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वृन्दावनविलास
तुमतें कछुहे जिनराज गनी, नहिं दुर्लभ ऋद्धि सुसिद्धिघनी।। * सुरईश तथा नरईशतनी, भुवि पावत आनँद बूंद वनी ।। । अब मो दिशि देख दया करनी, अपनी विरदावलिपालि तनी।।
इहि वार पुकार सुनो इतनी, तजि वार उबार त्रिलोक धनीर । * अमिअंतरश्री चतुरंतरश्री, बहिरंतरश्री समवसतश्री। * यह श्रीपतिश्री अतिही पतिश्री, मनुजासुरश्री लखि लाजत श्री पदपंकजश्री मुनिध्यावतश्री, श्रुतशारदश्री यशगावत श्री।। अब मो उर श्रीपति राजहु श्री, चितचिंतितश्रीसुखसानहु श्री
(११) अथ लोकोक्तियुक्त-जिनेन्द्रस्तुतिः।
कवित्त छन्द। हे शिवतियवर जिनवर तुम पद, पंकजमहँ कमलाको वास ।। विघनविनायक सब सुखदायक, विशद सुजस अस रह्यो प्रकाशा * सो पद सुधासरोवर तजि जो, चाहत हरन ओस जलप्यास ।। * तास आशअनयास अफल"ज्यों,दंडाले कूटै आकाश" * दुखटारन सुखकारन प्रमुसों, प्रीति न करै हिये हित चाह ।। । ग्रामिक भाव विवश निशिवासर, मजै कुदेव कुग्रंथकुराह ॥ * बोय ववूल शूल तरुसों शठ, आमचखनकी राखत चाह ।। * ताकी आश अफल यो जानो, "जैसे बांझपूतको व्याह"RY
जनरंजन अघमंजन प्रभुपद, कंजन करत रमा नित केल।। चिन्तामन कल्पद्रुम पारस, वसत जहाँ सुर चित्रावेल ॥