें परमेष्ठीसहाय ॥ अध्यातमरंग पगे प्रवीन कवितामें मन निशिदिवस लीन ॥ सज्जनता गुन गरुवे गंभीर । कुल अग्रवाल सुविशाल धीर ॥ ते मम उपगारी प्रथम पर्म । सांचे सरधानी विगत मर्म ॥ * आराके वाबू सीमधरदासजीसे भी आपकी धर्मचर्चा हुआ करती थी। सवत् १८६० में जब कविवर काशीमें आये थे, उस समय वहा जैनधर्मके ज्ञाताओकी अच्छी शैली थी। आवृतरामजी, सुखलालजी सेठी, वकसूलालजी, काशीनाथजी, नन्हूंजी, अनन्तरामजी, मूलचन्दजी, गोकुलचन्दजी, उदयराजजी, गुलावचन्दजी, भैरवप्रसादजी अग्रवाल, आदि अनेक सज्जन धर्मात्माओंके नाम कविवरने अपने अन्योंकी प्रशस्तिमें दिये। है। इन सबकी सतसगतिसे ही कविवरको जैनधर्मसे प्रीति उत्पन्न हुई थी। 1 और इन्हींकी प्रेरणासे ग्रन्थोके रचनेका उन्होंने प्रारम किया था । बाबू सुखलालजीको तीस चौवीसीपाठकी प्रशस्तिमें कविवरने अपना गुरु बतलाया है: "काशीजीमें काशीनाथ भूलचन्द नंतराम, नहूंजी गुलाबचन्द प्रेरक प्रमानियो। तहां धर्मचन्दनन्द शिष्य सुखलालजीको, वृन्दावन अग्रवाल गोलगोती वानियो ।" बाबू उदयराजजी लमेचूसे कविवरकी अतिशय प्रीति थी । अपने प्र-1 न्थोंमें उन्होंने उनका बड़े आदरसे सरण किया है. "सीताराम पुनीत तात, जसु मातु हुलासो। ज्ञाति लमेचू जैनधर्मकुल, विदित प्रकासो॥ तसु कुल-कमल-दिनिंद, प्रात मम उदयराज वर । अध्यातमरस छके, भक जिनवरके दिढ़तर ॥" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कविवर वृन्दावनजीका __उदयराजजी काशीके एक प्रसिद्ध धनिक थे। काशीमें "खड्गसिंह उदयराजजी के नामसे अवतक उनकी दूकान चलती है। परन्तु खेद है कि, उनके वशमें अब कोई नहीं हैं। उनके वडे वेटे वाबू राजाजी और * छोटे बेटे बावू लक्ष्मीचद्रजीकी दो विधवा स्त्रिया हैं । कुछ दिन हुए उन्होने से * एक वालक गोद लिया है। परन्तु सुनते है कि, उनके नातीकी तरफसे । | उनके दामादने खय वारिस बननेके लिये मुकद्दमा दायर किया है। यह खेदकी बात है। काशीजीके मेलपुरे मुहल्लेमे उदयराजजीका वनवाया। हुआ एक वडा मन्दिर तथा उनके घरपर बना हुआ एक मुदर चैत्यालय * उनके धर्मप्रेमको आजतक प्रगट कर रहे हैं। * कविवरके छोटे भाई बाबू महावीरप्रसादजीको भी जिनशासनके साथ । • अटूट प्रेम था । भेलपुरेके मन्दिरोंके विषयमें आप कई मुकदमे लड़े थे। * यह उन्हींके परिश्रमका फल है कि, श्वेताम्वरियोंके मन्दिरमें दिगम्वरी * मूर्ति स्थापित है, किन्तु दिगम्वरी मन्दिरमे एक भी श्वेताम्बरी मूर्ति नहीं है। * कविवरको मत्रविद्यापर बहुत विश्वास था। काशीके पुस्तकालयमें इस ग्रन्थके प्रकाशकने कविवरके हाथकी लिखी हुई एक पुस्तक देसी थी, जिसमें सैकडों मत्रोका सग्रह है। और उनमेंसे अनेक मत्रोपर इम। प्रकार लिखा हुआ है, "यह मन बहुत प्राभाविक है, इमे हमने स्वय सिद्ध करके देखा है"। "यह हमारे एक मित्रने मिन किया है।" "यह * अमुक पुरुषने हमको लिखवाया था, उसने बहुत प्रगसा की थी। परन्तु * हमने सिद्ध नहीं किया।" "इससे अमुक कार्य होता है, इसने अमुक 1 उपद्रव होते हैं" इत्यादि । इससे उनके मत्रज्ञ होनेमें किमप्रिराररा रा. पन्देह शेप नहीं रहता है। * मत्रादि प्रयोगोपर कविवरका दृढ़ विधान था। इसके लिये इतना ही प्रमाण वहुन है कि, उन्होंने भटेनी सुपार्थनायरा मुरादमा जनने Y लिये तथा हायरममें विधर्मियोश निरस्कार होने के लिये जमेर लालीन भधारक श्रीललितसतिजींग प्रार्थना की थी कि, मसिन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जीवनचरित्र । आप कोई मत्र प्रयोग करें। (देखो पृष्ठ ११२-१३) और उनके विश्वाXससे उक्त दोनो कायोमें सफलता भी हुई थी। * अपने पिताके समान कविवर भी पद्मावती देवीके भक्त थे। सुनते हैं, उन्हें पद्मावती देवी सिद्ध भी हो गई थी। पद्मावती स्तोत्रसे उनकी पद्मावतीके विषयमे जो भक्ति थी, वह अच्छी तरहसे प्रगट होती है। निििमत्तज्ञानपर भी उन्हें विश्वास था, जिसके लिये उनकी बनाई हुई अई.. त्यासाकेवली प्रमाण है। उसमें उन्होंने लिखा है “जिनमार्गमें यह वडा निमित्त है । इसे हमने लिखा है कि, अपना वा पराया उपकार होय।" * वृन्दावनजीका जन्म संवत् १८४८ में हुआ था, और १८६३ में अअर्थात् केवल १५ वर्षकी अवस्थामें उन्होंने प्रवचनसारका पद्यानुवाद करना प्रारंभ कर दिया था। इससे पाठक जान सकते हैं कि, छुटपनहीसे । उनकी बुद्धि कैसी प्रखर थी । इसीसे हमने कहा है कि, उन्हें देवदत्त प्रतिभा थी। जो कविता नानाप्रन्थोके अभ्याससे प्राप्त होती है, वह ऐसी *अच्छी नहीं होती, जैसी देवदत्त प्रतिभा होती है। उसे बहुत अभ्यासकी आवश्यकता नहीं होती है। किंचित् कारण मिलनेसे वह प्रस्फुटित हो उठती है । महानुभाव पडित टोडरमलजीका पाडिल भी ऐसा ही सुना जाता है । कहते है कि, जिन पडितजीके पास टोडरमलजी विद्याभ्यास करते थे, वे पाठ पढ़ाते समय कहते थे, "भाई ! तुम्हे क्या पढाऊ ? जो बतलाता हू, वह तुम्हारे हृदयमें पहलेही उपस्थित देखता हू!" * यह जानकर पाठकोंको आश्चर्य होगा कि, वृन्दावनजी सवत् १८८०१ तक संस्कृत नहीं जानते थे । पडितेन्द्र जयचन्द्रजीको चिट्ठीसे (पृष्ट १३२) यह वात स्पष्ट हो जाती है। उसमें उन्होंने सारखत व्याकरणके भाषानुवाद करनेके विषयमें लिखा है कि, “आप वहीं काशीमें किसीसे सारखतचन्द्रिका पढ़ लेना । उससे वोध हो जावेगा। परन्तु इसके पहले १ उन्होंने जो ग्रन्थ बनाये है. और उनमें विशेष करके चौवीसीपाठके प्रा रंभके नामावली स्तोत्रमे संस्कृत शब्दोका जैसा समावेश किया है, उमे। * देखकर यह कोई नहीं कह सकता है कि, वे मस्कृत नहीं जानने थे। मस्कृतके पढ़े विना भाषाका ऐसा अच्छा ज्ञान सचमुच ही आश्चर्यकारक है। 个产罕容产夺产卒卒夺婆夺产卒卒于产卒卒卒个产卒卒产个产个个产容 3 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ कविवर वृन्दावनजीकी जान पाता है कि, पंडिनप्रवर जयचन्द्रजीकी सम्मति के अनुसार हम मारे कविवग्न गनरा व्याकरण शीघ्र ही पढ लिया था। क्योंकि अहं.. त्यासाकेवली नामकी पोथी जो बहुत करके सवत् १८९१ में बनाई गई। है, पति विनोदीलालजीकृत संस्कृतकी मूल पुस्तकका पद्यानुवाद है।इसके सिवाय उनानजो सवन् १८८४की जेठयदी ५कोजयपुरके मुप्रसिद्ध दीवान है। अमरचन्द्रनीको पत्र लिखा था, उसमें प्रथम श्लोक संस्कृतमें लिखा है.-1 "प्रणम्य निजगढन्य जिनेन्द्रं विनसूदनम् । लिण्यतेऽदो वरं पत्रं मित्रवर्गप्रमोददम् ॥" और उराका उत्तर जो अमरचन्दजीने भेजा है, वह भी सव सस्कृतमें। भेजा है। यदि ये गस्कृतज्ञ न होते, तो उन्हें पत्रोत्तर भाषामें ही लिखा। जातासिस्कृतज्ञ होनेका एक तीसरा प्रमाण यह है कि, उन्होंने मथुरानिवासी। पंडित चम्पारामजीसे आदिपुराणके यज्ञाधिकारकी खडान्वयी संस्कृत टीका बनवाके मगवाई थी। जैसा कि, उनकी सर्वत् १८९५ की लिसी हुई चिठीसे विदित होता है। "जज्ञाधिकार जिन आदिपुराणजीका । खण्डान्वयी सुगम तासु प्रबुद्ध टीका । हे मित्र मोहि भति शीघ्र बनाय ठीका । भेलो जिसे पढत भ्रांति मिटै सुहीका ॥" * १ अहल्पासाकेवळीकी जो प्रति हमारे पास है, उसमें लिखा है संवत्सर विक्रम विगत, चन्द्र रंध्र दिगवन्द । माघ कृष्ण आउँ गुरू, पूरन जयति जिनन्द ॥ ___ इसमें 'र' शब्दका अर्थ सन्देहयुक्त है। यदि रंधका अर्थ नव माना जावे, तो उक्त पोयी १८९१ की बनी ठहरती है । परन्तु इसी दोहेके नीचे सवत् । 1 १८८५ माघ शुक्ला चतुर्दशी लिखा है। जिससे अम होता है कि, कहीं रका ! अर्थ आठ न होता हो । क्योंकि बननेके पीछे पुस्तककी प्रति लिखी गई होगी। पहले नहीं जो हो, परन्तु इतना निश्चय है कि, पासाकेवली १८८० के पश्चा तकी बनी हुई है, जब कविवर सरकत हो चुके थे। * २ इस चिट्ठीमें भी रम शब्द दिया है, जिससे आठ नवका अम होता है। RPARMATHAKHARMA मा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनचरिन। 4-01-3-3 --.".+2 --- - ----- - नग्रन्पो उनाने पीछे पढा भी था. जो कि, उनकी "आदिपुराणतुति "मे विदित होता है । उसमें लिखा है, जिनमेनाचारज फविंदने, यह पुराण भाखा अघहानन। * वृन्दावन ताको रस चासत, जो सब निगमागमको आनन ॥", नसन प्रमाणोसे कविवर पीछेसे सस्कृतके ज्ञाता होगये थे, इस विपयमे अब कोई सन्देह नहीं रहता है। कविवर वृन्दावनजीके समयमें जयपुरमें सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानार्णव आदि अनेक ग्रन्थोके भापाटोकाकार पडित जयचन्द्रजी, उनके पुत्र कविवर नन्दलालजी, पडित मन्नालालजी, प्रजाके लिये अपने प्राणोंका उत्सर्ग-कर। देनेवाले दीवान अमरचन्द्रजी,मथुरामें आदिपुराणके संस्कृत टीकाकार प० चम्पारामजी. शेठ लक्ष्मीचन्द्रजी, और प्रयागमे अजमेरवाले विद्वान् भधारक । श्रीललितकीर्तिजी, आदि गण्यमान्य पुरुप जीवित थे। इनमेंसे अनेक महाशयांके साथ कविवरका पत्रव्यवहार हुआ करता था । थोडेसे पत्र जो हमको काशीम प्राप्त हुए है, वे इस प्रन्थमें प्रकाशित किये जाते हैं। उनसे उस समयकी बहुत ही बातें विदित होगी । यदि कविवरके कुटुम्बी जन परिश्रम करे और इस ओर ध्यान देवें, तो उनके सप्रहमें वीसो पत्र प्राप्त हो सकते हैं, जिनसे उस समयकी एकसे एक अपूर्व बातें मालूम हो । * मकती है। । कविचरके समयमें तेरहपथ और गुमानपथका उदय हो चुका था। * कविवर वीसपथी आनायके धारक थे। परन्तु उस समय सर्व साधार।णके किंबहुना विद्वानोके हृदयमें पथोके ऐसे झगड़े नही थे, जैसे कि आ*जकल होते है । पडित जयचन्द्रजीके इस विषयमें कैसे सुन्दर विचार थे, वे उनकी चिट्ठी पढनेसे विदित हो सकते हैं। और वृन्दावनजीके कैसे विचार थे, वे उनकी पद्मावती स्तोत्रके नीचे दी हुई टिप्पणीसे प्रगट होते * है। यदि आजकलके विद्वान् तथा साधारण बुद्धिवाले सजन उक्त दोनो। १जैनमहासमाके भूतपूर्व सभापति राजा लक्ष्मणदासजीके पिता। वे भी वैष्णव * मतके उपामक बने हुए थे। कविवरने उन्हें 'जिनगुनमम करनेके लिये चम्पा रामजीको लिखा था। RKKARKAR Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृन्दावनजीकी तेरहपथी और वीसपंथी पडितोंकी सी मध्यस्थबुद्धि धारण करके पं-1 थोंके झगड़ोंसे उदासीन रहैं, तो समाजका बहुत कुछ कल्याण हो। सकता है। __ कविवरके समयकी दो घटनायें जानने योग्य हैं। एक तो भदैनी - पार्श्वनाथके विषयमें श्वेताम्बरियोका उपद्रव और दूसरा हाथरसके रथको रोकनेके लिये वैष्णवोंका किया हुआ विघ्न । पहली घटनासे यह जान पडता है कि, श्वेताम्बरी भाइयोकी तीथाके विषयमे दिगम्बरियोंके प्रति जो कृपा रहती है, वह बहुत दिनोंसे है । दिगम्वरियोंको प्रमादमें पड़े हुए * पाकर प्रत्येक तीर्थपर इसी तरहसे उन्होने अपने अड्डे जमा लिये है । और यह प्रयत्न कई सौ वर्षसे उन्होंने जारी कर रक्खा है. ऐसा जान * पड़ता है। आपसके लड़ाई झगड़ोंके कारण देश वर्तमान दुर्दगाको प्राप्त हो गया है, तो भी उनके प्रयत्न वन्द नहीं होते हैं। वृन्दावनी लिखते । है कि, "काशीजीसे दिगम्वरियोंका तीर्थ उठानेके लिये श्वेताम्बरियोंने । बड़ा भारी उपद्रव मचाया था। पहले काशीकी अदालतमें मुकद्दमा हुआ * था, उसमें हार जानेपर अपील की थी, और उसमें भी हार होनेसे आखिर उन्होने इलाहावादकी हाईकोर्टमें बड़े जोर और प्रयत्नके साथ अ-1 पीलकी कार्रवाई की थी।" परन्तु आखिर साचको आच नहीं आई। दिगम्बरियोंकी ही विजय हुई। दूसरी घटना हाथरसके रथकी है । इसमे । दौलतरामादि मिथ्यातियोंने वड़ा भारी विन किया था। परन्तु आगरे । हाकिमने यात्रा होनेके लिये माज्ञा दे दी थी। पीछेसे उन लोगोने भी प्र* यागकी अदालतमें नालिश की थी। परन्तु सुनते हैं कि, उसमें भी बनि* योकी विजय हुई थी। इसके पीछे अभी थोड़े ही वर्ष पहले सवत् १९४९ के मेलेमें भी हाथरसके मित्रर्मियोने रथयात्रामें विघ्न उपस्थित क्यिा Y था। और उसमें भी वैष्णवोंको नीचा देखना पड़ा था। यह बात सब । लोगोंने सुनी ही होगी। " कविवर वृन्दावनजीका देहान्त कब कहा और किस प्रकारसे हुभा,, इस वातका कुछ भी पता नहीं लगा, यह खेटका विषय है। उनकी सबमे । अन्तिम कृति प्रवचनसार है, जो विक्रम संवत् १९०५ में पूर्ण हुई थी। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्यरचना। । उसके पीछेकी उनकी कोई भी कविता प्राप्त नहीं हुई। उस समय उनकी । अवस्था ५७ वर्षकी थी। इसके पश्चात् उन्होने और कितनी आयु पाई, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है। - ग्रन्थरचना। प्रवचनसार, तीसचौवीसीपाठ, चौवीसी पाठ, छन्दशतक, अर्हत्पासा1. केवली, और फुटकर कविता (वृन्दावनविलास) ये छह अन्य कविवर । वृन्दावनजीके बनाये हुए प्राप्त हुए हैं। इनके सिवाय बहुत करके एक समवसरणपूजापाठ भी उनका बनाया हुआ होगा। क्योकि सवत् १८९१ में उनकी इच्छा उक्त ग्रन्थके रचनेकी हुई थी और उसके विषयमें श्री ललितकीर्ति भट्टारकसे उन्होंने अपनी चिट्ठीमें बहुतसी वाते पूछी थी। । उन्हे लालजीकृत समवसरण पाठ पसन्द नही था। उसकी एक चिट्ठीमे, उन्होने अच्छी समालोचना की है। वे आदिपुराण और हरिवशपुराके कथनके अनुसार उक्त ग्रन्थकी रचना करना चाहते थे। परन्तु अभीतक यह ग्रन्थ कही देखने सुनने में नहीं आया । यदि होगा, तो कविवरके वशधरोके ही पास होगा। सभव है कि, उनके पास कविराजके और भी कोई दो चार अपूर्व ग्रन्थ हों। प्रवचनसार। * कविवर वृन्दावनजीने जितने ग्रन्थ बनाये हैं, उनमे सबसे अच्छा, उ नकी कीर्तिको चिरकालतक स्थिर रखनेवाला, और भाषा काव्यका गार। "खरूप यही ग्रन्थ है । जिसने इस ग्रन्थको देख लिया, उसे कविवरके : । अन्य ग्रन्थ देखनेकी आवश्यकता नहीं है। उनकी प्रतिभाका सर्वख इ-1 सीमें है । उसके वनानेमें उन्होंने परिश्रम भी सबसे अधिक किया है। * दूसरे प्रन्थ उन्होने लीलामात्रमें बना दिये हैं, परन्तु इसे तीन वार परि श्रम करके बनाया है। पहलीवार सवत् १८६३ में प्रारभ करके १९०५ * में तीसरीवार इसे पूर्ण किया है । अर्थात् ४२ वर्षकी कवित्वशक्ति और । 1 अनुभवका निचोड इसमें भरा गया है। इस परसे पाठक विचार कर स-1 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ कविवर वृन्दावनजीकी कते हैं, कि यह ग्रन्थ कैसा अच्छा बना होगा। उपर्युक्त वातकी सलताके लिये प्रवचनसारकी प्रशस्तिमें लिखा है कि; "संवत विक्रमभूप, ठार सौ नेसठमाहीं। यह सब बानक बन्यो, मिली सतसंगति छाहीं॥ तब श्रीप्रवचनसार, ग्रन्थको छन्द बनावों। यही आस उर रही, जासते निजनिधि पावों ॥ तब छन्द रची पूरन करी, चित न रुची तब पुनि रची। सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकांतरससों मची।" तथा हि चार अधिक उनईस सौ, संवत विक्रमभूप । जेठ महीनेमें कियो, पुनि आरंभ अनूप ॥ पांच अधिक उनईस सौ, धवल तीज वैशाख । यह रचना पूरन भई, पूजी मन अभिलाख ॥ प्रवचनसार ग्रन्थ हमारे सम्प्रदायका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें निश्यचारित्रका वर्णन है। इसके मूलका श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य और संस्कृतटीकाकार श्रीअमृतचन्द्रसूरि हैं। आगरानिवासी पांडे हेमराज जीने उक टीकाके अनुसार एक उत्तम भापाटीका वनाई है और ह.. * मारे कविवरने उक्त तीनो अन्योंके अनुसार इस ग्रन्थी पद्यवद्ध रचना। की है। जिसप्रकारसे नाटकसमयसारकी पद्यरचना करके वनारसीदासजीने भाषासाहित्यको एक रत्नसे आभूषित किया था, उसीप्रकारसे यह ! ग्रन्थरत्न भी भापा कविताके हृदयका हार बन गया है। अन्तर केवल इ। तना है कि, नाटकसमयसारकी प्रसिद्धि अधिक हो गई है, और यह अ* भी तक गुप्त है । वनारसीदासजीने जो पद्यरचना की है, वह विशेष ख तत्रतासे की है, परन्तु इस ग्रन्थमें यह बात नहीं है । इसे मूल अन्धी पद्यवद्ध टीका कहे, तो कुछ अनुचित नहीं होगा। क्योकि इसमे टीका- 1 आके किसी भी विपयको नहीं छोड़ा है। हर्षका विषय है कि, उक्त प्र. न्याछपना प्रारंभ हो गया है। वह बहुत जल्दी पाठकोंके दृग्गोचर होगा। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यरचना। मूल प्रवचनसार अन्य कैसा अपूर्व है, यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है। और उसकी प्रशसा करनेकी हमारी शक्ति भी नही है। इसकी उत्त मता वही जान सकते हैं, जो इसके मर्मको समझनेकी शक्ति रखते हैं। * ग्रन्थकी उत्तमतापर मोहित होकर वाम्वे यूनिवर्सिटीने अपने एम् ए. के कोर्समें इसे स्थान दिया है। और इसी उत्तमतापर मुग्ध होकर कविवर वृन्दावनजीने इसका पद्यानुवाद किया है। । अनुवाद कैसा सुन्दर हुआ है, यह जाननेके लिये हम थोडेसे पद्य जो सवकी समझमे आ सकें, यहां उद्धृत कर देते है। आगम ज्ञानरहित जो मुनिवर, कायकलेश करै तिरकाल। ताको खपरभेद नहिं सूझत, आगम तीया नयन विशाल ॥ तब तह भेदज्ञान बिन कैसे, चलै शुद्ध शिवमारग चाल। सो विपरीतरीतकी धारक, “गावत तान ताल बिनु ख्याल" ॥ तत्त्वनमें रुचि परतीत जो न आई तो धौ, कहा सिद्ध होत कीन्हें मागम पठापठी। तथा परतीत प्रीत तत्वहूमें आई पै न, त्यागे रागदोष तौ तो होत है गठागठी ॥ तबै मोक्षसुख वृन्द पाय है कदापि नाहि, तातें तीनों शुद्ध गहु छांडिके हाहठी। जो तू इन तीन बिन मोक्षसुख चाहै तौ तो, "सूत न कपास करै कोरीसों लालठी" जाके शुद्ध सहज सुरूपको न ज्ञान भयो, __ और वह आगमको अच्छर रटतु है। ताके अनुसार सो पदारथको जानै सर, __धान नौ ममत्व लिये क्रियाको अस्तु है ।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृन्दावनजीकी। . तहां पुन्व खिरै नित नूतन करम बंधै, ___ "गोरखको धंधा" नटबाजीसी नटतु है। "आगेको वटत जात पाछे बाछरू चवात, जैसे हगहीन नर जेवरी वस्तु है।" जाने निज आतमाको जान्यो भेदज्ञान करि, इतनो ही भागमको सार हंस चंगा है। ताको सरधान कीनो प्रीतिसों प्रतीति भीनों, ताहीके विशेपमें अभंग रंग रंगा है। बाहीमें विजोगको निरोधिकै सुधिर होय, तबै सर्व कर्मनिको क्षपत प्रसंगा है। मापुहीम ऐसे तीनों साधे वृन्द सिद्धि होत, जैसे "मन चंगा तो कठौतीमाहि गंगा है।" जिसके तन आदि विपै ममता, वरतै परमानहुके परमानी। तिसको न मिलै शिव शुद्ध दशा, किन हो सब आगमको वह ज्ञानी। अनुराग कलंक अलंकित तासु, चिदंक लस हमने यह जानी। जिमि लोक विप कहनावत __ "यह तांत यजी तय राग पिलानी।" ज्यो पारस संजोगते. लोह कनक जाय । गरल अमियमम गुन घरत, राम मंगान पाया जसे लोहा पाठमंग, दुध मागर पार । तसे अधिक गुनान मंग, गुन तिर Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ग्रन्थरचना। ज्यों मलयागिरिक विपै, बावन चंदन जान । परसि पौन तसु और तरु, चंदन होहिं महान ॥ देख कुसंगति पायकै, होहिं सुजन सविकार । __ अगनिजोग जिमि जल गरम, चंदन होत अंगार ॥ श्रीचनुर्विशतिजिनपूजा। जैन समाजमे इस ग्रन्थकी बहुत प्रसिद्धि है। आजतक किसी भी पूजा पाठकी इतनी प्रसिद्धि नहीं है, जितनी कविवर वृन्दावनजीकृत चौवीसी पाठकी है । यह वना भी ऐसा अच्छा है कि, भजनप्रेमी लोगोंके हृदयका । हार बन गया है। । इस ग्रन्थके बननेके विपयमें एक आश्चर्यजनक किंवदन्ती प्रसिद्ध है। कहते हैं कि, एक वार पश्चिमकी ओरसे जनयात्रियोका बड़ा भारी संघ आया था, और भेलपुरामे आकर ठहरा था। उसमेंके कुछ सजन वृन्दावनजीमे मिले और इस बातका जिकर किया कि, कल कोई नवीन पाठ । । किया जावे, तो वहुन आनन्द हो । इसके उत्तरमें कविवरने कहा, "व हुत अच्छा, कल नवीन पाठ ला दूगा," और घर आकर रातभरमें इस। * पाठकी रचना कर डाली। दूसरे दिन यात्रियोके हाथमें अन्य दे दिया। तदनुसार उन्होंने बड़े उत्सवके नाप नृत्यगायनपूर्वक चौवीसी पूजन करके - अपने जन्मको सफल किया। अनेक लोगोका दम विषयमे ऐमा कथन है। कि, कविवरने पहले एक यग विस्तृत चौवीसी पाठ बनाया था, जिसके करनेमें यई दिन गने थे। यात्रियोंके कहने से उमी पायो रातभरने । सरोच करके इस डोटे पाटगे रचना की थी। जो हो. परन्तु इसमें ससन्देद नहीं : बिसरियाली कवित्वशक्ति यहुन विचित्र थी । उम्पर दिगार परनेसे उत्सविन्तियाणे असल म्हनेग साहम नहीं होता। * नागोपाट मानिन उमफे बनाने समय नीं है। परन्तु : भाजी राय ली निमें जिमपान सिमने चासोपाट उ. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRRRRRRKAR कविवर वृन्दावनजीकी +२६ पवाया है, “ सवत् अठारहसौ पचहत्तर १८७५ कार्तिककृष्णा अमावस्या गुरुवारको यह पुस्तक पूर्ण भया । लिखित वृन्दावनेन निजपरोपका रार्थम्।" इस प्रकार लिखा है। इससे स्पष्ट है कि, सवत् १८७५ में इस * ग्रन्थकी रचना हुई है। * यद्यपि यह ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है। तो भी हम सर्व साधारणके परिचयके । लिये उसमेंसे ३-४ पद्य यहा उद्धृत कर देते हैं. (७). छप्पय । (वीररस रूपकालकार) तप तुरंग असवार धार, तारन विवेक कर।' ध्यान शुकल असि धार, शुद्ध सुविचार सुक्खतर ॥ भावन सेना धरम, दशों सेनापति थापे। रतन तीन धरि सकति, मंत्र अनुभौ निरमापे ॥ सत्तातल सोऽहं सुभट धुनि, त्याग केतु शत अन धरि । इहिविधि समाज सज राजको, अर जिन जीते कर्म भरि ॥ (अनौष्ठय यमकालकार-शान्तरस) चार चरन आचरन, चरन चितहरन चिहन चर। चद चंद तन चरित, चंद थल चहत चतुर नर ॥ चतुक चंड चकचूरि, चारि चिदचक गुनाकर । चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र धनुरहर ॥ चरमचरहितू तारन तरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि। जिनचदचरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रचि रुचि ॥ (लाटानुवधन) बाहर भीतरके जिते, जाहर भर दुखदाय। ता हरकर भरजिन भये, साहर शिवपुर राय ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थरचना। २७ (विशेषोक्ति) धनाकार करि लोक पट, सकल उदधि मसि तंत। लिखै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन अंत ॥ तीसचौवीसी पाठ। इस ग्रन्थका नाम बहुत थोड़े लोगोंने सुना होगा । कारण इसका यही जान पड़ता है कि, अभी तक यह लोगोके परिचयमें नहीं आया है। हमको विश्वास है कि, प्रकाशित होनेपर चौवीसीपाठके समान इसकी भी जगह २ कीर्ति फैलजावेगी। हो सका तो आगामी वर्षमें जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालयद्वारा इस ग्रन्थके प्रकाशित करनेका प्रयत्न किया जावेगा। तीसचौवीसी पाठ इस समय हमारे पास उपस्थित नहीं है । परन्तु * उसकी कविता कैसी है, यह जाननेके लिये हमारे एक मित्रने उसमेंस थोडेसे पद्य चुनकर भेजे हैं । पाठकोके परिचयके लिये हम उन्हें यहा प्र-* काशित करते हैं. गीता । रमनीय जल दमनीय मल, कमनीय कल शमनीय है। वमनीप दुख यमनीय सुख, भमनीय रुप गमनीय है। जयतीत निभुवन नीत सुरगिर सीत ऐरावीत है। धरि प्रीति ताहि जजीत परम पुनीत धर्म लहीत है। मानन्दकन्द गिनंद चंद, अमंद वंदन कीजिये। पनु दरय उंद सुउंद दे, निरफंद थानक लीजिये ॥ जय०॥ सारनी। गंगा भंगा पानी पंगासारी धारी भानी है। धारा तीनो ताको दोनो तीनो ताएं एनी है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वृन्दावनजीकी M तीजो मेरं ताके हेरं ऐरावर्ते राजे है। भावी देवं कीजे सेवं जो आनंद साजै है। . माधवी, सिहावलोकन (मुक्तपदगुप्त) मंदर मेरु विराजतु है, नित पुष्करदीपविष अति सुन्दर । सुन्दर दक्षिण भत वसै तित, तीत जिनेसुर धर्मधुरंधर ॥ धर्म धुरंधर सेवत हैं गुन, वृंद सुध्यावत जाहि पुरंदर। जाहि पुरन्दर ध्यावत ताहि, सु थापहुं पूजनको जिनमदर ।। * खेद है कि, हमारे मित्रने केवल यमकानुप्रासयुक्त कविता ही नमूनेके । १ लिये भेजी और शीघ्रताके कारण दूसरी कविता मगानेके लिये हमें अविकाश न मिल सका । ७-८ वर्ष पहले खिमलासा (सागर) के भडारमे । मैने उक्त ग्रन्थ देखा था। मुझे सरण है कि, उसमें अनेक चित्रकाव्य, * और नानाप्रकारके भावपूर्ण काव्य है । इसलिये हम कह सकते है कि, कविवरकी कविता केवल यमक और अनुप्रासोसेही भरी हुई नहीं है। उसमे कविताके सव गुण हैं। इस ग्रन्थके वनानेके विषयमें कविवरने प्रशस्तिमें लिखा है कि"एक समय काशीविष, भयो ससकृत पाठ । काशीनाथ कराइयो, बन्यो भनूपम ठाठ ॥ तबसों यह अभिलाष थी, भापा होय मनोग। अबै मिल्यो सब जोग तव, भयो सुधारस भोग ॥" यथा,___ "दर तत्त्व गुण केवल सु, संवत विक्रमवान । माघ धवल पांचे नवल, पूरण परम निधान ॥" ___ इससे जान पड़ता है, चौवीसीपाठको पूर्ण करके इसी अन्यकी रचना प्रारंभ की गई होगी। चौवीसीपाठ कार्तिक सवत् १८७५ में तयार हुआ था, और यह माघ सवत् १८७६ में तयार हो गया था। AKRRRRRRRRRAKAR Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थरचना। । प्रायः हिन्दी भाषाकी जितनी कविता देखी जाती है, वह प्रायः दोहा, । सोरठा, चौपाई, छप्पय, कुडलिया, कविता, सवैया आदि छन्दोंमे ही पाई। जाती है। परन्तु हमारे कविवर लकीरके फकीर नही थे । उक्त दोनों , पाठोंके देखनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने अपनी रुचिके अ-. नुसार जिनका संस्कृत भाषामें ही अधिक प्रचार है, ऐसे वसततिलका, सग्धरा, आर्या, रथोद्धता, द्रुतविलम्बित, उपेन्द्रवज्रा, लक्ष्मीधरा आदि छन्दोंका खूब खतत्रताके साथ उपयोग किया है और इसी कारण एक नवीन वस्तुके समान उनकी कविताका सविशेष आदर हुआ है। छन्दशतक। 7 छन्दशास्त्रका यह बहुत ही उत्तम प्रन्थ है। निरन्तर कार्यमें आने । योग्य अनुमान १०० प्रकारके छन्दोंके वनानेकी विधि इसमें वतलाई गई। है। विद्यार्थियोंको बहुत थोड़े परिश्रमसे यह प्रन्य उपस्थित हो सकता। है। इसके पहले छन्दशास्त्रका ऐसा सरल, सुपाच्य और थोड़ेमें बहुत प्रयोजन सिद्ध करनेवाला ग्रन्थ दूसरा नहीं बना था । सस्कृतके वृत्तरत्नाकर आदि ग्रन्थोंकी नाई प्रत्येक छन्दके लक्षणनामादि उसी छन्दमें बतलाये हैं और विशेष खूबी यह है कि, एक प्रकारसे सारा अन्य जिनशासनकी । । अच्छी २ शिक्षाओसे भरा हुआ है । यदि जैनपाठशालाओंमें इस ग्र-I न्यको पढ़ानेका प्रयत्न किया जावेगा, तो बहुत लाभ होगा । इस ग्रन्थके विषयमें हमको बहुत कुछ लिखना था, परन्तु शीघ्रताके कारण नहीं लिख सके । अस्तु, अव यह अन्य पाठकोंके समक्ष उपस्थित है, वे इसकी उत्तमताका खय विचार कर लेंगे । स्थान २ पर टिप्पणिया देकर हमसे । जितना हो सका है, ग्रन्थका अभिप्राय समझानेका प्रयत्न किया है। क यह प्रन्य कविवरने अपने सुपुत्र बाबू अजितदासजीके पढानेके लिये बनाया था। और केवल १८ दिनमें बनाया था। इससे सहज ही समझमें आ सकता है कि, कविवर लीलामात्रमें कैसे अच्छे अन्य वनानेकी शक्ति रखते थे। एक बात यह भी ध्यान में रखनेके योग्य है कि, पहले लोग। । अपनी सतानको सुशिक्षित करनेके लिये कैसे २ प्रयत्न करते थे। अब कि। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. कविवर वृन्दावनजीकी आजकलके मा वाप अपनी संतानको केवल चतुष्पद वनाकर ही कृतकृत्य । हो जाते हैं। संवत् १८९८ मे इस ग्रन्थकी रचना हुई थी। पौष कृष्णा चतुर्दगीको । प्रारंभ करके माघ कृष्णा २ को इसकी समाप्ति कर दी गई थी। अर्हत्पासाकेवली। * यह एक शकुनावली है। पडित विनोदीलालजीकृत संस्कृत ग्रन्थके, N आधारसे इसकी रचना हुई है । इसके विषयमें विशेष लिखनेको आवश्य*कता नहीं है। छोटीसी पुस्तक है ।जैनहितैषी कार्यालयसे पृथक् प्रकाशित ___ इन पांच ग्रन्थोके सिवाय एक ग्रन्थ यह वृन्दावनविलास है । इसके विषयमे हम कुछ नही लिखना चाहते । काशीके सरखतीमडारसे यह ग्रन्थ संग्रह किया गया है। दूसरी प्रति नहीं होनेसे हमें इसके सगोधनमें वहुत परिश्रम करना पड़ा है। इतनेपर भी अनेक स्थान श्रमपूर्ण । रह गये हैं । हमको विश्वास है कि, इस सग्रहके सिवाय कविवरकी और * भी वहुतसी कवितायें होंगी। 'शीलमाहात्म्य' नामकी कविता जो प्र न्थके अन्तमे छपी है, हमारे सग्रहमें नहीं थी। पीछेसे आरा जैनकन्या* पाठशालाकी अध्यापिका जानकीवाईके द्वारा प्राप्त हुई है । यदि आगे। अन्य कविताये प्राप्त हुई, तो हम उन्हें आगामी सस्करणमे प्रकाशित करनेका प्रयत्न करेंगे। हमारा विचार था कि, कविवरका जीवनचरित्र और उनके अन्योका । आलोचना विस्तारपूर्वक लिखे । परन्तु प्रकाशक महाशयको गीघ्रता। * और अवकाशके सकोचसे ज्या त्यो करके ये दोनों विषय समाप्त कर * दिये हैं। लिख करके एक वार विचार करनेका भी अवसर नहीं मिल सरा है। इस लिये सभव है कि, इसमें बहुतसे दोष रह गये होंगे। उनके वि* पयमें क्षमा मागकर और इसके गुणोंके ग्रहण करनेकी प्रार्थना करके हम I इस लेखको समाप्त करते हैं। और अन्तमे जीवनचरित्रमबंधी अनेक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRRRRRRRRRR ग्रन्थरचना । नोट आरानिवासी श्रीयुत वावू जैनेन्द्रकिशोरजीसे प्राप्त हुए है, इसका रण उनका हृदयसे आभार मानकर श्रीजिनेन्द्रदेवसे प्रार्थना करते है कि, अपने सम्प्रदायके कवियोका परिचय देनेके लिये हमको इससे अधिक सामर्थ्य और साधन प्राप्त होवें । जब तक हम लोग अपने पूर्वपुरु-* पोके गौरवको न जानेंगे, उनके चरित्रोंको नहीं पढेंगे, तब तक हमारी अभ्युम्नति नहीं होवेगी । अलमतिविस्तरेण-- जीतेकरकी चाल-बम्बई १४-३-०८ ) विदुषां चरणसरोरुहसेवी श्रीनाथूराम प्रेमी। शुद्धिपत्र । अशुद्ध (जत जर) (तत जर-ज त जर) पृष्ठ पति aee-१३ ११७-११ १ १२६-१ . रग उरग पं. K RRRRRREN Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचीपत्र । ख्या. विषय. १ जिनेन्द्रस्तुति २ जिनवचनस्तुति ... ३ गुरुस्तुति ... ... ४ सकटमोचनस्तुति जिनेन्द्रदेवसे अर्जी ... ५ पद्मावतीस्तोत्र ... ... ... ६ भक्तमयमजन कल्याणकल्पद्रुम जिनेन्द्रस्तुति ७ अरहतस्तुति ... ... ८ आरतमंजनस्तोत्र ... ९ गुरुदेवस्तुति ... १० श्रीपतिस्तुति ११ लोकोक्तियुक्त जिनेन्द्रस्तुति १२ पदावली ... ... १३ वृन्दावनदेवीदास पदावली १४ प्रकीर्णक ... ... १५ छन्दशतक ... १६ अन्तर्जापिका प्रकरणाष्टक १७ पत्रव्यवहार ... १ श्रीललितकीर्तिभधारकके प्रति... २५० चम्पारामजीके प्रति ... ३ दीवान अमरचन्द्रजीके प्रति ... ४ पडित जयचन्द्रकी ओरसे ... ५ दीवान अमरचन्द्रजीकी ओरसे १८ शीलमाहात्म्य Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपरमात्मने नमः. अथ काशीवासी कविवर वृंदावनकृत वृन्दावनविलास। । (१) अथ जिनेन्द्रस्तुतिर्लिख्यते। (शैरकी रीतिमें तथा और २ रागनियोंमें भी बनती है।) * श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुमारा बाना है। मत मेरी बार अवार करो, मोहि देहु विमल कल्याना है ।।टेक॥ कालिक वस्तु प्रतच्छ लखो, तुमसों कछु बात न छाना है। मेरे उर आरत जो वरतै, निहचै सब सो तुम जाना है। अवलोकि विथा मत मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है।। हो राजिवलोचन सोचविमोचन, मै तुमसों हित ठाना है।।श्री * सब ग्रन्थनिमें निरग्रंथनिने, निरधार यही गणधार कही। । जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायकज्ञानमही ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास यह बात हमारे कान परी, तव आन तुमारी सरन गहीं। ! * क्यों मेरी बार विलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही।श्री * काहूको भोग मनोग करो, काहूको स्वर्गविमाना है। * काहूको नागनरेशपती, काहूको ऋद्धि निधाना है ॥ : अब मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है। इनसाफ करो मत देर करो, सुखवृंद भरो भगवाना है ॥श्री ! खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों आन पुकारा है।। । तुम हो समरस्थ नै न्याव करो, तब बंदेका क्या चाग है ॥ खल घालक पालक बालकका, नृपनीति यही जगसाग है। * तुम नीतनिपुन त्रैलोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है ।। १० । जबसे तुमसे पहिचान भई, तबसे तुमहीको माना है। तुमरे ही शासनका स्वामी ! हमको झरना मग्माना है ।। * जिनको तुमरी शरनागत है. तिनसों जमराज उगना है। यह सुजस तुम्हारे साँचेका. जस गावत वेदपुराना । जिसने तुमसे दिलदर्द कहा, तिमका गुमने दुगना है। अघ छोटा मोटा नाशि नुस्ति. गुग दिया निमें मन (क) कपिने इम पाठसे परि म मम : लिगि दौर हमाग?" सा गया था. 1) T ri... Y"तुमरी ग्ररनागाभारा है" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्रस्तुतिः। m पावकसों शीतल नीर किया, औ चीर बढ़ा असमाना है। * भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुबेर समानाहै ॥ श्री *चिन्तामनपारस कल्पतरू, सुखदायक ये परधाना हैं। तुव दासनके सब दास यही, हमरे मनमें ठहराना हैं । तुव भक्तनको सुरइंदपदी, फिर चक्रपतीपद पाना है। * क्या बात कहों विस्तार बड़ी, वे पावें मुक्ति ठिकाना है । श्री० ॥ गति चार चौरासी लाखविषै, चिन्मूरत मेरा भटका है। हो दीनबन्धु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है। जब जोग मिला शिवसाधनका, तब विधन कर्मने हटका है।। * तुम विधन हमारा दूर करो, सुख देहु निराकुल घटका है|श्री० गजग्राहग्रसित उद्धार लिया, ज्यों अंजन तस्कर तारा है। ज्यों सागर गोपदरूप किया, मैनाका संकट टारा है।। ज्यों सूलीतै सिंहासन औ, वेडीको काट विडारा है।। त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोको आश तुमारा है ॥ श्री. १० ज्यों फाटक टेकत पाँय खुला, औ सांप सुमन करि डारा है। ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, वालकका जहर उतारा है। ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लछमीसुख विस्तारा है। त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकों आश तुमारा है । श्री। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास ॐ जदपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिनमूरत आप अनंत गुनी, नित शुद्धदशा शिवथाना है। तद्दपि भक्तनकी भीति हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है। * यह शक्ति अचिंत तुम्हारीका, क्या पावै पार सयाना है।श्री०, दुखखंडन श्रीसुखमंडनका, तुमरा प्रन परम प्रमाना है। वरदान दया जस कीरतका, तिहुंलोकधुजा फहराना है ॥ कमलाधरजी ! कमलाकरजी ! करिये कमला अमलाना है। * अब मेरि विथा अवलोक रमापति, रंच न बार लगाना है।।श्री 34 हो दीनानाथ अनाथहितू, जनदीन अनाथ पुकारी है। * उदयागत कर्मविपाक हलाहल, मोह विथा विस्तारी है ॥ *ज्यों आप और भवि जीवनकी, ततकाल विथा निरचारी है। त्यों 'वृंदावन' यह अर्ज करै प्रभु, आज हमारी बारी हैं। श्री इति जिनेंद्रस्ततिः समाता ॥१॥ (२) अथ जिनवचनस्तुति। (द पूर्वोक।) हो करुणासागर देव तुमी, निरोप तुमाग वाला है। तुमरे वाचामें है! खामी. मेरा मन साँचा गना है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRRRRRH जिनवचनस्तुतिः। * बुधि केवल अप्रतिछेदविषै, सब लोकालोक समाना है। । मनु ज्ञेय गरास विकाश अटक, झलाझल जोत जगाना है । सर्वज्ञ तुमी सबव्यापक हो, निरदोषदशा अमलाना है। है यह लच्छन श्रीअरहंत विना, नहिं और कहीं ठहराना है।हो करु० | धर्मादिक पंच वसै जहँलों, वह लोकाकाश कहावै है। तिस आगें केवल एक अनंत, अलोकाकाश रहावै है॥ । अवकाश अकाशविषै गति औ, थिति धर्म अधर्म सुभाव है। * परिवर्तन लच्छन काल धरै,गुणद्रव्य जिनागम गावै है।होकरु०॥ * इक जीवो धर्माधर्म दरव ये, मध्य असंख प्रदेशी है। * आकाश अनंत प्रदेशी है, ब्रहमंड अखंड अलेशी है ॥ * पुग्गलकी एक प्रमाणू सो, यद्यपि वह एकप्रदेशी है। मिलनेकी सकंत खभावीसों, होती बहुखंध सुलेशी है।हो करु०॥ कालाणू भिन्न असंख अणू, मिलनेकी शक्ति न धारा है। तिसतै कायाकी गिनतीमें, नहिं काल दरबको धारा है ॥ हैं वयंसिद्ध षटद्रव्य यही, इनहीका सर्व पसारा है। निर्बाध जथारथ लच्छन इनका, जिनशासनमें सारा है । हो॥ सब जीव अनंतपमान कहे, गुन लच्छन ज्ञायकवंता है। तिसतै जड़ पुग्गल मूरतकी, है वर्गणरास अनंता है ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास * तिसतै सव भावियकालसमयकी, रास अनंत मनंता है। यह भेद सुमेदविज्ञानविना, क्या औरनको दरसंता हैः ॥ हो०॥ इक पुग्गलकी अविभाग अणू, जितने नममें थिति कीनाजी ।। * तितनेमहँ पुग्गल जीव अनंत, वसैं धर्मादि अछीना जी॥ * अवगाहन शक्ति विचित्र यही, नमकी वरनी परवीनाजी।। । इसही विधिसों सबद्रव्यनिमें,गुन शक्ति वसै अनकी नाजी।हो०॥ *इक काल अणूपरतें दुतियेपर, जाति जबै गत मंदी है। * इक पुग्गलकी अविभाग अणू, सो समय कही निरद्वंदी है ॥ इसतै नहि सूच्छमकाल कोई, निरअंश समय यह छंदी है। यातै सब कालप्रमान बँधा, वरनी श्रुति जैति जिनंदी है ।हो०॥ 3-42-C- * जब पुग्गलकी अविभाग अणू, अतिशीघ्र उताल चलानी है।। इक समयमाहिं सो चौदह राजू, जात चली परमानी है ।। परसै तह सर्वपदारथकों, क्रमसौ यह भेद विधानी है। । नहिं अंश समयका होत तहाँ,यह गतिकी शक्ति वखानी है।।होला CrikPatak+12-h-Kut.. गुन द्रव्यनिके आधार रहै, गुनमें गुन और न राजे है।। न किसी गुनसों गुन और मिलै, यह और विलच्छनता जै है। ध्रुव वै उतपाद सुभाव लिये, तिरकाल अवाधित छाजै है। पट हानरु वृद्धिसदीव करै, जिनवैन सुनें भ्रम माजे है । हो०॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवचनस्तुतिः। *जिम सागरवीच कलोल उठी, सो सागरमांहि समानी है। I परजै करि सर्व पदारथमें तिमि, हान रु वृद्धि उठानी है ॥ जब शुद्ध दरबपर दृष्टि धरै, तब भेदविकल्प नसानी है। • नयन्यासनः बहु भेद सु तो, परमान लिये परमानी है॥हो०॥ जितने जिनवैनके मारग है, तितने नयभेद विभाखा है। एकांतकी पच्छ मिथ्यात वही, अनेकांत गहै सुखसाखा है। परमागम है सर्वंग पदारथ, नय इकदेशी भाषा है। * यह नय परमान जिनागमसाधित, सिद्ध करै अभिलाषा है हो॥ १२ * चिन्मूरतके परदेशपति, गुन है सु अनंत अनंता जी। न मिलै गुन आपुसमें कबहूं सत्ता निज भिन्न घरंता जी ॥ * सत्ता चिनमूरतकी सबमें, सब काल सदा वरतंता जी। । यह वस्तुसुमाव जथारथको, जिय सम्यकवंत लखता जी॥ हो. % 3D सविरोधविरोधविवर्जित धर्म, घरें सब वस्तु विराजै। जहँ भाव तहां सु अभाव वसै, इन आदि अनंत सुछाड़ है निरपेच्छित सो न सधै कबहूं, सापेक्षा सिद्ध समानै * यह अनेकांतसों कथनमथनकरि, स्यादवाद धुनि गाजै है॥होगा जिसकाल कथंचित अस्ति कही, तिस काल कथंचित नाही है।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास उभयातमरूप कथंचित सो, निरवाच कथंचितता ही है ॥ * पुनि अस्तिअवाच्य कथंचित त्यों,वह नास्तिअवाच्य कथाहीहै । * उभयातमरूपअकथ्य कथंचित,एकहि काल सुमाही है। हो । यह सात सुभंग सुभावमयी, सब वस्तु अभंग सुसाधा है।। परवादिविजय करिवे कहँ श्रीगुरु, स्यादहिवाद अराधा है। * सरवज्ञप्रतच्छ परोच्छ यही, इतनो इत भेद अवाधा है। । 'वृंदावन सेवत स्यादहिवाद, कटै जिस भववाधा है ॥ ॥ हो करुणासागर देव तुमी, निर्दोष तुमारा वाचा है। | तुमरे वाचामें हे खामी, मेरा मन साँचा राचा है ॥ १५॥ इति जिनवानीस्तुति । अथ गुरुस्तुतिर्लिख्यते। और। जैवंत दयावंत सुगुरु देव हमारे, * संसार विषमखारसों जिनमक्त उधारे ॥ टेक ॥ जिनवीरके पीछे यहां निर्वानके थानी। (१) इस चौथे चरणको कविवरने-"निरवाचदुधातमरूप कथचित । । एकहि काल सुमाही है। ऐसा लिखा था । परन्तु पीछेसे कविने ही। उक चरणको हासियेपर उत्तप्रकारसे बनाकर लिखा है । सशोषक ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुस्तुतिः। १ वासठवरपमें तीन हुए केवलज्ञानी ॥ फिर सौ वर्षमें पांच ही श्रुतकेवली भये । 1 सौग द्वादशांगका उमंग रस लये ।। जै० ॥ १॥ तिस बाद बरस एकशतक और तिरासी। * इसमें हुए दशपूर्व ग्यार अंगके भासी ॥ , ग्यारै महामुनीश ज्ञानदानके दाता । गुरुदेव सोइ देहिंगे भवि वृंदको साता ।। जै० ॥ २ ॥ तिस बाद बरस दोइ शतक वीसके माहीं। । मुनि पांच ग्यारैअंगके पाठी हुए आही। तिसवाद वरस एकसौ अठारमें जानी मुनि चार हुए एक आचारांगके ज्ञानी ॥ जैवन्त० ॥३॥ * तिसवाद हुए हैं जु सुगुरु पूर्वके धारक । * करुनानिधान भक्तको भवसिंधु उधारक ॥ करकंजते गुरु मेरे ऊपर छांह कीजिये। । दुखदंदको निकंदके अनंद दीजिये ॥ जैवन्तः ॥ ४ ॥ । यों वीरके पीछेसों वरष छस्सौ तिरासी । तब तक रहे इक अंगके गुरुदेव अभ्यासी ॥ । तिस बाद कोई फिर न हुए अगके धारी । । पर होते भये महा सु विद्वान उदारी ॥ जैवन्त ॥ ५॥ जिनसों रहा इस कालमें जिनधर्मका साका। र रोपा है सातमंगका अभंग पताका ॥ , Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास* गुरुदेव नयंधरको आदि दे बड़े नामी । * निरग्रंथ जैनपंथके गुरुदेव जो खामी ।। जैवन्त ॥ ६ ॥ । भाखों कहां लो नाम बड़ी वार लगेगा। है परनाम करों जिस्से वेड़ा पार लगेगा । * जिसमें से कुछेक नाम सूत्रकारके कहों। जिन नामके परमावसों परभावकों दहों । जैवंत ॥ ७ ॥ तत्त्वार्थसूत्र नामि उमास्वामि किया है। गुरुदेवने संछेपसे क्या काम किया है । हैं जिसमें अपार अर्थने विश्राम किया है। बुधवृद जिसे ओरसे परनाम किया है । जैवंत ॥८॥ वह सूत्र है इस कालमें जिनपंथकी पूंजी । । सम्यक्त्वज्ञानभाव है जिस सूत्रकी कुंजी ॥ लड़ते है उसी सूत्रसों परवादके मूंजी। * फिर हारके हट जाते है इकपक्षके लूंजी ॥ जैवन्त ॥९॥ खामी समन्तभद्र महामाप्य रचा है। सर्वैग सात भंगका उमंग मचा है ॥ परवादियोंका सर्व गर्व जिस्से पचा है। * निर्वान सदनका सोई सोपान जचा है। जैवन्त ॥१०॥ अकलंकदेव राजवारतीक बनाया। परमान नय निच्छेपसों सब वस्तु बताया ॥ इश्लोकवारतीक विद्यानंदजी मंडा।। * गुरुदेवने जड़मूलसों पाखंडको खंडा ॥ जयवंत ॥ ११ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुस्तुतिः। गुरु पादपूज्यजी हुए मरजादके घोरी। सर्वार्थसिद्धि सूत्रकी टीका जिन्हों जोरी ॥ | जिसके लखेसों फिर न रहै चित्तमें भरम । * भवि जीवको भास है स्वपरमावका मरम॥जैवन्त ॥१२॥ धरसेन गुरूजी हरो भविवृंदकी विथा । अग्रायणीय पूर्वमें कुछ ज्ञान जिन्हें था ॥ तिनके हुए दो शिष्य पुष्पदंत भुजवली । । धवलादिकोंका सूत्र किया जिस्से मग चली॥जैवन्त ॥१३॥ * गुरु औरने उस सूत्रका सव अर्थ लहा है। * तिन धवल महाधवल जयसुधवल कहा है ॥ * गुरु नेमचंद्रजी हुए धवलादिके पाठी। सिद्धान्तके चक्रीशकी पदवी जिन्हों गांठी॥ जैवन्त ॥१४॥ तिन तीनों ही सिद्धान्तके अनुसारसों प्यारे । + गोमट्टसार आदि सुसिद्धांत उचारे ॥ यह पहिले सु सिद्धांतका विरतंत कहा है। के अव और सुनो भावसों जो भेद महा है।जैवन्त ॥१५॥ गुणधर मुनीशने पढ़ा था तीजा पराभृत । 1 ज्ञानप्रवादपूर्वमें जो भेद है आश्रित ॥ गुरु हस्तिनागजीने सोई जिनसों लहा है । । फिर तिनसों जतीनायकने मूल गहा है।।जैवंत ॥१६॥ १प्रथमश्रुतस्कन्धका । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलासतिन चूर्णिका खरूप तिस्से सूत्र बनाया । * परमान छ हजार यों सिद्धांतमें गाया ॥ तिसका किया उद्धरण समुद्धरण जु टीका । 1 बारह हजारके प्रमान ज्ञानकी ठीका ॥ जैवंत ॥ १७ ॥ तिसहीसे रचा कुंदकुंदजीने सुशासन । * जो आत्मीक पर्म धर्मका है प्रकाशन ।। पंचास्तिकाय समयसार सारप्रवचन । * इत्यादि सुसिद्धान्त स्वादबादका रचन ॥ जैवंत ॥१८॥ सम्यक्त्व ज्ञान दर्श सुचारित्र अनूपा । गुरुदेवने अध्यातमीक धर्म निरूपा ॥ गुरुदेव अमीइंदुने तिनकी करी टीका । झरता है निजानंद अमीवृंद सरीका ॥ जैवन्त ॥ १९ ॥ चरनानुवेदभेदके निवेदके करता। 1 गुरुदेव जे भये हैं पापतापके हरता ॥ श्रीबट्टकेर देवजी वसुनंदजी चक्री । निरग्रंथ ग्रंथ पंथके निरग्रंथके शक्री ॥ जैवंत० ॥२०॥ • योगीन्द्रदेवने रचा परमातमाप्रकाश । शुभचन्द्रने किया है ज्ञानआरणौविकाश ॥ की पद्मनंदजीने पद्मनंदिपचीसी । * शिवकोटिने आराधनासुसार रचीसी ॥ जैवंत० ॥२ १ अमृतचन्द्रसूरिने । २ ज्ञानार्णवनामा योगप्रदीपग्रंथ। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' गुरुस्तुतिः। दोसन्ध तीनसन्ध चारसन्ध पांचसन्ध । है पटसन्ध सातसन्धलों गुरू रचा प्रवन्ध ॥ | गुरु देवनन्दिने किया जिनेन्द्रव्याकरन । 1 जिम्से हुआ परवादियोंके मानका हरन ॥ जैवन्त० ॥२२॥ गुरुदेवने रची है रुचिर जैनसंहिता। परनाश्रमादिकी क्रिया कह है संहिता ॥ विसुनंदि वीरनंदि यशोनन्दि संहिता । र इत्यादि बनी है दशों परकार संहिता ॥ जैवन्त० ॥२३॥ । परमेयकमलमारतंदके हुए कर्ता। ५. माणिक्यनंदि देव नयप्रमाणके भर्ता ।। जिवंत सिद्धसेन मुगुरु देव दिवाकर । जयादिमिद देवसिंह जति यशोधर ॥ जेवन्त ॥२॥ श्रीदत्त काणभिक्षु और पात्रकेशरी। 1. श्रीयनसूर मारामेन श्रीप्रभाकरी ।। श्रीजटापार वीरमन महामेन है। १ जयमेन शिरीपाल मुद्दो कामधेन हैं। पन्तः ॥२५॥ Samp : गुग्ग ः प्रम बनाया। Bf मनाम पार ना पागा ।। जिनमन गण महागन रना। it यानानe ment Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास गुणभद्र गुरूने रचा उत्तरपुरानको । । सो देव सुगुरु देवजी कल्यानथानको ॥ रविसेन गुरुजीने रचा रामका पुरान। है जो मोहतिमिरमाननेको भानके समान ॥ जैवंत ॥२७॥ * पुन्नाटगणविषै हुए जिनसेन दूसरे। * हरिवंशको बनाके दास आशको भरे ॥ । इत्यादि जे वसुवीस सुगुण मूलके धारी । * निम्रन्थ हुए हैं गुरू जिनग्रंथके कारी, जैवंत ॥२८॥ वंदों तिन्हें जे मुनि हुए, कविकाव्यकरैया । * वदामि गमक साधु जो टीकाके धरैया ॥ वादी नमों मुनिवादमें परवाद हरै या। . गुरु वागमीकको नमों उपदेश भरैया ॥ जैवंत ।। २९ ॥ ये नाम सुगुरु देवका कल्यान करै है। * भविबंदका तत्काल ही दुखद्वंद हरै है ॥ धनधान्य रिद्धि सिद्धि नवो निद्धि भरै है । . आनंदकंद दे है सबी विन्न टरै है ।। जयवन्त ॥ ३० ॥ यह कंठमें धारै जो सुगुरु नामकी माला । . परतीतसों उत्पीतिसों ध्यावै जु त्रिकाला ॥ इहलोकका सुख भोग सो सुरलोकमें जावै । नरलोकमें फिर आयके निरवानको पावै ॥ जयवन्त ॥ - - + १ पद्मपुराण वा रामायण । २ कुष्टरोग। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकटमोचन। १५ । जैवंत दयावंत मुगुरु देव हमारे। । संसार विषम सारसे जिनभक्त उद्धारे ॥ ३१ ॥ इति गुरुस्तुतिः समाप्ता ॥ ३ ॥ अथ संकटमोचन जिनेन्द्रदेवसे अरजी। पर। हो दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी।। - यह मेरी विथा क्यों न हो बार यया लगी॥ हो०.टेक ॥ मालिक हो दो जहांनके जिनराज आप ही। यो हुनर रमाग तुमने छिपा नहीं । विज्ञान में गुनाह मुजसे यन गया सही । 7 गरी चोरको कटार माग्गेि नहीं. दीनबंधु ॥१॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास। मुनिराजने निजध्यान में मन लीन लगाया । । उस वक्त हो परतच्छ वहाँ जच्छ बचाया। हो० ॥१५॥ जिननाथहीको माथ जो नावै था उदारा। धेरेमें परा था सो कुलिश कर्ण विचारा॥ * उस वक्त तु प्रेमसों संकटमें पुकारा । रघुवीरने सब पीर तहां तुर्च निकारा ॥ हो० ॥१६॥ । जब रामने हनुमंतको गढ़ लंक पठाया। सीताकी खबर लेनेको सह सैन्य सिधाया । * नग बीच दो मुनिराजकी लखि आगमें काया। । झट वार मूसरधारसों उपसर्ग बचाया ॥ हो० ॥ १७ ॥ ॥ रनपाल कुंअरके परी थी पांवमें बेरी। उस वक्त तुमें ध्यानमें ध्याया था सबेरी ॥ * तत्काल ही सुकुमालकी सब झरपरी बेरी। * तुम राजकुंअरकी सभी दुखदंद निवेरी ॥ हो० ॥ १८ ॥ | शिवकोटिने हठ था किया सामंतभद्रसों । । शिवपिंडिकी बंदन करो शंको अभद्रसों ॥ * उस वक्त वयंभू रचा गुरु भाव भद्रसों। जिनचंदकी प्रतिमा तहाँ प्रगटी सुभद्रसों ॥ हो० ॥१९॥ मुनि मानतुंगको दई जब भूपने पीरा । तालेमें किया बंद भरा भूर जंजीरा ॥ * मुनि ईशने आदीशकी थुति की है गभीरा । * चक्रेश्वरी तब आनिके सब दूर की पीरा ॥ हो० ॥ २०॥ १॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकटमोचन । NA । जब सेठके नंदनको डसा नागने कारा । . उस वक्त तुमें पीरमें धरि धीर पुकारा ॥ तत्काल ही उस बालका विष भूरि उतारा । है वह जाग उठा सोके जनों सेज सकारा ॥ हो० ॥२१॥ सूवेने में आनिके फल आम चढ़ाया * मेंडक ले चला फूल भरा भक्तिका भाया ॥ तुम दोनोंको अभिराम सुरगधाम बसाया। हम आपसे दातारको लखि आज ही पाया ॥ हो ॥२२॥ कपि कोल सिंह नेवल अज बैल विचारे । तिरजच जिन्हें रंच न था बोध विचारे ॥ इत्यादिको सुरधाम दे शिवधाममें धारे। हम आपसे दातारको प्रभु आज निहारे ॥ हो० ॥२३॥ तुम ही अनंत जंतका भय भीर निवारा । वेदो पुरानमें गुरू गणधरने उचारा ।। हम आपके शरनागतमें आके पुकारा । तुम हो प्रतच्छ कल्पवृच्छ ईच्छितकारा ॥ हो० ॥२४॥ प्रभुभक्ति व्यक्त जक्त भुक्त मुक्तिकी दानी। , आनंदकंद बूंदको है मुक्त निदानी ॥ * मोहि दीन जान दीनबंधु पातक भानी । * दुखसिंधुतै उवार अहो अंतरज्ञानी ॥ हो० ॥ २५॥ । करुनानिधानवानको अब क्यों न निहारो। १ दानी अनंतदानके दाता हो समारो॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास* वृषचंदनंद वृंदको उपसर्ग निवारो। __संसारविषमखारतें प्रभु पार उतारो ॥ हो० ॥ २६ ॥ इति संकटहरणजिनस्तुतिः समाप्ता ॥ ४॥ : - अथ पद्मावतीस्तोत्र लिख्यते। जिनशासनी हंसासनी पद्मासनी माता ॥ भुजचार फल चारु दे पद्मावती माता ॥ टेक ॥ जब पार्श्वनाथजीने शुकलध्यान अरंमा । * कमठेशने उपसर्ग तव किया था अचंभा ॥ निजनाथ सहित आयके सहाय किया है। जिननाथ को निजमाथपै चढ़ाय लिया है । जिन ॥१॥ १ आगे अपने इष्टदेव जो श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र तिनसे जय कमटके जीवने तप करते महा उपसर्ग प्रारभ्या, तासमय चार प्रकारके जो देवनिके । इन्द्र हैं तथा देवी हैं ते सर्व भगवानके दास है परन्नु काहूने सहाय नहि। किया केवल धरणेन्द्र और पद्मावतीजीने सहाय किया धरणेन्द्र तो पण * मडलते प्रभुके शीसपर छाया किया और पभावतीने स्वामीको अपने मस्तकपर चढ़ाय लिया सर्व उपसर्ग दूर किया सो हमारे इष्ट परगपूरयः । * की सहाय कीनी इह जानि हमको अति प्रिय लाग है-अद्यापि जहा तह धर्मकी पक्ष भले कर है और पूर्वाचार्यनिको भी जब परवादीनसों यार परा है तहां कुछ प्रयोजन धर्मोद्योत करने हेत इनों मंद धमांनुग. *गका किया है तो हमको भी प्रिय लागी है तातें बालयदि मनुगार म कीर्तन करों हों जिनो रुचि होय ते पटियो। (यह वारय मानने! तोत्रकी आदिमें स्वहलसे लिखे है।) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FARRRRRRRRR-23 पभावतीस्तोत्र। फन तीन सुमनलीन तेरे शीस विराज । जिनराज तहाँ ध्यान धरें आप विराजै ॥ फनिइंदने फनिकी करी जिनंदपै छाया । * उपसर्ग वर्ग मेटिके आनंद बढ़ाया | जिन० ॥२॥ जिन पासको हुआ तभी केवल सुज्ञान है। * समवादिसरनकी बनी रचना महान है। प्रमुने दिया धर्मार्थ काम मोक्ष दान है । है तब इन्द्र आदिने किया पूजाविधान है। जिन ॥३॥ जबसे किया तुम पासके उपसर्गका विनाश । तबसे हुआ जस आपका त्रैलोकमें प्रकाश ॥ इन्द्रदिने मि आपके गुनमें किया हुलास । किस वास्ते कि इन्द्र खास पासका है दास॥ जिन० ॥१॥ धर्मानुरागरंगसे उमंग भरी हो। __संध्या समान लाल रंग अंग धरी हो। जिन संत शीलवंत पै तुरंत खड़ी हो। । मनभावती दरसावती आनंद बड़ी हो ॥ जिन० ॥५॥ जिनधर्मकी प्रभावनाका भाव किया है। तिन साधने भी आपकी सहाय लिया है । तब आपने उस बातको बनाय दिया है। जिस धर्मके निशानको फहराय दिया है। जि * था वोधने ताराका किया कुंभमें थापन । । अकलंकजीसों करते रहे बाद वेहापन ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास* .......... । तब आपने सहाय किया धाय मात धन । * ताराका हरा मान हुआ बौध उत्थापन ॥ जिन० ॥ ७ ॥ * इत्यादि जहां धर्मका विवाद परा है। तहां आपने परवादियोंका मान हरा है । तुमसे ये स्यादवादका निशान खरा है। . इस वास्ते हम आपसे अनुराग धरा है । जिन० ॥ ८॥ *तुम शब्दब्रह्मरूप मंत्रमूर्तिधरैया । * चिन्तामनी समान कामनाकी भरैया ॥ जप जाग जोग जैनकी सव सिद्धि करैया। . परवादके परयोगकी तत्काल हरैया ।। जिन० ॥९॥ लखि पास तेरे पास शत्रु त्रासतें भाजै । * अंकुश निहार दुष्ट जुष्ट दर्पको त्याजै ॥ * दुखरूप खर्व गर्वको वह वज्र हरै है। करकंजमें इक कंज सो सुखपुंज भरै है। जिन० ॥१०॥ चरणारविंदमें है नूपुरादि आमरन । * कटिमें हैं सार मेखला प्रमोदकी करन ॥ उरमें है सुमनमाल सुमनमालकी माला। , । पटरंग अंग संगसों सोहै है विशाला ॥ जिन० ॥११॥ करकंज चारुभूषनसों भूरि भरा है । * भवि वृंदको आनन्दकंद पूरि करा है । जुग भान कान कुंडलसों जोति धरा है । शिर शीसफूल फूलसों अतूल धरा है । जिन०॥ १२ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मावतीतोत्र। * मुखचंदको अमंद देख चंद हू थंभा। * छबि हेर हार हो रहा रंभाको अचंभा ।। गतीन सहित लाल तिलक भाल धरै है। * विकसित मुखारविंदसों आनंद भरै है। जिन० ॥१३॥ *जो आपको त्रिकाल लाल चालसों ध्यावै । * विकराल भूमिपाल उसे माल झुकावै ॥ जो प्रीतसों परतीतरूप रीत बढावै । * सो रिद्धि सिद्धि वृद्धि नवों निद्धिको पावै॥जिन०॥१४॥ जो दीपदानके विधानसे तुम्हें जपै। * सो पायके निधान तेजपुंजसो दिपै ॥ जो भेद मंत्रवेदमें निवेद किया है। o सो वाधके उपाध सिद्ध साध लिया है। जिन० ॥ १५ ॥ * धनधान्यका अर्थी है सो धनधान्यको पावै। संतानका अर्थी है सो संतान खिलावै ॥ निजराजका अर्थी है सो फिर राज लहावै । 1 पदभ्रष्ट सुपद पायके मनमोद बढ़ावै॥ जिन० ॥ १६ ॥ ग्रह कूर व्यंतराल व्याल जाल पूतना। . * तुव नामकी सुनि हाँक सौ भागे हैं भूतना ॥ कफ बात पित्त रक्त रोग शोग शाकिनी । । तुम नामतै डरी मरी परात डाकिनी॥ जिन० ॥ १७ ॥ भयभीतकी हरनी है तुही मातु भवानी । * उपसर्ग दुर्ग दावती दुर्गावती रानी ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वृन्दावनविलास * तुम संकटा समस्तकष्टकाटिनी दानी । सुखसारकी करनी तु शंकरीश महानी ॥ जिन० ॥१८॥ इस वक्तमें जिनमक्तको दुख व्यक्त सतावै । * ऐ मात तुझे देखिके क्या दर्द ना आवै ।। *सब दिनसे तो करती रही जिनभक्तपै छाया। किस वास्ते उस बातको ऐ मात भुलाया। जिन० ॥१९॥ हो मात मेरे सर्व ही अपराध छिमाकर । * होता नहीं क्या बालसे कुचाल इहां पर ॥ *कुपुत्र तो होते हैं जगतमाहिं सरासर । * माता न त तिनसों कभी नेह जन्मभर जिन० ॥२०॥ । अब मात मेरी बातको सब भाँत सुधारो। * मनकामनाको सिद्ध करो विघ्न विदारो ॥ * मति देर करो मेरी ओर नेक निहारो। . करकंजकी छाया करो दुखदंद निवारो॥जिन० ॥ २१ ॥ ब्रह्मडनी सुखमंडनी खलखंडनी ख्याता । * दुख टारिके परिवार सहित दे मुझे साता ॥ तजके विलंब अंब जी अवलंब दीजिये । । वृषचंदनंद वृंदको अनंद दीजिये। जिन० ॥ २२ ॥ * जिनधर्मसे डिगनेका कहीं आ पड़े कारन । * तो लीजियो उवार मुझे भक्ति उधारन ॥ निजकर्मके संजोगसे जिस जोनमें जावों । तहां दीजिये सम्यक्त जो शिवधामको पावों | जिन० ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकल्पद्रुम । । हंसासनी जिनशासनी पद्मासनी माता । * भुज चार फल चारु दे पद्मावती माता ॥ २३ ॥ इति पद्मावतीस्तोत्र सम्पूर्ण ॥५॥ अथ भक्तभयभंजन कल्याणकल्पद्रुम जिनेन्द्रस्तुति लिख्यते। छन्द मत्तगयन्द । भूप अकंपनकी तनया जसु, नाम सुलोचना वेद उचारी। सो जयसंजुत जात चढ़ी, गज ग्राह गह्यो जब गंग मझारी ।। ध्यावत पादसरोरुहको, करुणा करके तिहिं वार उवारी। * क्यों न सुनोजनकी विनती, जनआरतमंजन हे सुखकारी ॥१॥ पावककुंड प्रचंड भयो, ब्रहमंड उमंडि रही जव ज्वाला। रामकी वाम सिया अमिराम, उठी तव ही जपि नामकी माला ॥ वारिजपाय पधारत ही, तिहिं वार कियो सर खच्छ विशाला * क्यों न सुनो जनकी विनती, जन-आरत-भंजन दीनदयाल||२॥ भीलवती सुविशुद्धमती वर, चक्रवती हरिपेनकी माता।। सौतने ताहि दियो जव संकट, चालि है मोरथ ब्रह्म विधाता ॥ कीन्ह सहाय ततच्छन राय. चलाय दियोरयजैन विख्याता। आज विलंबको कारन कौन है ! हे प्रणतारतभंजन ताता ॥३॥ पुरे दुरासे नाश करनेवाले। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वृन्दावनविलास श्री पवनंजयकी वनिताकहँ, सामु कलंक लगाय निकारी।। जाय बसी वन संयुतर्गर्म, भयो उपसर्ग तहाँ अति भारी॥ * नाम अराधत ही तब ही, शेरभाकृत देव कलेश निवारी ।। * क्यों न सुनो जनकी विनती, जनआरतमंजन हे त्रिपुरारी॥४ द्रोपदि चीर दुशासन खैचत, मध्यसमामहँ लाज न आई। भीषम कर्ण जुधिष्ठिर देखत, पारथसों न कछू बनि आई ॥ धारिक धीर पुकारत ही, तिहिं औसर चीर विशाल बढ़ाई ।। * क्यों न सुनो जनकी विनती, जनआरतमंजन हेजदुराई ॥५॥ सम्यकशीलविभूषनभूषित, सोमा सती रतितै अति रूपा । । । कुंभतै नाग निकासनको, पति तासों कयो जु सुशीलअनूपा ॥ *सो जपि नाम निकासत दाम, भयो अभिराम प्रसूनसरूपा । * आज विलंबको कारन कौन है, दीनदयाल त्रिलोकके भूपा ॥६॥ श्रीत्रिशला जिनकी जननी, तिनकी भगिनी लधु चंदना हेरी।। सम्यकशील सुरूपनिधानके, संकटमाहिं परी पग वेरी ॥ *वीर जिनेश गये तहँ आप, कटी दुखफंद रटी सुर भेरी। मैं अति आतुर टेरतु हौं, अब श्रीपतिजी पत राखहु मेरी| यानविर्षे सिरिपालि तिया लखि, सेठ कुवुद्धि धरी जिहेंबेरी।। शीलविनाशनको शठ सो, हठ कीन मलीन उपाय घनेरी ॥ * नारि पुकार सुनी मझधार, उवार लियो दुखदंद निवेरी। * मै शरनागत आनि पर्यो, अब श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥८॥ * १ गर्भसहित-गर्भवती । २ सिंहकृत । ३ माला। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 2 - - -- २७॥ - -- - . कल्याणकल्पद्रुम । * शीलविभूषित सिंहिकाको, जब ही नघुशेष कलेश दियेरी।। छीन लियो पटरानियको पद, भूप भये ज्वरग्रस्त तबेरी॥ ध्याय तुम्हें जल दीन्हों लगाय, तुरंत तबै नृपताप टरेरी।। क्यों न हरो हमरी यह आपति,श्रीपतिजीपत राखहु मेरी ॥९॥ * द्रोपदी शीलसुरूपनिधानको, धातुकि भूपतिने जब हेरी।। मंत्र अराधि उपाधि कियो हरि, लेय गयो दुख दैन लगेरी॥ नाम अराधत ही तब ही हरि, जाय समस्त कलेश निवेरी ।। क्यों न हरो हमरी यह आपति, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी १०५ झूठ कलंक लगाय सतीकहँ, राय गिराय दियो पदसेरी।। * फाटक बंद भयो पुरको न, खुलै तहँ कोटि उपाय कियेरी ॥ ध्याय तुम्हें जल चालनिमें भरि, सीच्यो सती तब द्वार खुलेरी। क्यों न सुनो हमरी विनती अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥ ११ * आदिकुमार भये अनगार, अपार महाव्रतमार भरेरी। । * याचत राज नमी विनमी जहँ, आप विराजत मौन धरेरी ॥ आप दियो धरनेंद्र तिन्हें, रजताचल राज उभैदिशिकेरी। मैं प्रभुको तजि जाऊ कहाँ ? अब श्रीपतिजी पतराखहु मेरी१२ आगविप जुगनाग जरंत, विलोकि तुरंत तिन्हें तिहिं बेरी ।। १ पास कुमार दियो नवकार, उवार दियो दुख दुर्गतिसेरी ॥ २ सो तत्काल भये धरनेश्वर. औ पदमावति पुण्य भरेरी। 1 मैं प्रभुकों तज जाऊं कहां अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥१३ ॥ 1 सेठसुदर्शन आनंदवर्पन, सम्यकसर्पन कर्षन कामा। ताहि तियावश भूप लगाय. फलंक निशंक जो गील ललामा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ वृन्दावनविलास शूली चढ़ावत ध्यावत ही तिहि, दीन्हों सिंहासन श्रीअभिरामा।* * आज विलंबको कारन कौन है, आरतमंजन कीरतिधामा १४ ॥ श्रीमिथिलेशतिया जब ही, सुकुमार जनी सियसंयुत हेरी ।। * पूरब वैर विचार हो सुर, फेरि दया उपजी तिहँ बेरी ॥ । * भूषनभूषि दियो पधराय, सो राय भयो रजताचल केरी। *हों सरनागत आनि पयो अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी१५५ कौशलके पति रामकी वाम, हरी दशकंध कुबुद्ध धरेरी।। * होत भयो रन संकटमें, सुमियो बलिने प्रभुको तिहिं बेरी ॥ देव सुलोचन दीन्ह तिन्हें हरि, गारुड़वाहन शस्त्रधनेरी। क्यों न हरो हमरी यह आपति, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥१६॥ * राम तिया हरिके जब ही, नममें दशकन्धर जान लगेरी। * गृद्ध जटायुसों जुद्ध भयो, तलघात पात भयो तिहिं बेरी ॥ रामने ताहि दियो तुम नाम, लियो सुरधाम सो पुण्य भरेरी। * मै अति आतुर टेरतु हों अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥१७॥ जानकिकों हरिके दशकंधर, लंकविर्षे जब जाय धरेरी। * त्याग चतुर्विधि भोजन सो, जिननाम जप्यो करुनाकरकेरी॥ श्री हनुमंत सहाय करी तुव, धर्मप्रसाद कलेश हरेरी। *क्यों न हरो हमरी यह आपति, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी १८ ॥ माधवी। नृप वज्र सुकर्ण पुनीत अचर्ण, करी यह पर्ण सुनीगुरु गाथा। । जिननाथ तथा मुनिसाथ जथारथ,गाथ विना न नवैमम माथा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकल्पद्रुम । तिहपै जब संकट आनि पो,तह जाय सहाय भये रघुनाथा।। अब मोदुख देख द्रवो करुणानिधि,राखहु लाजगहोमम हाथा१९ मत्तगयन्द । । म्लेच्छनिको पति कोपित व्है करि, आनि जबै महिमंडल घेरी। * बॉध लियो नृपबालिसुखिल्यको, डारि दियो पगमें भरि बेरी॥ * श्रीरघुनाथ सनाथ भये, मय भजि उबार लियो तिहँ बेरी।* मोदुख देख द्रवो अब नाथ, गहो मम हाथ करो मत देरी ॥२०॥ * शेठ महामति जेठ तिन्हें जब, दारिद हेठ कियो दुख देरी ।। * सो तुम नाम जप्यो अमिराम,जो कामदधाम महामुनि टेरी ॥ * दारिद दूर कियो तिनके घर, पूर दई तब ऋद्धि घनेरी।। क्यों न द्रवोलखि मोदुख दीरघ,श्रीपतिजी पतराखहु मेरी॥२१ श्री वसुदेवतिया सुखिया, त्रय युग्म जनी सुतको जिहें बेरी।। कंस विधंसनको तिनको, करि कोप शिलापर पॉय गहेरी ॥ शासन देव उवार लियौ, ततकाल तहॉ न लगी कल देरी। । क्यों न द्रवो लखि मो दुख दीरघ, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥२२॥ * कृष्णकुमार प्रदुम्न उदार, महासुकुमार जये जिहिं बेरी ।। बैर विचारि हो तब ही, सुर दीन्ह शिलातर डार बड़ेरी ॥ * लीन्हों उबार तिन्हें तिहिं बार, दयाधनधार न बार लगेरी । आज विलंबको कारन कौन है, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥२३ चर्मर्शरीर श्रीपाल नरेसुरकों, जब कोढ़ महा गद घेरी। * मैना सती तिनकी वनिता, तुम भक्तिविर्षे अनुराग धरेरी ॥ ध्याय लगाय दियो चरनोदक, कंचन काय करी तिहिं बेरी॥ । होजन रंजन आरतमंजन,श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥२४॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास * सागरमध्य परे शिरिपाल, कुचाल करी जब शेठ तबेरी।। * पावन नाम जप्यो अभिराम, जो तारतु है भवसिंधु सबेरी ॥ ताहि उवार लियो सुखकार, सो राज कियो फिर मुक्ति वरेरी।। * आज विलंवको कारन कौन है, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥२५॥ * शेठ सुबुद्ध श्रीधन्नाविशुद्धकों, पापिन वापीविषै जव गेरी। नाम अधार रह्यो तिहिं वार, पुकारत आरत तासु निबेरी ॥ 1वेद उचारत आरत मंजन, वत्सल लच्छन है प्रमु तेरी।। *आज विलंवको कारन कौन है, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी२६/ * श्रीश्रुतसागर ज्ञान उजागर, सागरसों गुनरत्न भरेरी। हारिगयो तिनसों वलि वादमें, मारनको निशि शस्त्र गहेरी ॥ शासन जक्षप्रतक्ष तहाँ, मुनिरक्षक व्है उपसर्ग निवेरी। । * क्यों नहरोहमरी यह आपति, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥२७१ * श्रीजिनवीर विराजै जवै, विपुलाचलपै सुनिके सुरभेरी। मीडक जात लिये जलजात, प्रफुल्लितगात सुभक्ति घरेरी ॥ । दंतिपत मरते तुरित तिहिं, कीन्हों प्रभा सुर देव बड़ेरी।। मो दुख देख द्रवौ किन साहिव, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥२८॥ * वानर जात पशू अवदात, विख्यातको वान लग्यो जिहि बेरी। देख दुखी तिहिं श्रीगुरुदेव, सुनाय दियो नवकार तवेरी ॥ होत भयो ततकाल महोदधि, देव महाबल रिद्धि धरेरी। मोपर क्योंन करो करुणा, अव श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥२९॥ * आम चढ़ाय सुआ सुख पाय, भयो सुर जाय विमान चरी।। मेंडक । २ कमल। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकल्पदुम । जो तुमको धरि नेह जनै, भवि दर्वित भावित भक्त भरेरी ॥ देत तिन्है अविनश्वर आमॅद, हो तुम दीनदयाल बड़ेरी। मोहि न है अवलंबन दुसरो. श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥३०॥ श्रीयुतखामि समन्तसुभद्रसों, भूप कियो हठ वंदनकेरी। । श्रीगुरु पाठ स्वयंभू रच्यो, पद गर्वित स्यादरु वाद घनेरी ॥ * शंभुकी पिंडिका फोरि फुरी, दुति चन्द जिनंद सुबंदि तवेरी । * मोहिनही अवलंब है दूसरो, श्रीपतिजी पतराखहु मेरी ॥३१॥ । श्रीकुमुदेन्दु महा गुनवृंद, मुनिंदसों वाद पयो जिहिं बेरी। आनंदमंदिर पाठ रच्यो गुरु, भक्ति भरी बहु जुक्ति धरेरी ॥ शासन जच्छ प्रतच्छ तहॉ, प्रगटी प्रतिमा प्रभु पास तबेरी ।। * मोपरग्वेग करो करुना अव, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥३२॥ *श्रीमत मानसुतुंग मुनिंदको, भूपति वंद कियो भरि वेरी। श्री भगतामर पाठ रच्यो तह, आनि चक्रेश्वरी मोद धरेरी॥ *बंधन काट दियो ततकार, भयो जयकार वजी सुरमेरी। * मोहि नहीं अवलंब है दूसरो, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥३३॥ * मंगलमूरत श्रीगुरु वादि,-सुराजकों कोढ भयो जिहिं बेरी। *सो तुमसों चित लाय कियो, थुति नामसु एकियभाव धरेरी॥ । होय सहाय ततच्छिन ही, तन कीन सुवर्ण लगी नहिं देरी। * मोहि पुकारत बार भई अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥३४॥ * शेठके नंदनको जव ही, अहि जान डस्यो विष भूरि चढ़ेरी।। * औषध मंत्र उपाय तजी, धरि धीर तुम्हें वह पीर टरेरी ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gRRRRRRRRRR-*-* वृन्दावनविलास निर्विष तासु कियो तहँ बालक, जागि उठ्यो जनु सेज सवेरी। मोहि पुकारत बार भई अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥३५॥ अंजन चोर महामति घोरपै, कीन्हों कृपा करुनाकर नामी।। *तायो तुरंत अहो भगवंत, वखानत संत सुधारस नामी॥ और अनेक अपावनकों, गति पावन दीन्हीं जिनेश्वर खामी ।। क्यों न हो हमरो दुखदीरघ, हे जिनकुंजर अंतरजामी ॥३६॥ * कूकर शूकर बानर नाहर, नेवर आदि पशू अविचारी। * दीन्हों तिन्हें सुरधाम दयानिधि, वेद पुराननमाहिं पुकारी ॥ । मै अति दीन अधीन भयो, तुमसों यह टेरतु हों त्रिपुरारी । त्याग विलंब करो करनाअव,श्रीपतिजी पतराखो हमारी ॥३७॥ हो करुनाकर हो कमलावर, हो जिनकुंजर अंतरजामी। * दासनके दुख देखत ही तुम, कीन्हीं सहाय दयानिधि नामी मोपर पीर अपार परी, सो निहारत हो कि नहीं अमिरामी।। लीजे उवार हमें इहि बार, अहो सुखकार जिनेश्वर खामी॥३८३ * दारिदकंदलि-काननको तुम, कुंजर हो जिन कुंजरगामी।। * विनदवानलको वरवारिद, हो सुख शारद अंतरजामी ॥ सेवकके कलपद्रुम हो, सरवारथसिद्धिपदायक नामी। मोपर पीर अपार निहार, द्रवौ अबहे वृषभेश्वर खामी ॥ ३९॥॥ * दूषण दोषि अवर्ण निवर्णि, विवर्ण विवर्णित वस्तुविधाना। * ग्रंथनिग्रंथनिग्रंथपती, निरग्रन्थयती नितधारत ध्याना ॥ विन विनिम्न कियौ तिहिते, पदपावसी शिवपद्म सुजाना । हो सर्वज्ञ दयानिधि तज्ञ, द्रवौ मुझ अज्ञपै हे भगवाना ॥ ४०॥1 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकल्पद्रुम । । ३३ जो तुम हो तिहुँ लोकके नायक, क्षायक दानपती जगनामी । तो किन मोहि दुखी अवलोकि, द्रवौ करुणाकर कीरतधामी ॥ दानी कहाइबो औ कृपनापन, दोऊ बनै किमि हे अभिरामी। देखि अनाथ द्रवौ अब नाथ, गहो ममहाथ हे श्रीपतिखामी ॥४१॥ * द्वादश अंग उपंगविषै, यह बात अभंग प्रकाश रही है। * दान अनंतके दाता तुमी, इह नातातै मै पद आनि गही है। । भौदुखसिंधु अगाधविषै, अब डूबत हौं कहुँ थाह नहीं है।। अलीजे उबार हमें इह बार, अधार तुमीसों पुकार कही है ४२ कर्मकलंक विनाशत ही, प्रगटी अविनश्वर रिद्धि तुमे री। जानत हो सब लोक अलोकको, केवलबोध अगाध धरे री॥ । विघ्नविनाशन उन्नतशासन, शासनमाहिं महामुनि टेरी। । * मै यह जानि गही शरनागत, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी४३ ॥ आरतवंत पुकारत ही सुनि, ग्रामपती दुख देत निबेरी। * आप प्रसिद्ध त्रिलोकपती, सब जानत बात चराचर केरी ॥ जो दुख देखि द्रवोगे नहीं, तो दयानिधि वान कहाँ निबहे ! मोहि नहीं अवलंब है दूसरो, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥४४॥ लोक अलोक विलोकत हो, हग केवल शुद्ध प्रकाश धरे री।। नाहिं छिपी प्रभु जी तुमसों, अपराध वनी कछु जो हमसे री॥ हो तुम पूरन दीनदयाल, द्रवौ किन मोपर पीर परे री ।। लेहु उबारि हमें इह बार, हो श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ४५॥ पुण्यप्रकाशन पापप्रनाशन, उन्नत शासन वेद भने री। है कमलासन पै कमलासन, दासनिके दुखदंद हरे री॥ Hereap-ki-per---- क Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास दान अनंतके दाता तुम्हें सुनि, जांचत हों न करो अब देरी। * होय अधीन करूं विनती, अव श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ४६ ॥ * हो जिन दीन अधीनकी वीनती, कौन सुनै करुनाकरकेरी । *वेद पुकारत है तुमको, दुरितारि हरी सुखसिंधु भरे री ॥ दासनके दुखमंजनकी, जग फैलि रही विरदावलि तेरी।। * याहीतै मै यह जांचत हों अब, श्रीपतिजीपत राखहु मेरी ४७६ मो पर पीर परी प्रभुजी, अव लोको तुम्है करुनाकर टेरी।। हो तुम छायक ज्ञानपती, सवलायक दीनदयाल बड़ेरी ॥ * दासनिके कल्पद्रुम हो, चितचिंतितदायक ऋद्धिघनेरी। । याही मै पद सेवत हौं, अब श्रीपतिजी पत राखहु मेरी४८, जी कछु चूक परी हमसों, उदयागतचारितमोह पिरे री।। सो तुम जानत हो करुणानिधि, केवलवोध अगाध धरे री ॥ * यातै यही विनवों कर जोरि, छिमा करिये अघ औगुन मेरी।। जाउं कहाँ तजिकै पदपंकज, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥४९ हे प्रभु भूल भई हमसों यह, चारित मोह दई मति केरी ।। भूपति मो प्रति कोपित है, अति शासति कीन्ह न जात कहेरी॥ आज लों आपसोजॉची नहीं,मति राची नहीं तुम भक्ति विपरी। टेरत हो अति आतुर है अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥५० कोटिक जन्मनिके अघ संचित. देत मिटाय लगै नहिं देगा। द्वादश अंग उपंगवि, निरधार गुरू गनधारन टरी ॥ है उस उज्ज्वल लोकविष. निजदासनिके कल्पद्रुमन।। * याहीत मै अब जांचन हों, अब श्रीपतिजी पत गवतु मेरी॥५॥ - --CHAKendra-Ramer+EME Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकल्पद्रुम । । हो सब ही विधि दीन अधीन, पुकारत हौ प्रमुसों कर जोरी।। से जानत हो सब लक्ष प्रतक्ष, तबै किमि दक्ष विलंब करोरी * मै तुमको तजि जाउं कहाँ, अव तो शरनागत आन परोरी ।। लेहु उबार हमें इह वार, न लावहु बार हरो दुख मोरी॥५२॥ सचित जन्म अनेकनिके अघ, ईंधनको तुम पावकज्वाला। . पारस औ कल्पद्रुमसों जो, मिलै नहिं सो तुम देत विशाला ॥ * दासनके दुखभंजनकी, श्रुत गावत कीरतिरासरसाला । । हो प्रभुको तजि जाउं कहाँ, जो रुचै सोकरो तुम दीनदयाला ५३ , हो शठ पापिनमें परधान, महा अघ औगुन खान भरोरी।। तारो तुम्ही अघवंतनिको, सुनि यातै गही शरनागत तोरी ॥ । छायक ऋद्धिके दायक हो, जिननायक जी मम आश मरोरी ।। जाउं कहाँ तजिकै पदपंकज, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥५४॥ रोग महोरगके विनतासुत, दारिद-कुंजर-केहरि नामी। संकट कानन भाननको, हो कृशानु प्रधान जिनेश्वरखामी ॥ विनमहातमको तरिनीपति, हो तुम श्रीपति कीरतिधामी।। । भोजिननाथगहो मम हाथ, निरंतर यो सुख अंतरजामी ॥५५ छन्द किरीट तथा माधवी । सब लोकविपै यह काल वली, कवलीकरतार महामद धारी। प्रभु ताहि विजैकरि आप विराजत हौ पदसिद्धविष अविकारी ॥ जिनक तुमरी शरनागत है. जन ते उबरें भयभीति निवारी ।। । अब मैं यह जानि गही पदपंकज.श्रीपतिजी सुधि लेहु हमारी५६ ॥ 1 विनतेय गर । २ ममि । ३ मूर्य । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wr warrarwrramrraram वृन्दावनविलास * निजदासनके दुख देखतही, प्रमु लीन्हों उबारितिन्हें तिहिबेरी।। लघु दीरघ पाप कळू नगिन्यो, करुनाकरि काटि दियो दुख बेरी हमपै यह पीर अपार परी, निरधार पुकारत हों इहि बेरी।। प्रमुडूबत हों दुखसागरमें, किन श्रीपतिजी पत राखहु मेरी५७ ॥ * जगजंत अनंत उधारत हो, जसगावत है श्रुत संशय नाहीं। * अपराधि उपाधि विनाशनकी, विरदावलि फैलिरही जगमाहीं ॥ अब मो पत जात अहो करुनापति, आतुर हेरत हों तुमपाहीं।। तजि बार अबार कृपानिधि हो, मोहि लेहु उवार गहो गलबाही । हमसों अघऔगुन भूलि बनी सो,त्रिलोकधनी तुम जानत सारी * अब तास विनाशनको तुमसों, अति आतुर आरत आनि पुकारी। । सब लायक हो जिननायकजू, अपनों लखि मोकहँ लेहु उबारी ।। शरनागतकी प्रभु राखहु लाज, अहो करुनाकर कीरतधारी ५९ * सुनिये विनती शिवधामधनी,वसुजाम तुमी फल काम प्रदाता । * हमसों कछु जो अपराध वन्यौ, सवसो तुम जानत हो जगताता है नहिं सम्मुख मो मुख होय सकै,हो कृपानिधि दीनदयाल विधाता । अब राखहु लाज अहो महाराज, हरो दुखसंकट हो सुखदाता६०१ दोहा। विन निघ्नकरतार हो, हो जिन जगदाधार । डूवत हों दुखउदधिमें, लीजे बेगि उवार ॥ ६१॥ किहिं विधि प्रभुकी थुति करों, बुधि थोरी गुनभूर ।। सोऊ बानीगम्य नहिं, सहजानॅद भरपूर ॥ ६२ ॥ एक अलंब यह अहै, तुम जानत सब वस्त । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहंतस्तुतिः। दयादान सर्वज्ञता, प्रभुमें है परशस्त ॥ ६३ ॥ तातै मो दिशि देखि अब, कृपा करो जिनचंद। निरावाध सुख दीजिये, सहज निजानंद कंद ॥६॥ दीनबंधु करुणायतन, तारनतरन जिनेश । वृंदावन विनती करत, मैटो सकल कलेश ॥६५॥ * इति सकटोद्धरणस्तुतिः। (७) अथ अरहतस्तुतिलिख्यते। दोहा। नासु धर्मपरमावसों, संकट कटत अनन्त । | मंगलमूरति देव सो, जैवन्तो अरहन्त ॥१॥ हे करुनानिधि सुजनको, कष्टविषै लखि लेत। * तजि विलंब दुख नष्ट किय, अब विलंब किह हेत ॥२॥ षट्पद। तब विलंब नहिं कियो, दियो नमिको रजताचल। । तब विलंब नहिं कियो, मेघबाहन लंका थल ।। तब विलंब नहिं कियो, शेठ सुत दारिद भंजे।। । तव विलंब नहिं कियो, नाग जुग सुरपद रंजे ॥ । इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतियरवन । । प्रमुमोर दुःखनाशन विष, अब विलंब कारन कवन ॥ ३ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ वृन्दावनविलास तब विलंब नहिं कियो, सिया पावक जल कीन्हौ । तब विलंब नहिं कियो, चंदना शृंखल छीन्हौ ॥ तब विलंब नहि कियो, चीर द्रुपदीको बाढ्यो । तब विलंब नहिं कियो, सुलोचन गंगा काढ्यो || इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतिय वन । प्रभु मोर दुःखनाशनविषै, अब बिलंब कारन कवन ॥ ४ ॥ तब विलंब नहिं कियो, साँप किय कुसुम सुमाला ॥ तब विलंब नहिं कियो, उरविला सुरथ निकाला ॥ तब विलंब नहिं कियो, शीलबल फाटक खुल्ले । तब विलंब नहिं कियो, अंजना वन मन फुल्ले ॥ इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतिय वन । प्रभु मोर दुःख नाशन विषै, अब विलंब कारण कवन ॥ ५ ॥ तब विलंब नहिं कियो, शेठ सिंहासन दीन्हौ । तब विलंब नहिं कियो, सिधु श्रीपाल कढ़ीन्हौ || तब विलंब नहिं कियो, प्रतिज्ञा वज्रकर्ण पल । तब विलंब नहिं कियो, सुधन्ना काढ़ि वापि थल || इम चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतिय वन । प्रभु मोर दुःखनाशनविषै, अब विलंब कारन कवन ॥ ६ ॥ तब विलंब नहिं कियो, कंश भय त्रिजुग उबारे । तब विलंब नहिं कियो, कृष्णसुत शिला उतारे ॥ तब विलंब नहि कियो, खड्ग मुनिराज बचायो । तब बिलंब नहि कियो, नीरमातंग उचायो ॥ 1 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहंतस्तुतिः। । इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतियरवन । है प्रभु मोर दुःखनाशनविषै, अब विलंब कारन कवन ||७| तब विलंब नहिं कियो, शेठसुत निरविष कीन्हों। है तब विलंब नहिं कियो, मानतुंग बंध हरीन्हौ ॥ तब विलंब नहिं कियो, वादि मुनि कोढ़ मिटायो। । तब विलंब नहिं कियो, कुमुद जिनपास मिटायो॥ । इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतियरवन । । प्रभु मोर दुःखनाशनविषै, अव विलंब कारन कवन ॥ ८॥ तब विलंब नहिं कियो, अंजना चोर उवारे । । तब विलंब नहिं कियो, पूरवा भील सुधारे ॥ तब विलंब नहिं कियो, गृद्धपक्षी सुंदर तन । * तब विलंब नहिं कियो, मेकदिय सुरअद्भुतधन ॥ कपि श्वान सिंह जंबुक नकुल, वृषभ शूर मृग अज भवन । इत्यादि पतित पावन किये, अब विलंब कारन कवन॥९॥ ॥ इहविधि दुख निरवार, सार सुख प्रापति कीन्हौ । , अपनो दास निहारि, भक्तवत्सल गुन चीन्हौ ॥ अब विलंब किहिं हेत, कृपाकर इहां लगाई। * कहा सुनो अरदास नाहिं, त्रिभुवनके राई ॥ जन वृंद सुमनवचतन अबै, गही नाथ तुम पदशरन । | सुधि ले दयाल मम हालपै, कर मंगल मंगलकरन ॥ १० ॥ इति अरहन्तस्तुति । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास (८) अथ आरतभंजनस्तोत्र। मत्तगयन्द। * आप अमूरत हो चिनमूरत, जोग अतीत जगोत्तमधामी। 1 * याते नहीं पहुँचै थुति आपलों, पै सब जानत अंतरजामी ॥ * नौ विधि केवल लाभ लिये, तुम हो मनबांछितदायक नामी।। मोपर पीर अपार विलोकि, द्रवौ अब हे वृषभेश्वर खामी॥१॥ * संकट पावक कुंड प्रचंडतै, क्यों न निकाशत हो जिनखामी।। पंचमकाल करालकी चाल, लगी तुमहूकहँ क्या जगनामी ॥ * दास दुखी अवलोकत हो तब, काहे विलंब करो अभिरामी। आरतमंजन नामकी ओर, निहार उधारहु अंतरजामी ॥२॥ माधवी। जब सेवककी बिगरी तबही तहँ, साहब लीन तुरंत सुधारी ।। * यह बात सनातनसों चलि आवत, गावत वेद पुरान पुरारी ॥ तब कौन प्रकार पुकार सुनी, अब कारन कौन विलंब लगारी।। नहिं मोहि अलंबन है कोउ दूसरो, श्रीपतिजी सुधि लेहु हमारी ३१ (९) अथ गुरुदेवस्तुतिः। कवित्त ३१ मात्रा। संघसहित श्रीकुंदकुंद गुरु, वंदन हेत गिरौ गिरनार । वाद परयो तह संशयमतिसों, साक्षी बदी अंबिकाकार ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेवस्तुतिः। "सत्यपंथनिरग्रंथ दिगम्बर", कही सुरी तहँ प्रगट पुकार ।। *सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगलकरतार ॥१॥ खामि समंतभद्र मुनिवरसों, शिवकोटी हठ कियो अपार ।। * वंदन करो शंभुपिंडीको, तब गुरु रच्यो खयंभू भार ॥ * 1. वंदन करत पिंडिका फाटी, प्रगट भये जिनचंद उदार । सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगलकरतार ॥२॥ श्रीमत मानतुंग मुनिवरपर, भूप कोप जब कियो गँवार । * बंद कियो तालेमें तब ही, भक्तामर गुरु रच्यो उदार ॥ * चक्रेश्वरी प्रगट तब हैकै, बंधन काट कियो जयकार। * सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्नहरन मंगल करतार ॥ ३ ॥ श्रीअकलंकदेव मुनिवरसों, वाद रच्यो जहँ बौद्ध विचार । तारादेवी घटमहॅ थापी, पटके ओट करत उच्चार ॥ * नीत्यो स्यादवादबल मुनिवर, बौद्ध वेधि तारामद टार । सो गुरुदेव वशो उरअंतर, विघ्नहरन मंगलकरतार ॥ ४॥ (१०) अथ श्रीपतिस्तुतिः। दुमिला तथा द्वितोटक। र जस गावत शारद शेष खरो, अघवंत उघारनको तुमरो। । । तिहित शरनागत आन परो, विरदावलिकी कछु लाज घरो॥ दुखवारिधतै प्रभु पार करो, दुरितारि हरो सुखसिंधु भरो।। सवलेश अशेष हरो हमरो, अब देख दुखी मत देर करो। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास तुमतें कछुहे जिनराज गनी, नहिं दुर्लभ ऋद्धि सुसिद्धिघनी।। * सुरईश तथा नरईशतनी, भुवि पावत आनँद बूंद वनी ।। । अब मो दिशि देख दया करनी, अपनी विरदावलिपालि तनी।। इहि वार पुकार सुनो इतनी, तजि वार उबार त्रिलोक धनीर । * अमिअंतरश्री चतुरंतरश्री, बहिरंतरश्री समवसतश्री। * यह श्रीपतिश्री अतिही पतिश्री, मनुजासुरश्री लखि लाजत श्री पदपंकजश्री मुनिध्यावतश्री, श्रुतशारदश्री यशगावत श्री।। अब मो उर श्रीपति राजहु श्री, चितचिंतितश्रीसुखसानहु श्री (११) अथ लोकोक्तियुक्त-जिनेन्द्रस्तुतिः। कवित्त छन्द। हे शिवतियवर जिनवर तुम पद, पंकजमहँ कमलाको वास ।। विघनविनायक सब सुखदायक, विशद सुजस अस रह्यो प्रकाशा * सो पद सुधासरोवर तजि जो, चाहत हरन ओस जलप्यास ।। * तास आशअनयास अफल"ज्यों,दंडाले कूटै आकाश" * दुखटारन सुखकारन प्रमुसों, प्रीति न करै हिये हित चाह ।। । ग्रामिक भाव विवश निशिवासर, मजै कुदेव कुग्रंथकुराह ॥ * बोय ववूल शूल तरुसों शठ, आमचखनकी राखत चाह ।। * ताकी आश अफल यो जानो, "जैसे बांझपूतको व्याह"RY जनरंजन अघमंजन प्रभुपद, कंजन करत रमा नित केल।। चिन्तामन कल्पद्रुम पारस, वसत जहाँ सुर चित्रावेल ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकोक्कियुक्त-जिनेन्द्रस्तुतिः। ३ । सो पदत्यागि मूढ निशिवासर, सुखहित करत कृपा अनमेल। * नीतिनिपुन यों कहै ताहि वर, 'बालू पेलि निकालै तेल' ॥३॥ मोह विवशमम मति अति श्रीपति,मलिन भई गतिअगति न विद्ध । तातें भूलि बन्यो यह कारज, हे आरज आचारज वृद्ध ॥ तासु उदै दुख दुसह सह्यो अब, आयौ शरन पुकारि प्रसिद्ध। राखहु लाज जानि जन अपनों, “गरे परैसो बजाये सिद्ध" जानत हौ अघ औगुनको फल,प्रगट दुखद यह प्रगट दिखाय।। * तौ मी वरवश जाय झुकत मन, मानत नाहिं शीव सुखदाय विना तुमारी कृपा कृपानिधि, मिटै न यह हठ आन उपाय। १ वक्र चक्रगत तजत न अंतर, जैसे "वरदमूतको न्याय॥ भक्तमुक्तिदातार कल्पतरु, कीरत कुसुमित शशिसम सेत। * इंदहमिंद अहिंद जजत नित, भवसागरतारन सुखसेत॥ मो मन वसहु निरंतर खामी, हरो विघन दुखदारिदखेत । प्रमुपदमाहिं प्रीति निति बाढौ,ज्यों श्रीपति अतिशायिन हेत। चहुँगत भ्रमत मोहमिथ्यावश, काल अनन्त गँवार गमाय। * श्रीपतिसों नहिं नेह कियो किम, काटै भवबन्धन दुखदाय ॥ अव सुघाट शुभ वाट मिल्यो है, ठाट वाट उदघाट उपाय ।। | शिव हित हेत आज सब पायो, यथा "काकतालीको न्याय" मत्तगयन्द । जो अपनो हित चाहत है जिय, तो यह सीख हिय अवधारो। कर्मज भाव तजो सब ही निज, आतमको अनुभौरस गारो॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ वृन्दावनविलासश्री जिनचंदसों नेह करो नित, आनंदकंद दशा विसतारो।। मूढ़ लखै नहिंगूढ कथायह, 'गोकुलगांवको पैंडोहिन्यारों माधवी। * नरनारक आदिक जोनिविषै, विषयातुर होय तहां उरझै है। नहिं पावत है सुख रंच तऊ, परपंच प्रपंचनिमें मुरझै है ॥ | जिननायकसों हितप्रीति विना,चित चिंतित आश कहांसुरझैहै।। जिय देखत क्यों न विचारि हिये 'कहुं ओसके बूंदसों प्यास *जिय पूरव तौ न विचार करै, अति आतुर है बहु पाप उपावै।। नित आनंदकंद जिनंदतने, पदपंकजसों नहिं नेह लगावै॥ जब तास उदै दुख आन परै, तव मूढ वृथा जगमें विललावै ।। अब पाप अताप वुझावन 'कोशन आगिलगेपर कूपखुदावै। कवित्त । 1 मोह उदै अज्ञान विवशतें, समुझि परत नहिं नीक अनीक ।। * सुखकारन अति आतुर मूरख, बाँधत पापभार भरहीक ॥ । तासु उदै दुख दुसह होत तब, सुखहित करत उपाय अधीक।। भवृथा होत पुरुषारथ जैसें “पीटें मूढ साँपकी लीक"॥११॥ माधवी । जब ही यह चेतन मोह उदै, परवस्तुविौं सुखकारन घावै ।। तब ही दिढ़कर्म जंजीरनसों, बॅधिके भव चारक वासमें आवै ॥ जिननायकसों विन प्रीति किये, कहु को मवबंधन काटि छुड़ावै।। विष खाय सों क्यों नहिं प्रान तजै, गुड़ खाय सो क्यों नहिं । । कान विधावै ॥ १२॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदावली। ४५४ जब आतम आप अमोहित व्है, अनआतमता तजि आतमध्यावै।। है तब संचित जन्म अनेकनिके अघ, ईधनको धरि ध्यान लगावै ॥ *जिनचंद मुखांबुधिवर्द्धनसों, कर प्रीति निरंतर आनंद पावै । विप खाय न काहेको प्रान तजे, गुड़ खाय सो क्यों नहिं । 1 कान विधावै ॥ १३ ॥ (१२) पदावली। अवध जनम भयो हो आदि जिनंद, नाभिराय कुल कैरवंचदाटेक ठारह फोडाफोदि प्रमान, सागरलग मग मुकत छिपान । 1. सो मग प्रगट होय अव मीत, धरमसुधाधर उदित पुनीत ॥अव०॥ रागदोष अंग मोहाताप, मिटि है सकल जगतसंताप। गति फोतियशोफित होत. मुमतिसतीउर हरपउदोत ॥० भाग भेद जुग शिवमुरदाय, तिहुँजग प्रभा रहै छवि छाय।। मानभाव विभाव फिगत, ताहि न भावत चांदनि रात ||०f भिमन्वद्रमन औषधी नह. प्रगट प्रबल सुखदायक तेह ॥ ॥ मुनियशेर नरकटिं चा ओर.चित चेत जनु जलधरमोर INDI frर आनंदसिंधु, नितपनि बढ़त तिजिनचंद टेका। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास 2074 * मेरी विथा विलोकि रमामति, काहे सुधि विसराईजी||हमारी०२ । मैं तो चरनकमलको किंकर, चाहूं पदसेवकाईजी ॥ हमा० ॥३॥ हे प्रण नाथ तजो नहि कवहूं,तुमसो लगन लगाईजी॥हमा०॥४ * अपनो विरद निबाहो दयानिधि,दै सुख वृंद बढ़ाईजी॥हमा५॥ hd । दरसे जिनेसुर स्वामीशिवरमनीरमन अभिरामीहो ॥दर०॥ टेक। * जहँ तरु अशोक सुखदाई, सो रहित शोक समुदाई ।।दर०॥१॥ * सुर सुमनवृष्टि जहँ राजे, मनो मनमथ आयुध त्याजे॥दर०॥२ *धुनिदिन्य अनाहद गाजै, सुनि भविकमोह भ्रम भाजदर०॥३॥ जहें चमर अमर सुढरावै, दशदिशि अघ ओघ उडावै ॥दर०४॥ सिंहासनपै जिन सोहै, लखि त्रिभुवन-जन-मनमोहै।दर०॥५॥ दुंदुमि नम नाद उदारे, मनु बाजत जीत नगारे । दर० ॥६॥ * शिर तीनछत्र छवि छाजे, त्रिभुवन पति चिह्न विराजै ॥दर०७५ I भामंडल भव दरसावै, लखि सोमसूर सरमावै । दरसे० ॥ ८॥ इत्यादि वृंदगुणधारी, तुमको नित नौति हमारी ॥दर०॥९॥ क्यो न दीनपर वहु दयावर,दारुन विपतिहरो करुनाकर।क्यों । हो अपार उदार महिमाघर, मेरी वार किम भये हो कृपनतर ।। | वेदपुरानभनत गुन गनघर,जिन समान नआन भवभयहरक्यो। १ "काटि करम जंजाल कालडर" यह एक तुक इस पदमें । * अधिक लिखी हुई है, सो पाठान्तर जान पड़ता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ पदावली | सहि न जात त्रयताप तरलगर, हे दयाल गुनमाल भालवर । भविक वृंद तव शरनचरन तर, भो कृपालप्रतिपाल क्षमाकर। क्यों ० ५ राग खेमटा । बनि आई सकल सुरनार, पारस पूजनको ॥ टेक ॥ काशीदेश बनारसि नगरी, अश्वसेनदरबार || पारस० ॥ १ ॥ इन्द्र सची मिलि करत आरती, संचत पुण्यभँडार ||पारस ० ॥२ केई ताल मृदंग बजावत, केई करत जैकार ॥ पारस० ॥ ३ ॥ केई भाव बतावत गावत, जिनगुणवृंद अपार || पारस ० ॥ ४ ॥ ६ जाऊं कहां तजि चरन तिहारे, हे जिनवर मेरे प्रानअधारे। टेक ॥ तुम्हरो विरद विदित संसारे, अशरनशरन हरन भवभारे । यात शरन चरनकी आयो, पाहि पाहि प्रणतारतहारे ॥ जाऊं ० ॥ १ पावकर्ते जल सुमन सांपतें, निरधनसों कीनों धनधारे । और अनंत जंतकी बाधा, तव किहि विधि तुम तुरित विडारे ॥ जा ० मेरी बार अबार करत हो, हा हा नाथ ! किन सुनत पुकारे । मोहि एक अवलंब आपको, सो तुम देखत दृष्टि पसारे ॥ जाऊं ० ॥ ३ अब तौ तारे ही बनि ऐहै, ही बनि ऐहै, बनै नाथ नहिं विरद विसारे । भविकवृंदकी पीर निवारो, हो मुदमंगलके करतारे ॥ जाऊं ० ॥ ४ ॥ जैनपुरान सुनो भवि कानन । जैन० । टेक ॥ जो अनादि सर्वज्ञ निरूपित, अन्य रचित निरग्रंथ प्रधानन । जैन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ www mraramsaneKKHAR वृन्दावनविलास * आदि अन्त अविरोधयथारथ, जो भावत सब वस्तु विधाननाजै०॥ जो अनादि अज्ञान निवारत, जासमान हितहेत न आनन जैन 1 मिथ्या-मत-मतंग-गंजनको, जोशासन सांचो पंचाननाजैन ॥४॥ जाको सुजस तिहूंजगव्यापत, इन्द्र अलापत तननन तानन जै०१ भविकवृंदको सो अधार है, जो सब निगमागमको आनन। जैन , तेरी वनत वनत वन जाई, जिनसों लागा रहुरे भाई। टेका, *जाको ज्ञान चराचर व्यापक, दोष न जामें कोई। । * आप तरें औरनको तार, सोई अधमल धोई । जिन ॥१॥ जाको वचन विरोधरहित सुनि, भविक मोह भ्रम त्यागे। । जैसे सुनत नादके हरिको, कुमति मतंगज भागै । जिन०॥॥ देखो कोल, नकुल, बंदर, हरि, सांची लगन लगाई। सो सव जगसुख भोगि विलसिकै, लई मुकति ठकुराई।जिन०५ * बूंद बूंद जल परत मेघतें, नदी महा उमगाई। त्योंही सुकृत समर्जन करतें, वेडा पार लगाई । जिन०॥४॥ नरपरजाय पाय कुल उत्तम, अव न ढील कर भाई। प्रीतिसहित जिनचंदवृंद भज, ज्यों भवथिति घट जाई । जि०। राग कजरी। जिनखामी शिवगामी मेरी विपति हरो । जिन० ॥ टेक ॥ है अब आइके तुमारी शरनागत परो। है प्रभु मेरी ओर हेरो मेरो कारज करो ॥ १॥ R - 2 - ---- Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदावली। तुम अधम उधारनका विरद धरो। मैं चेरो प्रभु तेरो मेरो दुरित दरो ॥२॥ भविवृंदकी विधीको तुम जानत खरो। दुखद्वंदको निकंदकै अनंदको भरो ॥ ३ ॥ ___ राग जंतवा । (बनारसी बोलीमें) तुम त्रिभुवनपति तारनतरन हो, हमरी खबरिया किमि विसरावल हो जी ॥ टेक ॥ हमहिं शरन तुव चरन कमलकी हो, करहु कृपा बहु दुखपावल हो जी । तुम० ॥ १॥ अगम अतट भव उदधि उधारन हो, तुमरी विरदियां हम सुन पावल हो जी । तुम०॥२॥ जप तप संजम दान दयानिधि हो, हमसों कछू न अब बनि आवल हो । तुम० ॥ ३॥ अपनि विरद लखि तारो जगपतिजी हो, भविकवृंद तुव गुनगावल हो जी । तुम० ॥ ४ ॥ TAAST मलार। निशदिन श्रीजिन मोहि अधार ॥ टेक ॥ । जिनके चरनकमलको सेवत, संकट कटत अपार । निश०॥१॥ जिनको वचन सुधारस गर्मित, मेटत कुमति विकार । निश * भव आताप बुझावनको है, महामेघ जलधार । निश० ॥३॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. वृन्दावनविलास K. 2 24- * जिनको भगतसहित नित सुरपत, पूजत अष्टप्रकार ।निश जिनको विरद वेदविद वरनत, दारुण दुखहरतार । निश०, * भविकवृंदकी विथा निवारो, अपनी ओर निहार । निश०॥६, * श्रीगुरु दीनदयाल, धन धन श्रीगुरु० ॥ टेक ॥ * परम दिगंबर संवरधारी, जगजीवन प्रतिपाल । धन० ॥१॥ * मूल अंठाइस चौरासी लख, उत्तरगुण मनिमाल । धन०२, देहभोग भवसों विरकत नित, परिसह सहत त्रिकाल । धन०३३ शुधउपयोग जोगमुदमंडित, चाखत सुरस रसाल । धन०४१ * जिनके चरनकमलके रजको, इंद्र चढ़ावत माल । धन० ॥५॥ भविकवृंद जाचत है हे प्रमु, मेरो संकट टाल । धन० ॥६॥ क्या परी चूक हमारी हो। नेमी मोहि त्यागि गिरनार गमन कीनो ॥ टेक ॥ छप्पनकोटि जुरे जदुवंशी, हलधर संग मुरार। व्याहन आये सजि समाजको, मो उर हरष अपार ।। माधुरी मूरति प्यारी हो । नेमी० ॥ १ ॥ मोरमुकट कर कंकन सोहत, उर मणिमुक्ताहार । पशुवन देख दया उर उपजी, सब सिंगार उतार । पंचमहाव्रतधारी हो । नेमी० ॥२॥ कौन भांति समाझावों तुमको, खामी नेमिकुमार। तुमरे चाह उठी उर अंतर, व्याहनको शिवनार । मेरी सुरत विसारी हो । नेमी० ॥३॥ RRRRRRRRRR Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदावली। ५१ मात पिता समझावत मोको, हिलमिलि सब परिवार ।। वे कुमार वरि हैं शिवसुंदरि, तू वर और कुमार। मोको शरन तुम्हारी हो । नेमी० ॥ ४ ॥ मातु पितासों कही राजमति, मो पति नेमिकुमार। उनके संग घरोंगी दिच्छा, चढ़कर गढ़ गिरनार । यह कह करि व्रतधारी हो । नेमी० ॥५॥ धन्य धन्य नेमीसुर सुंदर, बालजती अविकार । धन्य धन्य जग राजमती है, शीलशिरोमनि नार । सुमिरत मंगलकारी हो । नेमी० ॥ ६॥ नेमीश्वर शिवधाम सिधारे, आठ करम निरवार । राजमती सुरधाम सिधारी, एकामव अवतार । भविकवृंद सुखकारी हो । नेमी० ॥ ७ ॥ क्यों मेरी सुरत विसारी हो। प्रमु तुम भविके भय भूरचूर कीन्हें ॥ टेक ॥ सियासतीसों शपथ लेनको, रघुकुलचन्द्र विचार । पावक कुंड प्रचंड कियो, ब्रहमंड ज्वाल विसतार । सो सरवर कर डारी हो । प्रमु०॥१॥ द्रुपदसुताको चीर दुशासन, खैचो समामझार। * तब तिय तुमहिं पुकार करी है, हे जिन जगदाधार । १ नेकु न अंग उधारी हो । प्रमु० ॥ २ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वृन्दावनविलास सोमासों जब शपथ लेनको, घटमहँ विषधर धार । तब तुमको उर सुमर सतीने, निजकर दीनों डार। सुमनमाल कर डारी हो । प्रमु० ॥३॥ सिंधुमाहि श्रीपालतियासों, शेठ अधममतिधार । तब तहँ सती चितारी तुमको, सुन ली तासु पुकार । सब दुखद्वंद विदारी हो । प्रमु०॥४॥ सती चंदनाके ऊपर जब, आयो संकट भार । श्रीमतवीर जिनेसुरजी तब, कीनों जैजैकार। तिहुं जग जस विसतारी हो । प्रमु० ॥५॥ दारिद दुखते पीड़ित है करि, एक सेठ मतिधार। तब तुमको करुना करि टेरी, सुन लीनी तिहॅ बार । सुखसंपति विसतारी हो । प्रमु० ॥ ६॥ शूलीतै सिहासन कीनों, खड्ग सुमनको हार । ऐसे आप अनेक भगतको, दीनों संकट टार । अब मेरी है वारी हो । प्रभु० ॥७॥ रागादिक विन अमल अचल तुम, देव जगतहितकार। भविकबुंदकी विथा निवारो, अपनी ओर निहार । हो मुद मंगलकारी हो । प्रमु०॥ ८॥ ऐसी तोहि न चाहिये, जिनराज पियारे। मो दुखद्वंद निकंदमें, क्यों वार किया रे ॥ टेक॥ तब पावकतै जल कियो, सिय संकट टारे। द्रुपदी चीर बढ़ा दियो, जदु सभामझारे । ऐसी० ॥१॥ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदावली। शेठसुअन घर निधि भरी, दुखद्वंद विदारे । पीर चंदनाकी हरी, किये जय जयकारे । ऐसी० ॥२॥ शूली सिंहासन कियो, ततकाल उवारे। सुमनमाल किय सांपतें, यह सुजस तिहारे ।ऐसी० ॥३॥ वारिषेणके खड्गको, किय कुसुमित हारे। गेठ सुअनको विष हरयो, आनंद बढ़ारे । ऐसी० ॥४॥ सिह कोल कपि न्यौलका, कल्यान किया रे। औ अनन्त जगजन्तको, भवसागर तारे । ऐसी० ॥५॥ । मेरी वार अवार करी, अब कारन क्या रे। । तुहीं मोहि अवलंब है, सुनि प्रानपियारे । ऐसी० ॥६॥ । राग दोष मद मोहका, तुम नाश किया रे । 4 तदपि वृंदकी आशके, तुम पूरनहारे । ऐसी० ॥ ७॥ आदिपुराणस्तुति। आदिपुरान सुनो भव कानन ॥ टेक ॥ । मिथ्यामतगयंद गंजनको, यह पुरान सांचो पंचानन ॥ आ०॥ * सुरगमुक्तिको मग दरसावत,भविकजीवको भवभयमानन||आ०॥ * वृषभदेवको यह चरित्र जो, इंद्र अलापत तननन तानन ॥ आ०॥ विघनविनाशन मंगलकारी, यों वरना मुनिवृंद प्रधानन आ० ॥ प्रथम वेदमें है प्रधान यह, क्रियाभेद जहँ कही विधानन ॥ आ०॥ जिनसेनाचारजकविंदने,यह पुरान भाषा अघहानन ॥ आ०॥ वृंदावन ताको रस चाखत,जो सवनिगमागमको आनन ॥आ०॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास होली। भविजन चले है जजन जिनधाम । भवि० ॥ टेक ॥ * आठ दरव अनुपम सब सजि सजि, भूषन वसनललाम ।भवि०१॥ बाजत तालमृदंग झाँज डफ, गावत जिनगुनग्राम । भवि०॥२॥ * भावसहित जिनचंद वृंद जजि, वरनेको शिववाम । भवि०॥३॥ * काहे सुरति विसारी प्रभु मेरी, काहे सुरत विसारी हो। टेक। वेद पुरानमाहिं यह सुन नुति, तुम मविजनभयहारी हो। तातें शरन चरनकी आयो, लीजे मोहि उबारी हो ॥ १ ॥ मोहि एक अवलंब आपको, सो तुम जानत सारी हो। * मेरी बार अबार करनका, कारन क्या त्रिपुरारी हो ॥२॥ जदपि आप शिवधाम वसे हो, अमल अचल अविकारी हो। तदपि दासकी आश सकलविधि, पुजवत हो सुखकारी हो। पावकतें जल सुमन सांपते, निर्धनतें धनधारी हो। *ती-पत श्रीपत राख लियो तुम, दीपत सभामझारी हो ॥ank अंघ विलोकत मूक अलापत, बधिर सुनत श्रुति सारी हो। * कूकर शूकरको सुरसंपति, आप तुरत विस्तारी हो ॥ ५॥ । * मै हूं दीन दीनबंधू तुम, दुरिताताप निवारी हो। वृंद कहै मम पीर निवारो, हो मुदमंगलकारी हो ॥६॥ - १न जाने क्यों मूलप्रतिमें यह पद लिखकर फिर सफेदेसे ढक दिया । गया है। २ यह पद भी लिखकर काट दिया गया है। स्त्रीकी मर्यादा।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRRENSE वृन्दावनदेवीदास-पदावली। M www वृन्दावन देवीदास-पदावली। *वानी काहे न खिरी, वीर जिनेसुर० । श्रीमन्धर ढिग जाय सचीपति, पूछत भगत भरी ।। टेक ॥ तब जिनराज वचन यो उचरी (१), सुनि उर धारि हरी। *गौतम विप्र होय गनधर तब, वरष अमिय झरी ॥ यह सुनि इंद्र जाय गौतमदिग, छलकर वाद करी। * वीरप्रभूढिग चल्यो विप्र तब, उर बहु गर्व घरी॥ वानी॥२ मानर्थम अवलोकत द्विजको, मिथ्यामान गरी।। दिच्छा धरत भयो मनपरजय, गनधरपद सुवरी ॥ वानी०३ . *ताको निमित पाय ततखिन तब, श्रीजिनधुनि उचरी। । जाके सुनत मोह भ्रम भाजत, पावत शिवनगरी ॥ वानी०४ सो वानी जयवंत आज लगि, राजत जोत मरी। * देवीवृंद नमत नित ताको, जमकी त्रास टरी ॥ वानी० ॥५ - अब न वसों गृहमाही रघुवर!, अब न वसों गृहमाहीं ॥टेक ॥1 जन अपवाद मिटावन कारन, पैठी पावक ठॉहीं। धरमप्रभाव भयो सो सरवर, सब जग देखत आहीं ॥ रघु०११ १५ देवीदास नामके एक कवि बनारसमें कविवर वृन्दावनजी के स*मयमें ही हो गये हैं । उक्त दोनों कवियोंका परस्पर सविशेष सौहार्द * था। इसीलिये जान पडता है, दोनोंने मिलकर अथवा आशय विचार कर ये पद बनाये होंगे। कोई २ पद केवल देवीदासके भी है।रभागे दो या तीन अक्षरोंकी जगहका कागज फट जानेसे पाठ पूरा नहीं किया जा सका।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृन्दावनपिलास तुव प्रसाद सुरसम सुख भोगे, अब कछु वांछा नाही। अब तप धरि सो जतन करों जिमि, नारी लिंग नसाहीं॥रघु०२१ यो कहि सीयसती तपधागे, शुद्धभाव उमगाहीं। अच्युतवर्गविषै प्रतेन्द्रपद, पायो संशय नाहीं ॥ रघु० ॥३॥ भविक वृंदको गरनसहायी, वेद पुरान कहाहीं। देवीको भवसागर तारो, तुम गुनगान कराहीं ॥ रघु० ॥४॥ टे क जिनेन्द्रजन्माभिषेक। प्रभूपर इंद्र कला भरि लायो। शैलराजपर सजि समाज सब, जनमसमय नहवायो क्षीरोदक भरि कनककुंभमें, हाथोंहाथ सुर लायो। * मंत्रसहित सो कलश सचीपति, प्रभुगिर धार ढरायो।प्रभू०॥ अघघघ भभ भभ धध धध धधधध, धुनि दशहूं दिशि छायो। साढ़े बारह कोड़ जातिके, वाजन देव वजायो ॥ प्र० ॥ २॥ सचि रचि रचि शृंगार संवारत, सो नहिं जात बतायो। * भूषन वसन अनूपम सो सनि, हरषित नाच रचायो ॥०॥३. पग नूपुर झननन नन वाजत, तननन तान उठायो । घननननन घंटा घन नादत, ध्रुगत ध्रुगत गत छायो ॥ प्र०४ * द्रिमद्विमदिम मृदंग गत वाजत, थेइ थेइ थेइ पग पायो। * सगृदि सरॅगि घोर सोर सुनि, भविक मोर विहसायो । ०५१ * तांडवनिरत सचीपति कीनों, निजमवको फल पायो। * निज नियोग करि तव सव सुर मिलि,प्रमुहि पिताघर ल्यायो प्र० । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनदेवीदास-पदावली। ५७ * मातुगोदमें सोपि प्रभू कहें, बहु विधि सुख उपजायो। प्रभुसेवाहित देव राखिकै, सुर निजधाम सिधायो । प्र०॥७॥ प्रमुके वयसमान सुर तन परि, सेवा करत सहायो। देवीदास वृंद जिनवरको, जनमकल्यानक गायो॥०॥८॥ | दीनको दयाल देव दूसरो न कोई। *तुम सरवज्ञ उदार दयानिधि तुमही हित होई ॥ टेक ॥ * ब्रह्माजीने वेद बनायो, यों भाषै विसनोई । I हिंसातें तहँ सुरग बतावें, ऐसी गतिमति गोई । दीन० ॥१॥ विष्णु दशों अवतार धारकें, कीरत कारन जोई। । * दानव मारे देव उवारे, जा विधि महिमा होई । दीन० ॥२ रुद्र करै संहार कोपकरि, जगमें वचै न कोई। । नंगधरंग फिरै अरधंगी, भंगी भुंगी भोई ॥ दीन० ॥ ३ ॥ *बौद्ध कहै छिनमंगुर चेतन, प्रौव्य वस्तु नहिं कोई। * नित्यरूप जह वस्तु नहीं तहँ, मुक्ति कौनकी होई ॥ दीन०॥ * वेदांती यों कहें एक ही, शुद्ध ब्रह्म वह होई । जड़ माया उपजाय आप ही, फॅसत फजीहत होई ॥दीन०५॥ 'इह परलोक न पुण्य पाप है, जड़ते चेतन होई । चारवाक नास्तिकयों भारी, निजनिधि तिन नहिं जोई ।।दीन०६॥ राग द्वेष मद मोह कामके, ये किंकर सब कोई । इनतें मुक्ति मिलैगी कैसें, देखो घटमें टोई ॥ दीन० ॥ ७॥ जाके रागादिक मल नाहीं, शुद्ध निरंजन सोई। आप तरै औरनको तारै, धरम जहाज सॅजोई ।। दीन० ॥८॥ % 3D Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. वृन्दावनविलास* आदि अंत अविरोधी जाको, आगम निगम बनोई। । देवीवृंद अराधत ताको, जासों सब सुख होई॥ दीन०९॥ *जनमे अवधपुरी जिनराई । इन्द्र सभामें करत बड़ाई ।। टेक॥ इन्द्रादिकको आसन कंप्यो, लखि प्रमु जनम तुरित शिरनाई।। * सजि समाज कौशलपुर आये, सचीजाय जिन लीन उठाई॥जन । * बालरूप सुरम्प निहारत, सहस नयन करि त्रिपति न पाई। धरि जिन गोद मोदमुदमंडित, ऐरावत चढ़ि सुरगिरिजाई।जन केइ शिर छन्त्र चमर केइ ढारत, केई विविध बधाई। पांडक वन पांडूकशिलाके, सिंहासनपर प्रभु पधराई ॥जन०॥३॥ क्षीरोदकतें न्हवन कियो हरि, गावत बाजत नाच रचाई।। करि सिंगारसचीरचि रुचिसों, सो रचना कछु बरनि न जाई ।। करि नियोग पितुसदन आनिके, मातु सौपि बहु हरष उपाई।। प्रमुके दच्छिनकर अंगुष्ठमें, सुधा सुधापत थापत भाई ॥ जन०॥ सोई पान करत नित जिनपति, त्रिपति होत त्रिभुवनके राई। * इष्ट भोग उपमोगजोग सब, वृंदारक पतिदेत बनाई ॥ जन०॥ *बालविनोद निहारी जिन छवि, तिन निज लोचनको फल पाई।। * देवीवृंद कहत कर जोरे, सो प्रमु मोपर होहु सहाई । जन०॥ गाइये जिनपति जगवंदन, नामिसुअन मरुदेवी नंदन॥ टेक ॥* * जिनको जस तिहुँ लोक उजागर, जो तारत भविको भवसागर * परम सुधारस जिनकी वानी, जाकी स्यादवाद सु निशानी २॥॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनदेवीदास-पदावली। रतत्रय निज निधिके दायक, कृपासिंधु सब विघनविनायका॥३॥ देवीवृंद कहत कर जोरी, हरो प्रभू भवबाधा मोरी ॥ ४ ॥ नेमी व्रतधारी, अब क्या करूंरी । नेमी०॥ टेक ॥ * मोहि त्याग पिय गये गिरनार,वरवेको शिवसुंदर नार। नेमी०१५ मोहि न भावत भोगविलास, मोमन वसतप्रभूके पास। नेमी०२१ खामि तजी जब राजसमाज,तब मोहि कौन भौनसो काजाने०३१ राजमती प्रभुके ढिग जाय, दीच्छा धारी मनवचकाय । नेमी०४१ * देवीवृंद नमत शिर नाय, मेरो भवभय देहु मिटाय । नेमी०५, मलार। नेमि चरनचित राजुल धरिया, जाय चढ़ी गिरनारिपहरिया।टेक भूपन त्यागि शीलवतभूपित. पंचमहाव्रत दुद्धर चरिया। ने० १, आतमज्ञान ध्यान अनुभवरस,पान करत उर आनंद भरियाने देविद नत नित कर जोरै, जयवंती एका अवतरियानेमि०३ ॥ मलार। गोरि त्यागि नेमी मुनि भये. क्या अपराध हमार ॥ टंक ॥ या जा समाजमों. आये सहपग्विार । पगम्य मुनि अंगग भरि बाय न गिरनार । मारि० ॥१ प्रमोग जोगनपि. बमिता विपिन मेलार । दिगोगनय त्यानिफ गयो पद अविकार महिला " httrakanterartraitAR Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRAKASHANKAR वृन्दावनविलास उग्रसेनकी लाड़ली, सती शीलवतधार । * देवीवृंद सदा नमें, एकाभव अवतार ॥ मोहि० ॥ ३॥ ॥ विपुलाचलपर जिनवर आये, सुनत श्रवण नृपश्रेणिक धाये। " । समवसरन सुरधनद बनाये, जासु रुचिरता त्रिभुवन छाये ॥1 द्वादश सभा जहाँ दरसाये, तामधि आप जिनेश सुहाये।। * जातविरोध त्याग पशु आये, जिनपद सेवत प्रीत बढाये ॥ इंद्र जजत शत मोद उपाये, हरखि हरखि गुन गान कराये ।। * जिनधुनि मनहुँ मेघ गरजाये, सब जिय निजभाषा लखि पाये ! . गौतमगनधर अरथ सुनाये, धर्म श्रवणकरि पाप नशाये।। । श्रेणिक सोलह भावन भाये, प्रकृतितीर्थकर बंध कराये ॥ * देवीदास चरन लव लाये, कर जुग जोर नमत शिरनाये ।। हम प्रभुके शरनागत आये, राखि लेहु प्रभु मोहि अपनाये ॥ प्रभूपर कमठ कोप करि आयो । प्रभूपर० ॥ टेक ॥ । पूरववैर विचारि अधम वह, विपुल उपल वरसायो । भूत प्रेत वेताल व्याल विकराल महादरसायो॥ प्रभूपर०॥१॥ घनघमंड ब्रहमंड मंडि जह, जलअखंड झर लायो। पारस मेरुसमान ध्यानमें, मगन न कछु दुख पायो |प्र०२॥ 1 पदमावति धरनेसुरको तव, आसन सहज चलायो। * तबहि आन पदमावति प्रभुको, निज शिर धरि गुन गायो। धरनिदर फणिमंडप कीनो, सब उपसर्ग नसायो ॥ प्रभू० ॥४॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक। ६ केवलज्ञान भयो तब प्रभुको, इंद्रसहित सुर आयो। समवसरन रचना भइ तब ही, देखत पाप नसायो।प्रभू०॥५॥ कमठ आय शिरनाय प्रभूको, निज अपराध छिमायो। त्रिभुवन जनहितहेत तहाँ प्रभु. परमधरम दरसायो॥ प्रभू०६ ॥ *द्वादश सभा श्रवन करि सो धुनि, निज आतमनिधि पायो । प्रभु विहार करि भविकवृंदहित, शिवमग प्रगट दिखायो।प्रभू आठों करम नाशि पारसप्रभु, आठोंगुन निज पायो। देवी नमत समेदाचलतें, जिन अविचलपद पायो ॥ प्रभू० ८ ॥ (१४) प्रकीर्णक। ८ श्रीरविसेनाचार्यकी स्तुति। माधवी । रविसे रविसेन अचारज है, भविवारिजके विकसावनहारे। * जिन पद्मपुरान वखान-कियो, भवसागरतें जगजंतु उधारे ॥ * सियरामकथा सु जथारथ भाषि, मिथ्यातसमूह समस्त विदारे । * मविवृन्द विथा अबक्यों न हरो, गुरुदेव तुम्हीं ममप्रान अधारे॥ २ श्रीजिनसेनाचार्यस्तुति । । भगवजिनसेन कविंद नमों, जिन आदिजिनिंदके छंद सुधारे।* प्रथमानुसुवेद निवेदनमें, जिनको परधान प्रमान उचारे ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास R amNAAM * जगमें मुदमंगल भूरि भरे, दुख दूर करें भवसागर तारे।। * भविवृन्द विथा अब क्यों न हरो, गुरुदेव तुम्हींमम प्रानअघारे । जिनवानीस्तुति। मनहरन । कुमति कुरंगनिको केहरि समान मानी, __ माते इभ माथे अष्टापद हहरात है। दारिद निदाघ दार प्राट् प्रचंड धार, ___ कुनै-गिरि-गंड खंड विज्जु पहरात है । आतमरसीको है सुधारसको कुंड वृन्द, सम्यक महीBहको मूल छहरात है। सकल समाज शिवराजको अजज जामें, __ ऐसो जैन वैनको पताका फहरात है । दिगम्बर-स्तुति। माधवी। * आतमज्ञान-सुधारस-रंजित, संजुत दर्वित भावित संवर। शुद्ध अहार विहार धरै, परिहार करें भविभाव अडवर ॥1 मूल गुणोत्तरमें लवलीन, प्रवीन जिनागममाहिं निरंबर। । * वृन्द नमै कर जोर सदा नित, सो जगमें जयवन्त दिगम्बर।। १ हाथी । २ प्रीष्मऋतु । ३ वर्षा । ४ वृक्षका । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रकीर्णक । woman पद्मावतीकी स्तुति। अमृतध्वनि-त्रिभंगी। दरसत पद्मावति, दृगसुख पावति, मन हर्षावति, अति भारी | मंगलमुदमंडित, विधन विहंडित, सुबुधि उमंडित, हितकारी ॥ * सेवक सुखदायनि, उदय सहायनि, सुगुन रसायनि, मन आनी। वृन्दावन वंदै, अहित निकन्दै, नित आनन्दै, सुखदानी ॥ * दानी प्रन सुन, जानी निजमन, ठानी थुति नुत । सानी तनमन, आनी गुनगन, जानी हितजुत ।। मेरो दुखहर, दीजै सुखवर, माता हरषत । गाता परसत, साता सरसत, माता दरसत ॥ मत्तगयन्द । जानत वेद पुरान विधान, प्रधाननमें अगवान अतीको। । लौकिक रीतिविर्षे बुधिवान, जहानमें जासु प्रतीति व्रतीको ॥ जो निज आतमरूप न जानत, शुद्ध सुभाव गहै न जतीको।। तो कविवृन्द कहो तिहिंको, वह एक रती विन एक रतीको माधवी। * अतिरूप अनूप रतीपतिते, न सचीपतित अनुभूति घटी है। | कविवृन्द दशौं दिशि कीरतिकी,मनों पूरनचन्द प्रमाप्रगटी है। १अमृतध्वनिकी दोहाके साथ बनानेकी परिपाटी है । परन्तु अमृतध्वनिका त्रिमगीके साथ सयोग अबतक कहीं नहीं देखा गया । कविवर। वृन्दावनजीका यह नवीन ही प्रयत्न है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FKRRRRRRRR वृन्दावनविलास १६४ । सव ही विधिसों गुनवान बड़े,बलबुद्धि विमा नहि नेक हटी है।। *जिनचंदपदांबुजप्रीति विना, जिमि "सुंदरनारीकी नाक, ___ कटी है" * नरजन्म अनूपम पाय अहो, अव ही परमादनको हरिये। । १ सरवज्ञ अराग अदोषितको, धरमामृतपान सदा करिये ॥ अपने घटको पट खोलि सुनो, अनुमौ रसरंग हिये धरिये । १ * भविवृन्द यही परमारथकी, करनी करि भौ तरनी तरिये ॥ - Gha * जिनेन्द्रजन्माभिषेकभावना।। । सुरपति जिनपति न्हवन करनको, क्षीर उदधि जल आना है।। सहस अठोत्तर कलश कनकमय, और कलश असमाना है॥१॥ * कर कर कर सुर लावत मिलिकर, उच्छव होत महाना है। मंत्रसहित सब कलश ईश शिर, एकहि बार ढराना है ॥ २॥ * अघ घ घ घघ,भभ भभधधधध,धुनि सुनि भवि हरषाना है।। दिम दिम दिम मृदंग गत वाजत, नचत सची सुख माना है ३ ॥ सादि सरंगी सुरसुताल मिल, गावत सुजस सुजाना है। श्रुगत श्रुगतगत थेइ थेइ थेइ थेइ, तांडव निरत रचाना है ॥ ४॥ कर जिनन्हौन सिंगार सची रचि, सो किम जात वखाना है। धन्य धन्य वह सची सयानी, एक जनम निरवाना है । करि वियोग पितु सदन सोपि सुर, धन्य जन्म निज माना है। जो भविबंद सुजस यह गावै, सो पावै मनमाना है ॥ ६॥ ghoy my Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रकीर्णक। ~ - श्रेयांसनाथस्तुतिः। अरिल। सिंहपुरी मुखरास वनारस पास है। जनमें तहँ श्रेयांसनाथ मुखरास है। धनद रतन झर लायो पंद्रह मास है। नववारह जोजनको नगर सुमन सुमन वरसायो सुखद सुवास है। बीन बाँसुरी आदि वजत चहुँपास है। सुरपत फनपत नरपत जाको दास है। __ भगतिसहित सुरनारि रचत जित रास है ॥ २ ॥ परम धरम दरगाय हरत भवि भास है । सेवा करत मो पावत मुरगनिवास है। जो जिनवरको मुजम त्रिलोक प्रकाश है । भविकवृंदकी मो प्रभु पुजवत आग है ॥ ३ ॥ रमन्यंजन। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास E3-34--- रसव्यंजन रससों कहों, सुनत होत आनंद ॥ १॥ भगिनी कच्छ सुकच्छकी, नंद सुनंदा नाम । व्याही रिखवजिनेशने, जगसुखशोमाधाम ॥ २॥ शुभ्रगीता छन्द । श्रीनाभिनंदन जगतवंदन, जयो जगहितकार तव इंदवृंद समस्त उच्छव, कियो अपरंपार ॥ वय तरुनमय लखि राजकन्या, सहित रच्यौ विवाह । धरनिद इंद खगिंद सुरपति, सजि चले नरनार ॥३॥ तह शुभमुहूरतमें कियो, पाणिग्रहण सुखमूल।। जाचक जगतके सधन कीनै, सहित हित अनुकूल ॥ भोजनसमय तहँ भामिनी, गारी कहहि परि मोद। सुनि श्रवन सुख मुख प्रेम पंकत, वचन विविध विनोद ४ भोजन रसाल विशाल परसे, तहाँ मान महान । तिन निजनियोग विधान-लखि, वाघ्यो सकल पकवान ॥ तिहि समय कोविद कहन लागे, छंद रससुखदान। * तुम सुनो समधी सुबुधसंयुत, सकलजन दै कान ॥५॥ * खोलों जु मोदक मोदकारी, मधुरसूदुरस रंज। . वांधों जु वेंदी शीसकी, जासों दिपत मुख कंज ॥ * खोलों अमिरती सरस खुरमा, नयन-मनसुखदाय । बांधों करनके फूल जातें, जुगकपोल दिपाय ॥ ६ ॥ खोलों जु खाजे अति मृदुल, बांधों गलेके हार। । खोलों जु पेड़े गंध प्यारे, वरफियां सुखकार ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक। AAAAAAM बांधों जुगल भुजबंध कंठा, कंठके आमर्ण। खोलों जु निमकी सेव वांधों, कहि सुभग उपकर्ण ॥७॥ खोलों जु पानी पान पत्तल, आदि सव विधि योग ।। बांधों जुगलपदके विभूपन, सकलवस्तुमनोग ॥ बांधों जु सारी शुभसँवारी, कंचुकी रसधाम । बांधों जु लहँगे अरु दुपट्टे, लखत उपजत काम ॥८॥ बांधों जु वानी प्रेमसानी, गालियाँ जुत नार। खोलों सकलपकवान पानी, करहु अब जिवनार ।। इह विधि विवाह उछाहमें, जो छंद गावै इंद । तिनके मनोरथ सिद्ध करि है, श्रीजुगादिजिनंद ॥ ९॥ फत्ति (३१ मात्रा) हे शिवतियवर जिनवर तुव पद, पंकजमहँ कमलाको वास। विघनविनायक सब मुखदायक, विशद मुजस अस रखो प्रकाश में गनिमद गोहवश प्रभुमों, प्रीति न कियो मिट किमित्रास।। अब भग्नागत आनि पगे हूं. मुफल करो मेरी अरदाम॥१॥ दुपटान गुणकारन प्रभुनो. प्रेग न झिये हिये हित चाहा। आभिक-भाव-वियग निशियामर. भजे कदेव समन्ध कुगट् ॥ अब पता प्रभुको. पायो दीनबध भियनार।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RK2RKERAR वृन्दावनविलास हे प्रभु वेगि हरो मम आपत, दीजे मनवांछित उच्छाह ॥२॥ जनरंजन अघभजन प्रभुपद, कंजन करत रमा नित केल। *चिन्तामणि कल्पद्रुम पारस, वसत जहाँ सुरचित्रावेल ॥ सो पदपंकज हे करुनाकर, मो उर बसो सकल सुखमेल। श्रीपति मोहि जान जन अपनो, हरोविघनदुख दारिदजेल ३ । भुजंगप्रयात । तुमी कल्पनातीत कल्यानकारी। कलंकापहारी मवांभोधितारी।। रमाकंत अरहंत हंता भवारी । कृतांतांतकारी महा ब्रह्मचारी ।। नमो कर्मभेचा समस्तार्थवेत्ता । नमो तत्त्वनेता चिदानंदधारी। प्रपद्ये शरण्यं विभो लोक धन्यं । प्रमो विघ्ननिम्नायसंसार तारी॥ अनंगशेखर दंडक । (वर्ण ३२) नमामि नामिनंदनं भवाधिव्याधिकंदनं, ___ समाधिसाधचंदनं शतिंदवृंद बंदितं । अशेष क्लेशभंजनं मदादिदोष गंजनं, मुनिंदकंजरंजनं दिनं जिनं अमंदितं ।। अनंतकर्मछायकं प्रशस्त शर्मदायक, नमामि सर्वलायकं विनायकं सुछंदितं । समस्त विघ्न नाशिये प्रमोदको प्रकाशिये, निहार मोहि दास ये प्रभू करो अफंदितं ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक। ....WWW १५ भशोकपुप्पमजरी। जै जिनेश ज्ञान भान भव्य कोकशोक हान. लोक लोक लोकवान लोकनाथ तारकं । ज्ञानसिंधु दीनबंधु पाहि पाहि पाहि देव, ___रक्ष रक्ष रक्ष मोक्षपाल शीलधारकं ॥ गर्म कर्म भर्म हार पर्म शर्म धर्म धार, ___ जैति विघ्ननिघ्नकार श्रीमते सुधारकं । औनकै पुकार मोहि लीजिये उवार हे, र उदारकीर्तिधार कल्पवृच्छ इच्छकारकं ॥ मुनिराजस्तुतिः। विजयाछन्द। *१ काममदाष्टक जीते जती जोके श्रीमतको मत जोवत तिष्टै।। १२ शंत वहइ शतवंत वहइ, नवतत्तहिं सद्दहै निष्टित शिष्टै ॥ ४ काय जिके जलकायको जानइ, काय निजेव जिवायकनिष्टै।। १८ दारइ कर्म दरै दुरदाय, हियेमें यमी रमि होय महिष्टै ॥ * विशेष—यह छन्द ऐसी चतुराईसे बनाया गया है कि क * इसमेंसे यदि कोई अक्षर कोई पुरुष अपने मनमें ले लेवे, तो। * उसे वतला सकते है। उपाय यह है कि, बतलानेवालेको * निम्नलिखित दो दोहे याद कर रखना चाहिये। दोहा। श्रीशीतलजिनवर महा, दायकइष्ट रसाल। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० वृन्दावनविलास * "वृन्दावन" मनवचनतन, नावत तिनकहँ माल ॥ १॥ * एक दोय चौ आठ ये, क्रमतें पदपर लेख ।। * पूछ बताबहु वरन गनि, शीतल पन्द्रह पेख ॥ २॥ सारांश यह है कि, उपर्युक्त छन्दके चारों चरणोंपर क्रमसे ११-२-४-८-ये अंक क्रमसे लिखकर पूछना चाहिये कि, आपने | जो अक्षर लिया है, वह किस चरणमें है ? जितने चरणोमें वह अक्षर बतलावे, उन चरणोंपर रक्खे हुए अंकोंको जोड़ लेना * चाहिये । पश्चात् जो जोड़की संख्या हो, श्रीशीतलजि नवर महादायक इष्ट" इन पन्द्रह अक्षरों से उतने ही वॉ। १ अक्षर निसन्देह बतला देना चाहिये । जैसे त अक्षर पहले ! है और दूसरे चरणमें है । इन दोनों चरणोंपर रक्खी हुई संख्या* का जोड़ ३ होता है । वस "श्रीशीतल......."आदि पदका तीसरा अक्षर भी वही त है। जिनेन्द्रनेत्रवर्णन । छप्पय । मीन कमल मद () धनद (1) अमिय अंतकु (१) छवि छज्ज। __१इस छप्पयके प्रथम चरणमें जिनभगवानके नेत्रोंको छह उपमा दी है। और फिर शेष पांच चरणोंमें प्रत्येक उपमाके क्रमसे छह छह विशेषण * दिये हैं। जैसे प्रथम चरणमें दूसरी उपमा कमलकी है । अर्थात् भगवान के नेत्रकमलके समान है। परन्तु कैसे कमलके समान ? तो सदल (प. त्रसहित), विकसित (फूले हुए), दिवसके (दिनक),सरज (सरोवरके), और । मलयदेशके, इस प्रकार पांचोंचरणोंमें उसके विशेपणदेख लीजियोमाकी छह । उपमाओंको भी इसी प्रकार क्रमसे लगाकर समझा लेनी चाहिये । इसे पहः। विधान छप्पय कहते हैं। चतुर कवि ही इसे बना सकते हैं। - - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक | जुगल सदल अति अरुन, सघन उज्ज्वल भय सज्जै ॥ हुलसित विकसित समद, दानि नाकी (?) अति कूरे | केलि दिवस शुचि अति उदार, पोषक अरि चूरे ॥ सम सरज नीत चितचिंत दे, वृंद मिष्ट अनशस्त्रधर । जल मलय महत अकहत अकृत, देवदृष्टि दुखसृष्टिहर ॥ १८ जिनदेवस्तुतिः । छप्पय । सोलह भावन सहित, छँहों विधि पूज ऐक जिन । पंच भमन पैन करन, हरन नैव सुनय कहे तिन । शून्यांदिकमतमर्द्दि, सात विधि तत्त्व बखाने । तीनै रतन उर धार, सात मंगनि भ्रम माने ॥ है शून्य अलोक चहूँ दिशा, चार वेद घन सात थल । पैंट् दरब चवार्लिर्स द्वार नर, जय अष्टादश दोष दल ॥ विशेष- इस छप्पय में गणधर देवकी वाणीके अक्षर जो कि वीस अंक प्रमान है; जिनदेव स्तुतिमें गर्भित करके दिखलाये गये हैं । उनके निकालने की विधि निम्नलिखित दोहामें बतलाई गई है । ७१ दोहा | बाई दिशतें अंक ये, लिखो वृंद सुखकार । जेती संख्या है तिते, जिन धुनि अच्छर सार ॥ अर्थात्- बाई ओरसे संख्याके अंक लिखनेसे गणधरदेवकी वाणी १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ अंक प्रमाण होती है । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास चौदह अंकप्रमाण पूर्वसंख्याका वर्णन। खोरठा। रुद्र प्रमित धर सुन्न, तत्त्व दैरव पुनि जेड़ जिने । लिख बाई गति मुन्न, पूरवसंख्या वरप यह ॥ * अर्थात्-ग्यारह शून्य, सात, छह और पांचकी संन्या वाई ओरसे लिखनेमें ५६७००००००००००० होनी है। * यही पूर्वके वर्षोंकी संख्या है। मनुष्यसंख्या । मनहरन । छत्तिस अचारजके गुन तिहुँ गल्ल मुझे, __ पंचाचार उनतालतरम पावना। चौवन सदीव बंध तिरीन नामगृन्द. पन्छेसर चौथे बंध जापाना | तीस तीन आयु नारे व पधागा . ___घाती' नादै गुन पनीम मन गाला। साल" तीन बैंगन का दो. त्यागिन-भिमान PATI Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक। .७३ * अर्थात्-अढाई द्वीपके सैनी पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या । * ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६अंक प्रमाण है। २१ दशकुलकोड़संख्या । दोहा। छहों सुन्न सेर हेर धरन, गेरुडध्वज शशि जान । वाम दिशातें अंक लिखि, लखि कुलकोड़ प्रमान । अर्थात्-कुल कोड़की गिनती १९५५०००००० है ।। २२ अनवस्थाकुंडके सरसोंकी गिनती। छप्पय । पन्द्रहवार छतीस, सोल तेईस लिखो पुनि । पैतालिस अरु तीस, ऊनतिस ग्यार लिखौ चुनि ॥ सत्तानो उनईस लिखो जव, गनित रीति तब । होत छियालिस अंक वृन्द, गनती सुजान सब ॥ अनवस्था नामा कुंड जो, जम्बूद्वीप प्रमान है तामें सरसों येते अहै, राजू गनित विधान है। अर्थात्-१९९७११२९३०४५२३१६३६३६३६३६५ ३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६इस प्रकार ४६॥ अंक प्रमान सरसों अनवस्था कुंडमें होते हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास व्यवहारपल्यके कुंडके रोमोंकी गिनती। छप्पय । ठार सुन्न बानवै इकीस, इकावन नौ लिखि । चौहत्तर सतहत्तर चौतिस, वीस लिखो सिखि ॥ आठ अधिक शत तीन, तीस छव्विस पैंतालिस । तेरह चार सुधार, बामगत लिखो अंक इस ॥ __ पैतालिस अंक प्रमान ये, रोमराशि सब जानिये । व्यवहार पल्यके कुंडमें, जिनवानी परमानिये ॥ * अर्थात्-व्यवहारपल्यके कुंडमें४१३४५२६३०३०८२०१६ ३४७७७४९५१२१९२०००००००००००००००००० रोम होते है। इन पैंतालिस अंक प्रमान रोमोंको जब सौ सौ वर्षे गये एक। एक रोम निकाले । जितने समयमें सब रोम निकलके कुंड खाली हो जाय, उतने समयको व्यवहार पन्य कहते हैं । भोगभूमिकी उत्पन्न हुई एक दिनकी भेड़के अत्यन्त सूक्ष्म रोमोंसे । * जिनसे कि छोटे फिर नहीं हो सकते हैं, व्यवहारपल्यका कुंड । * गाढावगाढ़ भरा जाता है । उन्ही रोमोंकी संख्याका यह । वर्णन है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। (१५) अथ छन्दशतक लिख्यते। दोहा। वंदों श्रीसरवज्ञपद, निरावरन निरदोष । * विधनहरन मंगलकरन, बांछितार्थसुखपोष ॥ १ ॥ सिद्धशिरोमनि सिद्धिप्रद, बंदों सिद्धमहेश ।। छंद सुखदरचना रचों, मेटो सकलकलेश ॥२॥ छंद महोदधितै लियो, मैति-भाजन-मित काढ़।। लिखों सोइ संछेपसों, वालख्याल अवगाढ़ ॥ ३ ॥ छंदनको लच्छन लिखत, बढ़े बड़ो विस्तार । * तातै कछु प्रस्तार लखि, लिखों छंद सुखकार ॥ ४ ॥ लघुकी रेखा सरल है, गुरुकी रेखा बंक । इहि क्रमसों लघुगुरु परखि, पढ़ियो छन्द निशंक ॥५॥ कहुँ कहुँ सुकवि-प्रबन्धमहँ, लघुकों गुरु कहि देत । । १ अपनी बुद्धिरूपी वर्तनके प्रमाण । २ छन्दशास्त्रमें नानाप्रकारके। * छन्दोंके विचार और प्रकार प्रकाशित करनेवाले ९ प्रत्यय होते हैं ।। । उनमें एक प्रस्तार भी है । जितनी मात्राके छन्दोंके जितने भेद हो * सकते हैं, उनके रूपोंके दिखा देनेको ही प्रस्तार कहते हैं। ३ छन्दशास्त्रमें * लघुका रूप । इस प्रकार सरल रेखा माना गया है और गुरुका '5' इस प्रकार बक अर्थात् टेड़ा । इस्वको लघु और दीर्घको गुरु कहते है। *४ भाषा छन्दशास्त्रमें कहीं २ गुरुको लघु और लघुको गुरु मानकर। । पढ़नेकी परिपाटी है । यथार्थमें अक्षरका गुरुत्व और लघुत्व उसके उच्चा-- Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ वृन्दावनविलास गुरुइको लघु कहत है, समुझत सुकवि सुचेत ॥ ६॥ ___ अथ आठोंगनके खामी, फल, और लक्षण । दोहा। तीनवरनको एक गन, लघु गुरुतै वसु मेद । तासु नाम लच्छन सुनों, स्वामी सुफल अखेद ॥ ७॥ सवैया छद । ( मात्रा ३१) मगन तिगुरु भू लच्छलहावत,नगन तिलघु,सुर शुभफल देत, * भगन आदि गुरु इंदु सुजस लधु, आदि यगन जल वृद्धि करेत।' *रणपर निर्भर है। जैसे; "इंद्र जिनिंद्रको गोद धरे चढ़े मत्तग।यन्द इरावत सोह" सवैयाके इस पदमें को और ढ़े यद्यापि गुरुवर्ण है, परन्तु लघु पढ़े जाते हैं। इसलिये इनकी एक एक ही मात्रा समझी जावेगी। संस्कृतका संयुक्ताचं दीर्घम् यह नियम भी कहीं २१ भाषामें नहीं माना जाता। जैसे घर द्वार। इसमें द्वा सयुक्तवर्ण है, इस-1 ¥ लिये इसके पूर्व र को गुरु पढ़ना चाहिये । परन्तु भाषावाले इसे लघु ही। पढ़ते हैं। १ इस संवैया में बहुत ज्यादा विषय कह दिया गया है । उसे हम स्पष्ट कर देते है। नामगण। लक्षण। गणका स्वामी । फल । .sssमगण तीनो गुरु पृथ्वी लक्ष्मी ।।।।नगण तीनों लघु सुर शुभ s।। भगण आदिमें गुरु चन्द्रमा सुयश 15 यगण आदिमें लघु वृद्धिकर । जगण मध्यमें गुरु अग्नि मृत्यु JSIS रगण मध्यमें लघु 15 सगण अन्तमें गुरु वायु भ्रमण ss|तगण अन्तमें लघु नभ जल अमर शुन्य Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। ७७ रगन मध्यलघु अगनि मृत्यु गुरुमध्य जगन रविरोग निकेत।* सगन अंतगुरु वायुभ्रमन तगनंऽत, लघू नम शून्य फलेता॥८॥ दोहा। मगन नगन भगनो यगन, शुभ कहियतु है येह ।। रगन जगन सगनौ तगन, अशुभ कहावत तेह ॥ ९ ॥ मनुजकवितकी आदिमें, करिये तहां विचार। देवप्रबंधविषै नहीं, इनको दोष लगार ॥ १० ॥ त्याग निरख नरकवितमहँ, अंगन मनहिं विलखाय । आये शरन जिनेंदके, निज निज दोष विहाय ॥ ११ ॥ सुधासिंधुमहँ गैरलकन, मिलत अमी हे जात । यह विचार गुरु ग्रंथमहँ, गहन करी गनत्रात ॥ १२ ॥ गहत प्रतिज्ञा वृंदकवि, कर गुरु चरन प्रनाम । अरथसहित सब छंदके, परै अंतमें नाम ॥ १३ ॥ आठ गननके छंद जे, तिनके गन जुत नाम । छंदमाहि गरमित रहै, जिनमें जिनगुणग्राम ॥ १४ ॥ स्यादवादलच्छनसहित, जिनवानी सुखकंद । ताहीको रस छंदमें, प्रगट धरत भविवृंद ॥ १५॥ इति पीठिकावन्ध । १ देवकाव्य अर्थात् तीर्थंकरादि पूज्य पुरुषोंके चरित्रमें अशुभगणोंका दोष नहीं माना है। २ अगण अर्थात् अशुभगण । ३ विषकी कणिका ।। 1 ४ अमृत । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास गण छन्द। (चार नगन) तरलनयन छन्द। चतुर नगन मुनि दरशत। भगत उमग उरसरसत। नुति थुति करि मन हरषत। तरलनेयन जलवरषत ॥१॥ (चार भगन) मोदक छन्द। S।। || ॥ भौगन चार पदारथ पावत। दर्शन ज्ञान बतौ तप भावत । सो निहचै विवहार विनोदक। खर्गपवर्ग लहै फल मोदक ॥ २॥ (चार यगन ) भुजंगप्रयात छन्द । ISSISS IS SI ss समौनृत्यकी को कहै सर्वे वातौ । लखौ चारूँ येही अलौकीक जाती। १ चतुरनगनसे एक अभिप्राय तो यह है कि, बार "नगन" से यह छन्द बनता है । और दूसरा अर्थ "चतुर और ननमुनि" होता है ।२१ तरलनयन छन्दका नाम है, और मुनिके दर्शनसे तरलनेत्रोंसे मानन्दके । आंसू टपकने लगते है । यह भी अर्थ है । ३ "चारभगण" पक्षमें "भा-1 ग्यसे चारपदार्थ मिलते हैं। ४ "चार ये' अर्थात् चार यगण। - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक। तहाँ पक्षियोंका पती भी रहातौ। तहाँतै कभी ना भुजंगप्रयातौ ॥ ३ ॥ (पांच मगन ) सारंगी तथा चित्री छन्द । SS SS SS SS SS SSSSS पाँचोंहीसे नाता जोरे तामें मग्नामांचा है। ताही सेती नाता तोरै सोई ज्ञाता सांचा है ॥ आपाहीमें सांचै राचे आपाहीको है रंगी। सो ही वेवै आपामाही चित्रा वाजा सारंगी॥ % 3D (चार तगन ) मैनावली छन्द । SS ISS is SIS SI चोरों तरके जिते देवके भेव । जैनद्रहीकी करें प्रीतिसो सेव ।। भै टारिवेकी यही जासकी टेव । मैं नाव लीनों मुझे तारि हे देव ॥ ५॥ * १ भुजंगप्रयात उन्द और भुजग अर्थात् सर्प वहांसे नहीं भागते । है। मरे कविनीने ३ भगण और २ यगणके छन्दको चित्रा नाना । ३ "पांचों नगा" अर्थात् पाच मगण । पक्षमें पांचाहीसे अर्थान् । पोनों इशियोंने समाना चाहिये। ४ अनेक कवियों ने इसे सारंगत। माना है।५ गार गण। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास MRAN M (चार रगन ) लक्ष्मीधरा छन्द । SIS SIS SIss is जग्गमें तैग्ग जो चार घाती हरा। राग संचार जाके न होवे खरा ॥ सो जिनाधीश निर्दोष शोभा भरा। बाह्य आभ्यंतरे छंद लक्ष्मीधरा ॥६॥ (चार सगन ) तोटक छन्द । 15155115 गन चार सभेद समाथित ही। ___तजि वैर प्रमोद भरें हित ही ॥ जिनगंधकुटीजुत है जित ही। मम तो टक लागि रह्यो तित ही ॥७॥ (चार जगन) मोतीदाम छन्द । ISIS ||5|| जिनेसुरको मुद-मंगल-धाम । जहां चहुँ देव जति ललाम ॥ प्रलंबित द्वारनिमें अमिराम । अमोलमणीजुत मोतियदाम ॥८॥ इति गणछन्दवर्णन । - . १ इसे स्रग्विणी, लक्ष्मीधर, शृगारिणी, और कामिनीमोहन भी कहते है। २ जगतमें। ३तग्ग अर्थात् तज्ञ (पडित)। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। ८१ अथ वर्णछन्द लिख्यते। श्रीछन्द (१ वर्ण) 'दे। मे। ही। श्री ॥ १॥ मधुछन्द (२ वर्ण) जिन । धुन । सधु । मधु ॥ २ ॥ महीछन्द (२ वर्ण) जैती । गती । वही । मही ॥३॥ मंदरछन्द (वर्ण ३, भगण) कंदर । अंदर । सुंदर । मंदर ॥१॥ हरिछन्द (वर्ण ४ न ल) अरचत । परचत । जिनवर । हरि हर ॥ ५ ॥ धारि (रल) जैन जानि । मोह भानि । भर्म हारि । धर्म धारि॥६॥ १ हे भगवन् ! मुझे लक्ष्मी दो और लज्जा भी दो । २ पृथ्वीमें यति(मुनि) की गति 'वही' अर्थात् मोक्ष है । ३ कन्दराके भीतर सुन्दर म-* "न्दिर बना हुआ है । ४ इन्द्र और हर जिनेन्द्रदेवकी अर्चा (पूजा)। करते हैं और इनसे परिचय करते हैं। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास राम ( से ग) जपि नामं । सुखधाम । जिनशामं । अमिरामं ॥७॥ - - - - नायक (सलल) सबलायक । गुन छायक। सुखदायक | जिननायक ॥ ८॥ - - - - चउवंशा (न य) धरम सुअंशा । जग अवतंशा। मुनि परशंसा वर । चउवंशा॥९॥ .2 .. s cres सूर (तमल) नारीनके जे नैन । ते तीर तीखे ऐन । जाको न वेधे कूर । सोई बड़ो है सूर ॥ १० ॥ -sank- क्रीड़ा (य र ग ग) अहो भौपीरके हर्ता । अहो कल्यानके कर्ता। हमारी मेटिये पीड़ा । अतींद्रीमें करों क्रीड़ा ॥११॥ 4-Ramdake १ ससे सगण और गसे गुरु समझना चाहिये। इसी प्रकार मन भय जर स त गल से मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण,सगन तगण गुरु और लघुका अभिप्राय है। इसे शशिवदना, चारमा और पादाकुलक भी कहते हैं। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। धरा । (त म ल ग) सांची कथा है जैनकी । ज्ञानी मथा है ऐनकी। हो पारखी ! देखो खरा। जो ही धरा सो ही तरा१२ ॥ प्रमानिका (ज र लग) घटादि क्या पटादि क्या । वृथा रटै सवादि क्या। सधै सुवोध सामका । वही प्रमान कामका ॥१३॥ विद्युन्माला (म म ग ग) जैनी जोगी वर्षाकाले । आपा ध्यावै बाधा टाले। कूकै केकी मेघज्वाला । चौघा नच्चै विद्युन्माला॥१४॥ श्लोक। आप्तागमपदार्थोंके, खामी सर्वज्ञ आप हो । सुरिंदवृंद सेवै है, आपको इसलोकमें ॥ १५ ॥ तोमर ( स ज ज) जिसने गहा व्रत नेम । कबहूँ न त्यागो तेम । उपसर्गहूमहँ याद । नहिं त्यागतो मरजाद ॥ १६ ॥ पुनश्च । जिसका प्रभूसों नेह । जग धन्य है नर तेह । किन होहु कोटपवाद । नहिं त्यागतो मरजाद॥१७॥ १ इसे प्रमाणी तथा नगस्वरूपिणी भी कहते हैं । २ जिसके प्रत्येक चरणका पांचवा अक्षर लघु और छठा दीर्घ हो, तथा दूसरे और चौथे चरणका * सातवा वर्ण भी लघु हो, उसे शोक मनुष्टुप् कहते हैं । इसमें और कोई । । नियम नहीं है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास मत्ता (म म स ग) जैनी जानै निजगुनसत्ता । सोई पावै शिवपुरपत्ता ।। जे एकांती कुमतिविरता। ते का जानें मदकरिमत्ता १८॥ सारवती ( म म म ग) जास अभ्यासत मोह घटै। अंतरका पट सो उघटै।। जो भवपार उतारवती। सोश्रुति सेइय सारवती १९ ॥ मुखमा ( त य म ग) चौमासुतसो यारी करिये। काहे मनमें शंका धरिये।। जाकी पदमा दासी कहिये। जो जो सुख मांगो सो लहिये२०१ मनोरमा (न र जग) ___ करम शत्रुपै कहा छमा । धर्मशस्त्र ले तिन्है गमा ॥ I अब न चूक मै कहों जमा।चिदविलासमें मनोरमा ॥२१॥ मोटन ( भ भ भ ग) . मातु पिता जिमि ढोटनको । पालत है वरु खोटनको।। . आप दया सम जोटनको । मेटि विथा मनमोटनको॥२२॥ १ इसे हालकी भी कहते हैं । २ इसे वामा भी कहते है। ३ श्रीपार्श्व* नाथसे । ४ दूसरे कवियोंने इसके पहले एक २ गुरुवर्ण रखकर ११ वणोंका। मोटनक वृत्त माना है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक । लोलतरंग ( भ भ भ ग ग) द्रव्यसुभाविक पर्जेयमाही । हान रु वृद्धि छमेद सदा हीं॥ सागरबीच उठति उमंगी त्योंतित होतकलोलतरं सायक ( स म त ल ग) * अपने आतमके ज्ञायक है । अनुभौमें रहिवे लायक हैं। करमोंके छलके घायक है । मुनिपैछायक ही सायक हैं ॥२४॥ स्वागत (र न भ गग) हस्तनागपुर हर्ष विशेखी । श्रीश्रेयांस नृप हू पुनि पेखी। दान दीन सनमान अलेखी। आदिईशमुनि स्वागत देखी २५ । समुंद्रका (नन र लग) समकित व्रत आदि जे कहे । शकतिप्रमित तासको गहे। उर नित रटना जिनिंद्रका । तिनकहँ यह भौ समुंद्र का २६॥ अनुकूल (म त नग ग) ता घर होवै निधि धनमूलो । सो सुख पावै अगम अतूलो । मंगलकारी प्रमुदित फूलो। जापर है श्रीजिन अनुकूलो ॥२७॥ - १ इसे दोधक तथा वन्धु भी कहते हैं । २ किसी २ ने इसे सुभद्रिI का लिया है। मौक्तिकमाली भी इसे कहते हैं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास सुमुखी ( न ज ज ल ग) निजपदको जिन सांच लखा । अनुभवखाद अवाद चखा ॥ * पुदगलसों नहिं रागरुखी । तिनक: भाषत हैं सुमुखी ॥२८॥ __हरिनी ( ज ज ज ल ग) * चिदातम चिन्मयकी घरिनी । सुभाविक भावनकी परिनी। * सुवोध सुखामृतकी झरिनी । वही भवविश्रमकी हरिनी २९ भुजंगी ( य य य ल ग) अविद्या जिसे ब्रह्मवादी गही। जिसे जैनमाहीं विभावी मही। * चिदानंदको संग रंगे रही। वही भामिनीको भुजंगी कही३० । भ्रमरविलसिता ( म भ न लग) * साजे आठों दरव सु लसिता । बाजे बाजे ललित मुलसिता । * जैनी आये जजन हुलसिता। फूले फूलों भ्रमरविलसिता३१ 4 रथोद्धता (र न र ल ग) काललब्धि विन मुक्ति है नहीं । यो इकत मति धारियों कहीं। आत्मज्ञान लवसों विशुद्धतो । कीजिये सुपुरुषा शालिनी (म त त गग) जिनीवानी जक्तकी पालिनी है। जनीवानी आपदासानी जेनीवानी निर्मलाहादिनी है । मिथ्यावादी हिय मालिनी ER-PRAKARMini -Prakant Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक । इन्द्रवज्रा (त त ज ग ग) नंदीश्वरद्वीप महा कहा है । चैत्यालये बावन जो तहाँ है ॥ । अष्टाहिकामाहिं प्रमोद हूजे। जो इन्द्रवज्रायुध धारिपूज॥३४॥ उपेंद्रवज्रा । ( ज त ज ग ग ) जहां प्रतिष्ठादिकको अखाड़ो । तहां महानंद समुद्र बाढ़ो ॥ *टाले सबी विघ्न दिगीश गाढ़ो। उपेन्द्रवज्रायुध धारिठाड़ो३५ * दुतिमध्यक। कसविध्वंसक श्रीजदुराई । जलविच कूद परे जिन ध्याई। * नाथ लियो झट देवफनिंदी । प्रगट भये दुतिमध्यकलिंदी ॥1 चंडी (र न भ ग ग) जो कुवादिखलझुंडविहंडी। मोहमहामहिषासुर खंडी। जो अबाध सुखकुंड उमंडी । सो सुभावमुदमंडित चंडी। कुसुमविचित्रा ( न य न य )। * कब कब पैहो नरपरजाई । सहज न जानो भविजन भाई।। जिनपद पूजो मन हरखाई । कुसुमविचित्रा प्रमुदित लाई ॥ चन्द्रवर्त्म (र न भस) सप्तवीस सुनछत्र वरन है । राशि द्वादश प्रमान करन है। * दोयैपाव दिन एकपर रहै । चन्द्रवर्तमहं भेद यह कहै ।। १इन्दवनाके आदिमें गुरु होता है । और उपेन्द्रवज्राके आदिमें लघु होता है, यही दोनों में अन्तर है । जिसके किसी चरणमें लघु हो, किसीमें। गुरु हो, उसे उपजाति कहते हैं । २ यह अर्द्धसमवृत्त है । अर्थात् इसके । पहले और तीसरे चरणमें ११ वर्ण (भभभ गग) और दूसरे चौथेमें (नज जय) १२ वर्ण है । ३सवा दो दिन। चन्द्रवर्त्म अर्थात् चन्द्रमाका मार्ग।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास W MAHARAN प्रियंवदा (न म जर) धरम एक शिवहेत है सदा । धरम एक सुरगादि संपदा । । अपर नाहिं तिरलोकमें कदा । मधुर वैन गुरुयों प्रियं वदा।। * प्रमिताक्षरा ( स ज स स) * जब शब्दनीतिजुत न्याय पढ़े । कवितादि ग्रन्थपर प्रीति चढे। । गुरुतै अधीतलखिलौकिकत्यों। कवि वृंद होत प्रमिताक्षरयों। तामरस (न जज य) | जिनपदपूजत मंगल हूजे । जिनपद पूजत वांछित पूजे । " जिनपदमें कमला अनुरागी । जिनपद तामरसे मन पागी ॥ . सुंदरी ( न भ भ र) सुव्रतशीलविभूषित जो नरी । जिन जजै वर भाव भरी खरी ।। वह वरै सुरइंद मुकुंदरी । जगतपावन सो तिय सुंदरी ॥ वंशस्थविल तथा इन्द्रवंशा (जत जर) श्रीरामश्रीलक्ष्मणजानकी सती। विलोकि पीड़ा गुरुदेवको अती ॥ तुरंत धन्वा धुनि निकंदितं । योगीन्द्रवंशस्थ विलोकि वंदितं ॥१४॥ - - A - . पंक्ति । २ इसे इनविलयिन भी करते है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। NAMA ललिता ( त त ज र) देखो अविद्या घटमें समा रही। . आपा चिदानंद लखै कभी नहीं । जाके सुनें आपखरूपको गही। आनंदकारी ललिता कथा वहीं ॥ ४५ ॥ मंजुभाषिणी ( स ज स ज ग) प्रमदा प्रवीन व्रतलीन पाविनी। दिढ़ शीलपालि कुलरीतिराखिनी । जलअन्न शोधि मुनिदानदायिनी ॥ वह धन्य नारि मृदुमंजुभाषिनी ॥ वसन्ततिलका (त भ ज ज ग ग) श्रीद्रोणजा जनकजादि रमासमानी। धेरै सभी भरतको रितुराज ठानी ।। कीनों अनेक मनलोभनको उपायो। तो भी वसंत तिल काम नहीं सतायो। चक्र ( भ न न न ल ग) श्रीजिनमुख निरखत दुख टरहीं। पाय अमित वित भवि मुख भरहीं। किसी ने तगण भगण जगण रगणका ललितायत माना है। - - - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास AVAVVVVVV पापविधन तित किहि विधि जुरहीं। चक्र धरम निवसत प्रभु पुरहीं। अचलधृत (५ नगण और १ लघु) करमभरमवश भमत जगत नित । सुरनरपशुतन धरत अमित तित ॥ सकल अथिर लखि परवश परकृत। धरम रतन जिनमनित अचलधृत ॥ प्रहरनकलिका (नन मन लग) यह जिनवरका घरमरतन हो। सुरगमुकतका सुखद सदन हो ॥ तदगतचितसों गहहु शरनको । प्रहरन कलि काटन दुखगनको ।। चामर ( र ज र जर) छत्रतीन सिंहपीठ पुप्पवृष्टि तापरं । अर्द्धमागधी सु गी अशोकवृक्षकावरं । देवदुंदुभी अनूप देहकी प्रभा भरं ।। देखि देवदेवपै दुरति 'बंद' चामरं ।। uni नराच ( ज र ज र ज ग) १ मे तुण तथा सोमवल्लरी भी करते है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TERRORRRRRRRRR छन्दशतक । जैजो जिनंदचंदके पदारविंद चावसों । मुनिंदको सुदान दे उमंगके बढ़ावसों। अभंग सातभंगरंगमें पगो प्रमावसों। यही उपावसों तरो न राच भोगभावसों ॥ नेयमालिनी (न न म य य) जिनवरपद पूजाकी सुनो हो बड़ाई। ___ गज शुक मिडकासे देवजोनी लहाई ॥ सुमन सुमनसेती देहरीपै चढ़ाई। तिहिं फलकरि तानै मालिनी खर्ग पाई ॥ मंदाक्रान्ता (म भ न त त ग ग) अर्हन्खामीसमवसृतमें राजते भीतिहंता । शोभा जाकी सुरगुरु कही पार नाही लहंता । जाकी काया दरशन किये दूर ही होत प्रान्ता। सर्वेन्द्रोंकी सब दुति जहाँ हो रही मंदकान्ता ॥ स्रग्धरा (मर भ न य य य) तीनो रैनत्रिवेनी सविमलजलकी धारमें जो नहावै । * निश्चै घाती विघाती करमज मलको मूलसे सो बहावै ॥ * किसी २ ने इसे पंचचामर लिखा है । अनेक कवियोंका मत है कि, दो नगण और चार रगणका नाराच छन्द होता है। २ मालिनी और मंजुमालिनी भी इसीको कहते हैं । ३ मेंडक (दर्दुर)। ४ स-1 म्यदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी त्रिवैनी नदी। - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ वृन्दावनविलास - . पावै चारों अनंता निजगुन अमलानंद वृंदा धरा है।। * ताकी काया अछाया अनुपम पगपै पुष्पका नग्धरा है ॥५५॥ चित्रलेखा ( मभनययय) , जैनीवानी अमल अचल है दोषकी नाशनी है।' सोई मोकों परम धरम दे तत्त्वकी मासनी है ॥ बाकी जेते जगत जननसों है चला मार्ग भेखा।। तामें देखा कथन अमिलते दोषमें चित्रलेखा ॥ शिखरिणी ( यमनसमलग) जहां कोई प्रानी चढ़त गुणथाने उपशमी । गिरै आवै नीचे सुमगमहँ सम्यक्त्वहिं वमी ॥ तहां द्वेषा धारा बहत निज भावें विवरिनी। दही मीठा खाई वमनसमये ज्यों शिखरिनी ॥ शार्दूलविक्रीड़ित (मसजसततग) मोसों जी सततं गुरुगन जती ये कर्मशत्रू टरे । * सोई आप उपाय शीघ्र करिये हो दीनबंधू वरे ॥ - आपी स्वर्गपवर्ग देत जनको रक्षा करो प्रीढ़ित। । ____ आपी सर्व कुवादि जीति भगवन्शार्दूलविक्रीड़ितें ॥ इति गणछन्दप्रकरण । १इस उदाहरणमें छन्दका लक्षण भी दे दिया है। माय मोमो जी सततं गुये इस छन्दमें जौ २ गण है, उनके सूपक मा . क्षर है। मोसे मगण सोस सगण आदि अमन लेग नाहिन । - - - - - - - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . TK R ---- - ---- छन्दशतक। अथ गाथाप्रकरणाष्टक। (प्रथमतृतीयचरणमें १२ और द्वितीयचतुर्थचरणमें १५ मात्रा) जिनधुनि जलधि अगाहू । जाको नाही कहूँ थाहू । मुनि मथि सु रतन लाहू । 'वृन्दावन' ताहि अवगाहू ॥ गाहा तथा अवगाहा । (चारों चरणों में क्रमसे १२-१८-१२-१५ मात्रा) (चिनमूरत अमलीनो, जाके गुनसिंधुको नही थाहा । जिन मथि सु रतन लीनो, तिन यह भवसिंधु अवगाहा ॥ खंधो। (क्रमसे १२-२०-१२-२० मात्रा) १ सुगुरु कहत समुझाई, तू हो ज्ञाता सहज शुद्ध निःसंघो। * काहे भूलो भाई, काया है पुग्गलहि द्रव्यको खंधो॥ चपला गाथा। (मात्रा १२-१८-१२-१५) जेते जन जगवासी, तथा जिन्होंने मुंडाइये माथा । ते सब धनके प्यासी, यह चपलाने जगत गाथा ॥ उग्गाहा। (मात्रा १२-१८-१२-१८) अष्टांगजोगजेता, सो याही घटसमुद्र सुग्गाहा । ज्ञानानंदनिकेता, सभेदविज्ञान 'वृन्द' उग्गाहा ॥ १ इसे उपगीति भी कहते हैं । २ आर्या भी कहते हैं। ३ आर्या. गीति तथा स्कंधक भी कहते हैं । यह भार्याका भेदविशेष है। 1 ४ इसे गीति भी कहते हैं। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास विगाहा। ( १२-१५.१२.१८) *श्रीजिनजन्म उछाहा, गिरिंदपै हो रहा आहा । शोभासिंधु अथाहा, भविगाहा इन्द्रने लिया लाहा ॥ सिंहनी। (१२-२०-१२-१८) * समवसरनमहँ देखो, जंतूजाती विरोधको सब टाले ।। अदभुत अकथ अलेखो , हरिनीको वाल सिंहनी पालै ॥ ! गाहिनी। (१२-१८-१२-२०) *चेतनरस-लवलीना, निज अनुभूतिप्रदायिनी शुद्धी। वंदत 'वृन्द' प्रवीना, जे आगमध्यातमवगाहिनी बुद्धी ॥ इति गायाप्रकरण। अथ मात्रिकछन्दप्रकरण । दोहा । ( १३.११.१३-११) नेमि खामि निरवानथल, शोभत गढ़ गिरनारि । वंदों सोरठदेशमें, दो हानि शिर घारि ॥ ६७ ॥ सोरठा (११-१३-११-११) शोभत गढ़ गिरनारि, नेमिखामि निरवानथल । दोहायनि शिरधारि, वंदो सोरठ देगमें ॥ ६८॥ - - - ~ - - १इसे उद्गीति तथा विगाथा भी रहा। ------ ------Pr - mint Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। E हाकलिका (प्रतिचरणमें १४ मात्रा) 'सब जिय निज समतूल गनै । निशदिन जिनवर वैन भने । निजअनुभवरसरीति धरै । तासु कहा कलिकाल करै ॥ पद्धड़ी (मात्रा १६) जिनबालछबी सचि लखी आय । __ मन अड़ी खड़ी टकटकी लाय । उमग्यौ उमंग मनमें न माय । ___ तब गद्दपद्द पद्धरी गाय ॥ रूपचौपई (१६ मात्रा) भवथित उघटित निकट रही है। सुगुरुवचन जुतप्रीति गही है । वसत सुसंग कुसंगत खोई । सेहजसरूपचोप इमि होई ॥ अडिल्ल (२१ मात्रा) कामिन-तन-कान्तार, काम जहाँ मिल्ल है। पंचवान कर घर, गुमान अखिल्ल है ।। करै जगतजन जेर, न जाके ढिल्ल है। शील बिना नहिं हटत, बड़ो हि अडिल है ।। ७२ ॥ कुंडलिया (सर्व १४४ मात्रा) राजै प्रभुको गोद धरि, जनमसमय सुरराय । तुरित जात गिरिराजपर, विधिजुत न्हौन कराय ॥ १ रूपचौपईके अन्तमें लघु होनेसे चौपाई होती है। २ आत्मस्वरूपमें 'चोप' अर्थात् प्रेम । ३ जगल, वन, । ४ हठीला। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास विधिजुत न्हौन कराय, गाय गुन बाजत वाजे । तांडव नाचै इन्द्र, वृंद उच्छव छवि छाजे ॥ त्रिभुवनभूषन देव, तिन्हें भूषन सव साजे । कोट भानुदुतिहरन, करन कुंडलिय विराजे ॥ ७३॥, ___अमृतध्वनि (मात्रा १४४) धुनिजिन खिरत अनच्छरी, जोजनपरमित हद्द। उपमा जाकी कहत कवि, जथा अब्दको शद्द ॥ सद्दन सुनि सुनि, मग्गन सुरमुनि, पग्गत तनमन ।। भजत श्रमतम, सज्जत जमनम, जज्जत जिनजन ॥ हर्षत सुमनन, वर्षत सुमनन, कुजत अलि पुन । भब्वमुदित चित, सव्व कहत तित, सत अवतधुनि ॥७॥ हुलास ( मात्रा १९२) * पारस जनम दिवस अनुकूले । अश्वसेन तनमनसुधि भूले।। सुर नरतन धन धरनि लुटावहि । दिवितें देव रतनझर लावहिं॥ । रतननि झरलावहिं, मनहरखावहि, सजि सजि आवहि, वाहनको. बहु भगत बढ़ावहिं, सुख उपजावहिं, दुरित नशावहिं, दाहनको * सुरगिर नहवावहि, मंगल गावहिं, नाच रचावहिं, चावनको ।। * भविबंद हुलासहि, जसपरकाशहि, शिवपुरंवास हि, पावनको ॥ इसके पहले एक दोहा होता है । कविराजने पहले निभगी रखके । भी अमृतध्वनि बनाया है। (देखो पृष्ट ६३)।२ एक योजन प्रमाण । १३ मेघका। ४ सद्द अर्थात् शब्द । ५ त्रिभंगी छन्दके पहले एक ! चौपाई रखनेसे हल्लास छन्द बनता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RK-RRRRRRRAKSHRA छन्दशतक । ९७ काव्य ( मात्रा २४) श्रीसर्वज्ञ अदोष मोषहित तत्त्व बताई। ताहीके अनुसार, कथन जामें सुखदाई ॥ जाके सुनत प्रमान, मोहतम नाहिं रहावत । सुपरबोध हिय होत, वही.सतकाव्य कहावत ॥७६॥ मदावलिप्तकपोल ( मात्रा २४) श्रीजिनवरको जनम, जानि जब इंद्र चलै है। सात भाँतको सैन, आपने संग लहै है ॥ ऐरावतपर चढ़े, तबै देखत वनि आवत । ___ मैदअवलितकपोल-लुब्ध-अलि आगे धावता॥७॥ शंभु ( मात्रा ३२) नहिं कामी है नहिं क्रोधी है, नहिं लोभी मोही बंछा है। नहिं रागी है नहिं दोषी है, नहिं जामें कोऊ लंछा है ।। १ यह सर्वसाधारणमें रोलाके नामसे प्रसिद्ध है। २ कविराज हेमराजजीने अपने भक्तामरस्तोत्रके अनुवादमें जो रोडक छन्द रक्खे हैं, उनमें । 1. पहले छन्दके प्रारभमें "मदअवलिप्तकपोलमूल अलिकुल झंकारें" ऐसा पद रक्खा है । जान पड़ता है, इसीके कारण इसका नाम मदअवलिप्तकपोल पड गया है । अनेक कवि तो चाल "मदअवलिप्त कपो लकी" इस तरह लिखते आये, परन्तु वृदावनजीने इसका नाम ही मदर * अवलिप्तकपोल रख दिया । ३ मदसे लिपटे हुए कपोलोंमें लुब्धलालची भौरे । ४ शभुको अन्याय कवियोंने वर्णिक छन्द माना है, मात्रिक नहीं। उसमें (स त य मम मग) के क्रमसे १९ वर्ण माने गये हैं।।. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलासनिजहीमें आप सु आपीको, वह आपी पाये राचा है। सब पानीका हित वानीका पत, सोई शंभू सांचा है॥७॥ झूलना ( मात्रा ३७) नेह औ मोहके खंभ जामें लगे, चौकड़ी चार डोरी सुहावै ।। चाहकी पाटरी जासपै है परी, पुण्य औ पाप,जीको झुलावै ॥ * सात राजू अधो सात ऊंचे चलै, सर्व संसारको सो भमावै ।। * एकसम्यक्तज्ञानी यही झूलना, कूदिके 'वृन्द' भवपार जावै ७९ ॥ नरिंद अथवा जोगीरासा ( मात्रा २८) समकित सहित सुव्रत निरवाहै, राजनीति मन लावै ।। श्रीजिनराज-चरन नित पूजै, मुनि लखि भगति बढ़ावै ॥1 चार प्रकार दान नित देकै, सुरपुर महल बनावै। न्यायसमेत प्रजा प्रतिपालै, सो नरिंद सुख पावै ॥८॥ घत्तानंद ( मात्रा ३२) __ जो चारउ पत्ता चार अपत्ता धत्तविरत्ता हत्त करै। ___ सो आतमसत्ता शुद्ध अहत्ता पाय सु घत्तानन्द भरै ॥८॥ सवैया ( मात्रा ३१) वीस अंक परमित गनधर धुनि, पूरव चौदह अंक प्रमान ।। । उनतिस अंक मनुष सब सैनी, दश कुलकोड़ जोड़ ठहरान ॥ सरसों कुंड छियाल पल्लके, कुंडरोम पैतालिस मान । * अंकसवैया विधिसों लिखिके, परखोहरखो 'वृंद' सयान॥८॥ १घातिया। २ अघातिया । ३ इसे बीर भी कहते हैं । आल्हा, पवारा इसी ढंगपर होता है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। ९९ ARMA wwwwwwwwwwwww चौबोला ( मात्रा ३०) जाको सुनत मुदित मन भविजन, उदित होत चित चेत लहै । * हेयज्ञेय अरु उपादेय पहिचानि 'वृंद' निजरूप गहै ॥ सुरगमुकत पदवीको पावै, रागदोषमदमोह दहै। | ऐसो हितमित दोषरहित नित, मुनिवर सांचौ बोल कहै ॥ त्रिभंगी (जगनवर्जित मात्रा ३२) जो सात सुभंगी, विमल तरंगी, भंग अमंगी, सुखसंगी। 4 ताके अनुसार, तत्त्व विचारे, मोह निवार, बहुरंगी॥ । तिहुँ रतन अराधे, अनुभव साथै, त्यागि उपाधै, मन चंगी।। 4 सत्तादि त्रिभंगी, सो करि भंगी, होत सुरंगी, शिवसंगी॥ षट्पद ( सर्व मात्रा १५२) जासु रुचिर छवि देखि, देखि जब त्रपति न पावत । सुरपति विस्मित होत, नैन तब सहस बनावत ॥ जासु पंचकल्यान, जगतकहँ सुख उपजावत । गुन अनंत भंडार, कहत कोउ पार न पावत ॥ शतइंद्रवृंद वंदत जिसे, सेवत है मन मोद घर । * सो श्रीजिनचरनसरोजसों, भोमन षट्पद प्रीति कर ॥८५॥ पुनः षट्पद । जो जग मंगलमूल, रमा जासों अनुरागी। जाको ध्यावत भाव-सहित मुनिवर बड़भागी॥ इंद्रवृन्द नागिन्द्र, जासकी सेवा साजत । जाहीके परभाव, अमंगल ततखिन भाजत ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० वृन्दावनविलास चिन्तामन सुरतस्तै घरें, जो अनन्तं परभाव वर।। सो श्रीजिनचरनसरोजसों,मो मनषट्पद प्रीति कर ॥८६॥ इति मात्रिकछन्दप्रकरण । अथ गीताप्रकरणसप्तक । रूपमाला छंद। (आदि रगन अन्तमें लघु । मात्रा २४) पायके नरजन्म पानी, वृथा मति हि गवाव । . । चेत चेत अचेत हो मति, फिर न ऐसो दाव ॥ जैनवैन अनूप अग्रत,-पान करि हरषाव । ___ आतमीकसुभाव निजगुन रूपमाला ध्याव ॥ ८७ ॥ सुगीति ( मात्रा २५) करै जवै विस्तारसों निज, मुख अमित अगनीत । धरै मुखों प्रति कोटि कोटिक, जीभ प्रमद सहीत ॥ स्टै त्रिकाल विशाल जो, वृंदारपति हे मीत । तबै कछु वह कह सकै जिन, देव तुव जसुगीत ॥ ८८॥ गीता ( मात्रा २६) भवि जीव हो संसार है, दुख-खार-जल-दरयाव । तसु पार उतरनको यही है, एक सुगम उपाव ॥ गुरुभक्तिको मल्लाह करि, निजरूपसों लव लाव । जिनराजको गुन 'बंद' गीता, यही मीता नाव ॥ ८९॥ १ रूपमालाके मादिमें एक लघु रसनेसे मुगीति होता है। 2RK- RK-R AKer. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। शुभगीत ( मात्रा २७) जिनंदको गिरिराज ऊपर, धारि हरषसहीत है। * सुरेशने अभिषेश कीनी, जो सनातन रीत है। सची रची सिंगारसों छबि, कहि न जात पुनीत है। भरी दशों दिशि कामिनी, सुरगावती शुभगीत है ॥९०॥ हरिगीति ( मात्रा २८) . गरमावतारसमय जिनेसुर, मातुपर धरि प्रीति है। सुरकन्यका सेवा करें, जिहि मांति जिनकी रीति है ॥ जननी लहै सुख 'बुंद' सोई, करहि सकल विनीति है। करताल वीन मृदंग लै, गावै मनोहरिगीति है । ९१ ॥ सुगीतिका ( मात्रा २८) वृषभेश व्याह उछाह. घर घर, होत अनंदवधाव ही। धिरनिंद इंद नरिंद चन्द, सबी बराती आवही ॥ जह होत मंगल मोद मंजुल, 'वृंद' सब सुख पावहीं। मन होत वस जस सुनत गान, सुगीति कामिनि गावहीं ॥१२॥ शुद्धगीता (मात्रा २८।) सुनो संसारमें आके, जिन्होंने काम जीता है। सबी मिथ्यातको छोड़ा, गुरुवानी अधीता है। वही है धन्य हे माई, बड़ाई कामकी ता है। प्रभूकी भक्तिमें भीने, जु गावै शुद्धगीता है ॥ ९३ ॥ इति गीताप्रकरणसप्तक । - १चारों चरणोंके आदिमें सगण होता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦૨ वृन्दावनविलास wwwwww वर्णसवैयाप्रकरणसप्तक। मंदिरा ( ७ भगण १ गुरु) * काल अनादि वितीत भयो, पगि पुग्गलसों जिय प्रीति ठई ।। * लाख चुरासिय जोनिनमें, दुख भोगतु है तिहिं संगतई ॥ * श्रीजिनवैन गहै न कमी, मनु ज्ञायकता गुन गोई गई। आप खरूप न जान सकै जु, पियो मदिरा मदमोहमई ॥९॥ मत्तगयन्द ( ७ भगण २ गुरु) जन्मउछाह-निवाह-नियोग, विचारि हिये हरि हर्षित हो है। । * आवत 'वृद' समाज समें वह, औसर देखत ही मन मोहै ॥ जाय सची जननी ढिगते, प्रभु लै कर सौपति है पतिको है। . इन्द्र जिनिन्द्रको गोद धेरै, चढ़े मत्तगयंद इरावत सोहै॥९५॥ मिला ( ८ सगण) अपनी विरदावलि पालनको, तुव संकट काटि वहावहिंगे।। * करुनानिधिवान निवाहनको, कछु लाज हियेमहँ लावहिंगे।। शरनागतवच्छल दीनदयाल, तभी प्रभुजी कहिलावहिँ गे। मति सोच करोभविवृंद तुम्हें, सुखकंद जिनंद्र मिलावहिंगे९६१ भुजंग (८ यगण) । * कभी चेतनाकी निशानी न जानी,मनों ज्ञानवानी नसानी दसा है , तथा जैनवानी विजानी नही जो, मुनी भेदज्ञानी कसोटी कसा है। १ इसे मालिनी उमा तथा दिवा भी कहते हैं । २ इसे मालती तथा इंदव भी कहते हैं। ३ दुर्मिल भी इसीका नाम है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। चहै कामभोगी मनोगी विषैभोग, भोगी विषैविष्यहीमें धसाहै।। * जिते जक्तके जीवरासी निवासी, तिन्हें मोह आसी भुजंगे डसा है । किरीट ( ८ भगण ) गंधकुटी जुत श्रीजिनकी, महिमा कहिवेकहँ मो मन लाजत ।। होत अनुपम रंग तहाँ जब, इंद्र नमें शिर नाय समाजत ॥ | इंद्रनिकी दुति श्रीपतिके पद-कंज नखावलिमें छबि छाजत । । * श्रीपतिके नखकी दुतिसंजुत, इंद्रन सीस किरीट विराजत ९८ ॥ * माधवी ( ८ सगण १ गुरु) *जहं द्वादश जोजन गोल शिलापर, ठाट रच्यो निरवाधवी हैजू।। । उपमा तिहुलोकविषै नलसै, महिमाजलराशि अगाधवी है जू ॥ निधि द्वार खरी कर जोर जहाँ, चितचिंतित देत सुसाधवी है ।। * जिनराज समौसृत साज तहाँ, द्रुमराजनि राजति माधवी है जू। द्वितीय माधवी (७ सगण १ यगण ) जहँ द्वादश जोजन गोल शिलापर, ठाट रच्यो निरवाधवी है। । उपमा तिहुलोकविषै न लसै, महिमा जसु वृंद अगाधवी है ॥ * निधि द्वार खरी कर जोर जहाँ, चितचिंतित देत सुसाधवी है।। जिनराज समौसृत साज तहां, द्रुमराजनि राजति माधवी है। इति वर्णसवैयासप्तक। १ सुन्दरी, मल्ली, चन्द्रकला, सुखदानी भी इसे कहते हैं। "माधवी है जू' की वी लघु न पढके यदि गुरु पढी जावे, तो ७ सगण १ यगण और १ गुरु होता है । २ यह प्रकारान्तर है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वृन्दावनविलास- , अथ दंडकपकरण । दंडक ( मात्रा ३२) • सीता अहार कीन्हों तयार, तब रामद्वार पेबै उदार । *ताही सु वार दो मुनि पधार, हैं तपागार आकाशचार ॥ बलि हर्ष धार जानकी लार, पूजे प्रचार आठों प्रकार । * भरि भक्तिभार दीनों अहार, कांतार चार दंडक मझार १०११ 'अशोकपुष्पमंजिरी। (क्रमसे एक गुरु एक लघु, ३१ वर्ण) केवली जिनेशकी प्रभावना अचिंत मित, कंजपै रहै सु अंतरिच्छ पादकंजरी। मूष औ विडाल मोर व्याल बैर टाल टाल, हैं जहां सुमीत हे निचीत भीति मंजरी ॥ अंगहीन अंग पाय हर्ष सो कहा न जाय, नैनहीन नैन पाय मंजु कंज खंजरी। और प्रातिहार्यकी कथा कहा कहै सु 'वृंद, ___ शोक थोकको हरै अशोकपुष्पमंजरी ॥ १०॥ अनंगशेखर । . (क्रमसे एक लघु एक गुरु, वर्ण ३२) जिनिंदके मुखारविंदसों खिरै त्रिकाल शब्द, अब्दसी अनच्छरी अनिच्छिता धरे हैं। न होठ जीम हालई न खेद वेद चालई, अलौकिकी अदोप घोष सौखसों भरे रहै ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दातक । ~~.. ... ....... ...maram mrar समस्त जीव बूअई असूझहको सूजई, मिथ्यात मोहभाव भन्यजीवसों टरे रहै । तिसी जिनिंदचंदकी समाविष मुरिंद 'बुंद, ओरसे चहूँ दिशा अनंगसे खरे रहै ॥ १०३ ॥1 पुनक्ष। त्रिलोकमें त्रिकालके जितेक वस्तुभेद है, विशेषजुक्त सर्व जासु ज्ञानमें धरे रहै। विलोकि श्रीसमाविभूति भन्यजीच आय आय, देखि देवकी छवी अनंदसों भरे हैं ॥ जिनेशके प्रभावसों कुभावको अभाव होत, रिद्धिसिद्धि वृद्धिसों सबै हरे भरे हैं। सुरिंद औ नरिंदवृंद हाथ जोर जोरके, सुओरसे चहूदिशा अनंगसे खरे रहै ॥१०॥ जलहरन । (२९ वर्ण, सर्व लघु) सुनहु अरज शिवतियवर जिनवर, __ अनुपम गुन-गन-धन धरन । तुव पदकमल-अमल-रस सुरनर मुनि-मन-मधुकर वशकरन ॥ प्रभु जस विदित विशद अस सुनि अति, दुरितदरन सब सुख भरन । १ दूसरे कवियोनें जलहरण ३२ वर्गों का माना है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ वृन्दावनविलास भविक शरन गह कहत चहत नित, समरथ भवदधि-जल हरन ॥ १०५॥ मनहरन (वर्ण ३१) ___ चारों घाति कमको विनाशिके विशुद्ध भयो, शुद्ध गुनरतन भरो करंडवत है। जाके ज्ञान गुनके अनंतवें विभागमाही, __ लोकालोक 'वृंद' झलकै अखंडवत है ॥ भवदुखउदधि अपार पार धारिवेको, वही जिनचंददेव ही तरंडवत है। ऐसे अरहंत नित मंगल करन मन, हरन तिन्है सदा हमारी दंडवत है ॥ १०६ ॥ इति दडकप्रकरणसमाप्त। कविका परिचय। दडक। आकास शी मजी है मैंल बुंददाह वसुनसि अत्युग्र अवाघ लसो गोत्रई गुन हो। * बल जगोऽनंत बुध शर्म प्रचंड दश, काम वेग टारि शीलता सुबोधमा धुन हो ॥ १ इस छन्दमें जो अक्षर मोठे टाइपमें दिये गये है, उनको एकत्र * करनेसे "काशीजीमे वृन्दावन अग्रवालगोईलगोत धर्मचंदका वेटा शीताबो माता लालजीका नाती सीतारामुका पनती । जैनी दिगंमरि रुकमनका पति ।" इस प्रकार कविनामादि निकलते । हैं यह कवित्त बड़े कष्टसे बनाया गया होगा। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दशतक। १०७ । नंता सु लाभ लये जीके काल्याना हेती ऐसी । है तात राखि मुझे काल पतन सुन हो। थुती कीजैवानी खादि सुगंधमई रिद्धि रुलै ___ कभी महा नरकादी पतति हु न हो ॥ १०७ ॥ कविनामादि निकालनेकी रीति। दोहा। या कवित्तके वरनमहँ, एक छोड़ि इक लेहु । तजि तुकांतके तीन तव, कविकुलादि कहि देहु ।।१०८॥ बुद्धिवानोंसे प्रार्थना। विजय। पिंड गुरू लघुको जिहितै बंधै, पिंगल नाम वही परमानो। * जामें गनागन नष्ट उदिष्टरु, मेरुको आदिक भेद विधानो॥ सो तो कछू इत भाषत नाहिं, इहां तो जिनिंदको नाम बखानो। : * तामें लग्योकहुँ दूषन होयसो,शोधि सुधारियोहे बुधिवानो १०९१ अन्तमंगलाचरण । दोहा। मंगलमूरति देव है, श्रीअरहंत उदार। । सो इत नित मंगल करो, मेटो विघन विकार ॥ ११ ॥ *जिनके धर्मप्रसादसों, भई प्रतिज्ञा सिद्धि। * सो जिनचंद हमें करो, सुखसागरकी वृद्धि ॥ १११ ॥ जयवंतो वरतो सदा, जैनधर्म दुखहर्ने । वृंदावनको इजियो, मंगल उत्तम शर्न ॥ ११२ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ वृन्दावनविलास यथा पाठ नवको रहत, सब थल नवपरमान । तथा जैनको छंद यह, वरतो सुखद निधान ॥ ११३ ॥ । जौलों रविशशि गगनमहँ, उदै अमंद धराय । * तौलौ यह रचना रहो, निर्मल जस सुखदाय ॥ ११४ ॥ अजितदास निजसुअनके, पठन हेत अभिनंद। श्रीजिनिंद सुखकंदको, रच्यो छंद यह वृंद ॥ ११५ ॥ * पौषकृष्ण चौदस सुदिन, तादिन कियो अरंभ। अट्ठारह दिनमें भयो, पूरन शब्दब्रम ॥ ११६ ॥ जो यह छंद जिनिंदको, पढ़े पढ़ावै जीव । * सो मनवांछित पाय सुख, अनुक्रम है शिवपीव ॥ ११७ ॥ ॥ अट्ठारहसो ठानवै, संवत विक्रमभूप । * दोज माघ कलिको भयो, पूरन छंद अनूप ॥ ११८॥ इति श्रीवृंदावनकृत जैनछदावली संपूर्णी । (१६) अन्तापिकाप्रकरणाष्टक। - - - नयमालिनी। वेतपति मल को है, कौन है जन्म सार । नभमहँ समुदने, क्या करै कर्म झार ॥ १ संवत् १८९८ माघसुदी दोयज शनिवारको यह पोथी वृदावनने में लिखी सो जयवंत रहो (कविवृन्दावन)।२इस छन्दके चौथे चरणकेसात अक्षर हैं। उनमेंसे पहले छह अक्षरों के साथ क्रमसे अन्तके रकारको मिला। मिलाकर छह प्रश्नोंका उत्तर होता है । और सातवें प्रश्नका उत्तर अन्तके । सातों अक्षरोंसे बनता है । जैसे, मार, नर, पूर, जार, पर, हार। । और मानपूजापहार। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तलापिकाप्रकरणाष्टक । चित कित न लगावै, कंठमें का सु धार । अघ अधम उदय क्या, मानपूजापहार ।। जंगजन किन नासा, का न सम्यक्त जोगें। सुरपति रमनीसों, क्या करें साधु भोगें ॥ मत अतत उदै क्या, अल्पबुद्धी कहाल। किन वशकृत ऊषा, कोमके सूर बाल ॥ तैनमहँ महा को है, सातई नदि भन्य । जलमह कित मुक्ता, को नरा जक्त धन्य ।। अनल जल किया को, मुक्त कैसें निवास । हितवचन कहै क्यों, शीघ्र आलाप तास ॥ अधपतनसुमावी, कौन क्या घाम माहे । द्रुपतिपति बड़े क्यों, खेतमें धान काहे ॥ इसका उत्तरभी पहले छन्दकी विधिक अनुसार निकलता है। जैसे, काल, मल, केल, सूल, रल, वाल, कामके सूर वाल। १२ कामदेवके सूरवीरपुत्र प्रद्युम्नने ऊषाको वशमें की थी। ३ इस छन्दके अन्तके चरनके नववें अक्षर 'शी' में तुकातके सकारको मिलानेसे पहले प्रश्नका उत्तर होता है । फिर अनुक्रमसे पीछे २४ अक्षरोंको जोड़ पाच प्रश्नोंके उत्तर हो जाते हैं । इस प्रकार छह । प्रश्नोंका उत्तर देकर सातवें प्रश्नका उत्तर सातों अक्षरोंसे होता है। जैसे, शीस,शीता,शीप, शीला, शीआ, शीघ्र, शीघ्रालाप तास। १४ उत्तर पूर्ववत् । यथा, वार, वासा, वान, वाहे, वाने, वाल, बालनेहेन सार।इस छन्दके तुकातमें लघु है सो, गुरु पढना चाहिये ।। F - -- -- - -- - - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० वृन्दावनविलास मनमथ किम बाथै, प्रातभानू उचार । प्रिय सुफल न काको, बाल नेहे न सार॥ छप्पय । पंकज विनु नहिं रुचिर, कहा कोकिलमहँ सोहै ।। प्रतिहरि कहँ हरि कहा, करै जिन जजै सु को है ॥ कालादिक नव कहा, पार्थ जिनदिच्छातरु कहु।। समरस गुन जग कहा, काव्य नव भेद कौन सहु ॥ ॥ वश लोम मिलन इच्छै कहा, किहि कृत वृषधर शरमभनि ।। * सुनि उत्तर वृंदावन कहत, पंचवरन यह सरव धनि॥५॥ देयासहित कहु कौन, धरम कवि गुन किम लक्खिय।। मुनि त्यागन किहि चहै, कौन करि भवमय नक्खिय ॥ । गिरिजापति पद कौन, कौन निहचै पतालगत। पाप ताप अति घोर, ताहि क्या करिये कहो सत ॥ को हरत अमति सत-मति भरत, अरु वरदायक को शरन।। * सुनि वृंदावन उत्तर भनत, जैनवैन भवतपहरन ॥ ६॥ ७ सहित हेत कहु कहा, सुमति-तिय-संग कहा चहि ।। कहा असैनिहि नाहि, सुथिरपन मुनिसम किहि नहि ॥ १ तुकातकेपाचों भक्षसेंमें दशों प्रश्नोंका उत्तर है। यथा सर, रव, वध धनि, निध, धव, वर, रस, सरवधनि, निवरस । २ जैन, वैन,भव,तप, हर,रन, हरन, जैनवैन ।३धरम, रमन, मनन, ननग, नगर गरव, रवन, वनज, नजस, जसप, सपन। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार । कहा विनीतहिं कहिय, सुजन नहिं कहा धरै मन शिवतियके अरहंत कौन, क्या करै वैशजन ।। वश काम कहा पावै पुरुष, त्यागवंत जन किमिवरन। जगसुख किमिवृंदावनभनत,धरमनन गरवन जसपन 1 शिवतियको वर कौन, कौन भवसों शिवतियवर । समरसमहँ किमि करिय, करिय किमि शिवपथमनकर ॥ सुखदायक जगकहा, कौन पदरामचंद कहँ । कहा वारिको नाम, कहत कवि एकवरनमहँ ॥ सम्यक्तवंत चितें कहा, शुकलध्यानको फल वरन । सुनि उत्तर वृंदावन' भनत, जिनवच सब कलिमलहरन ८१ इति अन्तर्लापिकाप्रकरणाष्टकम् । (१७) पत्रव्यवहार। श्रीललितकीर्तिभट्टारक प्रयागके प्रति। हरिपद । श्रीमद्वटनागाधोदीक्षित, नाभिनंद सुखकंद । तासु पराग पराग सहित पग, परत पराग सुखंद ॥ १ जिन, नर, वह, चल, सम, वलि,क, कव सच वनजि, कलिमलहरन । २ श्री प्रयागमें भवरक श्रीललितकीर्तिजीको चिट्ठी लिया, कई एक प्रयोजन राजद्वारमें उहा लगा था, तिसको जीते विना । धादिगम्बरानायकीवात हलकी होती थी।तिस्से देवराधन करने लिखाया। से नीचे खुलेगा। (वृन्दावन) ३ वट वृक्षके नीचे दीक्षा लेनेवाले।। - Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वृन्दावनविलासर कीरति कलित ललित तित राजत, ललितकीर्ति गुनचन्द । दयांवधू-पत धूपतसे ध्रुव, सुबुधि-सुधानिधिचन्द ॥ १ ॥ तरलनयन। . कुमतितिमरहरदिनकर, बनमनकमलअमलकर । विधन-सघन-दव-जलधर, जय जतिवर भवभयहर ॥२॥ शार्दूलविक्रीड़ित। शब्दब्रह्मविचारधारणधुरी चिद्रमविद्यापती । स्थाद्वादामृततृप्तचित्त-सहजानन्दैक जैनी जती। दीक्षा शिक्षविधानदायकमहाकल्याणकल्पद्रुमं । नित्यं तं प्रणमामि यामि शरणं लालित्यकौतिक्रम ___ अनुकूला। . * वृन्दमयी है पद्जुग ताकौ । आनँददाई जग जस जाकौ। । आगम-अध्यातम-मनिमाला । है उर जाके विशद विशाला ॥४॥ वसततिलका। आनन्दहेत छविदेत सुचेतकारी। पत्री प्रभो तव विनोदप्रदा पधारी ।। वांची निहारि उर आनंद 'वृन्द' पाती। पायो प्रमोद जिमि चातक बुन्द खाती ॥ ५॥ * १ दयारूपी वीके पति।धूपत अर्थात् ध्रुव तारेके समान स्थिर। २ श्री भदैनीजी सुपाश्र्वनाथजीकी जन्मकल्याणककी भूमि काशीजीमें है, सो श्वेता*म्बरियोंने दिगम्बर सम्प्रदायका तीरथ उठावनेक उपद्रव किया सो प्रयागमें । * मुकदमा गया। तब यहाके अदालतमें जो कुछ फैसला हो, वही सर्व दाके वास्ते अचल रहै है । सो संताम्बरीयोंमें काशीजीमें अदालतमें और * अपोलमें हार गये थे सो प्रयागमें बड़ी तदवीर करी थी, तिससे देवीसहायको इनने लिखा है। (वृन्दावन) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। द्रुतविलवित। ' सकल मंजुल मंगलमूल हो । चिदविभूति विमू अदुकूल हो।। * प्रणतपाल कृपाल कृपा करो। मम कलेश कलंक सबै हरो॥ तोटक। सुनिये विनती करुणायतनं । प्रणतारतमंजन पाहि जनं । * कलिकाल कराल प्रचंड अहै। जिनशासनको न उदोत चहै ॥६॥ समरथ्य जथारथपथ्यधनी । तुमसे विरले विरले अवनी। तिहितें कछु जोग प्रयोग करो।कलि-कल्मष-ताप समस्त हरो॥ वरणारसि तीरथवास वसे । जिननाथ सुपारस जन्म लसै। वह पावन पापनशावन भू । परिरच्छ प्रतच्छ प्रणम्य प्रभू ॥ समुद्रिका । अथ रथ पथ तीरथेशको । हथरस थथमो सुवेषको।। * खल-बल-दल कीजिये कला । झटपट रथ दीजिये चला ॥ पुनश्च । । समवसरनके सुपाठकी । अति मति हुलसी सुठाठकी। जिहि विधि निधि सो सुसिद्धिदा। सिधि भवति सु मोहि देवता॥ परिदम दिशामें हायरस नाम शहरमें श्रीनिनमार्गी रथजात्रा में होती थी, सो अनन्तससारी मिथ्यातियोंने विन किया । सो हाकिम आ-y गरेवालेने तो हुक्म दिया के जात्रा होय । तिस्पर दौलतरामादि मि-1 भ्यातियोंने प्रयागमें जो सदरकी अदालत है, तहा नालिश किया। ति इन्होंक तिरस्कार होनेको और त्रिलोकमगलमूल श्रोतीफैश्वरभगवानका दिगम्परामायको विजय होनेको देवाराधनको लिखी है। (वृन्दावन) २२ धोनमवमरणपूजाको नवीन भाशा वनावनेक संस्कृत प्राकृतादिक प्रथानके अनुसार विधि मांगी है ताकी प्रार्थना । (वृन्दावन) । Sr --SAKRISKor-ms-2--2- -- - ८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास वसन्ततिलका। भाषा समोसरनपूजन लालजीका । है जैनशासन हुलासन नित्य नीका ॥ पै छंदमंग अनरंग जहां तहां है। यामें यही विदुष दूषनको गहा है ॥ तोमर । तहँ कीन बहु विस्तार । लिखि भागतेंदु () उदार ।। रचना कथन है तेह । जजनादिमें नवनेह ॥ वसंततिलका। जो आदिनाथ-हरिवंशपुरानमाहीं। ___ कीनों समौसरन वर्णन मूल नाहीं ॥ ताकेऽनुसार जजनादि कथा न देखी। जो पाठ होय तब मोद भरै विशेखी ॥ मोतीदाम । * *** । सुषोड़श कारनको फल जान ॥ चहै प्रथमै कछु कीरति तासान वीज विना कहुं वृक्षविकाश ॥ * तदुत्तर पावन पंचकल्यान । चहै तमु पूजन हे मतिवान ।। * छियालिस अर्घ चढ़ावन जोग । नवोनिधि लब्धिसमेत सुभोग॥ इन्द्रवज्रा। तथा श्रुतस्कन्धपि पूजनीयं । चौषष्ठि रिद्धि प्रविचिन्तनीयम् ।। साहस अष्टोत्तर नाम नीके । ले अर्थ पूजे जिनराज नीके ॥ मोदक। आप महामतिमंडित पंडित । कीरति श्रीब्रहमंडविमंडित ॥1 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। ११५१ जोग अजोग विचारि अखंडित । उत्तर वेग लिखौ अविहंडित ॥ सारवती। चारक नारक वास अहै । लोक विलोक प्रसिद्ध कहै। तामधितै मोहि पाहि विभो । दीनदयाल समर्थ प्रभो ॥ भुजगी। हमें आपका है बड़ा आसरा। सुनो दीनके बंधु दाता वरा ॥ नृपागारगर्ताततै काढ़िये । अमैदान आनंदको बाढ़िये ॥ रथोद्धता। है और क्या अधिक आपसों कहैं । आप तात सब जानते हैं। । कीजिये अब उपाय नासते (ए)।मोह 'वृन्द' सुख होय जासते।। (नादविद्यावित् चेतनाथ पंडितसे प्रार्थना।) दोहा। चिदानंद चिद्रूप घन, तास दास सुखरास । तिनप्रति करजुग जोरि नित, विनवत 'वृन्द' हुलास । प्रमाणिका (गुर्वादि)। मूल चूक शोधको । लीजिये सुबोधको । कीजिये न क्रोधको । जानि बालबोधको । सोरठा। केवल ग्रह दिन चंद, संवत शक विक्रम विगत । कातिक कलि कुज छन्द, 'वृन्दावन' पत्री लिखी ॥ - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास wawwwwwwwwww wwwwww मथुरानिवासी पंडित चम्पारामजीके प्रति । शार्दूलविक्रीड़ित। खस्तिश्री मथुरापुरी अघदुरी, सद्धर्मचक्रद्धरी । जंबूमन्मथ मोक्षकामिनि वरी, सर्वार्थसिद्धेश्वरी ॥ चंपाराम पुनीत श्रावक तहां, स्याद्वादविद्याधुरी । काशीतें तिनको जुहार लिखतो, वृंदावनो माधुरी ॥ १॥ लोलतरंग। आप सदा सुखरूप विराजो । श्रीजिनशासनसों हित सानो ॥ शुद्ध चिदानंदकंद अराधो । विघ्न विनिम्न रहो निरबाघो ॥२॥ तोटक। * तुमरे जसको रस फैल रह्यो । दशहूं दिशमाहिं सुवास लह्यो।। * अवकाश नहीं दुसरे जसको। तिहँ वर्न सकै कवि है अस को ॥३॥ वसन्ततिलका। श्रीरामचंद्र बलिभद्र सुमद्रजी है। ___ ताकी कथा सुकृत प्राकृतमें कही है। सीता सुता कवनकी सु तहाँ गही है। जा भांति होय सु इहाँ लिखियो सही है ॥ ४ ॥ पुनश्च । जज्ञाधिकार जिन आदिपुराणजीका । खंडान्वयी सुगम तास प्रबुद्ध टीका ॥ हे मित्र! मोहि अति शीघ्र वनाय ठीका । भेजो जिसे पढ़त प्रांति मिटै सु हीका ॥ ५॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। तोमर । लक्ष्मीकुमुदमुदचंद । श्रीशेठलक्ष्मीचन्द । * जयवन्त राधाकृष्ण । गोविंद गुनमनिजिष्ण ॥ ६॥ । त्रिभुवन सु गुनमंडार । जस जासु जग विस्तार । जिमि होहिं जिनगुनमम । सो करहु काज अमम ॥ ७॥ तिनसों बहुत परकार । कहियो जुहार विचार ॥ धरि घरम नूतन नेह । पत्री लिखों गुनगेह ॥ ८॥ दोहा। मित्र तुम्हारे दरसकी, चाह रहत नित चित्त । कब मिलि हो सो दिवस धन, पावन परम पवित्त ॥ ९॥ संवत्सर विक्रम विगत, वाने र गर्न चंद। पौष सेत दुति भौमदिन, लिख्यो पत्र जन 'बंद' ॥१०॥ जयपुरके दीवान अमरचन्द्रजीके प्रति । अनुष्टुप् । प्रणम्य त्रिजगद्वन्धं जिनेन्द्र विनसूदनम् । लिख्यतेऽदो वरं पत्रं मित्रवर्गप्रमोददम् ॥ १॥ मोदक। जैपुर जैनपुरी जनु राजत । धर्मसुखी जन जन विराजत । * शोमित श्रीजिनमंदर सुंदर देखि प्रमोदित होत पुरंदर ॥२॥ * स्यात्पदमुद्रित श्रीजिनशासन ।जत्र उदै उरध्वांत विनाशन। जेम अखंडल खंड अखंडित । तेम सु पंडितमंडलमंडित ॥३॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ वृन्दावनविलास छप्पय । (सिंहावलोकन विसदृशउपमालंकार) र अमर कही जे तास, जास पुनि होइ न मरनो। । मरनो करै विनाश, सुधाधर सो निरवरनो ॥ वरनो निरजर सार, बंध न लगार जासु कहँ । * कहहिं कलाकर वाहि, नाहिं कन है कलंक जहँ ॥ जहँ नित उदोत सोइ सोमवर, वर विधुसो तुम गुन अमर ।। । अमरेंदुसार लखि बुध कहत, "अमरचन्द सांचे अमर" ॥1 गगनइन्दु जुतछयी, आप छायकी अरोगित । * वह करकशको ईश, आप कोमल रस भोगित ।। वह उड़गनमघि कृशत, आप बुधिमध प्रसन्न तन । वह खेचर सकलंक, आप निकलंक ज्ञानधन ॥ वह अस्तसहित तुम नित उदय, तुम समान किमि सो अमर ।। * तुम निजसरोज-रत वर भ्रमर, "अमरचन्द सांचे अमर"॥ दोहा। वृन्दावन तुमको कहत, श्रीमत 'जयतिजिनंद' । काशीते सो बांचियो, अमरचन्द सुखकंद ॥ ६ ॥ धरमबुधीधर धीरता, घोरी धन धनमान । राजमान गुनखान वर, अमरचन्द दीवान ॥ ७॥ अमरचंदजसचंद्रिका, फैलि रही चहुंओर । सुनिय हंस मिलवौ चहत, यह चित चतुर चकोर 10, कुशल छेम मिथ पूछियो, यह वर लोकाचार । सो परोख हम करत है, वांचो 'जयतिजुहार' ॥ ९॥ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। । ज्ञानानन्दसुभावकी, तुमकहँ प्रापति होह । यह वांछा मेरे रहत, मिटो सकल भ्रममोह ॥ १० ॥ मनालाल सखा सुमुख, समुखी सु (१) मुख सूनु। कलाकरनिकर नित बढ़ो, आनँदअम्बुधि पूनु ॥ ११॥ जयशशि कवि नंदलाल रवि, भये अलौकिक अस्त । । अब कविगन उड़गन धरहिं, जहँ तहँ उदय प्रशस्त ॥ १२॥ • आप सुमन गुरुसम सुमम, सुमनशमन जयवंत । विद्या बुधि बलवंत जय, मन्नालाल महंत ॥ १३ ॥ और जिते तहँ है अबै, पंडित खानुमवीय । तिन सबकहँ सनमानजुत, "जयति जिनेश" कहीय ॥१॥ हरिपद तथा शभू । । अब तुम समासुधारन जे है, पंडित मंडितज्ञान । __मन्नालाल आदि श्रुतिज्ञाता, स्यादवाद परमान । तिनसों या अपनी बुधिसों तुम, इन प्रश्ननको ज्वाब ।। मेलि दीजियो सुगम छिमाकर, तजि उपहास शिताबा॥१५* प्रश्न- शिखरिणी। सुनी मैया वैया वर व्रतधरैया मुनिवरा । * करै कोई कोई रुगितहिं रसोई निजकर ।। तहां शंकातंका उठत अति बंका विवरणी। निरंभी आरंभी अजगुत कथा भीम करणी ॥ १६ ॥ प्रश्न २- कुसुमलता। नभ अनकोल अनंतप्रदेशी, तातें केवल ज्ञान अनंत । इयों सिद्धनमहें प्रगट कही तह, जुगतसहित शंका उपजत॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलासजो तसु अंत लख्यौ केवल तो, जासु अंत सो है न अनंत ।। पुनि तिहिमध्य लोक नम भा,आदि अंत विन मघि किहि भता *प्रश्न ३~ रोड़क। कहे अनंते जीव तासुमहँ दोषराशि कहि । गनति विना किमि दाय होय सो उर विचार लहि ॥ पुनि नित शिवपुर जात सो न क्यों राशि समो है।। * उत्तर लिखहु सम्हार जुक्तजुत ज्यों मन मोहै ॥ १८॥ । प्रश्न ४- केदारा। अनंता नाम जो भाख्या । सो संज्ञा है कि संख्याख्या । । जो संख्या है तो है खंडो। अखंडोको न है खंडो ॥ १९॥ भुजंगी। ___ अनेकांत तो हेतुका दोष है। ___ सबी हेतुवादीनके पोष है ॥ तहां स्यादवादी अनेकांतका। ___ करै थापना क्यों कहो प्रांत का ॥ २० ॥ सदष्टासहस्त्रीविर्षे क्या लिख्यौ। लिखो जैशशी सो लिख्यौ सो लिख्यौ (8) ॥ प्रश्न ६- तथा वेदके भेद तीनों तहां । नियोगादि सोऊ लिखोगे यहां । प्रश्न ७- (समयसारके निम्नलिखित मगलाचरणके अर्थक विषयमें) चौपाई। नयनय लय सार शुभवार । पयपय दहय मार दुखकार ॥ . लयलय गहय पार भवधार | जयजय समयसार अविकार ।। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ M पत्रव्यवहार। प्रार्थना-दोहा। काशीनाथ तुम्हें करे, वारंवार जुहार । धर्मस्नेह बढ़ाइयो, पढ़ियो सुवुधि सुधार ॥ तोमर । जिनश्रुत लिखाय सुधाय । तुम दिये मोहि पठाय । सो मिले अब सुखरास । ल्याये विशेसरदास ॥ तत्त्वार्थशासन सार । अरु समयसार उदार । ज्ञानारणव शिवपंथ । श्रीदेवआगम ग्रंथ ॥ श्रीसमायकको पाठ । पुनि द्रव्यसंग्रह ठाठ । अध्यात्मबारहखड़ी । त्रेपनक्रिया नगजड़ी ॥ श्रीवर्धमान पुरान । पूजा समवसृत जान ॥ द्वैसंधिके कछु पत्र । ये ग्रन्थ आये अत्र ॥ २६ ॥ तुम कीन अति उपकार । नहिं तुम सदृश संसार । जयवंत वरतौ संत । वृषवंत सुहृद महंत ॥ २७ ॥ हरिपद। एक अरज मेरी निज चित धरि, सुनियो रसिक सयान श्रीरविषेनकथित जो संस्कृत, वरनत पद्मपुरान ॥ सो तुम आगे लिखी हमें की, लिखो जात है शुद्ध । सो अब भेजो ललित कृपाकरि, ज्यों सुख पावै बुद्ध ॥ दोहा। इत ऐसी सुनियत अहै, लिखी फिरंगी प्रश्न । जैपुरमें जिनमतिनको, जिनमतभाषित जिश्न ।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ वृन्दावनविलास* तासु ज्वाब जयचन्दजी, लिखौ सुजुक्त वनाय । * सोऊ इत लिख भेजियो, कृपाभाव दरसाय ।। तोटक। * निज चेतनमें कृतजोति लखो । पर द्रव्यनिसोंन मिलो परखो।। । अनुमौरस तास विलाश करो । निरद्वंद दशा धरि मुक्ति बरो॥ चौपाई। | रिषभदास पुनि घासीराम । और पंच जे सुगुननिधान ।। विगति विगति श्रीजयति जिनंद'। कहियौ सबसों धरि आनंद। धर्मचन्द्र मम पिता पुनीत । तुमको करहिं जुहार सुमीत।। राखो नित चित वृषअनुराग । शिक्षापत्र लिखो बड़भाग॥ । सुमुखी। दो शशि जम्बु सुदीपविखै । हैं परतच्छ अनादि अखै। । त्यों वृषदीपविष शशि दो । दिल्लिय जयपुरमाहिं अहो॥ । दोहा। *संवत्सर विक्रम विगत, वेर्दै उरग गर्ज चन्द । । कुज तिथि पंचमि जेठकी, लिख्यौ पत्र सुखकन्द ॥ ३५ ॥ । - * जेठवदी पचमी मगलवार सवत् १८८४ । * पत्रमें वार्तारूप * प्रयोजन भी लिखा है । सो इहा तो इस चिट्ठीका नकल लिखना भी उ-१ " चित नहीं था। परन्तु जो प्रश्न लिखा था, तिन प्रश्नोंका जवाब आया। । सो नकल लिखना योग्य जाना । तब प्रश्नावली लिखा है । (वृन्दावन)। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहारं। पण्डितेन्द्र जयचन्द्रकी ओरसे। __ अनुष्टुप् । प्रणम्य सर्वविद्देवं वीतरागं भवच्छिदं । लिख्यते जयचन्द्रेण पत्र मित्रप्रमोददं ॥ छप्पय । वानारसि शुभ थान, बसै वृन्दावन धरमी। तासु पत्र इत आय, किये हमको तसु मरमी ॥ उत्तर हम हू लिखै, तासुको करि चितनरमी । पहुंचौ विधन विडारि, निकट ताके विन गरमी ।। वर पत्र मित्रको प्रीति धरि, पढे रीति यह सज्जना। तब मिलनेके सम होय सुख, सुधापयोनिधिमज्जना ॥ दोहा। उत्तम जनके परस्पर, होइ जु शिष्टाचार । जयशशि करै जुहार वर, बढ़ि (१) वृन्दावन सार ॥ मत्तमयूर। पुण्यायता जो विधि सारी सुखकारी। पापायता जानि करारी दुखकारी॥ रागी द्वेषी नाहिं न होवै निजवेता। त्यागी योगी आतम वैवै धरि चेता॥ वित्री। न्यारी न्यारी उत्तर कारी पढ़ि सारी। लारी लारी अंक *चारी जु तुमारी ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलासमता विवेकी छन्द विवेकी तुम बांचो। चित्तारेकी वंकन एकी कर सांचो ॥ तत्त्वाधारं है सुखकारं जगभूषा । मिथ्यावाद छंडि कुनादं सब भूषा ॥ __ मनहर। जैसे वृन्दावनमाहिं नारायन केलि करी, तैसे 'वृन्दावन' मित्र कर है वनारसी। वंशरीति राग रंग ताल ताल आये गये, मान ठान आनि आनि धरेगा वनारसी ॥ कुंजगली आपनमें पण्य धरे अंवरको, अंगनाको अर्थ लेय देत यो वनारसी ॥ हर कर्म राक्षसको निकट न आन देत, संतनिसों प्रीति जाकी ऐसा भावनारसी ॥ तोटक। सुनिमोवच मित्र पढ़ो जिनको। मत उज्वल दोषविना तिनको ।। वर शब्द विदोष गहो श्रुतिमें । नय साधि अनेक धरो मतिमें ॥ अनुभौ करि आतमशुद्ध गहो। तजि बंध विभाव निचिंत रहो । जिन आगमसार सुशीश धरौ। शिव कामिनि पावनि वेगि वरौ ।। दोहा। वानारसि वर नगरमें, विरले जैनी लोक । तोऊ तुमसे वसत हो, यातें मानें थोक ।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार । १२५ छप्पय ( अन्तपिका). काम नाम कहु कौन, कूपमें किमि जल आवै । वीच जवर्ण गजेन्द्र, क्षीणवय नाम कहावै ॥ जहर दूसरो नाम, चीरकी लखि रंची()भनि । जलज होय किहि थान, सष्टि संहारकको गनि । १ कहु अंतिम यतिके वरणको, कमल थापि उत्तर सुधर । वृन्दावन' केलिनिवास जो, काशी कुंजगली सहर ॥ . दोहा। धर्मप्रीतिकरि फेरि दल, लिखियौ चतुर सुजान । बुद्धि तुम्हारी है बड़ी, यह जानी अनुमान ॥ १२ ॥ चौपाई। काशीनाथ मूलशशि नाम । नंतराम औ आरतराम ॥ घरमचन्द पुनि गोकुलचन्द। इन्है आदि वृषधर सुखकन्द ॥ तिनको करिये शिष्टाचार । जयपुरतें जयचन्द जुहार ॥ । पहुंचों तिन ढिग दल आधार । पढौ सबै मिलि शुद्ध उचार ॥ दोहा। नंदलालकी सबनिको, यथायोग्य वचसार । __ पढ़ियो प्रीतिसमेत तुम, सजनता हितकार ।। १ इस छप्पयके अन्तमें जो "काशी कुंजगली शहर" पद है, उसके प्रत्येक अक्षरके साथ अन्तका र जोडनेसे क्रमसे सब प्रश्नोंका उत्तर निकलता है जैसे कार (कार्य), शीर (पानीके सोता), कुंर, जर, गर, लीर सर, हर। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वृन्दावनविलास ww * संवत्सर विक्रमतनों, गर्गन उरंग गज चन्दै। * पौषशुक्ल भृगु दोज दिन, लिख्यौ पत्र जयचन्द ॥ श्रीरस्तु। अथ प्रश्नोंका उत्तर। * १ प्रश्न-पद्मपुराणमें उत्तरपुराणमें रामचंद्रजीके कथनमें * अन्तर है सो कैसे है ? अर द्विसन्धान महाकाव्यमें राम पांडवनिका दोय अर्थ लागै है तामें कैसे लिख्या है! । । उत्तर-यह पूर्वाचार्यनिकी विविक्षाका भेद है। तहां है * अल्पज्ञकै विधिनिषेध करने लायक बुद्धि नाहीं । द्विसंधान काव्यमें भी कछू खोल्या नाहीं, जैसे है, तैसे प्रमाण है। * २ प्रश्न-सुननेमें आवै है जो जीव पर्याय छोड़े तब , पहले उर्द्धगमन करै । सो यह कैसे ? उत्तर-यह नेम नाहीं । जीव कर्मरहित होय तव तौ । ऊर्द्धगमन खभाव है, सो ऊई ही जाय । अर कर्मरहित । * संसारी है सो विदिशाळू वर्जिकरि चारि दिशा र अधः ऊर्द्ध जहां उपजना होय तहां जाय है। । ३ प्रश्न-जिनप्रतिमा खंडित होय तौ कौन कौन । * अंग खंडित मये अपूज्य होय ! * उत्तर-- उक्तं च# नासी मुखे तथा नेत्रे, हृदये नाभिमंडले । * स्थानेषु व्यंगतैतेषु, प्रतिमानैव पूज्यते ॥ ++Markercentu म Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार ।। १२७ ॥ * जीर्ण चातिशयोपेतं तब्यङ्गमपि पूजयेत् । शिरोहीनं न पूज्यं स्यात्, निक्षेप्यं तन्नदादिषु ॥२॥ * अर्थात्-प्रतिमा नासिका, मुख, नेत्र, हृदय, नामिम डल, इनि स्थानविर्षे खंडित होय तौ पूजिये नाहीं । बहुरि से जीर्ण, बहुत कालकी होय (तथा कोई अतिशययुक्त होय)। कोई अंग घसि गया होय, अंगहीन होय, तौ पूज्य है ।। • अर मस्तकरहित होय तौ पूज्य नाहीं । ताळू द्रहकूपादि । विष क्षेपिये। ४ प्रश्न-दर्शनज्ञानचारित्रमयी जीवकू शास्त्रनिमें सुनिये । है, तहां सिद्ध अवस्थाविर्षे चारित्र क्यों न कहा? * उत्तर-चारित्र संसारावस्थामें त्याग ग्रहणकी अपेक्षा । कहिये है । अर शुद्ध जीवकी अपेक्षा दर्शनज्ञानखरूप कहा है। द्रव्यसंग्रहकी गाथा देखौ । अर ज्ञानविष थिर होना ही चारित्र कहा है । यात ज्ञानहीमें गर्मित भया । सिद्ध । अवस्थामें न्यारा कहनेकी विविक्षा नाहीं। ५ प्रश्न-छह महीना आठ समयमें छह सौ आठ जीवनका मोक्ष होना कहा है । अर पुराणनमें तीर्थंकरनके * साथ हजारों मुक्ति भये सो कैसें ? * उत्तर-पुराणनिमें समुच्चय कथनिकरि कया है । जैसे * कोई राजा चदै, तब तिसके साथी ताके जेते उमराव ! होय ते सवही चढ़े कहै है। तहां कोई आगे चढ़े कोई पीछे । चढ़े ताकी विविक्षा न करै तैसे जानना।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ वृन्दावनविलास ६ प्रश्न-जयपुरमें जिनमन्दिरमें पूजा किस रीति होय है। * उत्तर-जयपुरमें सम्प्रदाय दोय हैं । एक वीसपंथ । * एक तेरापंथ । तहां वीसपंथिनिकै मट्टारक पंडित है ते । * आशाधरकृत पंडित ( पाठ ) है, तिस अनुसार करें है अर तेरापंथिनकै दूजा पाठ प्राचीन आचार्यका किया है, तिस है। * अनुसार करै है । तेरापंथिनमें भी वरस पञ्चीसेकस् गुमा नीराम भेद थाप्या है। तहां तेरापथिनका दूसरा मन्दिर है। । तहां तिस रीतिसों होय है। । ७ प्रश्न-जिनके चरणनके चन्दनका लेप करना युक्त । है कि अयुक्त है। । उत्तर-पूजनके पाठनिमें कोईमें तौ अग्रभूमिमें लेप करना लिख्या है अर कोईमें प्रतिमाके तलै पीठिका पाषाण । है ताके लेप करना लिख्या है अर कोईमें चरननिके लेप * करना लिख्या है । तहां युक्ति करनेमें विवाद है । अर जिनमत स्याद्वाद है सो विवाद तौ जिनमतमें युक्त नाहीं।। । अर प्रतिमा दिगम्बर पूज्य है । ताके लेप चाहिये तो नाहीं।। , *अर कोई पूजक भक्त अपनी रुचितै चरननिके अर्पण भी है , * करै, तो विवाद न करना, जलतै प्रक्षाल होय तब उतर जाय है । अर लेप हीकी पक्ष करना दिगम्बरांके सेवानिको उचित नाहीं। १ दूसरी प्रतिमें प्रक्षाल लिखा है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। १२९ प्रश्न-सम्यग्दर्शन तत्वार्थश्रद्धानको कह्या अर तत्त्वार्थश्रद्धान आत्मज्ञानरहित होय तो मोक्ष न होय ऐसे। कह्या । सो तत्त्वार्थश्रद्धानमैं आत्मज्ञान आया कि नाही? * जुदा ही आत्मज्ञान कहां रह्या ? उत्तर-जिनेन्द्रके आगममैं षव्य, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ, पंचास्तिकायका वर्णन है । तामैं आत्मज्ञान आय तौ! गया परन्तु आगममैं ही आगमज्ञान अर अध्यातम ऐसे वि*शेषकरि भेदरूप कहा है । तहां जो पद्व्यादिकका । आगममै खरूप कह्या, तिस मात्र ही जाणे अर अपने आ मकी तरफ न देखे, तो तहां आगमका ज्ञान आत्मज्ञानकरि रहित भया । तव ऐसे जाननेवालेकै अपना हितका अनुभव तौ नाहीं, तबमोक्ष कैसे होय. यात आत्मज्ञानकू न्यारा नाहिं अध्यात्मशास्त्रजीमै चेत कराया है । अर जे आग- ममै गुरु आम्नायतै नीके समझे होंय, तिनकै तो तत्त्वार्थश्रधान कहनेहीमै आत्मज्ञान आय गया । जिनमतकी कथनी । अनेकान्तखरूप है । सो स्यादवादकरि वचननिका विरोध मेटे है। तहां प्रमाणनय निक्षेप अनुयोगद्वारकरि स्याद्वादकू । नीके समझे मतमै विरोध न उपजै है । विना समझा पक्षपात । करि कोई विरोध उपजै है, सो यह कालका दोष है। प्रश्न-भगवानके कल्याणक महोत्सवमै इन्द्र आवै सो। । मूल शरीर न आवै विक्रियाही आवै । सो कारन कहा? । उत्तर-शास्त्रमै ऐसेही वर्णन है । मूल शरीर तिनके Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० वृन्दावनविलास। विमानही विचरै है। बाहर जाय, सो विक्रिया ही जाय है।। यह आगमप्रमाण है। प्रश्न-चक्रवर्ति नारायणकै हजारों स्त्री हैं, तिनका मूल * शरीर तो पटरानीकै कह्या और स्त्रीनिकै विक्रिया जाना कया, । सो उनकै कहा विक्रियक शरीर है ? । उत्तर-तिनिकै देवनारकीकी ज्यों, वैक्रियक शरीर तो है * नाही, परन्तु औदारिकमै भी वैक्रियककी ज्यों विक्रिया होना है * कहा है। ऐसे पटरानी प्रधान है, ताकै मूल शरीर है । उत्तर विक्रिया अन्यकै जाय । यह भी आगमप्रमाण है। । प्रश्न-चौथाकालमैं आदिमै आयु काय बड़ी थी, तब * कहा पृथ्वी वड़ी थी कि यह ही थी । जो यह ही थी, तो च. *क्रवर्तिकी सेनादिक कैसे समावै थी। उत्तर–भरतक्षेत्रकी पृथिवीका क्षेत्र तो बहुत बड़ा है। हिमवतकुलाचलते लगाय जम्बूद्वीपकी कोट ताई, वीचि कर । अधिक दशलाख कोश चौड़ा है। तामैं यह आर्यखंड भी बहुत बड़ा है । यामैं वीचि यह खाड़ी समुद्र है। ताई उपसमुद्र महिगे, है। तहां आदिपुराणमै भरतचक्रवर्ति ममग्नक्षेत्रमै उहाँ गर्म दिग्विजय करी ताका वर्णन है, सो नीकै समाना। आम वार आयु काय निपट छोटी है । ताका गमन भी थोरही हो। त्रिम होय है । तातै अपने प्रश्न उपजे है। नो या ना कोई ग्रन्थमैं तो हमने बांचा नाही, अर अपनी हार उत्तर देनेकी सामथ्र्य नाही, बैंस से प्रमाण है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। । प्रश्न-तीर्थकरकी वाणी गणधर झेलै, सो ही काल ति नकै सामायिक करनेका । दोय कार्य एकै काल कैसे करे ? * उत्तर-गणधर मुनिनकै सामायिक तौ सदाकाल ही है। जात तृण कंचन शत्रु मित्र जीवन मरण सुखदुःखादिकमै । रागद्वेष न करना सो ही सामायिक है । सो यह तौ सदाका-1 ल ही है । अर तीनकाल सामायिक करना स्थापन किया है,* सो तीर्थकर तथा आचार्यादिक स्थापना, गुरु परोक्ष होय तिनकी स्तुति वंदनादिक करनी, तिनका भक्तिका पाठ पढ़ना,* तथा संजममै दोष लाग्या होय, ताका प्रतिक्रमण करना । इत्यादि क्रिया कलापके अथे तीन काल नेम स्थापन किया है। * अर तीर्थंकर साक्षात विद्यमान है, तिनकी भक्ति स्तुति -1 दना तौ साक्षात होय ही रहै । अर तीनकी वाणी सुनना | झेलना यह ही महान सामायिक है, यामै प्रश्न नाहीं। । प्रश्न-रामचन्द्रकृत चौवीसतीर्थकरनिके पूजनके पाठमैं , त्रिमंगी छन्दमैं मृगमदगोरोचनका नाम चन्दनके पाठमै लिख्या में है, सो यह कैसे ? * उत्तर-पूजनका पाठ चौवीस पूजाका इहां है । तामै देख्या सामान्यमै तथा विशेषमै मृगमद गोरोचनका नाम तो। लिख्या नाहीं । अर अन्य कोई पाठ होइ, तामैं लिख्या में * होगा, तो लौकिकमै कस्तूरी गोरोचन सुगन्धद्रव्यमै प्रसिद्ध । है। तिनकी सुगंधकी उपमा देनेको लिख्या होइगा । ए द्र-1 व्य निपट अशुद्ध है । सो पूजनमै तौ इनका अधिकार नाहीं।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास । और लिख्या कि तोडरमलजीकृत मोक्षमार्गप्रकाश ! * ग्रन्थ पूरण भया नाही, ताको पूरण करना योग्य है । सो कोई एक मूल ग्रन्थकी भाषा होय, तौ हम पूरण करें । नकी बुद्धि बड़ी थी। यात विना मूल ग्रन्थके आश्रय उनने के । किया । हमारी एती बुद्धि नाही कैसे पूरन करें। . और लिख्यौ न्याकरण सारखतकी वचनिका करि भेजी। *तो याकी बहुत• बोध होय । सो व्याकरणके पड़ावनेवाले । तौ काशीमै बहुत हैं । सारखतकी प्रक्रिया सिद्धान्तचन्द्रिका है। ताकू पढ़कर समझना । यातै तुमकू बोध हो जायगा । . और लिख्यौ जो तुमारे किये पदनिका पुस्तक भेजोगे। * तथा और आचारादि ग्रन्थनिकी वचनिका करि भेजोगे । सो *हमने एते ग्रन्थनिकी वचनिका करी है, श्लोक ५२००० ।। तत्त्वार्थसूत्र दशाध्यायीकी सर्वार्थसिद्धि आदिटीका है, ताके अनुसार श्लोक साढ़े ग्यारहहजार ११५०० । समयसारजीके श्लोक ग्यारहहजार ११०००। ज्ञानार्णवके लोक * दशहजार १०००० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाफलोग गा । * रिहजार ४०००। अष्टपाहड़जीके लोक ६२०० । परीक्षामुखन्यायग्रन्थके श्लोक चारिहजार १००० । देवागमनो। त्रके श्लोक दोहजार दोसै २२०० । द्रव्यसंग्रहका लोक ग्यारहतौ ११०० ।सामायिकपाठका लोक ११००१ पदक पुस्तक लोक ग्यारहसौ ११०० । या भानि पनि बनाई है। सो तुमारे यांचनेकी रुचि होय. ती नुमाग भानिया, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार । । इहा होय ताकू लिख देना। लेखनिपासि प्रति उतराय भैजेगौ।। इन्द्रवजा। वाराणसीकुंजगलीनिषण्णो,वृन्दावनोवाहरिविक्रीडने । . * जैने सुधर्मे रुचिमादधाति यायाद्धि पत्रं सदिदं तदने । शिखरिणी। यदा वाराणस्यामभवदवतारो जिनपतेस्तदा धन्या साभूद्धनदरचिता नेक विभवा । अतो मान्या नित्यं सकलभुवनावासकजनैभवानास्ते तस्यां स्मरणमुचितं पार्धजिनतः॥ जयपुरके दीवान अमरचन्दजीका पत्र । शार्दूलविक्रीडित। स्वस्तिश्रीनिजगद्धिताय गुरवे प्रोन्माथिने हडवो । यद्वाचा परमं पदं लघु ययुः सन्तो विशुद्धात्मगा तं चैवात्र निधाय चेतसि मया संलिख्यते पत्रिका।। * श्रीवृन्दावनमुख्यधार्मिकजनेभ्यःसन्ततं शर्मदा॥१॥ वसन्ततिलका। वाराणसीपुरनिवातिविशालदक्षाः । सद्धर्मपालनरताः पटवोऽभियुक्ताः। भावार्थ-श्री जिनेन्द्रदेवको हृदयमै स्थापित करके श्रीवृन्दावनादि धर्मात्माओंको चिट्ठी लिसता हु। 1 २ काशीनिवासी धर्मपरायण, शास्त्रावलोकननिरत, और चतुर जैनी जन सदा सुखपूर्वक रहै। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ वृन्दावनविलास। शास्त्रावलोकनविचारचमत्कृतान्ताः ___सत्त्वाः समन्तसुखिनः प्रभवन्तु जैनाः॥२॥ विश्वोपमागुणविराजितविग्रहेभ्यः सर्वज्ञभक्तिभरमोदितमानसेभ्यः। काशीश्वरादिसुजनेभ्य इतो ऽमरेन्दु मुख्यैर्जयावनगराजिनसन्नतिः स्यात् ॥ ३॥ अत्रत्यमस्ति कुशलं जिनपाशिभक्ते स्तत्रास्तु नित्यमतुलं तदनुस्मरामः । अन्यच्च पत्रमिह मोदभरेण सार्द्ध यौस्माकमागतमतोऽजनि मुत्प्रकृष्टः ॥ ४ ॥ प्रश्नस्त्वलेखि यदशकदिगम्बराय कश्चिन्मुनिर्गदयुताय करेण कृत्वा । भक्तं ददाति विनयोत्तरबृंहणाय तस्योत्तरं मनुत यूयमिति प्रमोदात् ॥५॥ ३ सर्वोपमायोग्य, सर्वज्ञमतिसे प्रसन्न चित्त रहनेवाले, काशीनरेश । आदि समस्त सज्जनोंको जयपुरसे अमरचन्द्रकी “जयजिनेद्र", * पहुंचे। ४ जिनेन्द्रदेवकी कृपासे यहा कुशल है, आपकी बहुत २ चाहते है । आपका हर्षप्रद पत्र आया, प्रसन्नता हुई। १ ५ आपने जो प्रश्न लिखा कि, किसी रोगयुक्त और अशक मुनिको । * कोई दूसरा मुनि विनयगुणके वढानेके लिये हायसे भोजन बनाकर देवे, या नहीं? (देखो पृष्ठ ११९ प्रश्न१) इसका उत्तर इस प्रकार है Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पत्रव्यवहार। १३५१ तद्यथा-मूलाचारे श्रीवट्टकेरखामिमिः प्रोक्तं व्याख्यानं । च वसुनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तिभिः कृतम् गाथासूत्रम् । सेजोगासणिसेजा तहो उवहिपडिलिहणउवगहिदा।। * आहारोसहवायणविकिंचणं वंदणादीणं॥ (तपाचाराधिकारे वैयावृत्तिप्रकरणे) * व्याख्या-शय्या, अवकाशो वसतिका, निषद्या आसनादिक, उपधिः कुण्डकादिमिः कमण्डलुप्रभृतिभिः प्रति-1 लेखनं पिच्छादिमिरुपग्रहः उपकारः कर्तव्यः । आहारौषधवाचनविकिञ्चिनवन्दनादिभिः । आहारेण भिक्षाचारेण औ-* षधेन शुण्ठीपिप्पल्यादिकेन, वाचनेन शास्त्रव्याख्यानेन, वि। किञ्चनेन च्युतमलमूत्रादिनिर्हरणेन वन्दनया च पूर्वोक्तानां मु नीनामुपकारः कर्तव्यः । । अत्र एवं ज्ञातव्यम् । आहारेण मुनीनामुपकारः कर्तव्यः ।। इति तु नो स्पष्टीकृतं यदाहारः खयं निष्पाद्य दातन्यः ।। * मुनीनामीदृशीचर्या आचाराने नोक्ता यदुपरि लिखिता तदाचाराङ्गाविरोधेन विभावनीयमिति । ६ श्रीमूलाचार अन्यकी टीकामें श्रीवसुनन्दि तिच० ने कहा है कि, “ रोगादिक विपत्तिके समयमै शय्या, वसतिका, आसन, कमंडलु, पिच्छिका, आहार, औषध, शास्त्र-व्याख्यान, मलमूत्रादि साफ करना, और नमस्कारादिसे एक मुनिको दूसरे मुनियोंका उपकार करना चाहिये। सो इसमें आहार खय बनाकर देनेका स्पष्टीकरण नहीं किया है । आचार्य । मुनियोंकी ऐसी क्रिया देखनेमें नहीं आई। इसलिये आवारांगका विरोध । नहीं होने पावे, इस प्रकारसे अपने प्रश्नका समाधान कर लेना। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास उपेन्द्रवजा। . यथा नभोद्रव्यमनन्तमीरितं ___ तथैव बोधः समुदीरितोऽमलः । यतोऽखिलं ज्ञातमनेन तत्कथ मनन्तता तस्य तदुत्तरं मर ॥ ज्ञानापेक्षया तु ज्ञातस्याप्यनन्तत्वं न संभवति । यतस्त* स्यात्मपरिज्ञाने परिज्ञातत्वानुपपत्तेः । किन्तु द्रव्यगणितावयव ____७ आकाशद्रव्य अनन्त है। इसी प्रकारसे ज्ञान भी अनन्त है । और । ज्ञानमें सम्पूर्ण आकाश झलकता है। ऐसी अवस्थामें आकाश अनन्त फसे । हो सकता है ? (देखो पृष्ठ ११९ पृष्ठ २) इसका उत्तर इस प्रकार है: ज्ञानकी अपेक्षाज्ञात पदार्थ अनन्त नहीं हो सकता। यदि ज्ञात पदार्थ । ज्ञानसे अनन्त माना जाय, तो वह ज्ञानके विषयभूत नहीं हो सकता। । इसलिये ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञात पदार्थ अनन्त नहीं है । किन्तु संख्याप्रमा णसे निखिल अनन्त पदार्थोको यथायोग्य अनन्तता सिद्धि हो सकती है। वह इस प्रकार है कि-सिद्धिराशि अनन्त है। उससे असंख्यातगुणी भूतकालकी समयराशि है । उससे अनन्तगुणी जीवराशि है । अथवा इस * प्रकार समझना चाहिये कि, सिद्धोंसे अनन्तगुणी संसारी जीवराशि है। १ उससे अनन्तगुणी निकालसमयवत्ता कालराशि है । उससे अनन्तगुणी सर्व आकाशप्रदेशोंकी राशि है । उससे अनन्तगुणी धर्माधर्म द्रव्यके मगुरुलघुगुणोंकी अविभागप्रतिच्छेदराशि है। उससे अनन्तगुणी सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य श्रुतज्ञानकी भविभागप्रतिच्छेदराणि है। उससे अनन्तगुणी दर्शनमोहके क्षयरूप जघन्य क्षायिकतन्धिी अधिभागप्रतिच्छेदराशि है और उससे भी मनन्तगुणी उरष्ट दायिनिरूप केवलज्ञानको अविभागप्रतिच्छदराशि है । यह संख्यामा सवारी प्रमाण है । इससे आगे संख्याप्रमाण नहीं है । इस प्रकार सम्पूर्ण जाना। पदाथाकी अनन्तता यथायोग्य समझ लेनी चाहिये। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। * सङ्ख्याप्रमाणादेव सर्वेषां यथायथमनन्ततासिद्धिरिति सुबोध-1 कमेतत् । तथाहि-प्रथमं सिद्धराशिरनन्तः ततोऽसंख्यगु*णितो गतकालसमयराशिः । ततोऽनन्तगुणितो जीवराशिः । अथवा सिद्धेभ्योप्यनन्तगुणितः संसारिजीवराशिस्ततोप्यनन्तगुणः कालराशिः त्रैकालिकसमयप्रमाणरूप' । ततोऽनन्त-1 * गुणः सर्वाकाशप्रदेशराशिः । ततो ऽप्यनन्तगुणो धर्माधर्मद्रव्यागुरुलधुगुणाविभागप्रतिच्छेदराशिः । ततोऽप्यनन्त गुणः सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यश्रुतज्ञानाविभागप्रति१च्छेदराशिः । ततोऽप्यनन्तगुणः दर्शनमोहक्षयरूपजघन्य-1 क्षायिकलब्ध्यविभागप्रतिच्छेदराशिः । ततोऽप्यनन्तगुणः । * उत्कृष्टः क्षायिकलब्धिरूपकेवलज्ञानाविभागप्रतिच्छेदराशिः। संख्याप्रमाणसर्वोत्कृष्टमेतत् । अत उत्तरं नास्ति । एवमनअन्तता यथायोग्यं ज्ञातव्याः। आर्या । जीवां अनन्तसंख्याः संसारविमुक्तभेदतो द्विविधाः। *संसारानिष्क्रान्ताः सततं सिद्धाः प्रजायन्ते ॥ लोकमें अनन्त जीव हैं। उनके दो भेद है, एक ससारी और दूसरे । मुक्त । जो संसारमें है, वे ससारी और जो संसारसे निकलकर सिद्ध हो । जाते हैं, उन्हें मुक्त कहते हैं। संसारी जीव इस प्रकार निरन्तर सिद्ध । * होते जाते हैं। ऐसी अवस्थामें उनकी संख्या कम क्यों नहीं होती? इसका * उत्तर सिद्धांत के अनुसार इस प्रकार है (इसके आगे उत्तर पत्रकी नकसमें बहुतसे अक्षर रह गये हैं । इस लिये उस पत्रका पूर्ण अनुवाद । नहीं लिखा जा सकता। परन्तु उन खण्ड अक्षरोंका सक्षिप्त अभि-I Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ansan ११३८ वृन्दावनविलास- . । एवमनन्तानेहसि तेषां हानिः कथं न जायेत। *हानिर्भवति परेषामिहोत्तरं शृणुत सिद्धान्तात् ॥ . भूतकालभवसिद्धानां भूतकालतः असंख्यातमक्तत्वेसि*द्धेभ्यः संसारिजीवानामनन्तगुणगणित ............"नन्तगु-१ *णत्वे भूतकालस्य चाक्षयानन्तत्वाद्भविष्यत्कालानन्तमागत्वात् । *........ संसारिजीवसिद्धेभ्योनन्तसामान्यसंख्याग्राहकपर्यायाअर्थदेशात् हानिर्लमते । सदैवेदृक् व्यपदेशं लमिष्यन्ति विशेष॥ संख्याग्राहकपर्यायार्थादेशात् हानिवृद्धी मन्ये ॥३॥ आर्या । । “यदनेकान्तःकथयति हेतोर्दोषो हि तत्कथं सिद्धम्। प्राय ऐसा जान पडता है कि, अतीत कालमें जितने सिद्ध हो चुके हैं, वे अनन्त है और उनसे अनन्तगुणें संसारी जीव हैं। यद्यपि ऐसा है । * कि, संसारचक्रसे निकलकर जितने जीव सिद्ध होते जाते है, उतनी संख्या संसारी जीवोकी संख्या से घटती जाती है, तथापि उनकी सामान्य अनन्तसंख्या कभी कम नहीं होती। जैसे कि आकाश अ-4 नन्त है । अब आप किसी एक जगहसे किसी तेज चलनेवाली सवारीपर सवार होकर किसी एक ही दिशाको निस गमन कीजिये । उस गम* नसे आप जितना चलेंगे, उस दिशाका उतना ही आकाश कम होता जायगा । परन्तु उसी दिशाके शेव आकाशमें अनन्तत्व सख्याका व्याघात कमी नहीं होगा । भावार्थ, यदि आपको इस प्रकार चलते २ अनन्त कल्प भी वीत जावेंगे, तो भी उस दिशाका शेप आकाश अनन्त ही र *हेगा । यदि कहींसे आकाशकी अनन्ततामें कमी पडेगी, तो आकाश अनन्त है, यह सिद्धान्त नहीं रहेगा । इसी प्रकार यद्यपि ससारमैसे जीव घटते जाते हैं, तथापि उनकी सामान्यसख्या अनन्त ही रहती है । १० नैयायिकादि लोग अनेकान्तको हेतुका दोष यतलाते है, सो जिम Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार । । अयं हि प्रश्नः । अत्रोत्तरं यच्च प्रोक्तं हेतोरनैकान्तिकनामा ? दोषोस्ति खपरमतप्रसिद्धः । तत्कथमनेकान्तमेव जैना मन्य-1 न्तेि । तदित्यं ज्ञातव्यं । विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तित्वं नामानैकान्तिकत्वं । यथाऽनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् इत्यत्र प्रमेय-* त्वादिति । तस्य हेतोराकाशे विपक्षमते नित्येपि निश्चयात् । । अनैकान्तिकत्वनामा दोषः साध्यागमकत्वात् । यश्चानेकान्तः । * स्याद्वादः, तस्य तु अनेके अन्ता धर्मा नित्याऽनित्यभावाभावप्रकार है ? अर्थात् जिसको अन्यमतीय हेतुका दोष कहते हैं, उस अने. कान्तको जैनी लोग अपना सिद्धान्त कैसे मानते हैं? ( पृष्ठ १२०* प्रश्न ५) * ११ इसका उत्तर यह है कि, जो हेतुसाध्यके विपक्षमे भी रहे, । ऐसे अनैकान्तिक कहते हैं । जैसे किसीने कहा कि, शब्द अनित्य है । क्योंकि प्रेमय है। जो प्रमेय होता है, सो अनित्य होता है जैसे कि, घट। * इस वाक्यमें शब्दकी भनित्यताको सिद्ध करनेवाला प्रमेय हेतु है।* । परन्तु वह अनित्यताके विपक्षभूत आकाशादिक नित्य पदार्थोमे भी * रहता है। क्योंकि वेभीप्रमेय हैं। इस प्रकार प्रमेयत्व हेतु शब्दकी अनित्यताको सिद्ध नहीं करसकता। इसलिये वह हेतु नहीं, किन्तु सदोष हेतु का अथवा हेलामास है । इसीको अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं । किन्तु * * स्थाबाद अनेकान्त ऐसा नहीं है । जिसमें प्रतिनियत सुनयगोचर प्रति-1 नियत हेतुओंकी विशेष विशेष विविक्षासे अनेक निस अनित्य, भाव अभाव, एक, अनेक, द्वैत, अद्वैत आदिक अन्त अर्थात् धर्म हो, उसे अनेकान्त कहते हैं । इस प्रकार पृथक्रव्युत्पत्ति करनेसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि, जो अनैकान्तिक हेतुका दोष है, उसका अर्थ भिन्न है, और जो स्थाद्वादरूप अनेकान्त है, उसका अर्थ भिन्न है। और उसमें प्रत्यक्ष प. रोक्ष प्रमाणसे कोई दोष नहीं आता। इसका विशेष विस्तार प्रमेयकमलमार्तण्ड अष्टसहली आदि ग्रन्थोंमें किया गया है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M MM RARARAM { - ११४० वृन्दावनविलास ........ कानेकद्वैताद्वैतरूपाः प्रतिनियतसुनयगोचराः प्रतिनियत हेत्वर्पणविशिष्टविवक्षावशतो यत्र सोयमनेकान्तः । इति । * व्युत्पत्तेस्ततो विस्पष्टभेदगतेरदृष्टेष्टविरोधकत्वात् विशदतरः प्रपञ्चितमेतत् प्रमेयकमलमार्तण्डाष्टसहल्यादिषु । मार्या । "विधिभावनानियोगा वेदार्थास्ते कथं स्फुटंवाच्या * वेदार्थस्य त्रयो व्याख्यातारः । भट्ट प्रभाकर वेदान्तिनः।। * १२ वेदके जो विधि भावना और वेदान्ती ये तीन अर्थ किये हैं, वे ! किस प्रकार सिद्ध होते हैं ! (पृष्ठ १२० प्रश्न ६) १३ भट्ट प्रभाकर और वेदान्ती ये तीन वेदका व्याख्यान करनेवाले हुए हैं। उनमें महमतानुयायी मीमासक भावनावाक्यार्थवादी है। प्रभाकर मतानुयायी नियोगवाक्यार्थवादी है। और वेदान्ती विधिवाक्यार्थवादी है।। निरवशेष योगको नियोग कहते हैं। उसमें किंचित् भी अयोगकी संभावना नहीं। यही उसका सामान्यरूप है । प्रेरणा चोदना ये भीउसके नामान्तर है।) और वह पृथक् मतभेदसे ग्यारह प्रकारका है। भावनाके शब्दभावना ! और अर्थभावना ऐसे दो भेद है। लिखा है कि "तिड् आदिक कहते है है अर्थात् उनसे जाना जाता है कि शब्दात्मक भावना अन्य है और यह सर्वार्थ भावना अर्थात निखिल अर्थोको कहनेवाली भावना पृथक । है। जो कि समस्त तिङन्तोंमें रहती है। यही विषय अष्टसहस्राकार। प्पणीमें इस प्रकार लिखा है कि किसी कार्यके करनेमें कर्ताकी जो प्र-1 योजक क्रिया है, उसको भाववादी लोग भावना कहते हैं । सत्तामात्र । * पुरुषाद्वैतवादको विधि कहते हैं क्योंकि " यही आत्मा देखने योग्य है, सुनने योग्य है और ध्यान करने योग्य है" इस वेदवाक्यसे सिद्ध । * होता है। तथा वेदान्तवादी ऐसा भी कहते हैं कि “मैं विलक्षण अ-* वस्था विशेषसे प्रेरणा किया गया हूं" इससे खय आत्मा ही प्रतिमासत ! होता है। बस यही विधि है। उक्त प्रकारसे इन तीनोंका संक्षेप कथन Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। *तेषु भट्टमतानुसारिणो मीमांसकाः भावना वाक्यार्थवादिनः । प्रभाकरमतानुसारिणो नियोगवाक्यार्थवादिनः । वेदांतानुसारिणो विधिवाक्यार्थवादिनः । तत्र नियोगस्य सामान्यरूपं । नियुक्तोहमनेनामिष्टोमादिवाक्येनेति । निरवशेषो योगो हि । नियोगः । तत्र मनागप्ययोगस्य संभवाभावात् । प्रेरणा चो-* *दना इत्यपि नामान्तरं स चैकादशधा अव्यक्तमतभेदात् । । भावना द्विपकारा । शब्दभावना अर्थमावना च । "शब्दात्म-1 भावनामाहुरन्यामेव तिडादयः । इयं त्वन्यैव सर्वार्था सर्वा* ख्यातेषु विद्यते" । इति वचनात् । यथा अष्टसहस्रीटिप्प*णकाराः "तेन भूतिषु कर्तृत्वं प्रतिपन्नस्य वस्तुनः। प्रयोजक* क्रियामाहुर्भावनां भाववादिनः" । विधिसत्तामात्रः पुरुषा किया गया है। इसका विशेष व्याख्यान अष्टसहनी प्रन्थमें लिखा है , १जोकि उसके खण्डनमें है । और वह इस प्रकार है कि "भमतानुयायी वाक्यका अर्थ भावना ही मानता है और प्रभाकर नियोग ही मानता है। ऐसी अवस्थामें वाक्यका अर्थ भावना ही है, नियोग नहीं है, अथवा नियोग ही है, भावना नहीं है, इसमें क्या प्रमाण है ? यदि दोनो अर्थ माने जावेंगे, तो भट्ट और प्रभाकर दोनों ही मारे जावेगे । भावार्थ । दोनो मतोंका खण्डन हो जायगा । इसलिये उपर्युक्त दोनों अर्थ मानना। । युक्तिसगत नहीं है । अथवा चोदना ज्ञान अर्थात् नियोग कार्यार्थमें ही। है, ऐसा भ मानता है । परन्तु वह कार्यार्थमें है, खरूपमें नहीं है, है इसमें क्या प्रमाण है? यदि दोनोमे माना जावे, तो भट्ट और वेदान्ती दोनोको भागना पडेगा । भावार्य इन दोनोका मत भी विचार शून्य है, ऐसा निरूपण किया है तथा आगे चालीस पत्रोंमे इसका विशेप व्याLख्यान किया है। जो विस्तारमयसे नहीं लिखा जा सकता। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वृन्दावनविलासद्वैतवादः । “द्रष्टव्योरेयमात्मा श्रोतव्योऽनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादि शब्दश्रवणात् । अवस्थान्तरविलक्षणेन । | प्रेरितोहमिति जाताकृतेनाकरेण खयमात्मैव प्रतिभाति स * एव विधिरिति वेदान्तवादिमिरविधानात् इति संक्षेपः । तेषांक * विशेषखरूपव्याख्यानमष्टसहत्यां प्रपञ्चितं । तयथा ।। "भावना यदि वाक्यार्थों नियोगो नेति का प्रमा। तावुभौ । यदि वाक्याडै हतौ मट्टप्रभाकरौ ॥ १॥ कार्येथे चोदना । ज्ञानं खरूपे किं न तत्पमा । द्वयोश्चेद्धन्त तौ नष्टौ भट्ट* वेदान्तवादिनौ" ॥ २॥ इति प्ररूप्य तदनन्तरं चत्वारिंश त्पत्रेषु तत्प्रकरणस्य विशेषव्याख्यानं कृतं वर्तते । तत्पत्राणि । । लिखितुं न शक्यानीति ज्ञातव्यं भवद्भिः प्रेक्षावद्भिः । यच्च लिखितंनय नय लहय सार शुभवार । पय पय दहय मार दुखकार । लय लय गहय पार भवधार। जय जय समयसार अविकार ॥ * इत्यस्यार्थनिर्णयाय तदित्थं ज्ञातव्यं । समयसारमै मंगलाचरणविषै समयसारजीकी महिमाका वर्णन है । जो कि काररहित श्री समयसारनामा अंथ जयवंतो प्रवर्ती । फेमो है। समयसार, जाके व्याख्यानवि, नय नयके साररूप प्राप करि कल्याणके द्वारकी प्राप्ति होय है। फिरंग्याके प्रश्नांको जबावे जैचंदजीका लिम्गाको न्योगे । ----ram-kri t orient Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। . मँगायौ सो दिल्लीमै लाला सगुतचंदजीके मंदिर नकल हो । * सी । इहांसो ठीक करायो, सो मौजूद नहीं । और लिखीजो * श्रीकुंदकुंदाचार्य सीमंघरखामीके निकट जाय, वहातै गाथाल्याये, सो लिखियो, सो वांका वणाया ग्रंथ समयसारादिक प्रसिद्ध ही छै, और न्यारी गाथा जाणिबामें आई नही छै ।। * और श्रीपद्मपुराणजी शुद्ध कराय मेजवा वास्ते लिखी, सो * शुद्ध करायज्ये छै । शुद्ध होय चुक्या पाछे भेजिवामें आसी। और श्रीपंचपरमेष्ठीजीका पूजनविष आचाय की स्थापनाको काव्य है, ताका अर्थवास्ते लिखी, सो इसतरह समुझज्यौ ।। स्रग्धरा। क्षितापक्षाक्षपक्षाः क्षतततकुमताः कान्तिसंतक्षितक्ष्मा दक्षणाक्षीकटाक्षक्षयकरकुशला लक्षितालश्यलक्ष्याः ॥ अध्यक्षेक्षेक्षिताक्षतदुरुपधयो मोक्षलम्यक्षराक्षाः क्षिप्रं क्षिण्वंतु साक्षात् क्षितिमिहगणपाः क्षुक्षितक्षेमवृक्षाः ॥१॥ । अस्यार्थः-इह पूजनावसरे गणपाः आचार्याः * साक्षात् क्षितिं स्थापनामूमिं क्षिप्रं क्षिण्वन्तु प्रकाशयन्तु । कीदृशाः गणपा' क्षिप्तापक्षाक्षपक्षाः क्षिप्ततिरस्कृतः । * अपक्षः शत्रुरूपः अक्षपक्ष इन्द्रियसमुदायो यैस्ते । पुनः कीदृशाः। क्षतततकुमताः क्षतानि ध्वस्तानि अनेकान्त देन जितानि ततानि विस्तृतानि कुमतानि मिथ्यावादिप्रणीतशास्त्राणि यैस्ते । पुनः कीदृशाः कान्तिसन्तक्षितक्ष्माः । .... Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ वृन्दावनाविलास www.wommmmmmmm. .... ." पुनः कीदृशाः दक्षणाक्षीकटाक्षक्षयकरकु-१ * शलाः दक्षा चासौ एणाक्षी च तस्याः कटाक्षानां क्षयं *कुर्वन्ति अत एव कुशलाः प्रवीणाः जितमदनवाणाः ".., प्रावीण्योत्कर्षवत्वसंभवात् । पुनः कीदृशाः लक्षितालक्ष्यल क्ष्याः । लक्षितः साक्षादनुभूतः अलक्ष्यो निरंजन' शुद्धचिद्रूप । * लक्षणो लक्ष्यो ध्येयपदार्थः आत्मा यैस्ते । पुनः कीदृशाः । । अध्यक्षेक्षेक्षितालक्षतदुरुपधयः । अध्यक्षरूपाः खसंवेदना प्रत्यक्षात्मानुभवनरूपा ईक्षा दृष्टिस्तया ईक्षते यः सोध्यक्षेक्षे क्षी तस्य भावस्तया अलम् अत्यर्थ क्षता दूरीकृता दुःखो-1 त्पादका निन्या उपघयः परिग्रहा यैस्ते । पुनः कीदृशाः मोक्ष* लक्ष्म्यक्षराक्षाः । मोक्षलक्ष्म्या भाविन्या अक्षरः अविनश्वरः अन आत्मा येषां ते । पुनः कीदृशाः क्षुत्क्षितक्षेमवृक्षाः क्षुधा है त्वा क्षिताः क्षीणदेहयष्टयोपि क्षेमवृक्षा कल्याणनरवः ।। क्षुधाया उपलक्षणत्वात् सर्वे परीपहा ग्राबाः । अत्र हीनाधिकं ! यद्भवेत् तद्बहुश्रुतैश्चोह्यम् । अन्यच्च-विश्वेश्वरप्रातृहस्ते पुस्तकान्यतः प्रेषितान । तेषां प्राप्तेः भवतामानन्दोत्कर्पोजनि, तचोम्यमेव । अवमिष्ट* पुस्तकानि यथानिष्टं प्रेप्यानि भविष्यन्ति । प्रातृधर्मनन्द्रकनन्ना* १४ विश्वेश्वर माईके हाथ पुस्तकें भेजी । उनकी प्रामिगे और मानन्द हुआ, सो योग्यही है। शेष पुग मुभीतरी भनी गाव यहाँके भाइयोंको भाई धर्मचन्द्रजीक जग्निन्द कर दिया | THE धर्मचन्दजी कह देना। भार समाजी नगमग : कह दी गई। इनरी भोरम और मर भाइयों पर दीजिये। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BR- KAR - - - - - - पत्रव्यवहार। त्रस्थमातृभ्यो जयजिनेन्द्रशब्दो निवेदितः तेषां परमप्रमोदभ* रपूर्वकं निवेदनीयम् । * अन्यच्च प्रातृऋषभदासजीघासीरामजीकाभ्यां जय जिनेन्द्रशब्दो निवेदितः । एतयोः सर्वेभ्यो निवेदनीयः ।। । अन्यच्च-मन्नालालोदयचन्द्र-माणिक्यचन्द्र-तनुसुखप्रभृति । श्रातृकृता सर्वमातृभ्यः परमप्रमोदभरपूरितानन्दामृतपूरितशुद्ध* चैतन्यानुभवपरसंजन्यमुक्तिमार्गसार्थत्वपवित्रपात्रीभूतत्वसमेत-* प्रीतिरीतिविस्फूर्तिभृताश्रीजयजिनेन्द्रशब्दसन्ततिरुल्लसतितराम्।। अपरं च--- इतविलम्बितम् । करणवर्गसुतृप्तिविधायिनः ___ सुभगयौवनभूषितविग्रहाः। परविभूतियुताः सदुपायिनः कति कति प्रथिता न नराधिपाः॥ आर्या। असकृद्भुक्तं राज्यं युवतिशतान्यपि तथैव भुक्तानि । । १५ मन्नालाल, उदयचन्द्र, माणिक्यचन्द्र, तनसुख आदि माइयोंकी । सवसे जुहार कहिये। 1 १६ इन्द्रियोंको सतृप्त करनेवाले, सुन्दरयौवनभूषित शरीरवाले, उत्कृष्ट विभूतिके धारण करनेवाले, और बडी २ भेंटोंके ग्रहण करने * वाले कितने २ राजा ससारमें प्रसिद्ध नहीं हुए। १७ अनेकवार राज्यभोग किया, अनेकवार सैकडों स्त्रियोंका भोग किया, और श्रेष्ठ सम्पत्तिका भी खूब भोग किया । परन्तु खेद है कि, I विशुद्ध निजानन्दखल्प आत्माका स्मरण कभी नहीं किया। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्दावनविलास वरसम्पदोपि चात्मान खलु विशुद्ध स्मृतो निजानन्द येन स्मृतेन झटिति प्रकटविनष्टा भवन्ति रागाद्याः।। *प्रभवति मुक्तिरधीना चैतन्यामृतपयोधिमग्नानाम् ॥ तंद्रातर इह लोके समुपगतजन्मसारमणिराशौ। । भवितव्यं न दरिद्रैः प्रच्युतसारैः प्रमादवशगत्वात् ।।। दुतविलम्वितम् । चिरंपरिभ्रमणोद्भवदुःखतो न खलु कश्चिदिहास्ति निवारकः । सुगुरुदत्तपरात्मविवेकजा दपर इष्टकृदच्छविवोधतः॥ अयि विवेकपयोधिकलाधर परमतत्वसमर्पणतत्पर। निजरसामृतपानसमुत्सुक . समयसार ..."" शतधीधुन । अन्यच्च-असाकमनिन्द्यहृद्यगद्यपद्यामन्दविनोदविभारतर १८ जिसके कि स्मरणरो चैतन्यामृत समदमें मम रहना yri रागादिक शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, और मसिलामी उन माग जाती है। । १९ इसलिये हे भाई। प्रमादफे वशीभूत होकर मJTIPATI सारभूत नणियांकी राशिवाले संभारम गार भागा मोदर दादी यने रहना चाहिये। । २०६न समारमें मुगुरदत निमार मि . जन्य दुगा निवारण पनि अन्न योनहार म गाम आठ irrr art .:.-ris t ml Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रव्यवहार। १४७ । विद्वद्वरपरिषत्सुन्दरीसत्सौन्दर्य्यामिमाविनां भविकानुमाविनां । सुदर्शनज्योत्सादिमजनं कदाभावि सपदीति ध्यायामः । प्री* तिस्फीतिमतीरितिव्यावृतिमतामनन्योपमेयाप्रमेयधैर्यधौरेयध्येयामेयनामेयप्रमुखसञ्चरणार्गोनपरिचर्योपनिष्ठानां जिनर्षमप्रव-* चनवचनासाधारणाभ्यसनव्यसनचणचारुतोपपन्नसमञ्जसप्रति-* * भाप्रकर्षविपर्यासितानध्यवसितधिषणावदवद्यव्यवसायव्यासनाश ई निरुपायप्रयासानां भवतां ज्ञानवतां शौर्यौदार्यधैर्यगाम्भी य॑माधुर्य्यपौरुषगुणगणभृतामालोकान्तरासादनं भवत्संयुक्तिविप्रयुक्तिप्रयुक्तिमुक्तिश्रातस्थानमामोत्वित्यपि च । किं चानुदिन-* * वरीवृह्यमानप्रधानगुणसन्तानविराजमानारुमानं जजिजान (8) गणनीयप्रणयिजनगणमनःप्रीणनप्रवणा युष्मादृशाः समदृशः। ॐ सदा रसातले नहि सुलभतराः सुरतरव इव । तदिनं । । सुदिनं कलयामो यत्राविरलानाविललापनविलोकनकान्तिजल* विलोलकल्लोलाकुलितललितमुन्निलंपत्कादिनिप्लवनादाप्लावितक लेवराणामस्माकं कलेवरिणां लपनाद्भवद्गुणप्रख्यानव्याख्यान ! * भवेत् । परं च परमप्रेमनिर्भरभरामत्रीभूतां मुदशंविधायिप्रान दविविधवृत्तवाहिनं पत्रमन्वहं संचार्य प्रेष्याप्रेप्यविवेकर्मवत्व१धिकवाग्विडंवरैविधिविधावित्सुः इति । कार्तिक कृष्णा २ संवत् १८८४ । * गया है । इसका यथार्थ मानन्द जो महागय सस्कृत जानते हैं, उन्हींको । आ सकता है। &---- - ----RHAR K KHE Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ वृन्दावनविलास (१७) शीलमाहात्म्य । जिनराज देव कीजिये मुझ दीनपर करुना। ___ भविवृन्दको अब दीजिये, इस शीलका शरना ।।टेका शीलकी धारामें जो, स्नान करै है। ____ मलकमेको सो धोयके, शिवनार वरै है। व्रतराजसों वेताल, व्याल काल डरै है। _____उपसर्गवर्ग घोरकोट कष्ट टरै है ॥ १॥ तप दान ध्यान जाप जपन, जोग अचारा । इस शीलसे सब धर्मके, मुंहका है उजारा ॥ शिवपंथ ग्रंथ मंथके निम्रन्थ निकारा । विन शील कौन कर सकै संसारसे पारा ॥ २॥ इस शीलसे निर्वान नगरकी है अवादी । ___षठशलाका कौन, ये ही शील सवादी ।। सव पूज्यके पदवीमें है परधान ये गादी। ___ अठरासहस्र भेद भने वेद अवादी ॥३॥ इस शीलसे सीताको हुआ आगसे पानी । पुरद्वार खुला चलनिमें भर कृपसो पानी ॥ नृप ताप टरा शीलसे रानी दिया पानी । ___ गंगामें ग्राहसों वची इस शीलसे रानी ॥ ४ ॥ इस शीलहीसे सांप सुमनमाल हुआ है। दुख अंजनाका शीलसे उद्धार हुआ है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलमाहात्म्य । शासनादारया ११९ । यह सिन्धुमें श्रीपालको आधार हुआ है। वप्राका परम शीलहीसे पार हुआ है ॥ ५ ॥ द्रोपदिका हुआ शीलसे अम्वरका अमारा । __ जा धातुदीय कृष्णने सव कष्ट निवारा ॥ सव चन्दना सतीकी, व्यथा शीलने टारा । __ इस शीलसे ही शक्ति विशल्याने निकारा ॥ ६॥ वह कोट शिला शीलसे लक्ष्मणने उठाई । इस शीलसेही नाग नथा कृष्ण कन्हाई ।। इस गीलने श्रीपालजीकी कोढ़ मिटाई। ___ अरु रैनमॅजूषाका लिया शील बचाई ॥ ७॥ इस शीलसे रनपाल कुंअरकी कटी वेरी । ___ इस शीलसे विष सेठके नन्दनकी निवेरी ॥ शूलीसे सिहपीठ हुआ सिहहीसेरी। ___ इस शीलसे कर माल सुमनमाल गलेरी ॥ ८ ॥ सामन्तभद्रजीने अहो, शील सम्हारा । शिवपिडतै जिनचन्दका प्रतिविम्ब निकारा॥ मुनि मानतुंगजीने यही शील सुधारा । तब आनके चक्रेश्वरी सव बात सम्हारा ॥ ९॥ * अकलकदेवजीने इसी शीलसे भाई। * ताराका हरा मान विजय बौद्धसे पाई ॥ गुरु कुन्दकुन्दनीने इसी गीलसे जाई। 1 गिरनारपै पापाणकी देवीको बुलाई ॥ १० ॥ FAR-KE - KE- REKK Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५० वृन्दावनविलास इत्यादि इसी शीलकी महिमा है घनेरी । विस्तारके कहनेमें बड़ी होयगी देरी॥ पल एकमें सव कप्टको यह नष्ट करेरी। __इसहीसे मिले रिद्धि सिद्धि वृद्धि सवेरी ॥ ११ ॥ विन शील खता खाते हैं सब कांछके ढीले । इस शील विना तंत्र मंत्र जंत्र ही कीले ॥ • सब देव करें सेव इसी शीलके हीले। इस शीलहीसे चाहे तो निर्वानपदी ले ॥ १२ ॥ सम्यक्त्वसहित शीलको, पालें हैं जो अन्दर ।। ___ सो शील धर्म होय है, कल्याणका मन्दिर ॥ इससे हुए भवपार हैं कुल कौल औ बन्दर। ___ इस शीलकी महिमा न सकै भाष पुरन्दर ॥ १३ ॥ जिस शीलके कहनेमें थका सहसवदन है। जिस शीलसे भय-पाय भगा कूर मदन है ॥ सो शील ही भविवृन्दको कल्याणप्रदन है । दशड़ ही इस पैंडसे निर्वानसदन है ॥ १४ ॥ जिनराजदेव कीजिये मुझ दीनपै करना। __ भविवृन्दको अब दीजिये इस शीलका शरना ।। इति शीलमाहात्म्य । - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- _