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प्रकीर्णक |
जुगल सदल अति अरुन, सघन उज्ज्वल भय सज्जै ॥ हुलसित विकसित समद, दानि नाकी (?) अति कूरे | केलि दिवस शुचि अति उदार, पोषक अरि चूरे ॥ सम सरज नीत चितचिंत दे, वृंद मिष्ट अनशस्त्रधर । जल मलय महत अकहत अकृत, देवदृष्टि दुखसृष्टिहर ॥ १८ जिनदेवस्तुतिः । छप्पय ।
सोलह भावन सहित, छँहों विधि पूज ऐक जिन । पंच भमन पैन करन, हरन नैव सुनय कहे तिन । शून्यांदिकमतमर्द्दि, सात विधि तत्त्व बखाने । तीनै रतन उर धार, सात मंगनि भ्रम माने ॥ है शून्य अलोक चहूँ दिशा, चार वेद घन सात थल । पैंट् दरब चवार्लिर्स द्वार नर, जय अष्टादश दोष दल ॥ विशेष- इस छप्पय में गणधर देवकी वाणीके अक्षर जो कि वीस अंक प्रमान है; जिनदेव स्तुतिमें गर्भित करके दिखलाये गये हैं । उनके निकालने की विधि निम्नलिखित दोहामें बतलाई गई है ।
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दोहा |
बाई दिशतें अंक ये, लिखो वृंद सुखकार । जेती संख्या है तिते, जिन धुनि अच्छर सार ॥ अर्थात्- बाई ओरसे संख्याके अंक लिखनेसे गणधरदेवकी वाणी १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ अंक प्रमाण होती है ।