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वृन्दावनविलास
दान अनंतके दाता तुम्हें सुनि, जांचत हों न करो अब देरी। * होय अधीन करूं विनती, अव श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ४६ ॥ * हो जिन दीन अधीनकी वीनती, कौन सुनै करुनाकरकेरी । *वेद पुकारत है तुमको, दुरितारि हरी सुखसिंधु भरे री ॥
दासनके दुखमंजनकी, जग फैलि रही विरदावलि तेरी।। * याहीतै मै यह जांचत हों अब, श्रीपतिजीपत राखहु मेरी ४७६ मो पर पीर परी प्रभुजी, अव लोको तुम्है करुनाकर टेरी।। हो तुम छायक ज्ञानपती, सवलायक दीनदयाल बड़ेरी ॥ * दासनिके कल्पद्रुम हो, चितचिंतितदायक ऋद्धिघनेरी। । याही मै पद सेवत हौं, अब श्रीपतिजी पत राखहु मेरी४८, जी कछु चूक परी हमसों, उदयागतचारितमोह पिरे री।। सो तुम जानत हो करुणानिधि, केवलवोध अगाध धरे री ॥ * यातै यही विनवों कर जोरि, छिमा करिये अघ औगुन मेरी।।
जाउं कहाँ तजिकै पदपंकज, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥४९ हे प्रभु भूल भई हमसों यह, चारित मोह दई मति केरी ।। भूपति मो प्रति कोपित है, अति शासति कीन्ह न जात कहेरी॥ आज लों आपसोजॉची नहीं,मति राची नहीं तुम भक्ति विपरी। टेरत हो अति आतुर है अब, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥५० कोटिक जन्मनिके अघ संचित. देत मिटाय लगै नहिं देगा। द्वादश अंग उपंगवि, निरधार गुरू गनधारन टरी ॥ है उस उज्ज्वल लोकविष. निजदासनिके कल्पद्रुमन।। * याहीत मै अब जांचन हों, अब श्रीपतिजी पत गवतु मेरी॥५॥
- --CHAKendra-Ramer+EME