________________
५.
वृन्दावनविलास* आदि अंत अविरोधी जाको, आगम निगम बनोई। । देवीवृंद अराधत ताको, जासों सब सुख होई॥ दीन०९॥
*जनमे अवधपुरी जिनराई । इन्द्र सभामें करत बड़ाई ।। टेक॥
इन्द्रादिकको आसन कंप्यो, लखि प्रमु जनम तुरित शिरनाई।। * सजि समाज कौशलपुर आये, सचीजाय जिन लीन उठाई॥जन । * बालरूप सुरम्प निहारत, सहस नयन करि त्रिपति न पाई।
धरि जिन गोद मोदमुदमंडित, ऐरावत चढ़ि सुरगिरिजाई।जन केइ शिर छन्त्र चमर केइ ढारत, केई विविध बधाई। पांडक वन पांडूकशिलाके, सिंहासनपर प्रभु पधराई ॥जन०॥३॥ क्षीरोदकतें न्हवन कियो हरि, गावत बाजत नाच रचाई।। करि सिंगारसचीरचि रुचिसों, सो रचना कछु बरनि न जाई ।। करि नियोग पितुसदन आनिके, मातु सौपि बहु हरष उपाई।। प्रमुके दच्छिनकर अंगुष्ठमें, सुधा सुधापत थापत भाई ॥ जन०॥ सोई पान करत नित जिनपति, त्रिपति होत त्रिभुवनके राई। * इष्ट भोग उपमोगजोग सब, वृंदारक पतिदेत बनाई ॥ जन०॥ *बालविनोद निहारी जिन छवि, तिन निज लोचनको फल पाई।। * देवीवृंद कहत कर जोरे, सो प्रमु मोपर होहु सहाई । जन०॥
गाइये जिनपति जगवंदन, नामिसुअन मरुदेवी नंदन॥ टेक ॥* * जिनको जस तिहुँ लोक उजागर, जो तारत भविको भवसागर * परम सुधारस जिनकी वानी, जाकी स्यादवाद सु निशानी २॥॥