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वृन्दावनविलास
छप्पय । (सिंहावलोकन विसदृशउपमालंकार) र अमर कही जे तास, जास पुनि होइ न मरनो। । मरनो करै विनाश, सुधाधर सो निरवरनो ॥
वरनो निरजर सार, बंध न लगार जासु कहँ । * कहहिं कलाकर वाहि, नाहिं कन है कलंक जहँ ॥
जहँ नित उदोत सोइ सोमवर, वर विधुसो तुम गुन अमर ।। । अमरेंदुसार लखि बुध कहत, "अमरचन्द सांचे अमर" ॥1
गगनइन्दु जुतछयी, आप छायकी अरोगित । * वह करकशको ईश, आप कोमल रस भोगित ।।
वह उड़गनमघि कृशत, आप बुधिमध प्रसन्न तन ।
वह खेचर सकलंक, आप निकलंक ज्ञानधन ॥ वह अस्तसहित तुम नित उदय, तुम समान किमि सो अमर ।। * तुम निजसरोज-रत वर भ्रमर, "अमरचन्द सांचे अमर"॥
दोहा। वृन्दावन तुमको कहत, श्रीमत 'जयतिजिनंद' । काशीते सो बांचियो, अमरचन्द सुखकंद ॥ ६ ॥ धरमबुधीधर धीरता, घोरी धन धनमान । राजमान गुनखान वर, अमरचन्द दीवान ॥ ७॥ अमरचंदजसचंद्रिका, फैलि रही चहुंओर । सुनिय हंस मिलवौ चहत, यह चित चतुर चकोर 10, कुशल छेम मिथ पूछियो, यह वर लोकाचार । सो परोख हम करत है, वांचो 'जयतिजुहार' ॥ ९॥ ।