SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृन्दावनविलास 2074 * मेरी विथा विलोकि रमामति, काहे सुधि विसराईजी||हमारी०२ । मैं तो चरनकमलको किंकर, चाहूं पदसेवकाईजी ॥ हमा० ॥३॥ हे प्रण नाथ तजो नहि कवहूं,तुमसो लगन लगाईजी॥हमा०॥४ * अपनो विरद निबाहो दयानिधि,दै सुख वृंद बढ़ाईजी॥हमा५॥ hd । दरसे जिनेसुर स्वामीशिवरमनीरमन अभिरामीहो ॥दर०॥ टेक। * जहँ तरु अशोक सुखदाई, सो रहित शोक समुदाई ।।दर०॥१॥ * सुर सुमनवृष्टि जहँ राजे, मनो मनमथ आयुध त्याजे॥दर०॥२ *धुनिदिन्य अनाहद गाजै, सुनि भविकमोह भ्रम भाजदर०॥३॥ जहें चमर अमर सुढरावै, दशदिशि अघ ओघ उडावै ॥दर०४॥ सिंहासनपै जिन सोहै, लखि त्रिभुवन-जन-मनमोहै।दर०॥५॥ दुंदुमि नम नाद उदारे, मनु बाजत जीत नगारे । दर० ॥६॥ * शिर तीनछत्र छवि छाजे, त्रिभुवन पति चिह्न विराजै ॥दर०७५ I भामंडल भव दरसावै, लखि सोमसूर सरमावै । दरसे० ॥ ८॥ इत्यादि वृंदगुणधारी, तुमको नित नौति हमारी ॥दर०॥९॥ क्यो न दीनपर वहु दयावर,दारुन विपतिहरो करुनाकर।क्यों । हो अपार उदार महिमाघर, मेरी वार किम भये हो कृपनतर ।। | वेदपुरानभनत गुन गनघर,जिन समान नआन भवभयहरक्यो। १ "काटि करम जंजाल कालडर" यह एक तुक इस पदमें । * अधिक लिखी हुई है, सो पाठान्तर जान पड़ता है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy