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वृन्दावनविलास
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* जिनको भगतसहित नित सुरपत, पूजत अष्टप्रकार ।निश
जिनको विरद वेदविद वरनत, दारुण दुखहरतार । निश०, * भविकवृंदकी विथा निवारो, अपनी ओर निहार । निश०॥६,
* श्रीगुरु दीनदयाल, धन धन श्रीगुरु० ॥ टेक ॥ * परम दिगंबर संवरधारी, जगजीवन प्रतिपाल । धन० ॥१॥ * मूल अंठाइस चौरासी लख, उत्तरगुण मनिमाल । धन०२,
देहभोग भवसों विरकत नित, परिसह सहत त्रिकाल । धन०३३
शुधउपयोग जोगमुदमंडित, चाखत सुरस रसाल । धन०४१ * जिनके चरनकमलके रजको, इंद्र चढ़ावत माल । धन० ॥५॥ भविकवृंद जाचत है हे प्रमु, मेरो संकट टाल । धन० ॥६॥
क्या परी चूक हमारी हो। नेमी मोहि त्यागि गिरनार गमन कीनो ॥ टेक ॥ छप्पनकोटि जुरे जदुवंशी, हलधर संग मुरार। व्याहन आये सजि समाजको, मो उर हरष अपार ।। माधुरी मूरति प्यारी हो । नेमी० ॥ १ ॥ मोरमुकट कर कंकन सोहत, उर मणिमुक्ताहार । पशुवन देख दया उर उपजी, सब सिंगार उतार । पंचमहाव्रतधारी हो । नेमी० ॥२॥ कौन भांति समाझावों तुमको, खामी नेमिकुमार। तुमरे चाह उठी उर अंतर, व्याहनको शिवनार । मेरी सुरत विसारी हो । नेमी० ॥३॥
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