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वृन्दावनविलास
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रसव्यंजन रससों कहों, सुनत होत आनंद ॥ १॥ भगिनी कच्छ सुकच्छकी, नंद सुनंदा नाम । व्याही रिखवजिनेशने, जगसुखशोमाधाम ॥ २॥
शुभ्रगीता छन्द । श्रीनाभिनंदन जगतवंदन, जयो जगहितकार तव इंदवृंद समस्त उच्छव, कियो अपरंपार ॥ वय तरुनमय लखि राजकन्या, सहित रच्यौ विवाह । धरनिद इंद खगिंद सुरपति, सजि चले नरनार ॥३॥ तह शुभमुहूरतमें कियो, पाणिग्रहण सुखमूल।। जाचक जगतके सधन कीनै, सहित हित अनुकूल ॥ भोजनसमय तहँ भामिनी, गारी कहहि परि मोद। सुनि श्रवन सुख मुख प्रेम पंकत, वचन विविध विनोद ४ भोजन रसाल विशाल परसे, तहाँ मान महान । तिन निजनियोग विधान-लखि, वाघ्यो सकल पकवान ॥
तिहि समय कोविद कहन लागे, छंद रससुखदान। * तुम सुनो समधी सुबुधसंयुत, सकलजन दै कान ॥५॥ * खोलों जु मोदक मोदकारी, मधुरसूदुरस रंज। . वांधों जु वेंदी शीसकी, जासों दिपत मुख कंज ॥ * खोलों अमिरती सरस खुरमा, नयन-मनसुखदाय ।
बांधों करनके फूल जातें, जुगकपोल दिपाय ॥ ६ ॥
खोलों जु खाजे अति मृदुल, बांधों गलेके हार। । खोलों जु पेड़े गंध प्यारे, वरफियां सुखकार ॥