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वृन्दावनविलास
चिन्तामन सुरतस्तै घरें, जो अनन्तं परभाव वर।। सो श्रीजिनचरनसरोजसों,मो मनषट्पद प्रीति कर ॥८६॥
इति मात्रिकछन्दप्रकरण ।
अथ गीताप्रकरणसप्तक ।
रूपमाला छंद। (आदि रगन अन्तमें लघु । मात्रा २४) पायके नरजन्म पानी, वृथा मति हि गवाव । . । चेत चेत अचेत हो मति, फिर न ऐसो दाव ॥
जैनवैन अनूप अग्रत,-पान करि हरषाव । ___ आतमीकसुभाव निजगुन रूपमाला ध्याव ॥ ८७ ॥
सुगीति ( मात्रा २५) करै जवै विस्तारसों निज, मुख अमित अगनीत । धरै मुखों प्रति कोटि कोटिक, जीभ प्रमद सहीत ॥ स्टै त्रिकाल विशाल जो, वृंदारपति हे मीत । तबै कछु वह कह सकै जिन, देव तुव जसुगीत ॥ ८८॥
गीता ( मात्रा २६) भवि जीव हो संसार है, दुख-खार-जल-दरयाव । तसु पार उतरनको यही है, एक सुगम उपाव ॥ गुरुभक्तिको मल्लाह करि, निजरूपसों लव लाव । जिनराजको गुन 'बंद' गीता, यही मीता नाव ॥ ८९॥
१ रूपमालाके मादिमें एक लघु रसनेसे मुगीति होता है। 2RK- RK-R
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