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पत्रव्यवहारं।
पण्डितेन्द्र जयचन्द्रकी ओरसे।
__ अनुष्टुप् । प्रणम्य सर्वविद्देवं वीतरागं भवच्छिदं । लिख्यते जयचन्द्रेण पत्र मित्रप्रमोददं ॥
छप्पय । वानारसि शुभ थान, बसै वृन्दावन धरमी। तासु पत्र इत आय, किये हमको तसु मरमी ॥ उत्तर हम हू लिखै, तासुको करि चितनरमी ।
पहुंचौ विधन विडारि, निकट ताके विन गरमी ।। वर पत्र मित्रको प्रीति धरि, पढे रीति यह सज्जना। तब मिलनेके सम होय सुख, सुधापयोनिधिमज्जना ॥
दोहा। उत्तम जनके परस्पर, होइ जु शिष्टाचार । जयशशि करै जुहार वर, बढ़ि (१) वृन्दावन सार ॥
मत्तमयूर। पुण्यायता जो विधि सारी सुखकारी।
पापायता जानि करारी दुखकारी॥ रागी द्वेषी नाहिं न होवै निजवेता। त्यागी योगी आतम वैवै धरि चेता॥
वित्री। न्यारी न्यारी उत्तर कारी पढ़ि सारी।
लारी लारी अंक *चारी जु तुमारी ।।