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प्रन्यरचना।
। उसके पीछेकी उनकी कोई भी कविता प्राप्त नहीं हुई। उस समय उनकी ।
अवस्था ५७ वर्षकी थी। इसके पश्चात् उन्होने और कितनी आयु पाई, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है।
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ग्रन्थरचना। प्रवचनसार, तीसचौवीसीपाठ, चौवीसी पाठ, छन्दशतक, अर्हत्पासा1. केवली, और फुटकर कविता (वृन्दावनविलास) ये छह अन्य कविवर । वृन्दावनजीके बनाये हुए प्राप्त हुए हैं। इनके सिवाय बहुत करके एक
समवसरणपूजापाठ भी उनका बनाया हुआ होगा। क्योकि सवत् १८९१ में उनकी इच्छा उक्त ग्रन्थके रचनेकी हुई थी और उसके विषयमें श्री
ललितकीर्ति भट्टारकसे उन्होंने अपनी चिट्ठीमें बहुतसी वाते पूछी थी। । उन्हे लालजीकृत समवसरण पाठ पसन्द नही था। उसकी एक चिट्ठीमे, उन्होने अच्छी समालोचना की है। वे आदिपुराण और हरिवशपुराके कथनके अनुसार उक्त ग्रन्थकी रचना करना चाहते थे। परन्तु अभीतक यह ग्रन्थ कही देखने सुनने में नहीं आया । यदि होगा, तो कविवरके वशधरोके ही पास होगा। सभव है कि, उनके पास कविराजके और भी कोई दो चार अपूर्व ग्रन्थ हों।
प्रवचनसार। * कविवर वृन्दावनजीने जितने ग्रन्थ बनाये हैं, उनमे सबसे अच्छा, उ
नकी कीर्तिको चिरकालतक स्थिर रखनेवाला, और भाषा काव्यका गार। "खरूप यही ग्रन्थ है । जिसने इस ग्रन्थको देख लिया, उसे कविवरके : । अन्य ग्रन्थ देखनेकी आवश्यकता नहीं है। उनकी प्रतिभाका सर्वख इ-1
सीमें है । उसके वनानेमें उन्होंने परिश्रम भी सबसे अधिक किया है। * दूसरे प्रन्थ उन्होने लीलामात्रमें बना दिये हैं, परन्तु इसे तीन वार परि
श्रम करके बनाया है। पहलीवार सवत् १८६३ में प्रारभ करके १९०५ * में तीसरीवार इसे पूर्ण किया है । अर्थात् ४२ वर्षकी कवित्वशक्ति और । 1 अनुभवका निचोड इसमें भरा गया है। इस परसे पाठक विचार कर स-1