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________________ १०० वृन्दावनविलास चिन्तामन सुरतस्तै घरें, जो अनन्तं परभाव वर।। सो श्रीजिनचरनसरोजसों,मो मनषट्पद प्रीति कर ॥८६॥ इति मात्रिकछन्दप्रकरण । अथ गीताप्रकरणसप्तक । रूपमाला छंद। (आदि रगन अन्तमें लघु । मात्रा २४) पायके नरजन्म पानी, वृथा मति हि गवाव । . । चेत चेत अचेत हो मति, फिर न ऐसो दाव ॥ जैनवैन अनूप अग्रत,-पान करि हरषाव । ___ आतमीकसुभाव निजगुन रूपमाला ध्याव ॥ ८७ ॥ सुगीति ( मात्रा २५) करै जवै विस्तारसों निज, मुख अमित अगनीत । धरै मुखों प्रति कोटि कोटिक, जीभ प्रमद सहीत ॥ स्टै त्रिकाल विशाल जो, वृंदारपति हे मीत । तबै कछु वह कह सकै जिन, देव तुव जसुगीत ॥ ८८॥ गीता ( मात्रा २६) भवि जीव हो संसार है, दुख-खार-जल-दरयाव । तसु पार उतरनको यही है, एक सुगम उपाव ॥ गुरुभक्तिको मल्लाह करि, निजरूपसों लव लाव । जिनराजको गुन 'बंद' गीता, यही मीता नाव ॥ ८९॥ १ रूपमालाके मादिमें एक लघु रसनेसे मुगीति होता है। 2RK- RK-R AKer.
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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