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वृन्दावनविलास
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* मेरी विथा विलोकि रमामति, काहे सुधि विसराईजी||हमारी०२ । मैं तो चरनकमलको किंकर, चाहूं पदसेवकाईजी ॥ हमा० ॥३॥
हे प्रण नाथ तजो नहि कवहूं,तुमसो लगन लगाईजी॥हमा०॥४ * अपनो विरद निबाहो दयानिधि,दै सुख वृंद बढ़ाईजी॥हमा५॥
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। दरसे जिनेसुर स्वामीशिवरमनीरमन अभिरामीहो ॥दर०॥ टेक। * जहँ तरु अशोक सुखदाई, सो रहित शोक समुदाई ।।दर०॥१॥ * सुर सुमनवृष्टि जहँ राजे, मनो मनमथ आयुध त्याजे॥दर०॥२ *धुनिदिन्य अनाहद गाजै, सुनि भविकमोह भ्रम भाजदर०॥३॥
जहें चमर अमर सुढरावै, दशदिशि अघ ओघ उडावै ॥दर०४॥ सिंहासनपै जिन सोहै, लखि त्रिभुवन-जन-मनमोहै।दर०॥५॥
दुंदुमि नम नाद उदारे, मनु बाजत जीत नगारे । दर० ॥६॥ * शिर तीनछत्र छवि छाजे, त्रिभुवन पति चिह्न विराजै ॥दर०७५ I भामंडल भव दरसावै, लखि सोमसूर सरमावै । दरसे० ॥ ८॥ इत्यादि वृंदगुणधारी, तुमको नित नौति हमारी ॥दर०॥९॥
क्यो न दीनपर वहु दयावर,दारुन विपतिहरो करुनाकर।क्यों । हो अपार उदार महिमाघर, मेरी वार किम भये हो कृपनतर ।। | वेदपुरानभनत गुन गनघर,जिन समान नआन भवभयहरक्यो।
१ "काटि करम जंजाल कालडर" यह एक तुक इस पदमें । * अधिक लिखी हुई है, सो पाठान्तर जान पड़ता है।