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________________ जीवनचरिन्न । लमिल कर रहनेकी कोशिश करते थे। परन्तु आजकल उनका मस्तक आसमानसे छू गया है । अब वे सर्व साधारणसे मिलनेमें घृणा प्रकाश करते हैं । प्रजा भी अब उन्हें एक हौआ समझती है। * दैवयोगसे कुछ दिन पीछे वही किरानी काशीका कलेक्टर होकर आया। उस समय हमारे कविवर सरकारी खजाची थे । साहब वहादुरने पहली मुलाकातहीमे इन्हें पहचान लिया और जीमें बदला चुकानेकी * ठान ली । वृन्दावनजी बहुत होशयारी और दयानतदारीसे काम करते थे। परन्तु जब अफसर ही दुश्मन बन गया था, तो कहा तक जान बचती। आखिर एक जाल बनाकर साहबने इन्हे तीन वर्षकी जैल दे दी। और इन्हें शान्तिपूर्वक उस अत्याचारको सहना पड़ा । उन दिनो जिलाका * मजिष्ट्रेट ही जिलाका राजा समझा जाता था और मनमानी नव्यावी कर * सकता था। फिर इनका न्याय अन्याय कौन पूछता था। ___ कुछ दिनके पश्चात् एक दिन सबेरे ही साहब कलेक्टर जैल देखने गये। उस समय हमारे कविवर जैलकी कोठरीमे पद्मासन बैठे हुए, "हे दीनबन्धु श्रीपति करुनानिधाननी । अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी।" - इस स्तुतिको बनाते जाते थे और भैरवीमें गाते थे। उनमें यह एक अपूर्व शक्ति थी कि, जिनेन्द्रदेवके ध्यानमें मम होकर वे धाराप्रवाह क*विता कर सकते थे। उन्होने दो लेखक इसी लिये नौकर रख छोडे थे कि-जो कविता वे वनावें, उन्हें लिख लेवें । परन्तु जैलकी कोठरीमें कौन था जो लिख लेता? भगवानकी स्तुति करते समय वे सिवाय भगवानके और किसीको नहीं देखते थे। गाते समय उनकी आसोंसे आस वह रहे थे । साहब बहुत देर उनकी यह दशा देखते रहे और कोठरीके पास खडे रहे। उन्होंने “खजाची बाबू ! खजाची चावू!" कहकर कई बार पुकारा, परन्तु कविवरकी समाधि नहीं टूटी । निदान साहब बहादुर अपने आफिसको लौट गये। थोड़ी देरमे एक सिपाहीके द्वारा यु* लवाकर उन्होंने पूछा, "तुम क्या गाटा था, और रोटा था। ' कविव-y Iरने उत्तर दिया, " अपने भगवानसे तुम्हारे जुल्मकी फरियाद करता।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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