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कविवर वृन्दावनजीका
दिमियोंको जैलकी सजा मिली और बहुतसे मुचलका लेकर छोड़ दिये गये । इन्हीं धर्मवीर धर्मचन्द्रजीके यहा कविवर वृन्दावनजीने जन्म लिया था। * कविवरकी माताका नाम सितावो और स्त्रीका रुक्मणि था जैसा कि,
छन्दशतककी प्रशस्तिसे विदित होता है । रुक्मणि वडी धर्मपरायणा और पतिव्रता स्त्री थी। कहते हैं कि, उसे लिखना पढ़ना भी अच्छीतरहसे आता था। कविवरका अपनी पतिप्राणा भार्यासे अतिशय प्रेम था। प्रन्थप्रशस्तिमे उसका नाम प्रगट करना ही उनके प्रेमका एक यथेष्ट प्रमाण । है।छन्दशतकका मजुभाषिणी छन्दका उदाहरण, जान पड़ता है कि, उन्होंने * अपनी गुणवती भार्याका आदर्श सम्मुख रखकर ही बनाया था,
प्रमदा प्रवीन बतलीन पावनी। दिवशीलपालि कुलरीति राखिनी। जल अन्न शोधि मुनिदानदायिनी।
वह धन्य नारि मृदुमंजुमापिनी॥ खेद है कि, वर्तमानमें ऐसी स्त्रिया दुर्लभ हो गई हैं। रुक्मणिके पिताका घर अर्थात् वृन्दावनजीकी ससुराल काशीके ठठेरी बाजारमें थी। उनके श्वसुर एक बड़े भारी धनिक थे । उनके यहा उस समय टकसालका काम होता था। हमारे बहुतसे पाठक इस बातको जानते होंगे कि, पहले सरकारी टकसालें नहीं थी। महाजनोंकी टकसालों* में ही सिक्का तयार होता था। आजकलके समान उस समयकी गवर्नमेंट 1 सोलह आनेमें १० आनेका सिक्का देकर प्रजाकी प्रवंचना नहीं करती थी। " अतु, एक दिन एक किरानी अग्रेज कविवरकी ससुरालमें आया । उस
समय वे वहीपर उपस्थित थे। उसने इनके श्वसुरसे कहा कि, "हम तुम्हारा कारखाना देखना चाहता है कि, उसमें कैसे सिके तयार होते हैं" * वृन्दावनजीने बतानेसे इनकार कर दिया, और अधिक बातचीत करनेपर
उससे कह दिया, कि “जाओ तुम्हारे सरीखे बहुत किरानी देखे हैं।" पाठकोंको जानना चाहिये कि, प्रजाके हृदयमें उस समय अप्रेजोंका इतना । आतक नही था, जैसा कि आजकल है । उस समयके अग्रेज प्रजासे हि