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________________ १३४ वृन्दावनविलास। शास्त्रावलोकनविचारचमत्कृतान्ताः ___सत्त्वाः समन्तसुखिनः प्रभवन्तु जैनाः॥२॥ विश्वोपमागुणविराजितविग्रहेभ्यः सर्वज्ञभक्तिभरमोदितमानसेभ्यः। काशीश्वरादिसुजनेभ्य इतो ऽमरेन्दु मुख्यैर्जयावनगराजिनसन्नतिः स्यात् ॥ ३॥ अत्रत्यमस्ति कुशलं जिनपाशिभक्ते स्तत्रास्तु नित्यमतुलं तदनुस्मरामः । अन्यच्च पत्रमिह मोदभरेण सार्द्ध यौस्माकमागतमतोऽजनि मुत्प्रकृष्टः ॥ ४ ॥ प्रश्नस्त्वलेखि यदशकदिगम्बराय कश्चिन्मुनिर्गदयुताय करेण कृत्वा । भक्तं ददाति विनयोत्तरबृंहणाय तस्योत्तरं मनुत यूयमिति प्रमोदात् ॥५॥ ३ सर्वोपमायोग्य, सर्वज्ञमतिसे प्रसन्न चित्त रहनेवाले, काशीनरेश । आदि समस्त सज्जनोंको जयपुरसे अमरचन्द्रकी “जयजिनेद्र", * पहुंचे। ४ जिनेन्द्रदेवकी कृपासे यहा कुशल है, आपकी बहुत २ चाहते है । आपका हर्षप्रद पत्र आया, प्रसन्नता हुई। १ ५ आपने जो प्रश्न लिखा कि, किसी रोगयुक्त और अशक मुनिको । * कोई दूसरा मुनि विनयगुणके वढानेके लिये हायसे भोजन बनाकर देवे, या नहीं? (देखो पृष्ठ ११९ प्रश्न१) इसका उत्तर इस प्रकार है
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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