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________________ BR- KAR - - - - - - पत्रव्यवहार। त्रस्थमातृभ्यो जयजिनेन्द्रशब्दो निवेदितः तेषां परमप्रमोदभ* रपूर्वकं निवेदनीयम् । * अन्यच्च प्रातृऋषभदासजीघासीरामजीकाभ्यां जय जिनेन्द्रशब्दो निवेदितः । एतयोः सर्वेभ्यो निवेदनीयः ।। । अन्यच्च-मन्नालालोदयचन्द्र-माणिक्यचन्द्र-तनुसुखप्रभृति । श्रातृकृता सर्वमातृभ्यः परमप्रमोदभरपूरितानन्दामृतपूरितशुद्ध* चैतन्यानुभवपरसंजन्यमुक्तिमार्गसार्थत्वपवित्रपात्रीभूतत्वसमेत-* प्रीतिरीतिविस्फूर्तिभृताश्रीजयजिनेन्द्रशब्दसन्ततिरुल्लसतितराम्।। अपरं च--- इतविलम्बितम् । करणवर्गसुतृप्तिविधायिनः ___ सुभगयौवनभूषितविग्रहाः। परविभूतियुताः सदुपायिनः कति कति प्रथिता न नराधिपाः॥ आर्या। असकृद्भुक्तं राज्यं युवतिशतान्यपि तथैव भुक्तानि । । १५ मन्नालाल, उदयचन्द्र, माणिक्यचन्द्र, तनसुख आदि माइयोंकी । सवसे जुहार कहिये। 1 १६ इन्द्रियोंको सतृप्त करनेवाले, सुन्दरयौवनभूषित शरीरवाले, उत्कृष्ट विभूतिके धारण करनेवाले, और बडी २ भेंटोंके ग्रहण करने * वाले कितने २ राजा ससारमें प्रसिद्ध नहीं हुए। १७ अनेकवार राज्यभोग किया, अनेकवार सैकडों स्त्रियोंका भोग किया, और श्रेष्ठ सम्पत्तिका भी खूब भोग किया । परन्तु खेद है कि, I विशुद्ध निजानन्दखल्प आत्माका स्मरण कभी नहीं किया।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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