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________________ 4 कविवरवृन्दावनजीका __ कविवर वृन्दावनजीकी कविता कैसी है, उसका वर्णन शब्दोसे नही किया जा सकता है। जो लोग कविताके मर्मको जाननेवाले हैं, उन्हें खय * * पाठ करके देखना चाहिये । क्योकि-- "निवेद्यमानं शतशोऽपि जानते स्फुट रसं नानुभवन्ति तं जनाः" ___ कविता बाह्य शाब्दादि विचारसे प्राय सब कवियोकी एक सी होती है। है परन्तु जो लोग मर्मज्ञ हैं, उन्हें उसमें उत्कृष्टता तथा निकृष्टता दिखलाई । देती है। किसी कविने कैसा अच्छा कहा है कि, अपूरै भाति मारत्याः काव्यामृतफले रसः। वणे सर्वसामान्ये स्वादुवित्केवलं कविः॥ * अर्थात् “ सरखतीके काव्यामृतरूपी फलमें एक अपूर्व ही रस है, जो चर्वण करनेमें तो सबको एकसा जान पड़ता है, परन्तु उसका खाद के वल कवि (मर्मज्ञ )ही जानते हैं।" । वृन्दावनजी खाभाविक कवि थे। उन्हें जो कवित्वशक्ति प्राप्त थी, उ* नमें जो कविप्रतिभा थी, उसका उपार्जन पुस्तकोंके अथवा किसी गुरुके द्वारा नहीं हुआ था किन्तु वह पूर्वजन्मके सस्कारसे प्राप्त हुई थी। उनकी कवितामें खाभाविकता और सरलता बहुत है । वनावटी अखामा-1 विक कविता करनेमें जान पड़ता है, उनकी बुद्धि कभी अग्रसर नहीं हुई । गाररसकी कविता करनेकी ओर भी उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। जिस रसके पान करनेसे जरामरणरूप दुख अधिक नहीं सताते है और जिससे ससार प्राय. विमुख हो रहा है, उस अध्यात्म तथा भक्तिरसका मथन करनेमें ही कविवरकी लेखनी इवी रही है । गृहस्थावस्था में रहकर भी केवल शान्तिरसकी ओर प्रवृत्ति देखकर दूसरे लोगोको आश्चर्य होगा। परन्तु जैनियोंके लिये यह एक अति सामान्य विषय है । क्योंकि जैन-1 धर्मकी सम्पूर्ण शिक्षाओका झुकाव प्राय. इसी ओरको रहता है । शान्तिरसको प्रशसामें श्रीमुनिसुन्दरसूरिने कहा है कि* "सर्वनङ्गलनिधौ हृदि यसिन् सङ्गते निरुपमं सुखमेति । - मुक्तिशर्म च वशीभवति द्राक् तं बुधा भजत शान्तरसेन्द्रम् ॥" * अर्थात् “ जिसके हृदयमें प्राप्त होनेसे अनुपम सुखकी प्राप्ति RRRRRRR RR-----
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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