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________________ छन्दातक । ~~.. ... ....... ...maram mrar समस्त जीव बूअई असूझहको सूजई, मिथ्यात मोहभाव भन्यजीवसों टरे रहै । तिसी जिनिंदचंदकी समाविष मुरिंद 'बुंद, ओरसे चहूँ दिशा अनंगसे खरे रहै ॥ १०३ ॥1 पुनक्ष। त्रिलोकमें त्रिकालके जितेक वस्तुभेद है, विशेषजुक्त सर्व जासु ज्ञानमें धरे रहै। विलोकि श्रीसमाविभूति भन्यजीच आय आय, देखि देवकी छवी अनंदसों भरे हैं ॥ जिनेशके प्रभावसों कुभावको अभाव होत, रिद्धिसिद्धि वृद्धिसों सबै हरे भरे हैं। सुरिंद औ नरिंदवृंद हाथ जोर जोरके, सुओरसे चहूदिशा अनंगसे खरे रहै ॥१०॥ जलहरन । (२९ वर्ण, सर्व लघु) सुनहु अरज शिवतियवर जिनवर, __ अनुपम गुन-गन-धन धरन । तुव पदकमल-अमल-रस सुरनर मुनि-मन-मधुकर वशकरन ॥ प्रभु जस विदित विशद अस सुनि अति, दुरितदरन सब सुख भरन । १ दूसरे कवियोनें जलहरण ३२ वर्गों का माना है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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