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वृन्दावनविलासश्री जिनचंदसों नेह करो नित, आनंदकंद दशा विसतारो।। मूढ़ लखै नहिंगूढ कथायह, 'गोकुलगांवको पैंडोहिन्यारों
माधवी। * नरनारक आदिक जोनिविषै, विषयातुर होय तहां उरझै है।
नहिं पावत है सुख रंच तऊ, परपंच प्रपंचनिमें मुरझै है ॥ | जिननायकसों हितप्रीति विना,चित चिंतित आश कहांसुरझैहै।। जिय देखत क्यों न विचारि हिये 'कहुं ओसके बूंदसों प्यास
*जिय पूरव तौ न विचार करै, अति आतुर है बहु पाप उपावै।। नित आनंदकंद जिनंदतने, पदपंकजसों नहिं नेह लगावै॥ जब तास उदै दुख आन परै, तव मूढ वृथा जगमें विललावै ।। अब पाप अताप वुझावन 'कोशन आगिलगेपर कूपखुदावै।
कवित्त । 1 मोह उदै अज्ञान विवशतें, समुझि परत नहिं नीक अनीक ।। * सुखकारन अति आतुर मूरख, बाँधत पापभार भरहीक ॥ । तासु उदै दुख दुसह होत तब, सुखहित करत उपाय अधीक।। भवृथा होत पुरुषारथ जैसें “पीटें मूढ साँपकी लीक"॥११॥
माधवी । जब ही यह चेतन मोह उदै, परवस्तुविौं सुखकारन घावै ।। तब ही दिढ़कर्म जंजीरनसों, बॅधिके भव चारक वासमें आवै ॥ जिननायकसों विन प्रीति किये, कहु को मवबंधन काटि छुड़ावै।।
विष खाय सों क्यों नहिं प्रान तजै, गुड़ खाय सो क्यों नहिं । । कान विधावै ॥ १२॥