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गुरुस्तुतिः।
१ वासठवरपमें तीन हुए केवलज्ञानी ॥
फिर सौ वर्षमें पांच ही श्रुतकेवली भये । 1 सौग द्वादशांगका उमंग रस लये ।। जै० ॥ १॥
तिस बाद बरस एकशतक और तिरासी। * इसमें हुए दशपूर्व ग्यार अंगके भासी ॥ , ग्यारै महामुनीश ज्ञानदानके दाता ।
गुरुदेव सोइ देहिंगे भवि वृंदको साता ।। जै० ॥ २ ॥ तिस बाद बरस दोइ शतक वीसके माहीं। । मुनि पांच ग्यारैअंगके पाठी हुए आही। तिसवाद वरस एकसौ अठारमें जानी
मुनि चार हुए एक आचारांगके ज्ञानी ॥ जैवन्त० ॥३॥ * तिसवाद हुए हैं जु सुगुरु पूर्वके धारक । * करुनानिधान भक्तको भवसिंधु उधारक ॥
करकंजते गुरु मेरे ऊपर छांह कीजिये। । दुखदंदको निकंदके अनंद दीजिये ॥ जैवन्तः ॥ ४ ॥ । यों वीरके पीछेसों वरष छस्सौ तिरासी ।
तब तक रहे इक अंगके गुरुदेव अभ्यासी ॥ । तिस बाद कोई फिर न हुए अगके धारी । । पर होते भये महा सु विद्वान उदारी ॥ जैवन्त ॥ ५॥
जिनसों रहा इस कालमें जिनधर्मका साका। र रोपा है सातमंगका अभंग पताका ॥ ,