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१३.
कविवर वृन्दावनजीकी
आजकलके मा वाप अपनी संतानको केवल चतुष्पद वनाकर ही कृतकृत्य । हो जाते हैं।
संवत् १८९८ मे इस ग्रन्थकी रचना हुई थी। पौष कृष्णा चतुर्दगीको । प्रारंभ करके माघ कृष्णा २ को इसकी समाप्ति कर दी गई थी।
अर्हत्पासाकेवली। * यह एक शकुनावली है। पडित विनोदीलालजीकृत संस्कृत ग्रन्थके, N आधारसे इसकी रचना हुई है । इसके विषयमें विशेष लिखनेको आवश्य*कता नहीं है। छोटीसी पुस्तक है ।जैनहितैषी कार्यालयसे पृथक् प्रकाशित
___ इन पांच ग्रन्थोके सिवाय एक ग्रन्थ यह वृन्दावनविलास है । इसके विषयमे हम कुछ नही लिखना चाहते । काशीके सरखतीमडारसे यह ग्रन्थ संग्रह किया गया है। दूसरी प्रति नहीं होनेसे हमें इसके सगोधनमें वहुत परिश्रम करना पड़ा है। इतनेपर भी अनेक स्थान श्रमपूर्ण । रह गये हैं । हमको विश्वास है कि, इस सग्रहके सिवाय कविवरकी और * भी वहुतसी कवितायें होंगी। 'शीलमाहात्म्य' नामकी कविता जो प्र
न्थके अन्तमे छपी है, हमारे सग्रहमें नहीं थी। पीछेसे आरा जैनकन्या* पाठशालाकी अध्यापिका जानकीवाईके द्वारा प्राप्त हुई है । यदि आगे।
अन्य कविताये प्राप्त हुई, तो हम उन्हें आगामी सस्करणमे प्रकाशित करनेका प्रयत्न करेंगे।
हमारा विचार था कि, कविवरका जीवनचरित्र और उनके अन्योका । आलोचना विस्तारपूर्वक लिखे । परन्तु प्रकाशक महाशयको गीघ्रता। * और अवकाशके सकोचसे ज्या त्यो करके ये दोनों विषय समाप्त कर * दिये हैं। लिख करके एक वार विचार करनेका भी अवसर नहीं मिल सरा
है। इस लिये सभव है कि, इसमें बहुतसे दोष रह गये होंगे। उनके वि* पयमें क्षमा मागकर और इसके गुणोंके ग्रहण करनेकी प्रार्थना करके हम I इस लेखको समाप्त करते हैं। और अन्तमे जीवनचरित्रमबंधी अनेक