________________
अरहंतस्तुतिः।
दयादान सर्वज्ञता, प्रभुमें है परशस्त ॥ ६३ ॥ तातै मो दिशि देखि अब, कृपा करो जिनचंद। निरावाध सुख दीजिये, सहज निजानंद कंद ॥६॥ दीनबंधु करुणायतन, तारनतरन जिनेश । वृंदावन विनती करत, मैटो सकल कलेश ॥६५॥ *
इति सकटोद्धरणस्तुतिः।
(७) अथ अरहतस्तुतिलिख्यते।
दोहा। नासु धर्मपरमावसों, संकट कटत अनन्त । | मंगलमूरति देव सो, जैवन्तो अरहन्त ॥१॥
हे करुनानिधि सुजनको, कष्टविषै लखि लेत। * तजि विलंब दुख नष्ट किय, अब विलंब किह हेत ॥२॥
षट्पद। तब विलंब नहिं कियो, दियो नमिको रजताचल। । तब विलंब नहिं कियो, मेघबाहन लंका थल ।।
तब विलंब नहिं कियो, शेठ सुत दारिद भंजे।। । तव विलंब नहिं कियो, नाग जुग सुरपद रंजे ॥ । इमि चूरि भूरि दुख भक्तके, सुख पूरे शिवतियरवन । । प्रमुमोर दुःखनाशन विष, अब विलंब कारन कवन ॥ ३ ॥