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प्रन्थरचना।
। प्रायः हिन्दी भाषाकी जितनी कविता देखी जाती है, वह प्रायः दोहा, । सोरठा, चौपाई, छप्पय, कुडलिया, कविता, सवैया आदि छन्दोंमे ही पाई।
जाती है। परन्तु हमारे कविवर लकीरके फकीर नही थे । उक्त दोनों , पाठोंके देखनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने अपनी रुचिके अ-. नुसार जिनका संस्कृत भाषामें ही अधिक प्रचार है, ऐसे वसततिलका, सग्धरा, आर्या, रथोद्धता, द्रुतविलम्बित, उपेन्द्रवज्रा, लक्ष्मीधरा आदि छन्दोंका खूब खतत्रताके साथ उपयोग किया है और इसी कारण एक नवीन वस्तुके समान उनकी कविताका सविशेष आदर हुआ है।
छन्दशतक। 7 छन्दशास्त्रका यह बहुत ही उत्तम प्रन्थ है। निरन्तर कार्यमें आने ।
योग्य अनुमान १०० प्रकारके छन्दोंके वनानेकी विधि इसमें वतलाई गई। है। विद्यार्थियोंको बहुत थोड़े परिश्रमसे यह प्रन्य उपस्थित हो सकता। है। इसके पहले छन्दशास्त्रका ऐसा सरल, सुपाच्य और थोड़ेमें बहुत प्रयोजन सिद्ध करनेवाला ग्रन्थ दूसरा नहीं बना था । सस्कृतके वृत्तरत्नाकर आदि ग्रन्थोंकी नाई प्रत्येक छन्दके लक्षणनामादि उसी छन्दमें बतलाये हैं और विशेष खूबी यह है कि, एक प्रकारसे सारा अन्य जिनशासनकी । । अच्छी २ शिक्षाओसे भरा हुआ है । यदि जैनपाठशालाओंमें इस ग्र-I न्यको पढ़ानेका प्रयत्न किया जावेगा, तो बहुत लाभ होगा । इस ग्रन्थके विषयमें हमको बहुत कुछ लिखना था, परन्तु शीघ्रताके कारण नहीं लिख सके । अस्तु, अव यह अन्य पाठकोंके समक्ष उपस्थित है, वे इसकी
उत्तमताका खय विचार कर लेंगे । स्थान २ पर टिप्पणिया देकर हमसे । जितना हो सका है, ग्रन्थका अभिप्राय समझानेका प्रयत्न किया है। क यह प्रन्य कविवरने अपने सुपुत्र बाबू अजितदासजीके पढानेके लिये बनाया था। और केवल १८ दिनमें बनाया था। इससे सहज ही समझमें
आ सकता है कि, कविवर लीलामात्रमें कैसे अच्छे अन्य वनानेकी शक्ति रखते थे। एक बात यह भी ध्यान में रखनेके योग्य है कि, पहले लोग। । अपनी सतानको सुशिक्षित करनेके लिये कैसे २ प्रयत्न करते थे। अब कि।