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कविवर वृन्दावनजीकी
कते हैं, कि यह ग्रन्थ कैसा अच्छा बना होगा। उपर्युक्त वातकी सलताके लिये प्रवचनसारकी प्रशस्तिमें लिखा है कि;
"संवत विक्रमभूप, ठार सौ नेसठमाहीं। यह सब बानक बन्यो, मिली सतसंगति छाहीं॥ तब श्रीप्रवचनसार, ग्रन्थको छन्द बनावों। यही आस उर रही, जासते निजनिधि पावों ॥ तब छन्द रची पूरन करी, चित न रुची तब पुनि रची।
सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकांतरससों मची।" तथा हि
चार अधिक उनईस सौ, संवत विक्रमभूप । जेठ महीनेमें कियो, पुनि आरंभ अनूप ॥ पांच अधिक उनईस सौ, धवल तीज वैशाख ।
यह रचना पूरन भई, पूजी मन अभिलाख ॥ प्रवचनसार ग्रन्थ हमारे सम्प्रदायका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें निश्यचारित्रका वर्णन है। इसके मूलका श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य और संस्कृतटीकाकार श्रीअमृतचन्द्रसूरि हैं। आगरानिवासी पांडे हेमराज
जीने उक टीकाके अनुसार एक उत्तम भापाटीका वनाई है और ह.. * मारे कविवरने उक्त तीनो अन्योंके अनुसार इस ग्रन्थी पद्यवद्ध रचना।
की है। जिसप्रकारसे नाटकसमयसारकी पद्यरचना करके वनारसीदासजीने भाषासाहित्यको एक रत्नसे आभूषित किया था, उसीप्रकारसे यह !
ग्रन्थरत्न भी भापा कविताके हृदयका हार बन गया है। अन्तर केवल इ। तना है कि, नाटकसमयसारकी प्रसिद्धि अधिक हो गई है, और यह अ* भी तक गुप्त है । वनारसीदासजीने जो पद्यरचना की है, वह विशेष ख
तत्रतासे की है, परन्तु इस ग्रन्थमें यह बात नहीं है । इसे मूल अन्धी पद्यवद्ध टीका कहे, तो कुछ अनुचित नहीं होगा। क्योकि इसमे टीका- 1
आके किसी भी विपयको नहीं छोड़ा है। हर्षका विषय है कि, उक्त प्र. न्याछपना प्रारंभ हो गया है। वह बहुत जल्दी पाठकोंके दृग्गोचर होगा।