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________________ पत्रव्यवहार । कहा विनीतहिं कहिय, सुजन नहिं कहा धरै मन शिवतियके अरहंत कौन, क्या करै वैशजन ।। वश काम कहा पावै पुरुष, त्यागवंत जन किमिवरन। जगसुख किमिवृंदावनभनत,धरमनन गरवन जसपन 1 शिवतियको वर कौन, कौन भवसों शिवतियवर । समरसमहँ किमि करिय, करिय किमि शिवपथमनकर ॥ सुखदायक जगकहा, कौन पदरामचंद कहँ । कहा वारिको नाम, कहत कवि एकवरनमहँ ॥ सम्यक्तवंत चितें कहा, शुकलध्यानको फल वरन । सुनि उत्तर वृंदावन' भनत, जिनवच सब कलिमलहरन ८१ इति अन्तर्लापिकाप्रकरणाष्टकम् । (१७) पत्रव्यवहार। श्रीललितकीर्तिभट्टारक प्रयागके प्रति। हरिपद । श्रीमद्वटनागाधोदीक्षित, नाभिनंद सुखकंद । तासु पराग पराग सहित पग, परत पराग सुखंद ॥ १ जिन, नर, वह, चल, सम, वलि,क, कव सच वनजि, कलिमलहरन । २ श्री प्रयागमें भवरक श्रीललितकीर्तिजीको चिट्ठी लिया, कई एक प्रयोजन राजद्वारमें उहा लगा था, तिसको जीते विना । धादिगम्बरानायकीवात हलकी होती थी।तिस्से देवराधन करने लिखाया। से नीचे खुलेगा। (वृन्दावन) ३ वट वृक्षके नीचे दीक्षा लेनेवाले।। -
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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