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वृन्दावनविलास
उभयातमरूप कथंचित सो, निरवाच कथंचितता ही है ॥ * पुनि अस्तिअवाच्य कथंचित त्यों,वह नास्तिअवाच्य कथाहीहै । * उभयातमरूपअकथ्य कथंचित,एकहि काल सुमाही है। हो ।
यह सात सुभंग सुभावमयी, सब वस्तु अभंग सुसाधा है।। परवादिविजय करिवे कहँ श्रीगुरु, स्यादहिवाद अराधा है। * सरवज्ञप्रतच्छ परोच्छ यही, इतनो इत भेद अवाधा है। । 'वृंदावन सेवत स्यादहिवाद, कटै जिस भववाधा है ॥ ॥
हो करुणासागर देव तुमी, निर्दोष तुमारा वाचा है। | तुमरे वाचामें हे खामी, मेरा मन साँचा राचा है ॥ १५॥
इति जिनवानीस्तुति ।
अथ गुरुस्तुतिर्लिख्यते।
और। जैवंत दयावंत सुगुरु देव हमारे, * संसार विषमखारसों जिनमक्त उधारे ॥ टेक ॥ जिनवीरके पीछे यहां निर्वानके थानी।
(१) इस चौथे चरणको कविवरने-"निरवाचदुधातमरूप कथचित । । एकहि काल सुमाही है। ऐसा लिखा था । परन्तु पीछेसे कविने ही। उक चरणको हासियेपर उत्तप्रकारसे बनाकर लिखा है । सशोषक ।।