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वृन्दावनविलास
* निजदासनके दुख देखतही, प्रमु लीन्हों उबारितिन्हें तिहिबेरी।।
लघु दीरघ पाप कळू नगिन्यो, करुनाकरि काटि दियो दुख बेरी हमपै यह पीर अपार परी, निरधार पुकारत हों इहि बेरी।।
प्रमुडूबत हों दुखसागरमें, किन श्रीपतिजी पत राखहु मेरी५७ ॥ * जगजंत अनंत उधारत हो, जसगावत है श्रुत संशय नाहीं। * अपराधि उपाधि विनाशनकी, विरदावलि फैलिरही जगमाहीं ॥
अब मो पत जात अहो करुनापति, आतुर हेरत हों तुमपाहीं।। तजि बार अबार कृपानिधि हो, मोहि लेहु उवार गहो गलबाही । हमसों अघऔगुन भूलि बनी सो,त्रिलोकधनी तुम जानत सारी * अब तास विनाशनको तुमसों, अति आतुर आरत आनि पुकारी। । सब लायक हो जिननायकजू, अपनों लखि मोकहँ लेहु उबारी ।।
शरनागतकी प्रभु राखहु लाज, अहो करुनाकर कीरतधारी ५९ * सुनिये विनती शिवधामधनी,वसुजाम तुमी फल काम प्रदाता । * हमसों कछु जो अपराध वन्यौ, सवसो तुम जानत हो जगताता है नहिं सम्मुख मो मुख होय सकै,हो कृपानिधि दीनदयाल विधाता । अब राखहु लाज अहो महाराज, हरो दुखसंकट हो सुखदाता६०१
दोहा। विन निघ्नकरतार हो, हो जिन जगदाधार । डूवत हों दुखउदधिमें, लीजे बेगि उवार ॥ ६१॥ किहिं विधि प्रभुकी थुति करों, बुधि थोरी गुनभूर ।। सोऊ बानीगम्य नहिं, सहजानॅद भरपूर ॥ ६२ ॥ एक अलंब यह अहै, तुम जानत सब वस्त ।