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कविवर वृन्दावनजीका
__उदयराजजी काशीके एक प्रसिद्ध धनिक थे। काशीमें "खड्गसिंह उदयराजजी के नामसे अवतक उनकी दूकान चलती है। परन्तु खेद है कि, उनके वशमें अब कोई नहीं हैं। उनके वडे वेटे वाबू राजाजी और * छोटे बेटे बावू लक्ष्मीचद्रजीकी दो विधवा स्त्रिया हैं । कुछ दिन हुए उन्होने से * एक वालक गोद लिया है। परन्तु सुनते है कि, उनके नातीकी तरफसे । | उनके दामादने खय वारिस बननेके लिये मुकद्दमा दायर किया है। यह खेदकी बात है। काशीजीके मेलपुरे मुहल्लेमे उदयराजजीका वनवाया।
हुआ एक वडा मन्दिर तथा उनके घरपर बना हुआ एक मुदर चैत्यालय * उनके धर्मप्रेमको आजतक प्रगट कर रहे हैं। * कविवरके छोटे भाई बाबू महावीरप्रसादजीको भी जिनशासनके साथ । • अटूट प्रेम था । भेलपुरेके मन्दिरोंके विषयमें आप कई मुकदमे लड़े थे। * यह उन्हींके परिश्रमका फल है कि, श्वेताम्वरियोंके मन्दिरमें दिगम्वरी * मूर्ति स्थापित है, किन्तु दिगम्वरी मन्दिरमे एक भी श्वेताम्बरी मूर्ति
नहीं है। * कविवरको मत्रविद्यापर बहुत विश्वास था। काशीके पुस्तकालयमें इस
ग्रन्थके प्रकाशकने कविवरके हाथकी लिखी हुई एक पुस्तक देसी थी, जिसमें सैकडों मत्रोका सग्रह है। और उनमेंसे अनेक मत्रोपर इम। प्रकार लिखा हुआ है, "यह मन बहुत प्राभाविक है, इमे हमने स्वय सिद्ध करके देखा है"। "यह हमारे एक मित्रने मिन किया है।" "यह * अमुक पुरुषने हमको लिखवाया था, उसने बहुत प्रगसा की थी। परन्तु * हमने सिद्ध नहीं किया।" "इससे अमुक कार्य होता है, इसने अमुक 1 उपद्रव होते हैं" इत्यादि । इससे उनके मत्रज्ञ होनेमें किमप्रिराररा रा. पन्देह शेप नहीं रहता है। * मत्रादि प्रयोगोपर कविवरका दृढ़ विधान था। इसके लिये इतना
ही प्रमाण वहुन है कि, उन्होंने भटेनी सुपार्थनायरा मुरादमा जनने Y लिये तथा हायरममें विधर्मियोश निरस्कार होने के लिये जमेर
लालीन भधारक श्रीललितसतिजींग प्रार्थना की थी कि, मसिन