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वृन्दावनविलास
भविक शरन गह कहत चहत नित, समरथ भवदधि-जल हरन ॥ १०५॥
मनहरन (वर्ण ३१) ___ चारों घाति कमको विनाशिके विशुद्ध भयो,
शुद्ध गुनरतन भरो करंडवत है। जाके ज्ञान गुनके अनंतवें विभागमाही, __ लोकालोक 'वृंद' झलकै अखंडवत है ॥ भवदुखउदधि अपार पार धारिवेको,
वही जिनचंददेव ही तरंडवत है। ऐसे अरहंत नित मंगल करन मन, हरन तिन्है सदा हमारी दंडवत है ॥ १०६ ॥
इति दडकप्रकरणसमाप्त। कविका परिचय।
दडक। आकास शी मजी है मैंल बुंददाह वसुनसि
अत्युग्र अवाघ लसो गोत्रई गुन हो। * बल जगोऽनंत बुध शर्म प्रचंड दश,
काम वेग टारि शीलता सुबोधमा धुन हो ॥ १ इस छन्दमें जो अक्षर मोठे टाइपमें दिये गये है, उनको एकत्र * करनेसे "काशीजीमे वृन्दावन अग्रवालगोईलगोत धर्मचंदका
वेटा शीताबो माता लालजीका नाती सीतारामुका पनती । जैनी दिगंमरि रुकमनका पति ।" इस प्रकार कविनामादि निकलते । हैं यह कवित्त बड़े कष्टसे बनाया गया होगा।