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छन्दशतक।
अथ गाथाप्रकरणाष्टक।
(प्रथमतृतीयचरणमें १२ और द्वितीयचतुर्थचरणमें १५ मात्रा) जिनधुनि जलधि अगाहू । जाको नाही कहूँ थाहू । मुनि मथि सु रतन लाहू । 'वृन्दावन' ताहि अवगाहू ॥
गाहा तथा अवगाहा ।
(चारों चरणों में क्रमसे १२-१८-१२-१५ मात्रा) (चिनमूरत अमलीनो, जाके गुनसिंधुको नही थाहा । जिन मथि सु रतन लीनो, तिन यह भवसिंधु अवगाहा ॥
खंधो।
(क्रमसे १२-२०-१२-२० मात्रा) १ सुगुरु कहत समुझाई, तू हो ज्ञाता सहज शुद्ध निःसंघो। * काहे भूलो भाई, काया है पुग्गलहि द्रव्यको खंधो॥
चपला गाथा।
(मात्रा १२-१८-१२-१५) जेते जन जगवासी, तथा जिन्होंने मुंडाइये माथा । ते सब धनके प्यासी, यह चपलाने जगत गाथा ॥
उग्गाहा।
(मात्रा १२-१८-१२-१८) अष्टांगजोगजेता, सो याही घटसमुद्र सुग्गाहा । ज्ञानानंदनिकेता, सभेदविज्ञान 'वृन्द' उग्गाहा ॥
१ इसे उपगीति भी कहते हैं । २ आर्या भी कहते हैं। ३ आर्या. गीति तथा स्कंधक भी कहते हैं । यह भार्याका भेदविशेष है। 1 ४ इसे गीति भी कहते हैं।