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कविवर वृन्दावनजीकी
तेरहपथी और वीसपंथी पडितोंकी सी मध्यस्थबुद्धि धारण करके पं-1 थोंके झगड़ोंसे उदासीन रहैं, तो समाजका बहुत कुछ कल्याण हो। सकता है। __ कविवरके समयकी दो घटनायें जानने योग्य हैं। एक तो भदैनी - पार्श्वनाथके विषयमें श्वेताम्बरियोका उपद्रव और दूसरा हाथरसके रथको रोकनेके लिये वैष्णवोंका किया हुआ विघ्न । पहली घटनासे यह जान पडता है कि, श्वेताम्बरी भाइयोकी तीथाके विषयमे दिगम्बरियोंके प्रति जो कृपा रहती है, वह बहुत दिनोंसे है । दिगम्वरियोंको प्रमादमें पड़े हुए * पाकर प्रत्येक तीर्थपर इसी तरहसे उन्होने अपने अड्डे जमा लिये है ।
और यह प्रयत्न कई सौ वर्षसे उन्होंने जारी कर रक्खा है. ऐसा जान * पड़ता है। आपसके लड़ाई झगड़ोंके कारण देश वर्तमान दुर्दगाको प्राप्त
हो गया है, तो भी उनके प्रयत्न वन्द नहीं होते हैं। वृन्दावनी लिखते । है कि, "काशीजीसे दिगम्वरियोंका तीर्थ उठानेके लिये श्वेताम्बरियोंने ।
बड़ा भारी उपद्रव मचाया था। पहले काशीकी अदालतमें मुकद्दमा हुआ * था, उसमें हार जानेपर अपील की थी, और उसमें भी हार होनेसे आखिर उन्होने इलाहावादकी हाईकोर्टमें बड़े जोर और प्रयत्नके साथ अ-1 पीलकी कार्रवाई की थी।" परन्तु आखिर साचको आच नहीं आई। दिगम्बरियोंकी ही विजय हुई। दूसरी घटना हाथरसके रथकी है । इसमे । दौलतरामादि मिथ्यातियोंने वड़ा भारी विन किया था। परन्तु आगरे । हाकिमने यात्रा होनेके लिये माज्ञा दे दी थी। पीछेसे उन लोगोने भी प्र* यागकी अदालतमें नालिश की थी। परन्तु सुनते हैं कि, उसमें भी बनि* योकी विजय हुई थी। इसके पीछे अभी थोड़े ही वर्ष पहले सवत् १९४९
के मेलेमें भी हाथरसके मित्रर्मियोने रथयात्रामें विघ्न उपस्थित क्यिा Y था। और उसमें भी वैष्णवोंको नीचा देखना पड़ा था। यह बात सब । लोगोंने सुनी ही होगी। " कविवर वृन्दावनजीका देहान्त कब कहा और किस प्रकारसे हुभा,, इस वातका कुछ भी पता नहीं लगा, यह खेटका विषय है। उनकी सबमे । अन्तिम कृति प्रवचनसार है, जो विक्रम संवत् १९०५ में पूर्ण हुई थी।