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कविवर वृन्दावनजीकी।
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तहां पुन्व खिरै नित नूतन करम बंधै, ___ "गोरखको धंधा" नटबाजीसी नटतु है। "आगेको वटत जात पाछे बाछरू चवात,
जैसे हगहीन नर जेवरी वस्तु है।"
जाने निज आतमाको जान्यो भेदज्ञान करि,
इतनो ही भागमको सार हंस चंगा है। ताको सरधान कीनो प्रीतिसों प्रतीति भीनों,
ताहीके विशेपमें अभंग रंग रंगा है। बाहीमें विजोगको निरोधिकै सुधिर होय,
तबै सर्व कर्मनिको क्षपत प्रसंगा है। मापुहीम ऐसे तीनों साधे वृन्द सिद्धि होत,
जैसे "मन चंगा तो कठौतीमाहि गंगा है।"
जिसके तन आदि विपै ममता,
वरतै परमानहुके परमानी। तिसको न मिलै शिव शुद्ध दशा,
किन हो सब आगमको वह ज्ञानी। अनुराग कलंक अलंकित तासु,
चिदंक लस हमने यह जानी। जिमि लोक विप कहनावत __ "यह तांत यजी तय राग पिलानी।"
ज्यो पारस संजोगते. लोह कनक जाय । गरल अमियमम गुन घरत, राम मंगान पाया
जसे लोहा पाठमंग, दुध मागर पार । तसे अधिक गुनान मंग, गुन तिर