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पाणु ज्जीवो जोवो जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीर जो
जैनविद्या
महावीर निर्वाणदिवस 2514
मुनि नयनन्दो विशेषांक
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जैनविद्या संस्थान
( INSTITUTE OF JAINOLOGY ) दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
राजस्थान
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मुख पृष्ठ - चित्र - परिचय
वेष्टन सं. 1179 । लेखनकाल - सं. 1504 । पत्र संख्या-95। साइज - 27 X 11 सेमी । इसके अतिरिक्त संस्थान के पाण्डुलिपि विभाग में दो हस्तलिखित प्रतियां इस ग्रंथ की और हैं जिनका उल्लेख 'प्राकृत, जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली' द्वारा प्रकाशित ग्रंथ की प्रस्तावना में किया गया है ।
( पढम) सीसु तहो जायउ । ज्जगि विखायउ । मुणिणयरगणांदि प्रणिदिउ । चरिउ सुदंसणणाह हो । तेण प्रवाहा हो । विरइउ बुह हिदिउ || 9 || प्रारामगामपुरवरणिते से । सुपसिद्धप्रवन्तीणामदेसे । सुखइपुरिव्व विवहयणइठ । तहि प्रत्थि धारणायरी गरिठ । रणदुद्धररिवरसेलवज्जु । रिद्धिएदेवासुरजरिणयचोज्जु । तिहुवणणारायण सिरिणेव्वोउ । तहि गरवइपुंगमु भोयदेउ । मणिगणपहदूसियएविगभत्थि । तहि जिरणवरु वट्टु विहारु प्रत्थि । frafaraमकालहो ववगएसु । एयारह संवच्छरसएसु । तहि केवलिचरिउ श्रमच्छरेण । रणयदि विरइवच्छलेण । जो पढइ सुणइ भावइ लिहेइ । सो सासयसुहु अइरें लहेइ ॥ घत्ता ॥ यदियो मुणिद हो । कुवलयचंदहो । णरदेवासुरवंदहो । देउ देइ मइ णिम्मल भवियहं मंगल । वाया जिणवरंइदेहो ॥ 10 ॥ एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोक्कारफलपयासयरे । माणिक्करणं दितइ विज्जसीसणयगंदिण रइए | गइंदपरिवित्थरो सुरिदथोत्तं तहा मुरिंगसह मंडव तसु वि मोखवासे गर्मणमो पयफलं । पुणो सयलसाहुणामावली इमाण कयवण्णोणाम संधिदोदहमोस “छ । संधि ।। 12 ।। छ । । इति सुदर्शनचरितं समाप्तमिति ॥ छ । जा पुस्तकं दृष्टं । तादृशं लिखितं मया । जदि सुद्धमसुद्धं च मम दोषो न दीयते ।। छ । सुभभवेत् ।। छ । । जादृशं पुस्तकं दृष्टं ताद्विशं लिखितं मया । जदि सुद्धमसुद्धं च मम दोषो न दीयते ॥ छ ॥ छ ॥ छ ॥
संवत् 1504 वर्षे मसुदि 9 शुक्लपषे गुरवासरे श्री कष्ट संघे मथुरसंघे पुष्कारगने भट्टारक श्री गुणकीर्ति देव । तत्तपट्टे श्री जासकीति देव । तस्य सिच्छ भिवसेन देव । तस्य सिच्छ भुवनकीर्ति देव || सः हुमामनि । तस्य भज्जं गुनवीरजमन । चतुर्विधादन संजुक्त मनगातास्य पुत्त डालु भज्र्ज दौसिरी । तस्य लघु भ्राता गुजतु । तस्य भार्ज गुनसिरि तस्य पुत्त उत्पन । पदमा तस्य लघु भ्राता नादा तस्य भार्ज नइक । पुत्त जिनदास । तस्य भग्नी वइ धर्म्मणि कर्मषयनिमित्य सुदंसनु लिक्षपितं । भुवनकीर्ति जेगु दतुं । सुभं भवतु । लिक्षतं पंडित
मल मस... ''''
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जैनविद्या जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी द्वारा प्रकाशित अर्द्धवार्षिक
शोध-पत्रिका
अक्टूबर-1987
सम्पादक
डॉ. गोपीचन्द पाटनी
प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन
सहायक सम्पादक
पं. भंवरलाल पोल्याका
सुधी प्रीति बन
प्रबन्ध सम्पादक श्री नरेशकुमार सेठी
मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी
सम्पादक मण्डल
श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका डॉ. कमलचन्द सोगारणी श्री नवीनकुमार बज डॉ. दरबारीलाल कोठिया
श्री नरेशकमार सेठी डॉ. गोपीचन्द पाटनी श्री प्रेमचन्द जैन प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन
प्रकाशक
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
मुद्रक
जरनल प्रेस जयपुर-302 001
वार्षिक मूल्य देश में : तीस रुपया मात्र विदेशों में : पन्द्रह गॅलर
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महावीर पुरस्कार
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी के सन् 1986 के रु. 5001/- के महावीर पुरस्कार के लिए प्राप्त रचनाओं में पुरस्करणीय रचना न होने के कारण वर्ष 1986 का पुरस्कार निरस्त कर दिया गया है।
वर्ष 1987 के महावीर पुरस्कार के लिए 1984 व इसके बाद की प्रकाशित अप्रकाशित हिन्दी अथवा अंग्रेजी में लिखित जैन धर्म, दर्शन, इतिहास और संस्कृति सम्बन्धी किसी विषय पर कम से कम 300 पृष्ठों की रचना 31 जनवरी, 1988 तक आमन्त्रित है । अप्रकाशित रचनामों की प्रतियां स्पष्ट टंकण की हुई अथवा स्पष्ट व सुवाच्य हस्तलिखित होनी चाहिये । ...
नियमावली तथा आवेदनपत्र का प्रारूप प्राप्त करने के लिए दो रुपये का पोस्टल पॉर्डर निम्न पते पर भिजवाइये ।
संयोजक जनविद्या संस्थान
महावीर भवन, सवाई मानसिंह हाइवे, जयपुर (राज.)-302 003
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क्र. सं.
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विषय
प्रास्ताविक
प्रकाशकीय
प्रारम्भिक
सुदंसणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन गुणों की सार्थकता
सुदंसणचरिउ का काव्यात्मक वैभव
विषय-सूची
सुदंसणचरिउ में अलंकार-योजना
सुदंसणचरिउ का छान्दस
. वैशिष्ट्य
सुदंसणचरिउ प्रयोजन की दृष्टि से
व्यसनों के दुष्परिणाम
सुदंसणचरिउ के मूल्यात्मक प्रसंग - एक व्याकरणिक
विश्लेषण
सदंसणचरिउ
उदात्त की दृष्टि से
मद्यपान के दुष्परिणाम
भारतीय भाषाओं में
सुदर्शनचरित विषयक साहित्य
जीवन का यथार्थ
हेमचन्द्र प्रपभ्रंश - व्याकरण सूत्र विबेचन
शिविर - प्रयोजन
इस अंक के सहयोगी रचनाकार
लेखक
डॉ. प्रादित्य प्रचंडिया 'दीति'
मुनि नयनन्दी
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
डॉ. गंगाराम गर्ग
डॉ. श्रीरंजन सूरिवेव
श्री श्रीयांशकुमार सिंघई
मुनि नयनन्दी
डॉ. कमलचन्द सोगारणी
डॉ. गवाधसिंह
मुनि नयनन्दी
डॉ. जयकुमार जैन
मुनि नयनन्दी
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
पू. सं.
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1120
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47
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प्रास्ताविक
___ जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी की शोध पत्रिका 'जनविद्या' का यह सातवां अंक 'मुनि श्री नयनन्दी विशेषांक' अपभ्रंश भाषा के पाठकों व अध्ययनकर्ताओं को समर्पित है। जैसा हम जानते हैं, अपभ्रंश भाषा सभी आधुनिक उत्तर-भारतीय भाषाओं की जननी है । अपभ्रंश की विभिन्न बोलियों से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म माना जाता है । भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिन्दी, नागर अपभ्रंश से राजस्थानी, गुजराती व पहाड़ी बोलियां, पैशाची अपभ्रंश से पंजाबी, ब्राचड़ अपभ्रंश से सिन्धी, महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी, अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी और मागधी अपभ्रंश से बिहारी, बंगाली, उड़िया और असमिया भाषाओं का विकास हुआ है ।
जो भाषा सभी प्रकार से नियमबद्ध हो जाती है उसका विकास रुक जाता है और कालान्तर में समय के साथ वह मृतप्रायः भी हो जाती है परन्तु जो बोली धीमी व दृढ़ गति से विकासशील पथ पर भाषा की पद्धति पर चलने लगती है और जिसमें साहित्य-रचना होने लगती है वह साहित्यिक भाषा बन जाती है। प्राचीन बोलियां विकसित होकर विविध नामों से प्रतिष्ठित हुई हैं चाहे वह आर्मेनियन भाषा हो अथवा ग्रीक, लेटिन एवं वैदिक भाषा हो । प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं में वैदिक संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश हैं । समय व विकास के साथ-साथ इनके भेद उपभेद होते गये हैं जैसे संस्कृत भाषा एक होने पर भी वाल्मीकि की संस्कृत भाषा से कालिदास की संस्कृत भाषा में एवं कालिदास की संस्कृत भाषा से बाणभट्ट की संस्कृत भाषा में अन्तर है। संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश भाषाएं स्वतन्त्र भाषाएं हैं । जिस प्रकार यह मानना कि प्राकृत का जन्म पूर्णरूप से संस्कृत भाषा से हुमा है, नितान्त भ्रमपूर्ण है उसी प्रकार यह मानना कि अपभ्रंश का जन्म पूर्णरूप से संस्कृत अथवा प्राकृत से हुमा है, अति भ्रमपूर्ण है। प्राकृत का अर्थ है स्वाभाविक भाषा एवं अपभ्रंश का अर्थ है जन-बोली । भाषा के क्रमिक विकास को समझाने के लिए यह कहा जा सकता है कि अपभ्रंश प्राकृतों की अन्तिम अवस्था है परन्तु अपभ्रंश प्राकृतों की उस स्थिति से विकसित नहीं हुई है जिसमें प्राकृत का साहित्य लिखा गया है।
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जैनविद्या
अपभ्रंश का सर्वप्रथम उल्लेख ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी में विरचित महर्षि पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है। वास्तव में स्थूलरूप में अपभ्रंश के विकासकाल का विभाजन निम्न प्रकार से किया जा सकता है
1. आदि काल (प्रारम्भिक काल)-ई. पूर्व 300 से 600 ई. तक ।
भाष्यकार पंतजलि से लेकर प्राचार्य भामह तक । 2. पूर्व मध्यकाल (विकास काल)-600 ई. से 1200 ई. तक ।
गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयम्भू से लेकर प्राचार्य हेमचन्द्र तक । 3. उत्तर मध्यकाल (सामान्य काल)-1200 ई से 1700 ई. तक ।
आचार्य हेमचन्द्र सूरि से कवि भगवतीदास तक । 4. आधुनिक काल (पुनर्जागरण काल)-अठारहवीं शताब्दी के उत्तराद्धं में
रिचर्ड पिशेल से अब तक ।
उपर्युक्त विभाजन के अनुसार स्पष्ट है कि अपभ्रंश साहित्य के इतिहास में भाषा एवं सांस्कृतिक दृष्टि से छठी शताब्दी से बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी का काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है। वास्तव में पांचवी शताब्दी के अनन्तर ही अपभ्रंश का साहित्य लिखा जाना प्रारम्भ हो गया था एवं छटी-सातवीं शताब्दी में तो अपभ्रंश में काव्य-रचना होने लग गयी थी। वल्लभी नरेश धरसेन द्वितीय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उनके पिता संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों भाषाओं में प्रबन्धकाव्य रचने में निपुण थे। इसके अलावा अपभ्रंश के प्राचीन कवियों में गोविन्द और चतुर्मुख के नाम मुख्यरूप से मिलते हैं । यद्यपि दुर्भाग्य से इन दोनों ही कवियों की रचनाएँ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं किन्तु अपभ्रंश के अन्य प्राचीन कवियों ने इनका उल्लेख अवश्य किया है। महाकवि स्वयंभू (सातवीं शती) के 'स्वयम्भूच्छन्द' में कवि गोविन्द द्वारा रचित कृष्णविषयक प्रबन्धकाव्य का एवं महाकवि धवल कृत हरिवंशपुराण में गोविन्द द्वारा ही अपभ्रंश भाषा में रचित सनत्कुमारचरित का ' उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार अपभ्रंश के अनेक प्रमुख कवियों ने यथा हरिषेण, श्रीचन्द, धवल, धनपाल, वीर, रइधू आदि ने कवि चतुर्मुख का सादर स्मरण किया है ।
लोक जीवन की ऐसी कोई विधा नहीं जिस पर अपभ्रंश भाषा में नहीं लिखा गया हो । साधारण से साधारण घटनाओं तथा लोकोपयोगी विषयों पर अपभ्रंश साहित्य की रचना हुई है। छठी-सातवीं शताब्दी तक अपभ्रंश का साहित्य विशेषकर लोकनाट्यों में मिलता है । पूर्व मध्यकाल अनेक काव्यरचनाओं का काल रहा है इसमें अनेक प्रबन्धकाव्य, पौराणिक महाकाव्य, चरितकाव्य, कथाकाव्य, खण्डकाव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, गीतिकाव्य आदि सभी अपभ्रंश में रचे गये हैं। जहां संस्कृत में कथाएँ अधिकांशतः गद्य में लिखी जाती थीं वहां अपभ्रंश एवं प्राकृत में काव्य के रूप में कथाएं लिखने की प्रवृत्ति अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होती है। लिखकर या मौखिक रूप में धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को समझाने के लिए दृष्टान्तरूप में कथा कहने की प्रवृत्ति श्रमण साधुनों में अत्यन्त व्यापक थी। अधिकांशतः अपभ्रंश में सिद्ध साहित्य आठवीं शताब्दी से मिलने लगता है। उत्तर मध्यकाल में अधिकांश अपभ्रंश साहित्य स्तुति-पूजा पर, गीतियों पर, चर्चरी, रास, फागु, चूनड़ी आदि लोक-धर्मी विधाओं में रचा गया है।
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(iii)
यह एक आश्चर्यजनक परन्तु वास्तविक तथ्य है कि उपलब्ध अधिकांश अपभ्रंश साहित्य जैन एवं जैनेतर विद्वानों द्वारा जैनपुराणों, जैनकथानों, जैन सिद्धान्तों, जैन लौकिक व धार्मिक विषयों पर लिखा गया है एवं वह देश के जैन मन्दिरों व जैन ग्रन्थ भण्डारों में अभी तक भी सुरक्षित भी है। अधिकांश जैन काव्य शान्ति भक्ति के प्रतीक हैं परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मानव जीवन के अन्य पहलुनों को अछूता छोड़ा गया है । जहाँ तक जैन अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का सम्बन्ध है, उन्हें दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है
जनविद्या
1. पौराणिक शैली, यथा-स्वयंभू का पउमचरिउ, पुष्पदंत का महापुराण, वीर कवि का जम्बूस्वामीचरिउ, हरिभद्र का मिरगाहचरिउ पौराणिक शैली में हैं । 2. रोमांचक शैली - धनपाल धक्कड़ का भविसयत्तकहा, पुष्पदंत का णायकुमारचरिउ, नयनन्दी का सुदंसणचरिउ रोमांचक शैली के उदाहरण हैं ।
कुछ विद्वान् कहते हैं कि प्रपभ्रंश में स्तुति स्तोत्रों की रचना नहीं हुई है परन्तु यह एक भ्रम है । जैन ग्रन्थ भण्डारों की खोज से यह ज्ञात हो चुका है कि संस्कृत व प्राकृत की तरह अपभ्रंश में भक्ति रस पर अनेक स्तोत्र व स्तवनों की रचना हुई है । कवि धनपाल (वि. सं. 11वीं शताब्दी) ने 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह' जिनदत्त सूरि ( 12वीं शताब्दी) ने 'चर्चरी' और 'नवकारफलकुलक', देवसूरि ( 12वीं शताब्दी) ने 'मुनि चन्द्रसूरि स्तुति', धर्मघोषसूरि ( 13वीं शताब्दी) ने 'महावीर कलश' का निर्माण अपभ्रंश में ही किया है । अस्तु, जैसा ऊपर वर्णन किया गया है, अपभ्रंश भाषा में जीवन से सम्बन्धित सभी विधाओं पर रचनाएँ की गयी हैं । इन्हीं में प्रेमाख्यानक कथानों पर आधारित काव्य भी हैं । यह प्रेम आध्यात्मिक प्रेम ही नहीं है जिससे सम्बन्धित भक्ति रस, रूपकाव्य प्रादि ही मिलते हों बल्कि सांसारिक प्रेम भी है जहाँ व्यावहारिक जीवन की सरसता से प्रोतप्रोत विलासिता की कहानी होती है जो अन्त में व्यक्ति की दृढ़ता से वीतरागता में परिणत हो जाती है ।
ऐसा ही एक काव्य वि. सं. 1100 के लगभग मुनि नयनन्दी द्वारा रचित 'सुदंसणचरिउ' है। जैन साहित्य में सेठ सुदर्शन की कथा उसकी सच्चरित्रता के कारण काफी प्रिय व प्रसिद्ध है । अन्य प्रेमाख्यानक काव्यों की तरह इस रचना के वातावरण व कथा में काफी रोमान्स है । प्रेमिकाओं के प्रेम व्यापारों का निर्द्वन्द्व भाव से चित्रण हुआ है । स्त्री के किस अनुपम सौन्दर्य का वर्णन बड़ी रोमांचकारी शैली में किया गया है । प्रकार प्रेमिकाएँ, वेश्याएँ अपने रूपप्रदर्शन, चित्रप्रदर्शन, पुतलीप्रदर्शन एवं वाक्चातुर्य के द्वारा सुदर्शन को प्राप्त करने के लिए कुटिलता के माध्यम से, छल-कपट के माध्यम से प्रयत्न करती हैं, उसके प्रेम में उसकी सुन्दरता के कारण व्याकुल होती हैं व उसके वियोग में भूरती हैं । परन्तु अन्त में सच्चरित्रवान सुदर्शन सभी प्रकार की कठिनाइयों एवं लालच पर विजय हासिल करता है एवं उन प्रेमिकानों से मुक्ति प्राप्त कर मुक्तिरूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने में सफल होता है ।
जिस प्रकार खजुराहो, हलेविड आदि देश के कई भागों में उपलब्ध कलाकृतियों में जहाँ प्राध्यात्मिक चित्रण होता है वहाँ जीवन से सम्बन्धित रूप-दर्शन अथवा वस्तु-दर्शन का चित्रण भी मिलता है उसी प्रकार कई प्रेमाख्यानों, काव्यों में यथा नेमिनाथ- राजुल - कथा,
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जैन विद्या
जिनदत्तकथा, सुदर्शनकथा प्रादि में स्त्री के सौन्दर्य का वर्णन किया है परन्तु उसके चारों श्रोर एक ऐसा पवित्र वातावरण फैला हुआ है जिससे विलासिता को स्थान प्राप्त नहीं हो पाता । वहीं सौन्दर्य वर्णन में जलन नहीं, शीतलता है, वहाँ विलासिता ही नहीं, पावनता भी है जिसे देखकर, पढ़कर श्रद्धा उत्पन्न होती है। ऐसे प्रेमाख्यानों के अध्ययन से व्यक्ति मानव की मूल और प्रमुख मनोवृत्ति को सही रूप में समझ पाता है । कहा जाता है कि किसी भी विषय की सही जानकारी जीवन को सही मोड़ देती है, गलत नहीं । ऐसा ही प्रेमाख्यानककथा - काव्य, जैसा ऊपर बताया गया है, 'सुदंसरणचरिउ' है जिसके रचनाकार एक जैन मुनि नयनन्दी हैं । इस प्रेमाख्यानक काव्य में जहाँ श्रृंगार रस, कलुषित प्रेम रस की भरमार है, वहाँ उसका अन्त शुद्ध वैराग्य रस में होता है । यह राग पर विराग की विजय का एक अनूठा उदाहरण है जो भाज भी भोगासक्त विषयानुरागी व्यक्ति को सच्चा मार्ग बता सकता है ।
इस 'सुदंसणचरिउ' कथा-काव्य में यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार सुदर्शन का जीव ने एक पूर्व भव में ग्वाले के रूप में सब मंगलों में श्रेष्ठ पंचणमोकार में रत होकर इस मन्त्र के माहात्म्य से एवं सत्संग के प्रताप से सम्यक्त्व प्राप्त कर स्वर्ग का सुख भोगकर अन्त में शाश्वत शिवसुख प्राप्त करने में सफल हो गया । इसी प्रकार यदि कोई भी व्यक्ति शुद्ध भाव से एकचित्त होकर पंचपरमेष्ठी का ध्यान करे और आवश्यक पूजाविधान करे व संयम पाले तो वह क्यों नहीं अन्त में मुक्ति रूपी वधू के मन को प्राकर्षित करेगा ? यदि उस दुर्लभ मोक्ष स्थान को रहने भी दिया जाय तो भी वह इस संसार में लोगों का प्रेम-अनुराग प्राप्त कर सकता है, विकट से विकट रोगों से व राक्षस भूत-प्रेतादि के भय से व विष उपविष के प्रभाव मुक्त हो सकता है। ऐसा प्रभाव है इस श्रेष्ठ पंचणमोकार मन्त्र का ।
मुनि नयनन्दी ने अवन्ति देश की गौरवशाली धारा नगरी में राजा भोज के शासन काल में वि.सं. 1100 में इस सुदर्शन- केवली चरित्र 'सुदंसणचरिउ' की रचना की । इसके अलावा उनके द्वारा रचित कृतियों में 'सयलविहि-विहाण' काव्य भी है। मुनिजी ने स्वयं अपनी गुरु-परम्परा को विस्तार के साथ अपने ग्रन्थ 'सुदंसणचरिउ' की अन्तिम 12वीं संधि के नवें कड़वक में अंकित कर दिया है। 'सुदंसणचरिउ' का हिन्दी अनुवाद मय संस्कृत टिप्पणादि के डॉ. हीरालाल जैन के संपादकत्व में प्राकृत, जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली द्वारा 1970 ई. में प्रकाशित हो चुका है ।
इस अंक में अपभ्रंश भाषा के कई विद्वानों व विशेषज्ञों ने कवि मुनि नयनन्दी के व्यक्तित्व, कर्तृत्व व काव्यप्रतिभा पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। जैन विद्या संस्थान समिति एवं संपादक मंडल इन सभी विद्वानों का हार्दिक आभारी है। हम अपने ही सहयोगी डॉ. कमलचंदजी सोगाणी, प्रोफेसर दर्शन - शास्त्र विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के भी हार्दिक प्रभारी हैं जिन्होंने पूर्व की भांति इस अंक की तैयारी में भी हार्दिक सहयोग दिया है ।
डॉ. गोपीचन्द पाटनी
सम्पादक
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प्रकाशकीय
भाषाविज्ञान एवं साहित्य के अध्येताओं के समक्ष मुनि नयनन्दी विशेषांक के रूप में 'जनविद्या' का सातवां अंक सहर्ष प्रस्तुत है।
विशेषांक मुनि नयनन्दी विरचित अपभ्रंश भाषा के चरितात्मक खण्डकाव्य सुदंसणचरिउ पर आधारित है।
अपभ्रंश अर्थात् 'जनबोली' । 'जनबोली' विकासशील होती है। विकासशील होना बोली के जीवित होने का सूचक है, उसकी जीवन्तता का द्योतक है अर्थात् वह बोली 'अभी बोली जाती है, प्रयोग में लाई जाती है ।' विकासशील होने के कारण बोली बोलचाल की भाषा तो बनी रहती है किन्तु उसमें साहित्य-लेखन बहुत कम होता है। इस परिपाटी के विपरीत जनबोली अपभ्रंश में साहित्यसृजन कर मनीषियों ने 'मानव अपनी बोली, अपनी भाषा में कही अथवा सुनी गई बात को अधिक सुगमता से एवं भली प्रकार ग्रहण करता हैं' इस सत्य को अनावृत किया है। मानवीय स्वभाव है कि वह अपनी बोली' या 'अपनी भाषा' में कही गई, मुनी गई अथवा पढ़ी गई बात को समझने में अधिक सक्षम, समर्थ एवं अधिकृत होता है अपेक्षाकृत किसी अन्य ‘संस्कारित' भाषा में समझने के ।
माज हमारी अपनी भाषा हिन्दी' के प्रति हमारे देश में एक उदासीनता व हीनता की भावना व्याप्त है । इस भावना, इस प्रवृत्ति के दूरगामी परिणाम कितने घातक होंगे, आज हम इससे अनभिज्ञ हैं। यह प्रवृत्ति एक उपवन में पल्लवित पेड़-पौधों को उनकी जड़ों से काट देना और फिर उस उपवन को गुलज़ार देखने की इच्छा रखने जैसी है। अपने देश व समाज के विकास के लिए हमें अपनी भाषा हिन्दी को खुले दिल से अपनाने की आवश्यकता है।
_ 'हिन्दी' को उसका वास्तविक स्थान व सम्मान प्रदान करने के लिए आवश्यक है उसकी 'मूल प्रकृति' को जानना । 'अपभ्रंश' हिन्दी की मूल प्रकृति है । 'हिन्दी' में अपभ्रंश की प्राणधारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है। हिन्दी मुख्यतः अपभ्रंश की जीवन्त परम्परा को लेकर ही आगे बढ़ी है । यथार्थतः अपभ्रंश लगभग सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषामों की जननी है।
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(vi)
जैनविद्या
अपभ्रंश कवि मुनि नयनन्दी प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में हुए हैं। इनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है । नयनन्दी ने अपने काव्य 'सुदंसणचरिउ' की रचना अवन्ति देश की धारानगरी के एक जिनमन्दिर में नृपेन्द्र भोजदेव के शासन-काल में की थी।
_ 'सुदंसणचरिउ' एक चरितग्रन्थ है। चरितग्रन्थ एक प्रादर्श मानव के जीवन का रूपांकन होता है । कवि ने सुदर्शन के जीवन में आये सुखद एवं प्रिय प्रसंगों के साथ-साथ दुःखों, विपत्तियों, अप्रिय प्रसंगों का वर्णन भी किया है और बताया है कि ऐसी अवांछित परिस्थितियों में भी धीर-वीर, धर्मवत्सल मानव अपने पथ से च्युत नहीं होते, अपने प्राचरण से स्खलित नहीं होते अपितु उन विपरीत/प्रतिकूल परिस्थितियों से उदासीन होकर साहस एवं धैर्य से भोग कर उन्हें जीर्ण कर देते हैं।
- शताब्दियों पूर्व 'जनबोली' अपभ्रंश में साहित्य-सृजन कर निश्चित ही उन मनीषियों ने एक प्रशस्त परम्परा स्थापित की थी किन्तु काल की दीर्घता में वह अोझल हो गयी। कुछ दशकों पूर्व मनीषियों ने बीते युग से बहती आ रही इस धारा के मूल को खोज निकाला और हमें अपने अतीत की ओर झांकने के लिए प्रेरणा दी। जनविद्या संस्थान भी उस प्रेरणा से से अपने गौरवमय अतीत की ओर झांकने के लिए प्रयासरत है। इसी क्रम में उसने अपभ्रंश के प्रति रुचि एवं अध्ययन को गति देने के कार्य को वरीयता प्रदान की है।
प्रस्तुत अंक में 'सुदंसणचरिउ' पर विद्वानों द्वारा साहित्यिक, धार्मिक एवं सैद्धान्तिक दृष्टियों से विचार प्रस्तुत किये गये हैं । अपभ्रंश भाषा के व्याकरण-ज्ञान को सरल, सुकर एवं सुलभ करने के उद्देश्य से हेमचन्द्र के व्याकरण-सूत्रों का विवेचन भी प्रकाशित किया जा रहा है।
जिन विद्वानों ने अपनी रचनाएं भेजकर इस विशेषांक के प्रकाशन में योगदान दिया है हम उनके प्राभारी हैं। पत्रिका के सम्पादक, सहयोगी सम्पादक एवं मुद्रक भी . धन्यवादाह हैं।
नरेशकुमार सेठी प्रबन्ध सम्पादक
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आरम्भिक
इस पत्रिका के द्वारा अपभ्रंश भाषा के विशिष्ट रचनाकारों पर प्रस्तुत की जानेवाली विशेषांकों की श्रृंखला में एक और कड़ी जोड़ते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। इस कड़ी का सम्बन्ध है 'सुदंसणचरिउ' और 'सयल विहि-विहाण कव्व' के रचनाकार महाकवि नयनन्दी से।
अपभ्रंश भाषा पर अब तक जितना लिखा जा चुका है उससे इस भाषा के स्वरूप और रचनाशैली आदि की विशेषताओं पर पर्याप्त प्रकाश पड़ चुका है। काव्य के छन्दों का तुकान्त होना और रचना का संधियों तथा कड़वकों में विभक्त होना ये दो ऐसी विशेषताएँ हैं जो अपभ्रंश काव्यों में ही मिलती हैं।
___मुनि नयनन्दी प्राचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में थे। यह त्रैलोक्यनन्दी के प्रशिष्य और माणिक्यनन्दी के प्रथम शिष्य थे । ये राजा भोज के राज्यकाल में हुए थे। काव्यशास्त्र में निष्णात, प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के उच्चकोटि के विद्वान् और छन्दःशास्त्र के परिज्ञानी मुनि नयनन्दी ने धारा नगरी के एक जैन मन्दिर के महाविहार में बैठकर अपना 'सुदंसणचरिउ' वि. सं. 1100 में रचा । इन्होंने अपनी रचनामों में लगभग 85 छन्दों का प्रयोग किया है।
'सुदंसणचरिउ' अपभ्रंश भाषा का एक खण्डकाव्य है, इसकी कथा रोचक और आकर्षक है। काव्य-कला की दृष्टि से यह उच्चकोटि का एक सरस और निर्दोष काव्य है। सुदर्शन के निष्कलंक चरित्र की गरिमा से युक्त इस काव्य में 12 संधियां और 207 कड़वक हैं। इस काव्य में कवि की कथनशैली, रस और अलंकारों का पुट, सरस कविता, शान्ति और वैराग्य की भावना तथा प्रसंगवश नायिका भेद, ऋतुवर्णन और वेशभूषा प्रादि का सुन्दर चित्रण है।
___कवि की दूसरी कृति है 'सयल विहिविहाण कव्व' । यह एक विशिष्ट काव्य है। इस में 58 सन्धियां हैं। भाषा प्रौढ़ और सरल है। जिस रीति से इस काव्य में वस्तु-विधान और उसकी सालंकार एवं सरल प्रस्तुति की गई है वह कवि के अपभ्रंश भाषा पर अधिकार
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जनविद्या
को प्रकट करती है। यह काव्य अपूर्ण मिलता है इसीलिए इसका प्रकाशन प्रभी संभव नहीं हो सका है।
- इन दोनों काव्यों के अध्ययन से पता चलता है कि मुनि नयनन्दी एक परोपकारी और निष्काम सन्त थे। उनका उद्देश्य धर्म का सन्देश काव्य की भाषा में जन-जन तक पहुँचाना था । वे लोक को असत् से हटाकर सत् की ओर प्रवृत्त करना चाहते थे। अपने इस पवित्र उद्देश्य में वे सफल हुए हैं ।
इस अंक में अपने-अपने विषय के अधिकारी विद्वानों ने कवि के व्यक्तित्व के अतिरिक्त उसके कर्तृत्व की विशेषताओं को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा/परखा है। उनकी काव्यकला का वैभव, अलंकार-योजना, छान्दस वैशिष्ट्य, रचना का प्रयोजन, उसकी उदात्तता आदि का स्वरूप पाठकों को इस अंक में देखने को मिलेगा। पाठक अपभ्रंश भाषा के व्याकरण से भी परिचित हों, उसमें उनकी गति हो सके इसलिए 'हेमचन्द्र-अपभ्रंश-व्याकरणः सूत्र विवेचन' इस शीर्षक से एक नई लेखमाला भी चालू की जा रही है। इस लेख के लेखक हैं सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के दर्शनविभाग के प्राचार्य, डॉ. कमलचन्द्र सोगानी । डॉ. सोगानी अपने विषय के मान्य विद्वान् तो हैं ही वे अपभ्रंश भाषा को भारतीय भाषाओं की श्रृंखला में उचित स्थान पर जोड़ने की साध रखनेवालों में प्रमुख हैं।
. संस्थान समिति और सम्पादक मण्डल के सदस्यों, अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं तथा इस अंक में प्रकाशित रचनाओं के लेखकों के प्रति कृतज्ञता का भाव अर्पित है। इस अंक के प्रकाशक एवं मुद्रकों के भी हम प्राभारी हैं जिनके निष्ठायुक्त सहयोग के बिना यह बड़ा प्रयत्न प्रकाश में नहीं आ सकता था।
(प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन
सम्पादक
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सुदंसणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन
-डॉ. मादित्य प्रचण्डिया 'दीति'
मालव देश के धारा नगर-निवासी कुंदकुंदान्वय की प्राचार्य परम्परा के सुनक्ष, पदमनंदी, विष्णुनंदी, नंदिनंदी. विश्वनंदी, विशाखनंदी, रामानंदी की श्रृंखला में माणिक्यनंदी विद्य के विनीतस्वभावी शिष्य, काव्य एवं छंदशास्त्र के सुज्ञाता, संस्कृत, प्राकृत, और अपभ्रंश के प्रकाण्ड पण्डित, ग्यारहवीं शती के निर्दोष एवं जगत्प्रसिद्ध अपभ्रंश कवयिता मुनिश्री नयनंदि विरचित महनीय चरितात्मक महाकाव्य 'सुदंसणचरिउ' का प्रणयन परमारवंशी त्रिभुवननारायण श्रीनिकेत नरेश भोजदेव के राज्य के धारा नगरस्थ जैन मन्दिर के महाविहार में वि. सं. 1100 में हुआ । यथा -
पारामगामवरपुरणिवेसे, सुपसिखमवंतीणामवेसे । ................... तहि प्रत्यि धारणयरी गरिन्छ । तिहवणणारायणसिरिणिकेउ तहिं गरवा पुंगमु भोयदेउ । णिवविक्कम कालहो ववगएसु, एयारह संवच्छरसएसु ।
तहिं केवलचरिउ प्रमच्छरेण गयगंदि विरइर कोच्छरेण ॥ 12.10 कविश्री नयनंदि द्वारा बारह संन्धियों के इस प्राध्यात्मिक कथात्मक चरितकाव्य में जैनधर्म के विख्यात महामंत्र पंचनमस्कार का माहात्म्य प्रतिपादन हेतु शास्त्रीय परम्परा के विपरीत श्रेष्ठी सुदर्शन के चरित्र का अंकन बखूबी हुमा है । सुदर्शन का चरित जैन साहित्य का बहुश्रुत तथा लोकप्रिय कथानक है । प्रबन्धकाव्यों की परम्परा के अनुरूप अनेक नर-नारी, भौगोलिक प्रदेश, प्राकृतिक दृश्य प्रादि का अलंकृत भाषा में वर्णन कवि-काव्य में दृष्टिगत है।
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जैनविद्या
कविश्री ने अपनी रचना को निर्दोष स्वीकारा है । मुनिश्री नयनंदि का कहना है कि रामायण में राम और सीता का वियोग है, महाभारत में यादव, पाण्डव और धृतराष्ट्र के वंशों का भंयकर क्षय हुमा है परन्तु सुदर्शन के चरित में कलंक की एक रेखा भी नही है । यथा -
रामो सीयविमोयसोयविहरं संपत्त रामायणे। जादा पंडव धायरट्ठ सदवं गोतंकली भारहे। डेडाकोडिय चोररज्जणिरदा माहासिदा सुखए ।
णो एक्कं पि सदसणस्स चरिने दोसं समुम्भासिदं । 3.1 प्रस्तुत कथन कवयिता के प्राध्यात्मिक दृष्टिकोण का परिचायक है। प्रस्तुत प्रालेख में 'सुदंसणचरिउ' का साहित्यिक मूल्यांकन करना हमारा मुख्याभिप्रेत है।
कथावस्तु-कविश्री के महाकाव्य 'सुदंसणचरिउ' की प्रथम संधि में कथा की परम्परा'-वंदना, प्रात्मलघुता आदि परिलक्षित हैं । यथा
मह एकहि विणि वियसिय-वयण मणे गयणाणंदि वियप्पइ । सुकवितें चाएं पोरिसेण जसु भुवम्मि विढप्पद ॥ सुकवित्ते ता हउँ अप्पवीण, चाउ वि करेमि कि दविण-हीण । सुहगत्तु तह व दूर णिसिबु, एवंविहो वि हउं जस-विलुदु । णिय-सत्तिए तं विरयेमि कन्व, पद्धडिया-बंधे जं अउन्छ । छा कीरह जिण-संभरण चित्ते, ता सई जि पवट्टइ मइ कवित्ते । जल-बिंदु उ गलिणीपत्तजुत्तु, कि सहइ ग मुत्ताहल-पवित्तु ॥ 1.1,2
दूसरी सन्धि में गौतम गणधर द्वारा कथा प्रारम्भ होती है-भरतक्षेत्र के अंगदेश में चम्पापुरी नगर था, उसमें धाड़ीवाहन राजा रहता था। उसकी रानी अभया थी। उसी. नगर में ऋषभदास सेठ था । उसकी पत्नी का नाम अहंदासी था। उनके यहां पूर्वजन्म का एक मोपाल णमोकार मंत्र के प्रभाव से सुदर्शन नाम से पुत्र हुआ। वह प्रनिन्द्य सुन्दर और मेधावी था। युवतियों को प्राकृष्ट करने में उसे कामदेव समझिए। सुदर्शन सागरदत्त की लड़की मनोरमा पर रीझ गया । वह उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठा। दोनों का विवाह हुमा । घाड़ीवाहन राजा की पत्नी अभया और कपिला नाम की एक अन्य स्त्री भी उस पर प्रासक्त हो गई । रानी ने पण्डिता नामक धाय के माध्यम से सुदर्शन से मिलने का उपाय किया। किसी तरह सुदर्शन रानी के पास पहुंचा पर रानी उसे फुसलाने में असमर्थ रही। तब उसने सुदर्शन पर उल्टा आरोप लगाकर उसको पकड़वा दिया। उस समय व्यन्तर देवता ने उसकी रक्षा की । व्यन्तर से युद्ध में घाड़ीवाहन हार गया। अन्त में राजा और सुदर्शन संन्यासी बन गये । अभया और कपिला नरक गई। जन्म-जन्मान्तरों के वर्णन के साथ कथा परिसमाप्त होती है।
प्रस्तुत कथानक से स्पष्ट है कि उसकी केन्द्रीय घटना एक स्त्री के परपुरुष के ऊपर मोहासक्त होकर उसका प्रेम प्राप्त करने का एक उत्कट प्रयत्न करना है । इसके दृष्टान्त प्राचीनतम ग्रन्यों से लेकर वर्तमानकालीन साहित्य तक में प्राप्त हैं। वस्तुतः आकर्षक रूपसौन्दर्य ही इस महाकाव्य के आख्यान का माधार है । यह धार्मिक उद्देश्य से लिखा गया महा
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जनविद्या
काव्य है जिसमें कतिपय घटनाएँ तथा कथाएं धार्मिक मान्यतामों को सिद्ध करने के लिए कथानक से संश्लिष्ट की गई हैं। इसमें प्राश्चर्य तत्त्व की बहुलता है। तंत्र-मंत्र में विश्वास, मुनिवाणी में श्रद्धान, स्वप्नफल और शकुनों में विश्वास भी दृष्टिगत हैं। सीमित उद्देश्य को लेकर चलने के कारण ऐसे काव्यों में कवि प्रायः जीवन के विविध पहलुओं को नहीं छू सकता पौर भावनाओं का अन्तर्द्वन्द्व भी नहीं दिखला सकता । इनमें घटनाओं का प्राधान्य रहता है और विचारतत्त्व क्षीण । अपभ्रंश प्रबन्धों के इतिवृत्त के बन्ध को अपभ्रंश कवयितामों की धार्मिक दृष्टि से देखना श्रेयस्कर होगा । अतएव कविश्री नयनंदि ने कथा के मध्य में उपदेश भी दे डाले हैं । इस रचना में रानी अभया का सेठपुत्र सुदर्शन के प्रति अपने पति की उपस्थिति में प्राकर्षित होना एक सामाजिक विसंगति है । इससे सामन्तवाद पर वणिकवाद की विजय दर्शित है । इसके मूल में धार्मिक पुण्य काम रहा है। कथा के प्रवाह में काव्यरूढ़ियों-मंगलाचरण, विनयप्रदर्शन, काव्यप्रयोजन, लोकप्रचलित विश्वास आदि का प्रयोग परिलक्षित है। इस प्रकार कथानक बहुत ही रोचक, सरस और मनोरंजक है तथा कविश्री नयनंदि ने काव्योचित गुणों का समावेश कर इसको पठनीय बना दिया है । - चरित्रचित्रण -सुदर्शन इस चरितात्मक महाकाव्य का धीर प्रशान्त नायक है । इसी के नाम पर महाकाव्य का नामकरण भी किया गया है। उसका चरित्र केन्द्रीय है मौर अन्य पात्र उसके सहायक हैं । वह अनेक गुणों से मंडित है, दृढव्रती, प्राचारनिष्ठ सुन्दर मानव है । भावुकता उसका स्वभाव है। वह प्रेमी है जिसके वशीभूत हो वह मनोरमा की पोर प्राकृष्ट होता है परन्तु अपने ऊपर आसक्त रानी अभया और कपिला के प्रति वह सर्वथा उदासीन है । यही गतिशीलता और स्थिरता उसके चरित्र को उत्थित करती है। सुदर्शन का चरित्र राग से वैराग्य की ओर मुड़ता है। वह मंत्र और व्रत की प्रभावना दोहराता है । सुदर्शन का रूप संसार की समस्त सुन्दर वस्तुओं के समन्वय से निर्मित है। इसके वर्णन, दर्शन या भावना मात्र से किसी के हृदय में गुदगुदी उत्पन्न हो सकती है। सुदर्शन के चरित्र में वैयक्तिक विशेषता है । वस्तुतः सुदर्शन का चरित शक्ति, शील एवं सौन्दर्य से मण्डित है।
अन्य पात्रों में मनोरमा, कपिला, अभया, पंडिता एवं धाड़ीवाहन के चरित्र प्रमुख हैं। इन प्रमुख पात्रों के अतिरिक्त कतिपय पात्र इस प्रकार हैं जिनका विशेष कथ्य काव्यग्रंथ में नहीं है, जैसे-राजा श्रेणिक, महादेवी चेलना, गौतम गणधर, सेठ ऋषभदास, महदासी तथा कपिल । इनके चरित्र का अंशरूप में विकास दृष्टिगोचर होता है । प्राश्चर्यतत्त्व की प्रधानता होने के कारण व्यन्तर प्रादि देव सहजरूप से प्रकट हो पात्रों की सहायता करते हैं। पात्रों के चरित्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण इस काव्य की विशेषता है । कवि ने अपनी सूक्ष्म अन्तई ष्टि द्वारा भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के बीच घटित होनेवाली अनेक मानसिक अवस्थाओं का सुन्दर विश्लेषण किया हैं।
- वस्तुवर्गन-अपभ्रंश प्रबन्धकाव्योचित समवसरण, ग्राम, नगर, देश, मरण्य, उपवन, उद्यान, सागराभिमुखी गंगा का सहज वर्णन, ऋतु, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि मादि का स्वाभाविक चित्रण सुदंसणचरिउ में परिलक्षित है। मानवीय क्रियाकलापों का बचार्य वर्णन इस काव्यकृति में उपलब्ध है यथा-उद्यानक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, मिथुनों की सुरत
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क्रीड़ा, नारी की कामचेष्टाएँ, साधुनों के मंगलदर्शन, दीक्षा तथा उपदेश प्रादि । इसके अतिरिक्त व्यन्तर देव की युद्धलीला, राजा और निशाचर का सैन्यसंघर्ष, व्यंतरी द्वारा घोरतम उपसर्ग मादि का भी वर्णन कविकाव्य में द्रष्टव्य है । मगधदेश के वर्णन में कविश्री नयनंदि की दृष्टि नदियों, इक्षुवनों, उपवनों, राजहंसों और उत्कृष्ट राजामों प्रादि विस्तृत विषयों तक पहुंच गई है । यथा
जहिं गदर पमोहर मणहरिउ बीसहि मंथरगमणिउ । " गाहही सायरहो सलोणहो जतिउ गं वररमणिउ ॥ 1.2
अर्थात्- (मगधदेश में) जहां जल से पूर्ण मनोहर नदियां मंथरगति से लवण समुद्र की पोर बहती हुई ऐसी शोभायमान होती हैं जैसे मानो मनोहारिणी युवती रमणियां मन्दगति से अपने सलोने पति के पास जा रही हों।
कवि प्रागे वर्णन करते हुए कहता है
उववणाई सुरमणकयहरिसई, भदसाल गंदणवणसरिसइं। कमलकोसे भमरहिं मह पिज्जा, महुपराहं ग्रह एउ जि छन्वा । जहि सुसरासण सोहियविगह, कयसमरालीकेलिपरिग्गह ।
रायहंस बरकमलुक्कंठिय, विलसई बहुविहपत्तपरिट्ठिय ॥ 1.3.
अर्थात् वहां के उपवन रमण करनेवालों को हर्ष उत्पन्न करते हुए उस भद्राशालयुक्त नन्दनवन का अनुकरण करते थे जो देवों के मन को आनंददायी है। कमलों के कोशों पर बैठकर भ्रमर मधु पीते थे । मधुकरों को यही शोभा देता है । जहां सुन्दर सरोवरों में अपने शोभायमान शरीरों सहित, हंसिनी से क्रीड़ा करते हुए श्रेष्ठ कमलों के लिए उत्कंठित और माना प्रकार के पत्रों पर स्थित राजहंस उसी प्रकार विलास कर रहे थे जिस प्रकार कि उत्तम धनुष से सुसज्जित शरीर, समरपंक्ति की क्रीड़ा का संकल्प किये हुए श्रेष्ठ राज्यश्री के लिए उत्कंठित व नाना भांति के सुभट पात्रों सहित उत्तम राजा शोभायमान होते हैं। - इस प्रकार कवि का वर्ण्य विषय तथा शैली परम्परायुक्त है। कविकाव्य में नारीसौन्दर्य, भौगोलिक प्रदेशवर्णन, प्राकृतिक दृश्य, विरह-वर्णन, स्त्रियों के गुण, रूप तथा स्वभाव वर्णन के साथ-साथ वैराग्यजनक उपदेशों की भरमार है। इन सबका वर्णन श्लिष्ट और अलंकृत शैली में हुआ है । वस्तुतः दृश्ययोजना, वस्तु-व्यापार-वर्णन और परिस्थिति-निर्माण की योजना कविश्री ने यथास्थान की है। वर्णनों में नामों की बहुलता नहीं है अपितु वस्तु के गुणों का विश्लेषण किया गया है।
प्रकृतिवर्णन-'सुदंसणचरिउ' में महाकवि नयनंदि ने प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में प्रायः प्रसिद्ध उपमानों का प्रयोग किया है। प्रकृति प्रायः संयोग-वियोग के सन्दर्भ में वर्णित है परन्तु अधिकता उद्दीपन रूप में ही दर्शित है। . नंदी, वसन्तऋतु, सूर्यास्त, प्रभात प्रादि के सुन्दर चित्र कवि-काव्य में परिलक्षित हैं । गंगा नदी के वर्णन में कवि ने नदी की तुलना एक नारी से की है। नदी के प्रफुल्ल कमल नारी के विकसित मुख के समान हैं।' भ्रमरसमूह
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अलकपाश के समान, मत्स्य दीर्घनयनों के समान, मोती दंतावली के समान और प्रतिबिम्बितशशि दर्पण के समान प्रतीत होता है । कूलवृक्षों की शाखारूप बाहुओं से नाचती हुई इतस्ततः प्रक्षालन से त्रिभंगियों को प्रकट करती हुई, सुन्दर चक्रवाकरूप स्तनवाली, गम्भीर भावर्तरूप नाभिवाली, फेन-समूहरूप शुभ्रहारवाली, तरंगरूप त्रिवली से शोभित, नीलकमलरूप नीलांचल धारण करती हुई, जलविक्षोभरूप रशनादाम से युक्त नदी वेश्या के समान लीला से पोर मंथर गति से सागर की ओर जा रही है । यथा
सुंबरपयलक्खणसंगय विमल पसण्ण सहावह।
णावा तिय सहइ सइत्तिय गइ प्रहवा सुकइहे कह। 2.11 पप्फुल्लकमलवत्ते हसंति, अलिवलयलियमलयई कहति । दोहरझसणयहि मण हरंति, सिप्पिउडोउहि विहि जणंति । मोतियवंतावलि परिसयंति, परिबिबिउ ससिबप्पणु रिणयंति । तरविरविसाह बाहहि गति, पक्खलणतिभंगिउ पायत्ति । बरचक्कवाय पणहर एवंति, गंभीरणीरभमणाहिति । फेरणोहतारहारुन्वहंति, उम्मीविसेसतिवलिउ सहति । सयवलगीलंचलसोह दिति, जलखलहलरसणावामु लिति ।
मंथरगइ लीलए संचरंति, बेसा इव सायर अणुसरंति ॥ 2.12
बसंत-वर्णन में कविश्री नयनंदि ने ऋतु के अनुकूल मधुर और सरल पदों की योजना की है । कवयिता का कहना है कि इस अवसर पर जिनके पति दूर हैं ऐसी महिलाओं के मन को सन्तप्त करनेवाला सुहावना वसंत-मास पा गया । यथा
दूरयरपियाहं महिलहं मणसंतावणु। .
तहिं अवसरे पत्त मासु वसंतु सुहावण ॥ 7.4 कविश्री नयनंदि बसंत-वर्णन करते हुए मागे कहते हैं-बसंतराज का अग्रगामी मंदसुगंध मलयाद्रि का पवन हृदय में क्षोभ उत्पन्न करता हुमा प्रसारित होने लगा
और मानिनी महिलाओं के मान का मर्दन करने लगा । जहां-जहां मलयानिल चलता वहां-वहां मदनानल उद्दीप्त होने लगता । जहां सुन्दर अतिमुक्तलता का पुष्प विकसित हो वहां भ्रमर क्यों न रस का लोभी हो उठे ? जो मंदार-पुष्प से अत्यन्त कुपित होता है वह अपने को कुटज पुष्प पर कैसे समर्पित कर सकता है ? भ्रमर भूलकर, श्यामल, कोमल, सरस और सुनिर्मल कदली को छोड़कर निष्फल केतकी के स्पर्श का सेवन करता है । ठीक है-जो जिसे रुचे वही उसे भला है । महकता हुमा तथा विरहणियों के मन का दमन करता हुमा प्रफुल्लित दमनक किसे इष्ट नहीं है ? जिनालयों में सुन्दर नृत्य प्रारम्भ हो गये और तरुण विकासयुक्त/शृंगासत्मक चर्चरी नृत्य करने लगे। कहीं उत्तम हिंडोला गाया जाने लगा जो कामीजनों के मन को डांवाडोल करता है । अभिसारिकायें संकेत को पाने लगी । जिनके पति बाहर गये हैं वे अपने कपोलों को पीटने लगीं। पथिक अपनी प्रियाओं के विरह में डोलने लगे मानो मधुमास ने उनको भुलावे में डाल दिया हो । ऐसे समय में पुष्पों और फलों के समूह से युक्त करंड लेकर वनपाल तत्क्षण राजा की सभा में आ पहुंचा (7.5)।
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प्रभात वरणन में कविश्री नयनंदि ने प्रत्यूष मातंग द्वारा संसार-सरोवर से नक्षत्ररूप कुमुद और कुमुदिनियों के नाश और शशिरूप हंस के पलायन का दृश्य प्रस्तुत किया है। सूर्य को केसरी और गाढ़ान्धकार को गज बताते हुए एवं सूर्य को दिग्वधू का लीलाकमल, गगनाशोक को कुसुमगुच्छक, दिनश्री को विद्रुमलता का कंद और नभश्री को सुन्दर कस्तूरी बिन्दु का निर्देश करते हुए कवयिता ने प्राचीन परम्परा का ही निर्वाह किया है ( 5.10 ) । सूर्यास्त वर्णन कविश्री ने सूर्य के अस्त हो जाने कारण की सुन्दर कल्पना की है - वारुणी, सुरा में अनुरक्त कौन उठकर भी नष्ट नहीं होता ? प्रतएव सूर्य भी वारुणी-पश्चिम दिशा के अनुराग से उदित होकर अस्त हो गया (5.8 ) । हिन्दी के प्राचार्य कवि केशवदास ने भी अपनी 'रामचन्द्रिका' में एक स्थान पर यही भाव अभिव्यक्त किया है । यथा
जहीं वारुणी की करी रंचक रुचि द्विजराज । नहीं कियो भगवंत बिन संपति सोभा साज ॥
इस प्रकार कविश्री नयनंदि द्वारा वर्णित नानारूपों में प्रकृति-चित्ररण उनके कला-कौशल का सुन्दर दिग्दर्शन है ।
रसयोजना - कविश्री नयनंदि हिन्दी के कवि केशवदास की भांति सालंकार - काव्य में ही अपूर्व रस की स्थिति स्वीकारते हैं । यथा—
जैनविद्या
यथा
गो संजावं तरुणिग्रहरे विदुमारत्तसोहे । गो साहारे भमियभमरे व पुडुच्छवंडे ।
गोपीऊसे गहि मिगमदे चंदणे व चंदे । सालंकारे सुकईभरिगदे जं रस होइ कव्वे ।। 3.1
अर्थात् जो आनंद (रस) सुकवि की सालंकार कविता में भाता है वह न कामिनियों. के आरक्त प्रघरों में प्राप्त होता है, न भ्रमरकूजित श्राम्रमंजरियों में, न पीन ईखदंड में, न पीयूष में और न चंदन में तथा चन्द्रमा में प्राप्त होता है । कवि का यह कथन उनकी रचना पूर्णतः दृष्टिगत है ।
-
'सुसरणचरिउ' में शृंगार, वीर और शांत रसों का समावेश द्रष्टव्य है । मनोरमा के सौन्दर्यचित्रण में और अन्य अनेक महिलाओं के रूपवर्णन में शृंगार रस की अभिव्यंजना बहुलता से हुई है । वीर रस के अभिदर्शन घाड़ीवाहन के युद्धप्रसंग में होते हैं लेकिन अन्त में सदाचार की स्थापना और वैराग्य के प्रवर्तन से रसों का पर्यवसान शांत रस में होता है ।
मनोरमा के अंगवर्णन में नखशिख वर्णन की परिपाटी कविकाव्य में परिलक्षित है ।
जा लच्छिसम तहे का उवम जाहे गइए सकलत्तई । गिरु रिगज्जियहं णं लज्जियई हंसई माणसि पत्तई ॥ 4.1 जाहे जरण सारण ग्रइकोमल, पेच्छेवि जले पइट्ठ रसुप्पल । जाहे पायणहमरिहि विचित्त, गिरसियाई गहे ठिय णक्खत ।
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जनविद्या
जाहे गुप्फूगढिमए विहप्फड, उवहसियउ विसेसमइविष्फई। जाहे लडहजंघहि मोहामिउ, रंभउ णीसारउ होएवि थिउ । जाहे णियविबु अलहंते, परिसेसियउ अंगु रहकते। जाहे चारुतिवलिहे ण पहुच्चहि, जलउम्मिउ सयसक्कर वच्चहि । जाहे पाहिगंभीरिमजित्तर, गंगावत्तु ण थाइ भमंतउ । जाहे मझु किस अवलोएवि हरि, रणं तवचरणचित्तु गउ गिरिवरि। जाहे सुरोमावलिए परज्जिय माइणि बिले पइसइ णं लज्जिय। प्रयसई कलिय रोमावलिय जइ णवि विहि विरयंतउ।
तो मणहरेण गुरुयणहरेण मझ प्रवसु भन्जंत: ॥ 4.2
अर्थात् मनोरमा लक्ष्मी के समान थी उसकी क्या उपमा दी जाय ? उसकी गति से मानो पराजित भौर लज्जित होकर हंस अपनी कलत्र (हंसनियों) सहित मानस-सरोवर को को चले गये । उसके अरुण तथा अतिकोमल चरणों को देखकर ही तो लालकमल जल में प्रविष्ट हो गये हैं। उसी के पैरों के नखरूपी मणियों से विषण्ण चित्र और नीरस/हतोत्साह होकर नक्षत्र आकाश में जा ठहरे हैं। उसके गुल्फों की गूढ़ता से विशेष विशालमति वृहस्पति भी उपहासित हुआ है । उसको सुन्दर जंघात्रों से तिरस्कृत होकर कदली वृक्ष निस्सार होकर रह गया । उसके नितम्ब विम्ब को न पाकर ही तो रतिकान्त कामदेव ने अपने अंग को समाप्त कर डाला। उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा को न पहुंच कर जल की तरंगे अपने सौ टुकड़े करके चली जाती हैं। उसकी नाभि की गम्भीरता से पराजित होकर गंगा का भ्रमण करता हुमा प्रावर्त स्थिर नहीं हो पाता। उसके मध्य अर्थात् कटिभाग को इतना कृश देखकर सिंह मानो तपस्या करने का भाव चित्त में लेकर पर्वत की गुफा में चला गया। उसकी सुन्दर रोमावली से पराजित होकर मानो लज्जित हुई नागिनी बिल में प्रवेश करती है । उसकी लोहमयी काली रोमावलि की यदि ब्रह्मा रचना न करता तो उसके मनोहर विशाल स्तनों के भार से उसका मध्यभाग (कटि) अवश्य ही भग्न हो जाता।
___ मनोरमा की कोमल बाहुओं को देखकर मृणालतन्तु भी उनके गुणों का उमाह करते थे । उसके सुललित पाणिपल्ववों की कंकेलीपत्र भी अभिलाषा करते थे। उसके शब्द को सुनकर अभिभूत हुई कोकिला ने मानो कृष्णत्व धारण किया है । उसके कण्ठ की तीन रेखामों से निजित होकर ही मानो शंख लज्जा से समुद्र में जा डूबे हैं। उसके अधर की लालिमा पराजित हो गई। इसीसे तो उन्होंने कठिनता धारण कर ली है । उसके दांतों की कांति द्वारा जीते जाने के कारण निर्मल मुक्ताफल सीपों के भीतर जा बैठे हैं । उसके श्वास की सुगंध को न पाने से ही पवन अति विह्वल हुमा भागता फिरता है। उसके निर्मल मुखचन्द्र के समीप चन्द्रमा ऐसा प्रतिभासित होता है जैसे वह गिरकर फूटा हुआ खप्पर हो । उसके नासिका वंश से उपहासित होकर सुमा अपनी नासिका को टेढ़ी बनाकर प्रकट करता है। उसके नयनों का अवलोकन करके हरिणियों ने विस्मित होकर गहन वन में अपनी प्रीति लगाई है। उसकी भौंहों की गोलाई से पराजित होकर ही तो इन्द्रधनुष निर्गुण (प्रत्यंचाहीन) हो गया है । उसके भाल से जीता जाकर कृष्णाष्टमी का चन्द्रमा खेदवश माज भी क्षीण हुभा दिखाई देता है । उसके केशों द्वारा जीते जाकर भौंरों के झुण्ड रुनझुन करते हुए कहीं भी सुख नहीं पाते (4.3) ।
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जनविद्या
नखशिख-वर्णन काव्यशास्त्रीय कसौटी पर खरा उतरता है इसके वर्णन में भारतीय परम्परा का अनुवर्तन हुमा है । कवि ने नखशिख-वर्णन मनोरमा के चरणों से प्रारम्भ कर केशों पर समाप्त किया है । अंगों के उपमान यद्यपि प्रसिद्ध हैं तथापि वर्णन में अनूठापन है । इस प्रकार के वर्णन का माभास संस्कृत कवियों के कुछ पद्यों में मिलता है । यथा -
_____ यत्तवन्नेत्रसमानकान्ति सिलले मग्नं तदिन्दीवरम् ।
अर्थात् हे सुन्दरि ! तुम्हारे नेत्रों के समान कान्तिवाला नीलकमल जल में डूब गया । रूपवर्णन की इस शैली का आभास हिन्दी में विद्यापति के पदों में भी दृष्टिगोचर होता है ।10 मनोरमा के रूपवर्णन में कतिपय उपमानों की छाया सूफी कवि जायसी के पदमावती रूपवर्णन में दर्शित है।
- 'सुदंसणचरिउ' में श्रृंगार के प्रसंग में स्त्रियों के भेद इंगितों के प्राधार पर चार बताये गये हैं-भद्रा, मंदा, लय और हंसी। वर्गों के आधार पर वे ऋषिस्त्री, विद्याधरी, यक्षिणी, सारसी तथा मृगी मादि कल्पित की गई हैं (4.5) । तदनन्तर देशभेद से उनका विभाग किया गया है-मालविनी, संघवी, कौशली, सिंहली, गौड़ी, लाटी, कालिंगी, महाराष्ट्री प्रादि । भिन्न भिन्न देशों के अनुसार उनके स्वभाव का भी दिग्दर्शन कराया गया है (4.6) । इसके बाद वात, पित्त और कफ की प्रधानता के प्राधार पर उनका वर्गीकरण किया गया है (4.7) । इसी प्रसंग में मंदा, तीक्ष्ण, तीक्ष्णतरा और शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र आदि भेदों की अोर निर्देश कर (4.8) कविश्री नयनंदि ने अपने व्यापक ज्ञान का परिचय दिया है । डॉ. रामसिंह तोमर ने इस वर्गीकरण में रीतिकाल की नायिका-भेद की प्रवृत्ति के बीज की पोर निर्देश किया है ।। रानी प्रभया की परिचारिका पंडिता में दूती का रूप देखा जा सकता है । इस प्रवृत्ति का प्रस्फुट सा प्राभास अपभ्रंश कवि श्री वीर विरचित महाकाव्य 'जंबूसामिचरिउ' में भी परिलक्षित है।
___ 'सुदंसणचरिउ' की नवी सन्धि में वीर रस के अभिदर्शन होते हैं । राजा धाड़ीवाहन पौर राक्षस के युद्ध की तुलना स्त्री-पुरुष के मथुन ..से की गई है (9.4)। करुणा, रति, क्रोध, उत्साह प्रादि स्थाई-भावों के अतिरिक्त अन्य कितने ही छोटे-छोटे भावों और विभिन्न मानसिक दशामों का चित्रण कविश्री नयनंदि ने किया है अन्त में कथानायक सुदर्शन द्वारा दीक्षा धारण कर मोक्षपथ के गामी होने से शांतरस का परिपाक होता है । इस कारण काव्य में महाकाव्यत्व की अपेक्षा नाटकत्व का प्राधान्य है।
... इस प्रकार 'सुदंसणचरिउ' में शृंगार रस की यमुना मोर वीर रस की गंगा प्रबहमान है और पन्त में शांत रस की सरस्वती के सम्मिलन से प्रानंद का संगम मुखर है ।
भाषा-भाषा की दृष्टि से कविश्री नयनंदि की भाषा शुद्ध साहित्यिक अपभ्रंश है जिसमें अपने समय का सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं । जहां एक ओर सुभाषित तथा मुहावरों के प्रयोग से भाषा में प्रांजलता मुखर है वहां दूसरी ओर स्वाभाविकता और लालित्य का समावेश भी है । यथा
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जनविद्या
करे कंकणु किं प्रारसि दोसइ। 7.2.3 हाथ कंगन को पारसी क्या ? ग्रहण कवण णेहें संताविउ । 7.2.10 प्रेम ने किसको संतापित नहीं किया ? . एक्के हत्थे तालु किं वज्जइ, कि मरेवि पंचमु गाइज्जह। 8.3.3 क्या एक हाथ से ताली बजती है, क्या मरण पर पंचम राग गाया जाता है ? पर उवएसु दितु बहुबाणउ। 8.8.4 पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जोव्वणु पुणु गिरिणहवेयपुल्लु, विद्वत्तें होइ स्ववंगु ढिल्लु । 9.21.2 यौवन पहाड़ी नदी के तुल्य होता हैं । वृद्धत्व से सब अंग शिथिल हो जाते हैं ।
भाषा को अनुरणनात्मक बनाने के लिए शब्दों की और शब्दसमूहों को प्रावृत्ति के के अनेक निदर्शन मिलते हैं । राजा और राक्षस दोनों रथ पर चढ़ युद्ध करते हैं । टन-टन बजते . घण्टे और खन-खन करती शृंखला से चित्र सजीव हो उठा है । यथा
कंचरिणवढए, उब्भिय सुचिधए। धगधगगियमणियरे, मंदकिकिणिसरे । मणजवपयट्टए, टणटरिणयघंटए । ध्वधूमाउले, गुमगुमियपलिउले । खणखणियसंखले, बहुवलणचंचले,
हिलहिलियहयवरे, एरिसे रहवरे ॥ 9.11 तत्सम, तद्भव और देशी शब्दों के व्यवहार से भाषा में सरलता और सरसता का संचार हुआ है । उसमें भी देशी शब्दों की बहुलता कवि-काव्य की अपनी विशेषता है । अपभ्रंश की ध्वनियां तथा शब्द-भण्डार कवि-काव्य में वे ही हैं जो अन्य प्राकृतों में उपलब्ध हैं। समस्त काव्य में अलंकृत पदावली द्रष्टव्य है । कवि के प्रकाण्ड पाण्डित्य के प्रभिदर्शन काव्य के प्रत्येक पद में दर्शित हैं ।18 इस काव्य की भाषा भावों के अनुकूल सजीव एवं सप्राण है । वस्तुतः कविश्री नयनंदि के प्रबन्धकाव्य 'सुदंसणचरिउ' की भाषा स्वयंभू और पुष्पदंत के सदृश टकसाली होते हुए भी प्रसाद गुण से सम्पृक्त है । इस प्रकार भाषा-सौष्ठव और वर्णनशैली के आधार पर 'सुदंसणचरिउ' एक उत्कृष्ट काव्य सिद्ध होता है ।
अंलकार-योजना-'सुदंसणचरिउ' अलंकार-प्रधान रचना है। अर्थालंकार और शब्दालंकारों का प्रचुर प्रयोग द्रष्टव्य है । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक और विरोधाभास प्रादि अलंकारों का व्यवहार श्लेषाधारित है । यह कवि की कल्पना पौर शब्द चातुरी का का परिचायक है। साम्य प्रदर्शन हेतु कविश्री द्वारा शब्दगत साम्य की ही ओर अधिक ध्यान दिया गया है । अप्रस्तुत योजना में कवि द्वारा प्रायः मूर्त उपमानों का ही प्रयोग हुआ है ।
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जनविद्या
उपमानों के चयन में कविश्री की दृष्टि कहीं-कहीं ग्राम्य दृश्यों की ओर भी गई है। उपमान परम्परागत प्रयुक्त होने पर भी नवीनता लिये हुए हैं । उपमा अलंकार के माध्यम से कविश्री नयनंदि ने उपदेश-भावना का पुट भी दे दिया है । यथा -
काहे वि रमणे पिए विट्ठि दिग्ण,
ण चलइ णं कद्दमि ढोरि खुण्ण । 7.17 अर्थात् प्रिय पर पड़ी किसी रमणी की दृष्टि इस प्रकार आगे न बढ़ी जिस प्रकार कीचड़ में फंसा पशु । एक और अन्य उदाहरण में भी यही भावना परिलक्षित है । यथा -
कुमुप्रसंड दुज्जणसमदरिसिम,
मित्तविणासणेण में वियसिय । 8.17 राजा घाड़ीवाहन के वर्णन में मेघ, सूर्य, विभीषण, इन्द्र, अर्जुन, भीम, बाहुबली, राम, कार्तिकेय, ब्रह्मा, विष्णु प्रादि से वैशिष्ट्य दर्शक व्यतिरेक अलंकार का वर्णन कवि की प्रलंकार शैली के उत्तम निदर्शन हैं । मनोरमा के नखशिख वर्णन में भी व्यतिरेक पौर उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा विद्यमान है (4.2) ।
इस प्रकार कविश्री नयनंदि का यह चरितात्मक महाकाव्य पालंकारिक काव्यशैली की परम्परा में है । जहाँ-तहां वर्णनों में समासों की श्रृंखलाएँ एवं अलंकारों के प्रकृष्ट प्रयोग बाण और सुबन्धु का स्मरण दिलाते हैं ।
-- छंब-योजना-छंदों के वैविध्य और वैचित्र्य की दृष्टि से अपभ्रंश काव्यों में 'सुदंसणरिउ' का महत्त्व उल्लेखनीय है । कविश्री नयनंदि ने अपनी रचना को 'पद्धडिया बंध' की संज्ञा दी है । कवि का छंद-कौशल इस काव्य में स्पष्टरूप से मुखर है। अनेक अपरिचित छंदों का कहीं-कहीं नामोल्लेख भी मिलता है, कहीं-कहीं छंदों के लक्षण भी दिये हैं। उनका कहना है कि काव्यत्व छन्दानुवर्ती में है (2.6)।
___ कविश्री नयनंदि के महाकाव्य 'सुदंसणचरिउ' में 38 मात्रिक, 10 विसम मात्रिक, 34 वर्णवृत्त तथा 3 विसम वृत्त वणिक इस प्रकार कुल 85 छन्दों का व्यवहार हुमा है किन्तु प्रधानता मात्रिक छन्दों की है ।14 वणिकवृत्तों में नव्यता उत्पन्न करने का कवि का प्रयास प्रशंस्य है (3.4)। हिन्दी के प्राचार्य कवि केशवदास की 'रामचन्द्रिका' में मोर कविश्री नयनंदि के 'सुदंसणचरिउ' में प्रयुक्त अनेक छन्द विविधता की दृष्टि से समान हैं ।
वस्तुतः मुनिश्री नयनंदि विरचित महाकाव्य 'सुदंसणचरिउ' एक छंद-कोश है । इतने छन्दों का प्रयोग अपभ्रंश के अन्य किसी कवि ने नहीं किया । छंदों के विविध प्रयोगों की दृष्टि से यह काव्य संस्कृत और प्राकृत के छंदों से पार्थक्य निर्दिष्ट करता है।
मूल्यांकन-इस प्रकार उपर्यङ्कित विवेचनोपरान्त यही कहा जा सकता है कि कविश्री नयनंदि विरचित चरितात्मक महाकाव्य 'सुदंसणचरिउ' द्वारा तर्क, लक्षण, छंदालंकार, सिद्धान्त-शास्त्र के अनेक रहस्यों को समझा जा सकता है इसके अध्ययन से जीवन-मरण,
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शुभाशुभ कर्म, मंत्र-तंत्र, व्रत-अनुष्ठान, शकुन-अपशकुन आदि का निर्धान्त ज्ञान सम्भव है। स्त्री-प्रकृति वर्णन में कविश्री ने विशेष अभिरुचि प्रदर्शित की है और उसमें अपनी कल्पना एवं सौन्दर्यदर्शन की अन्तष्टि का परिचय दिया है। यह रचना कविश्री के पाण्डित्य और कलाप्रावीण्य का श्रेष्ठ संकेतक है । रचना का उद्देश्य जनसाधारण के हृदय तक पहुँचकर उनको सदाचार की दृष्टि से उँचा उठाना रहा है। प्रस्तु, रोचक धर्मकथा के माध्यम से कविश्री ने लक्ष्यसिद्धि प्राप्त की है । धार्मिक-व्यंजना के साथ प्रेमकथा कहने की यह सांकेतिक शैली सूफी कवियों के लिए विशेष अनुकरणीय रही है। इस महाकाव्य के कथानक के समानान्तर ही प्रेममार्गी कवियों ने कथाएँ गढ़ कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया है ।15
वस्तुतः काव्यशास्त्रीय तत्त्वों का समाहार 'सुदंसणचरिउ' में साफल्यपूर्वक हुमा है । अपभ्रंश प्रबन्धकाव्यों में कविश्री नयनंदि का यह चरितात्मक महाकाव्य अपना महनीय स्थान रखता है। इस महाकाव्य की प्रतिच्छाया संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के परवर्ती काव्यकारों के साथ-साथ हिन्दी कवियों की रचनामों में स्पष्टरूप से भाषित है।
1. (प्र) आदिकालीन हिन्दी साहित्य शोध, डॉ. हरीश, पृ. 9।
(ब) हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास डॉ. गणपति चन्द्रगुप्त, पृ. 86 ।
(स) साहित्य और संस्कृति, देवेन्द्र मुनि शास्त्री, पृष्ठ 68 । 2. भारतीय साहित्य कोश, सम्पा. डॉ. नगेन्द्र, पृ. 600 । 3. सुदंसणचरिउ, सम्पा डॉ. हीरालाल जैन, पृ. 14 । 4. भविसयत्तकहा का साहित्यिक महत्त्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया, जैन विद्या, महाकवि
धनपाल विशेषांक, अप्रेल 1986, श्रीमहावीरजी पृ. 29-30।। 5. अपभ्रंश वाङ्मय में भगवान् पार्श्वनाथ, डॉ. प्रादित्य प्रचण्डिया 'दोति', तुलसीप्रज्ञा,
खंड 12, अंक 2, सितम्बर 87, लाडनू (राज.) पृ. 43 । 6. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, पृ. 138। 7. अपभ्रंश कवियों की 'प्रात्मलघुता' का मध्ययुगीन हिन्दी काव्यधारा पर प्रभाव,
डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', महावीरजयन्ती स्मारिका, वर्ष 1986, जयपुर, पृ. 43 । 8. केशव कौमुदी, प्रथमभाग, टीकाकार लाला भगवानदीन, सं. 1986, पृ. 72। 9. अपभ्रंश साहित्य, हरिवंशकोछड़, पृ. 167 । 10. 'विद्यापति पदावली, संकलनकर्ता-रामवृक्ष वेनीपुरी, पद संख्या 20, 22, पृष्ठ 30, 32 । 11. (क) सुदंसणचरिउ, रामसिंह तोमर, विश्वभारती पत्रिका, खंड 4, अंक 4, अक्टूबर
दिसम्बर 1945, पृ. 263 । (ख) अपभ्रंश भाषा के दो महाकाव्य और कविवर नयनंदि, परमानंद शास्त्री, अनेकांत,
___वर्ष 10, किरण 10 । 12. जंबूसामिचरिउ, 4.14, सम्पा. डॉ. विमलप्रकाश जैन, पृष्ठ 75-77 । 13. अपभ्रंश काव्य परम्परा और विद्यापति, अंबादत्त पंत, पृ. 268 । 14. अपभ्रंश साहित्य, हरिवंश कोछड़, पृ. 174 । 15. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग 1, श्री नेमिचन्द्र जैन ज्योतिषाचार्य, पृ. 49 ।
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गुणों की सार्थकता मणुयत्तहो फलु धम्मविसेसणु, मित्तहो फलु हियमियउवएसणु । विहवहो फलु दुत्थियासासणु, तक्कहो फलु वरसक्कय भासण । सुहरहो फल भीसणरणमंडणु, तवचरणहो फल इंदियदंडण । सम्मत्तहो फलु कुगइविहंसणु, सुयणहो फलु परगुणसुपसंसणु । पंडियमइफलु पावणिवत्तणु, मोक्खहो फलु पुणरवि. प्रणिवत्तणु। जोहाफलु प्रसच्चअवगण्णणु, सुकइत्तहो फलु जिणगुणवण्णणु । पेम्महो फलु सम्भावणिहालणु, सुपहुत्तहो फलु प्राणापालणु। णाणहो फलु गुरुविणयपयासणु, लोयणफलु जिणवरपयवंसणु ।
पर्य-मनुष्यत्व की सार्थकता धर्म का विशेषज्ञ होने में है, मित्रता की सार्थकता हित-मित कथन करने में है। वैभव की सार्थकता निर्धनता का नाश करने में है, तर्क की सार्थकता सुन्दर सुसंस्कृत कथन करने में है। शौर्य को सार्थकता भीषण-रण में सफल होने में है, तपस्या की सार्थकता इन्द्रियों का दमन करने में है, सम्यक्त्व की सार्थकता कुगति का विध्वंस करने में है, सज्जनता की सार्थकता पर-गुण-प्रशंसा करने में है, बुद्धिमता की सार्थकता पाप की निवृत्ति करने में है, मोक्ष का उद्देश्य संसार का प्रभाव करना है । जीभ की सार्थकता . असत्य की निन्दा करने में है । सुकवित्व की सार्थकता जिनेन्द्र के गुण-वर्णन करने में है। प्रेम का उद्देश्य सबके प्रति सद्भाव रखना है, अच्छे प्रभुत्व की सार्थकता आगम का पालन करने में है । ज्ञान की सार्थकता गुरुजनों के प्रति विनय करने में है और नयनों की सार्थकता जिनेन्द्रदर्शन में है।
सुबंसरणचरिउ 1.10
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सुदंसणचरिउ का काव्यात्मक वैभव
-डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री
भारतीय प्राख्यानों में 'सुदर्शन' का नाम अपरिचित नहीं है। प्राचीनकाल से लेकर प्रद्यप्रभृति विविध पुराणों एवं विभिन्न काव्यात्मक विधाओं में निबद्ध सुदर्शन का चरित्र उपलब्ध होता है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में ही नहीं, भारत की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में भी समय-समय पर सुदर्शन विषयक कथात्मक काव्य रचे जाते रहे हैं । इन कथात्मक काव्यों में प्रस्तुत. मुनि नयनंदी विरचित 'सुदंसणचरिउ' अपभ्रंश का एक विशिष्ट काव्य है। अपभ्रंश की कथाकाव्य-धारा को समुन्नत एवं समृद्ध करने में जिन मनिवार्य उपादानों की प्रावश्यकता हो सकती है वे सभी तत्त्व प्रस्तुत काव्य में भलीभांति समाहित हैं। स्वयं कवि के युग में यह काव्य विद्वानों के द्वारा अभिवन्दित हो चुका था। कवि का यह संकेत प्रात्मश्लाघा न होकर वास्तविकता है । डॉ. नथमल टांटिया ने इस काव्य से प्रभावित होकर लिखा है-नयनंदी का यह चरितकाव्य पालंकारिक काव्यशैली की परम्परा में है । जहां-तहां वर्णनों में समासों की शृंखलाएं एवं अलंकारों के जटिल प्रयोग पाठकों को बाण और सुबन्धु की याद दिलाते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अपभ्रंश काव्य-धारा के कवियों में समासबहुम काव्यशैली का चमत्कार प्रकट करने में मुनि नयनंदी से बढ़ कर अन्य कवि नहीं है। इनकी यह भी विशेषता है कि समस्त पदावली का सर्वत्र प्रयोग होने पर भी भाषा क्लिष्ट नहीं है, बल्कि उसमें लालित्य ही लक्षित होता है। भाषा के चलते हुए प्रयोग भी लोकोक्तियों तथा सूक्तियों के रूप में भी पाये जाते हैं। भाषा में अनुरणनात्मक तथा मनुकरणमूलक शब्दों के भाव-भरित प्रयोगों से विविध बिम्बों को व्यंजित करने में कवि की अभिव्यंजना-शक्ति का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है । भाषागत विविध प्रयोगों की दृष्टि से भी. इस काव्य में कई प्रकार
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जनविद्या
के शब्दों की रचना तथा विभिन्न भावों को प्रकट करनेवाले नूतन एवं प्रर्थभित शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। जहां कवि क्रिया-विशेष का वर्णन करता है वहां क्रियापदों की झड़ी लगा देता है । उदाहरण के लिए, वह मद्य-पान के दोषों का वर्णन करता हुआ कहता है
संषिजंतए सुहुमई सत्तई तं जो घोट्टई गायइ णच्चाई कविलई वंदइ प्रभणिउ जंपइ जुवइहि लग्गइ भउहउ वंकइ पडइ विहत्थहो छरइ हेरइ रुज्झइ बन्झइ
भज्जगुणंतए । होंति बहुतई। सो गर लोट्टइ। सुयणई णिदइ । विहसइ कंपइ ।
रंगइ वग्गइ । मा उ जि संगइ ।
गज्जइ रिकइ। रत्यहिं कत्थहो । पारइ मारइ । बुझइ मुज्झइ । 6.2.
अर्थात् सड़ने-गलने पर ही मदिरा बनाई जाती है । उसमें अनेक तरह के सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं । उस शराब को जो पीता है वह मनुष्य उन्मत्त होकर लोटने लगता है, गाता है, नाचता है, सज्जनों की निन्दा करता है, कुत्तों की वन्दना करता है, हंसता है, कांपता है, बिना बुलाये बोलता है, रेंगता है, कूदता है, युवतियों से लगता है, माता से भी संग करता है, भौहें मरोड़ता है, गर्जता है, रेंकता है, विह्वल होकर मार्ग में कहीं भी गिर पड़ता है, चिल्लाता है, खीजता है, फाड़ता है, मारता है, रुघता है, बांधता है, जूझता है, मूच्छित हो जाता है।
__प्रस्तुत कथाकाव्य की रचना एक दीर्घ परम्परा की प्रानुपूर्वी में हुई है। स्वयं कवि ने इसकी प्राचीनता का उल्लेख करते हुए श्रुत-परम्परा का विवरण दिया है। उनके अनुसार इस कथावस्तु की अर्थ-सृष्टि अर्थात् भावात्मक रचना अहंन्तों ने की थी। पश्चात् कथा की ग्रन्थसिद्धि गौतम गणधर ने की और उनकी क्रम-परम्परा में अनुक्रम से सुधर्म-स्वामी तथा जम्बूस्वामी इन तीन केवलियों ने, पश्चात् स्वर्गगामी विष्णुदत्त ने फिर नन्दिमित्र, अपराजित, सुरपूजित गोवर्द्धन और फिर भद्रबाहु परमेश्वर इन पाँच श्रुत केवलियों ने, तदनन्तर विशाख मुनीश्वर, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, धर्मप्रवर्तक जय, नाग, सिद्धार्थ मुनि, तपस्वी घृतिसेन, विजयसेन, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन इन ग्यारह दशपूर्वियों ने, फिर नक्षत्र, जयपाल मुनीश्वर, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंसाचार्य इन पांच एकादशांग धारकों ने, और फिर नरश्रेष्ठ सुभद्र, यशोभद्र, लोहार्य और शिवकोटि इन चार एकांगधारक मुनीन्द्रों ने तथा अन्य मुनियों ने अविकल रूप से जैसा प्रवचन में भाषित किया है वैसा ही पंचनमस्कार मन्त्र का फल-कथन किया गया है ।
कवि की मौलिकता विशेष रूप से विविध वर्णनों में, रस-विधान में, प्रसंगानुसार विभिन्न छन्दोयोजना में तथा बिम्बविधान में स्पष्ट रूप से लक्षित होती है । सम्पूर्ण काव्य
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जैन विद्या
रचना अनेक भावपूर्ण वर्णनों से भरपूर है । निम्नलिखित वर्णन विशिष्ट हैं—देश, नगर, नृप, यात्रा, समवसरण, गुण-वर्णन, सरिता, क्रीड़ा, स्वप्न-फल, बाल-क्रीड़ा, स्त्री-लक्षण, नारी-प्रकृति, नारी की भाव-दृष्टियां, इंगित-वर्णन, शुभ-अशुभ लक्षण, कामदशा-वर्णन, विवाहोत्सव, जेवनार (जीमन), सूर्यास्त, रात्रि, सूर्योदय, विरह-वेदना, बसन्त, उद्यान-उपवन, उद्यान-क्रीड़ा, सरोवरशोभा, जल-क्रीड़ा, अपशकुन, श्मशान, मनोरमा-विलाप, युद्ध-लीला, सैन्य-संचरण, संग्राम, हस्ति-युद्ध, मल्लयुद्ध, रथ-युद्ध, निशाचर और राजा का विक्रिया-युद्ध, जिन-मन्दिर-वर्णन, मुनिवर्णन, व्याघ्र-भील का वर्णन, विमान का अटकना, उपसर्ग-वर्गन प्रभृति ।
कथा-वर्णन में कवि ने प्रबन्ध-रचना के सभी सूत्रों का यथास्थान समावेश किया है किन्तु वर्णनों की प्रचुरता में न तो कथानक में गतिशीलता परिलक्षित होती है और न संवादों की यथेष्ट संयोजना परन्तु अर्थोद्भवन में, प्रालंकारिक वर्णन में तथा बिम्ब-विधान में कवि की वृत्ति विशेष रूप से रमी है । जितने अधिक छन्दों का प्रयोग इस रचना में हुआ है वैसा विविध वर्गों का सुन्दर संयोजन बहुत कम रचनाओं में उपलब्ध होता है। इस काव्य की यह भी विशेषता है कि कवि ने अनेक स्थलों पर छन्द का नाम सूचित किया है । लगभग एक सौ छन्दों से अधिक का प्रयोग इस काव्य में किया गया है। उनमें मात्रिक तथा वर्णिक दोनों प्रकार के छन्दों का समावेश है । कई छन्द नये हैं जिनके नाम और लक्षण तक अन्यत्र नहीं मिलते। इस प्रकार यह काव्य कई बातों में अनुपम है।
प्रस्तुत कथाकाव्य में कई मार्मिक प्रसंगों की संयोजना दृष्टिगोचर होती है । एक मोर नारी के हाव-भावों, इंगितों तथा लक्षणों का वर्णन है तो दूसरी और जगत् का स्वरूप रूपक के माध्यम से चित्रित किया गया है । यदि सेठ अपने पुत्र को लोक-व्यवहार की शिक्षा देता है तो नारी-हठ की दुनिवारता एवं कामिनियों की काम-लीलाओं का भी सहज स्वाभाविक चित्रण किया गया है ।
प्रकृति-वर्णन में मुख्यतः मालम्बन रूप का ही चित्रण उपलब्ध होता है । सर्वत्र वर्णनों में अलंकरण की प्रधानता है । कहीं-कहीं नवीन उपमाओं तथा उपमानों का प्रयोग किया गया है । इक्षु-दण्डों को धूर्तों का कुल कहना, उपवनों को भद्रशाल-युक्त नन्दनवन बताना, विलासशील राजहंसों को उत्तम धनुष से सज्जित शरीर कहना, पृथ्वी की महिला बतलाना एवं नगर का समुद्र के समान वर्णन करने में चमत्कार अवश्य है । नई-नई कल्पनाओं से उत्प्रेक्षा करने में कवि सिद्धहस्त जान पड़ता है । जैसे यह कहना कि गाय के हाथ-पैर चलना ऐसे बन्द हो गये थे जैसे किसी दुष्ट राजा के ग्राम के उजड़ जाने से वहां पर प्रजा का आवागमन तथा करदान की क्रिया बन्द हो जाती है । न प्रवाल की अरुणिमा से शोभित तरुणी के अधर में, न भौरों को नृत्य करानेवाले आम में, न मधुर इक्षु-दंड में, न अमृत में, न कस्तूरी में, न चन्दन में और न चन्द्र में वह रस प्राप्त होता है जो सुकवि रचित अलंकारयुक्त काव्य में उपलब्ध होता है । शोभन-कण्ठ का मध्य भाग ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो सुरेन्द्र के हाथी की दो सूडे हों । प्रशोकपत्र को जीतनेवाले हाथ वज्र को चूर-चूर करने में समर्थ थे । गोलाकार
वक्षस्थल ऐसा प्रतीत होता था मानो वह लक्ष्मी का केलि-गृह हो । मध्य में स्थित स्वमुष्टि-ग्राह्य *- कटिभाग ऐसा था मानो वज्रदन्ड का मध्य भाग ही हो। नाभि का सुगम्भीर छिद्र ऐसा था
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मानो अनंगरूपी सर्प का गृह हो । उसका मितम्ब भाग ऐसा शोभायमान था मानो कामराज की पीठ हो । उसके चरणों के नखरूपी मणियों से विषण्ण चित्त तथा हतोत्साह होकर नक्षत्र माकाश में जाकर स्थित हो गये हों। उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा की समता न कर सकने के कारण जल-तरंगें शत-शत खण्डों में प्रवाहित होकर चली जाती हैं । उसकी नाभि की गम्भीरता से पराजित हो कर गंगा का प्रावतं भ्रमण करता ही रह जाता है, स्थिर नहीं हो पाता । उसके मध्य कटिभाग की कृशता को देख कर मानो सिंह तपस्या करने के लिए पर्वत की गुफा में चला गया है। उसकी सुन्दर रोमावली से पराजित हो कर मानो लज्जित होती हुई नागिनी बिल में प्रवेश कर रही है । उसकी नासिका से उपहसित हो कर शुक अपनी नासा की वक्रता प्रकट कर रहा है। उसकी भौंहों की गोलाई से पराजित होकर इन्द्रधनुष निर्गुण (प्रत्यंचाहीन) हो गया है।
कवि बिम्ब-रचना में अत्यन्त कुशल है । शब्द-चातुरी तथा कल्पना के मनोरमरूप में ऐसे बिम्ब अनुस्यूत हैं जो सम्पूर्ण शब्दचित्र को सजीव मूर्तरूप में प्रस्तुत करते हैं । गंगा नदी के वर्णन में कवि ने कई बिम्ब एक साथ संमूर्त कर दिये हैं-मुस्कान के साथ प्रेमालाप करती हुई सखियों से कोई तरुणी वेश्या शृंगार में मग्न हो, नृत्य-कला में दक्ष मन्थर गति से अभिसारण करती हुई प्रेमी के पास जैसे संचरण कर रही हो । कवि के शब्दों में -
पप्फुल्लकमलवतें हसंति, अलिवलयलियलयई कहति । - दोहरझसरणयहिं मणुहरंति, सिप्पिउडोउहि विहि जणंति । मोतियवंतावलि परिसयंति, पडिबिंबिउ ससिबप्पण णियंति । तरविडविसाह बाहहि गति, पक्खलणतिभंगिउ पायउंति । बरचक्कवाय थणहर एवंति, गंभीरणीरभमणाहिति । फेणोहतारहारुग्वहंति, उम्मीविसेसतिवलिउ सहति । सयवलणीलंचलसोह विति, जलखलहलरसणावामु लिति ।
मंवरगइ लीलए संचरंति, वेसा इव सायर अणुसरंति । 2.12
सम्पूर्ण कथाकाव्य समस्त पदावली, संस्कृत भाषा की भांति श्लेषभरित शब्द-व्यंजना से युक्त तथा कोमल-कान्त पदावली से संयोजित है । समासों की ऐसी लम्बी लड़ी तथा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश व देशी शब्दों की ऐसी सुन्दर संयोजना को देख कर लगता है कि कवि भाषा का कोई जादूगर था । प्रतएव यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि क्या वस्तु-वर्णन, क्या अलंकार-रस-छन्द-विधान, क्या भाषा भाव-योजना और क्या शिल्प-संरचना सभी दृष्टियों से उक्त रचना अपभ्रंश के कथाकाव्यों में अपने ढंग की निराली तथा महत्त्वपूर्ण रचना है ।
1: पढमसीसु तहो जायउ जगे विक्खायउ मुणि णयणंदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदसंणणाहहो तेण प्रवाहहो विरइउ बुहअहिणंदिउ ॥ -घत्ता, 12.9 2. सुदंसणचरिउ 12.8 पूर्ण कडवक ।
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सुदंसणचरिउ में अलंकार-योजना
-डॉ० गंगाराम गर्ग
णो संजावं तरुणिमहरे विद्दुमारत्तसोहे।
यो साहारे भमियभमरे व पुंडच्छदंरे। जो पीऊसे णहि मिगमदे चंदणे व चंदे ।
___सालंकारे सुकइभणिदे जं रसं होइ कन्वे । 3.1 प्रवाल की लालिमा से शोभित तरुणी के अधर, भौंरों को नचानेवाले प्राम, मधुर , ईख, अमृत, कस्तूरी, चन्दन अथवा चन्द्र में भी वह रस नहीं है जो सुकवि रचित अलंकारयुक्त काव्य में मिलता है।
• महाकवि नयनन्दी के उक्त कथन से स्पष्ट है कि वह अलंकारयुक्त काव्य को ही संसार की सर्वाधिक सरस उपलब्धि बतलाते हैं। एक अन्य पद्यांश (2.6.3) में भी सुलक्षण और प्राभूषणों को युवती के प्राकर्षण का हेतु मानकर उन्होंने काव्य की श्रेष्ठता का प्राधार भी लक्षण और अलंकारों की प्रचुरता निर्धारित किया है। इन उदाहरणों से नयनंदी के अलंकारप्रिय होने में कोई संदेह नहीं रह जाता। सुदंसणचरिउ में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं उदाहरण अलंकार की तो भरमार है ही अन्य प्रलंकार भी यथास्थान प्रयुक्त हुए हैं।
_ 'सुदंसणचरिउ' में शब्दालंकारों में श्लेष के उदाहरण प्रधिक किन्तु अनुप्रास, वक्रोक्ति और यमक के उदाहरण कम हैं। अनुप्रास
हा हा गाह सुदंसरण सुंबर सोमसुह । सुप्रण सलोण सुलक्सण जिणमइअंगबह ॥ 8.41.1
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यमक
पुणु दिगई णाणा तिम्मणाई, प्रइतिक्खइं णावई तिम्मणाई। 5.6.10
उक्त पद्यांश में 'तिम्मणाई' शब्द के दो बार पाने और दोनों बार उसका अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होने के कारण यमक अलंकार हुआ। तिम्मणाइं=(1) अचार (2) तिय-मन । श्लेष
लक्खरणवंति य सालंकारिय, सुकइकहा इव ब्रणमणहारिय ।
कुंकुमकप्पूरेण पसाहिय, वणराइ व तिलयंजणसोहिय ॥ 2.6.3-4
वह (अर्हदासी सेठानी) सुलक्षणों से युक्त व अलंकार धारण किए हुए, लोगों के मन को उसी प्रकार आकृष्ट करती थी जैसे काव्य के लक्षणों से युक्त अलंकार-प्रचुर सुकविकृत कथा। कुंकुम और कपूर से भ्रमित तथा अंजन व तिलक से युक्त वह वणराजि के समान शोभायमान थी। पद्यांश में 'सेठानी' और 'कविकथा' के सम्बन्ध में 'लक्षण' और 'प्रलंकार' के तथा 'सेठानी' और 'वनराजि' के सम्बन्ध में 'कुंकुम', 'कपूर', 'तिलक' और 'अंजन' के अलग-अलग अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है ।
बहुविम्भम बहुभमण उहयपक्खदूसणपयासिय ।
तोरिणि जिह तिह जुवइ मंदगई सलोणहु समासिय ॥ 8.36.12-13 युवती एक नदी के सदृश बहुविभ्रम, उभयपक्षों को दूषण लगानेवाली, मंदगति एवं सलोने (सुन्दर पुरुष या लवण समुद्र) का प्राश्रय लेनेवाली होती है। उक्त छंदांश में 'नदी' और 'युवती' दोनों को उल्लिखित विशेषण शब्द दोनों के प्रसंग में अलग-अलग अर्थ प्रदर्शित करते हैं।
भज्जत वि जण न वि परिहरंति ।
सुसणेह कासु वल्लह न होंति ॥ 5.6 6 उन (खाजा) के भग्न होने पर भी लोग उन्हें नहीं छोड़ते क्योंकि जिनमें स्नेह (घृत व प्रेम) होता है वे किसे प्यारे नहीं लगते ।
उक्त पद्यांश में 'स्नेह' के दो अर्थ 'घृत' और 'प्रेम' होने के कारण श्लेष अलंकार हुआ। वक्रोक्ति
को वि भणहकते वियसिउ प्रसोउ, सा भगवस वियसइ प्रसोउ । पिए मिट्टई एयई सिरिहलाई, मिठई जि होंति पिय सिरिहलाई ॥ 7.15.4-5
कोई कहता है कान्ते ! यह अशोक कसा विकसित हो रहा है ? वह कहतीअशोक (प्र-शोक) विकसित होगा ही । कोई कहता-ये श्रीफल (नारियल) कितने मीठे हैं ? वह कहती-श्री फल (लक्ष्मी का परिणाम) मीठा होगा ही।".....""प्रस्तुत पद्यांश में नायिका द्वारा प्रशोक और श्रीफल वृक्षों के अर्थ 'प्र-शोक' 'श्री-फल' कल्पित कर लिये गये हैं अतः यहां दूसरा अर्थ कल्पित कर लेने के कारण वक्रोक्ति अलंकार है।
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स्वभावोक्ति
जब किसी वस्तु के स्वभाव का तथ्यपूर्ण वर्णन किया जाता है तब वहां स्वभावोक्ति अलंकार होता है
साहुसुदंसरणरूवणियच्छणे अंगई अंगु बलंतियउ ।
पाइउ जोवणइत्तिउ गारिउ मेहलदाम खलंतियउ। 11.2.7-8. सुदर्शन मुनि का सौंदर्य देखने के लिए यौवनवती नारियां एक दूसरे के अंग से अग का घर्षण करती हुई व मेखला को स्खलित करती हुई दौड़ पड़ी। अतिशय सौंदर्य के प्रति किसी का भी इस तरह प्राकृष्ट होना सहज स्वभाव होता है अतः यह स्वभावोक्ति अलंकार है। उपमा
नायक और नायिका के रूप-वर्णन के लिए नयनन्दी ने परम्परागत और नवीन दोनों प्रकार के उपमान जुटाये हैं । कवि ने नायक के बाल, नेत्र, उन्नत भाल. चंचल प्रांखें, नासिका, दंतपंक्ति. होठ क्रमशः भ्रमरसमूह, कमलपत्र, अर्द्धचन्द्र, मच्छ, चम्पा, मुक्ताफल, बिम्बाफल से उपमित किये हैं । भ्रूलताओं को कामदेव के धनुष-दंड, नाभि को सर्पगृह, स्वर को नये मेघ की ध्वनि से उपमित करना नवीन प्रयोग हैं। नयनंदी ने नायिका. के मुख, नेत्र, सघन स्तन, दंतपंक्ति, हथेली को क्रमशः चन्द्र, मृग, कलश, अनार-दाने व अशोकपत्र की उपमाएं जुटाई हैं। देहयष्टि को 'लहलाती बेलि', भुजाओं को 'किसलय' अथवा 'लता', केशबन्ध को 'मयूरपिच्छ' की उपमाएँ बड़ी प्राकर्षक हैं। नायिका के अधरों को बिम्बाफल और नासिका को चम्पक पुष्प की उपमाएँ नायक के समान ही हैं। नायक के गौर वर्ण को 'चन्द्र' किन्तु नायिका के वर्ण को 'चन्दन' और 'केशर' की उपमाएं दी गई हैं। 'नदी-युवती' 'राजा-हंस', 'नगरराजा', 'फलदायी वृक्ष-राजा, 'सुन्दरी-हंसिनी', 'हथनियां-सुन्दरियां' के युग्मों में स्थान-स्थान पर एक वस्तु दूसरे से उपमित हुई हैं । मूर्त के लिए मूर्त उपमान के दो उत्तम उदाहरण हैं
1. उठ्ठिय पक्खजुया कीरिय णं फुरइ प्रसारिय। 10.5.16 वह (अभया) पंख लगी चींटी के सदृश क्षुद्रतावश उत्तेजित हो चमक उठी।
2. बहुविजण सोहहिं थाले थाले, गक्लत्त पाई गयणंतराले। 5.6.3 थाल में रक्खे हुए विभिन्न व्यंजन प्राकाश में विद्यमान नक्षत्रों के समान शोभायमान
मूर्त के लिए अमूर्त और प्रमूर्त के लिए मूर्त उपमान जुटाना कवि का बड़ा कौशल माना जाता है । हिन्दी के छायावादी काव्य की तो यह एक पहचान मान ली गई है । हिन्दी साहित्य की अन्य कई विशेषताओं की तरह इसके बीज भी अपभ्रंश काव्य में विद्यमान हैं। महाकवि नयनन्दी ने 'सुदंसणचरिउ' में गोप की तीव्र गति को 'मन' और उसके छिपने को शीघ्र लुप्त होनेवाले 'धन' से उपमित किया है (2.13.4) । दुःख देने के कारण गोप के पेट में चुभे हुए ढूंठ की समानता दुष्ट वचनों में देखी गई है (2.14.4) गर्भिणी के स्तनों की श्यामलता दूसरे की ख्याति से कुढ़नेवाले दुर्जन के स्वभाव जैसी है (3.3.1) । बारात में परोसे गये, मुख में
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शीघ्र जानेवाले खाजा में दुर्जन मैत्री और 'अचार' की तीक्ष्णता में स्त्री के तीखे मन की समता पाई है (5.6.6, 10) । जल्दी में पीया हुआ गर्म दूध पेट में ऐसी जलन करता है जैसे दुष्कर्मजन्य पश्चात्ताप (5.6.14)। अलग-अलग प्रसंगों में नीतिज्ञता के कारण राजा को 'जैन-शासन' और लक्षणयुक्तता के कारण 'व्याकरण' की उपमा दी गई है (2.5) । राजा का पीछा करते हुए व्यंतर देव.को जीव, का, पीछा करते हुए कर्म की उपमा देना बड़ा सार्थक है (9.16.5) । सुदर्शन को परोपकार के समान 'शीतल' और कामोन्मादिनी अभया को संतप्त शिला कहना (3.11) परोपकार और कामोन्माद का गुणात्मक पहलू भी अभिव्यक्त करता है।
अमूर्तउपमान गभित दो उत्तम उपमाएं हैं - जोवणु व पडिउ महियलि णिएइ, णं कुकइकव्वु पए पए खलेइ। 9.21.6 वृद्ध व्यक्ति कुकविकृत काव्य के समान पद पद पर स्खलित होता है। हिमकरणमिसेण गवर परिपंडुरु सउरिसजसु व धावए। 11-21.1 हिमकण-युक्त श्वेत बाण सत्पुरुष का फैलता यश सा दौड़ा।
अमूर्त अथवा भावों को स्थूल अथवा मूर्तमान वस्तुओं से उपमित करने पर जहां कवि के काव्य-कौशल की परीक्षा होती है वहां भाव भी बोधगम्य हो जाते हैं । कवि नयनन्दी चिन्ताग्रस्त नींद को संकेत-स्थल से भटकी हुई स्त्री के समान मानते हैं (2.6) । बढ़े हुए क्रोध को घी से सिंचित आग के समान भयंकर ठहराते हैं (9.1) । वे एकाश्रित स्नेह का अस्तित्व अंजलि में अधिक न ठहर सकनेवाले जल से अधिक नहीं मानते (5.1.12) । उभयपक्षीय स्नेह कवि की दृष्टि में इतना उत्तम और 'भाकर्षक है जितना दोनों ओर से रगे हुए पिचुक के पंख (8.3)।
अमूर्त उपमेय के लिए मूतं उपमानों के कुछ श्रेष्ठ उदाहरण इस प्रकार हैं - . जोग्यणु पुणु बिरिणइवेयतुल्लु । 9.21.2 यौवन पहाड़ी नदी के वेग के तुल्य है । तडिविप्फुरण व रोसु मणे मित्ती पहाण रेहाइव । 9.18.16
सत्पुरुष के मन में रोष बिजली की चमक के समान क्षणस्थायी और मंत्री पत्थर की रेखा के समान चिरस्थायी होती है ।
तहे सरायमणु दिसिहि पधावइ,
करिपयदलिउ तुच्छ जलु णावइ । 7.2.9 . उसका सराग मन हाथी के पांव से मदित जल के समान सभी दिशाओं में दौड़ता है ।
..अमूर्त उपमेय के लिए अमूर्त उपमान का एक सुन्दर उदाहरण है-. ........ खणे रोमंचु होवि सुपसिजद, . . . . .
विरह, वि समिणवायनर राज्जडः। 7.9.8 क्षण-क्षण मैं रोमांच और प्रस्वेद होने के कारण विरह भी सन्निपात ज्वर के समान है।
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मालोपमा
एक ही साधारण धर्म के आधार पर किसी वस्तु के लिए कई उपमान जुटाने के कई उदाहरण 'सुदंसणचरिउ' में हैं । कान्तिहीन अभया पुताई से रहित जर्जर 'भित्ति', 'जीर्ण चित्र'
और 'शोभाहीन पुरानी देवकुटी' के समान है (8.1.15) । शुभ्र राजमहल को 'तारों', 'हारावलि' और 'कुन्दपुष्पों' की उपमाएं दी गई हैं (8.1.8) ।
विरक्तभावी सुदर्शन को राज्य-वैभव 'इन्द्रधनुष' और 'ढलते हुए दिन' से थोड़ा भी अधिक स्थायी प्रतीत नहीं होता (9.19)।
- अपनी मां के गर्भ में स्थित सुदर्शन 'आकाश में उगते सूर्य' 'कमलिनी-पत्र पर स्थित 'जलबिन्दु' तथा 'सीपी में विद्यमान मोती' तीनों वस्तुओं के समान लुभावना है (3.2) । मनोरमा
भी 'रति' 'सीता' व 'इन्द्राणी' तीनों सुन्दरियों के समान है (2 4.10) । विवाहवेदी पर बैठे हुए मनोरमा और सुदर्शन को रोहिणी-चन्द्र तथा बिजली-मेघ के युगल से उपमित किया गया है (5.5)। रूपक .
पुत्तु एक्कु कुलगयणदिवायरु,
जणगिमागरयणहो रयणाय: । 7.9.10 पुत्र एक कुलरूपी गगन का सूर्य तथा माता के मानरूपी रत्न का रत्नाकर होता है ।
तिसल्लवेल्लि-दुक्खहुल्लि-तोडणेकसिंधुरो । 10.3.15 वे (मुनि विमलवाहन) त्रिशल्यरूपी 'वेलि' के दुःखरूपी 'फल' को तोड़ने में 'हस्ती' के समान अद्वितीय थे।
उक्त दोनों उदाहरणों में से पहले उदाहरण के उपमेय 'पुत्र' में 'सूर्य' और 'रत्नाकर' का प्रारोप है । दूसरे उदाहरण में विमलवाहन मुनि पर 'हस्ती' का प्रारोप मानते हुए 'त्रिशल्य' और 'दुःख' में क्रमश: 'बेलि' और 'फल' के प्रारोप किये गये हैं, अतः इन पद्यांशों में रूपक अलंकार है। सांग रूपक
जब उपमेय के अंगों पर भी उपमान के अंगों का आरोप किया जाय तब सांग रूपक अलंकार होता है । 'सुदंसणचरिउ' के वर्णनात्मक प्रसंगों में से नदी में सुन्दरी (2.12), रुधिर से परिपूर्ण युद्धभूमि में प्रलयंकारी नदी तथा वन वृक्षावली में नायिका के आरोप सांग रूपक के उत्तम उदाहरण हैं। उपमेय 'यौवन' और उसके अंगों पर उपमान 'वन' का उसके अंगों सहित भारोप का एक छोटा सा नमूना है. भुयवल्लीकरपल्लविउ थणफलणमिउ जोवणु वणु षण्णउ सेवइ। 5.8.12
भुजारूपी वल्लरी हाथरूपी पल्लव और स्तनरूपी फलभार से झुके हुए पौवनरूपी वन का सेवन कोई धन्य पुरुष ही करता है। ' -
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उत्प्रेक्षा
'उत्प्रेक्षा' अलंकार के प्रकारों में वस्तुत्प्रेक्षा के उदाहरण 'सुदंसणचरिउ' में अधिक हैं
1.2.14
जह इउ पद्मोहर मरणहरिउ दीसह मंथरगमणिउ । गाहही सायरहो सलोरणहो जंतिउ गं वररमणिउ ॥ जल से परिपूर्ण मनोहर नदियां धीमी गति से खारे समुद्र की प्रोर बहती हुई ऐसी शोभायमान होती हैं मानो मनोहारिणी युवतियां अपने सलोने पति पास जा रही हों ।
बैठी ।
सिहिरहं उवरि हारु परिघोल, राहगंगापवाहु गं लोलइ ।
ग्रहणं कामवासु भावालउ, ग्रह णं महुसिरीहि हिंबोलउ ।। 7.19.5-6
उसके स्तनों के ऊपर हार लटकने लगा मानो श्राकाशगंगा का प्रवाह कल्लोलें ले रहा हो अथवा मानो वह भावों का निधान कामदेव का पाश हो अथवा मानो वसंतलक्ष्मी का
हिंडोला हो ।
जैन विद्या
3. कासु विमारिणरिणमुहे बिट्ठि जाइ, वरपंकए छप्पयपंति गाइँ । 8.18.8
किसी की मानिनी के मुख पर दृष्टि पड़ गई मानो सुन्दर कमल पर भ्रमर-पंक्ति श्रा
4. इय चितिवि सविल क्खियए प्रभया महएविए वरिगवर ।
चाउद्दिसु वेढवि लइयउ विसवेल्लिए णं चंदरगत ।। 8.33.11-12
( परदारगमन का आरोप दिखाने के लिए) महादेवी प्रभया ने सुदर्शन को चारों ओर से लपेट लिया मानो विष की लता ने चन्दन वृक्ष को वेष्टित कर लिया हो ।
5. रणरहसेरा को वि सुहड पवर भंभु उम्मूलिवि घावइ ।
दारणवंतु थिरथोरकरु दुष्णिवारु सुरवारणु गावइ ।। 9.1.19-20
.. कोई सुभट रण के प्रवेग से एक बड़ा खम्भा उखाड़कर दौड़ पड़ा मानो मद भराता हुमा स्थिर घोर स्कूल सूंडवाला दुनिवार ऐरावत हाथी प्रकट हुआ हो ।
6.
हि सुहह समरे तक्खणे लोहियसरि गोसारिय । दावंती भउ सुररणरहं गावइ कालें जीह पसारिय ॥ 9.5.10
उस क्षरण समर में प्रहार करते हुए योद्धानों ने खून की नदी बहा दी मानो काल ने
- देवों और मनुष्यों को भय देनेवाली अपनी जीभ पसार दी हो ।
7. रणं इय चित्रिकरण प्रत्थमियर, प्रलिउलगवलवण्णु तमु भमियउ ।
गं विहिरणा जगअंबरहो, वोलेवए किउ गीलरसु ।
ग्रहवा गं प्रभर्याहि तरणउ दीसह पवियंभिङ प्रवजसु ॥ 18.19.10
चन्द्र अस्त हो गया और भ्रमर-समूह और जंगली भैंसे के समान कृष्ण वर्ण प्रन्धकार
फैल गया हो मानो विधि ने जगरूपी वस्त्र को नीले रस में डुबा दिया हो अथवा मानो अभया का अपयश प्रकट होकर दिखलाई देने लगा हो ।
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जैन विद्या
8. तो सोहइ उग्गमिउ गहे ससिप्रद्धउ विमलपहालउ ।
गावइ लोयहं वरिसिपउणहसिरिए फलिहकच्चोलउ ॥ 8.17.9-10 उस समय आकाश में प्रभायुक्त अर्द्ध-चन्द्रमा उदित हुमा मानो नभश्री ने लोगों को अपना स्फटिक का कटोरा दिखलाया हो ।
प्रथम उदाहरण में समुद्र की ओर बढ़ती हुई नदियों में 'अभिसारिका नायिका' की, तृतीय उदाहरण में दृष्टि में 'भ्रमर-पंक्ति' की, अभया में 'विषवेलि' की संभावना की गई है। दूसरे उदाहरण में स्तनों के ऊपर लटकते हुए हार में 'माकाशगंगा', 'कामदेव के पाश', 'बसंतलक्ष्मी के हिंडोले' की तीनों कल्पनाएँ बेजोड़ हैं । पांचवे उदाहरण में खम्भा लेकर दौड़ते हुए योद्धा में 'ऐरावत हाथी', छठे उदाहरण में शोणितनद में 'यमजिह्वा', पाठवे उदाहरण में प्राकाश में तत्काल उदित हुए अर्द्धचन्द्र में 'स्फटिक का कटोरा' की कल्पनाएं संभावित हैं । सातवें उदाहरण में घने अन्धकार में 'नीले रस' और 'अभया के अपयश' की संभावनाएं की गई हैं । विभिन्न वस्तुओं में समानधर्मी उपमानों की संभावना के कारण सभी उदाहरणों में वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। हेतूत्प्रेक्षा
हेतूत्प्रेक्षा में अहेतु में हेतु की सम्भावना की जाती है अर्थात् जो हेतु नहीं है उसे हेतु मान लिया जाता है।
'सुदंसणचरिउ' में हेतूत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं - __1. जा लच्छिसम तहे का उवम जाहे गइए सकलतई।
_णिक णिज्जियइ णं लज्जियई हंसई माणसि पत्तई । 4.1.12-13
जिसकी गति से मानो पराजित व लज्जित होकर हंस अपनी कलत्र (हंसनियों) सहित मानस-सरोवर को चले गये।
2. चाहे सुरोमावलिए परज्जिय गाइणि बिले पइसइ णं लज्जिय । 4.2.9
उसकी सुन्दर रोमावलि से पराजित होकर मानो लज्जित हुई नागिनी बिल में प्रवेश कर जाती है।
उक्त पद्यांशों में हंस के मानस-सरोवर चले जाने और नागिन के बिल में प्रविष्ट हो जाने के रूप में पहेतु में हेतु की सम्भावना की गई है, अतः हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है । प्रतीप
उपमेय के सामने उपमान के तिरस्कार होने पर प्रतीप अलंकार होता है । इसमें उपमान को उपमेय की उपमा के अयोग्य बतलाकर प्रायः उसका तिरस्कार किया जाता है । प्रभया के रूप की प्रशंसा में यह द्रष्टव्य है -
लायण सोहग्गे उत्तम, तुह समारण एउ रंभ तिलोत्तम । मोणइ सइ पउलोमी मच्छर, सम्व वि तुह विहवें णिम्मच्छर। तुह बुनिए सरसइ विण पुज्जइ...........----7.9.6
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जनविद्या
लावण्य और सौभाग्य में तुम्हारे समान उत्तम रंभा भोर तिलोत्तमा भी नहीं है । मेनका, शची व पौलोमी ये सब अप्सरायें भी तुम्हारे वैभव के सामने निरभिमान हो जाती हैं । तुम्हारी बुद्धि की तुलना में सरस्वती भी पूरी नहीं उतरती ।
दृष्टान्त
जब पहले एक बात कहकर फिर उससे मिलती-जुलती बात उदाहरण के रूप में कही जाय अर्थात् दोनों के धर्म एक न होते हुए भी मिलते-जुलते हों अथवा दोनों कथनों में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव हो तब दृष्टांत अलंकार होता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
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रहसे सीसु परिच्चएवि जरपरिंगवु कज्जु पउ किम्जइ । वरसुवाकलसहो उवरि ढंकणु कि arre बिज्जइ ॥ 8.6
प्रावेग में श्राकर शील को छोड़ जननिन्द्य कार्य नहीं करना चाहिए । उत्तम सुवर्ण के कलश पर क्या खप्पर ( ठीकरा ) का ढक्कन दिया जाता है ।
• सप्पुरिस हो मारणसु गहिरु विहरे वि रग जाय कायरु ।
किं सुरमहणारंभ हुए मज्जाय पमेल्लइ सायद ।। 8.23
सत्पुरुष गम्भीर होता है। वह विपत्ति में भी कायर नहीं होता । क्या सुरों द्वारा मंथन प्रारम्भ होने पर सागर मर्यादा छोड़ देता है ?
नवसु वि वसि कज्जइ जं रुच्चइ,
विसभए कि फरिणमरिण सुबइ । 8.21.11
जो रुचे उसे पराधीन होने पर भी वश में करना चाहिए। विष के भय से नागमणि को छोड़ देना उचित नहीं ।
महारायराम्रो, रग तुल्लो किराम्रो ।
किमालोलजहो, सिप्रालस्स सीहो । 10.5.13-14
तुम महाराजानों के भी राजा हो । यह किरात तुम्हारे समान नहीं । क्या कोई सिंह क्रोध से जीभ लपलपाता हुआ एक स्यार पर प्राक्रमण करता है ।
उदाहरण
जब एक बात कहकर उसके उदाहरण के रूप में एक दूसरी बात कही जाय मोर दोनों कथनों को ज्यों, जिमि, जेम, जिह, तिह आदि किसी उपमावाचक शब्द से जोड़ दिया जाय तो उदाहरण अलंकार होता है । सुदंसणचरिउ में इस अलंकार के कुछ नमूने इस प्रकार हैं -
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दुखहो भरियउ जिह घड़ सुरबिंदु विरगासइ ।
तिहि रिसि असणं तवहो महाफल गासह । 6.10.15
जिस प्रकार दूध से भरे हुए घट को सुरा का एक बिन्दुमात्र विनष्ट कर डालता है उसी प्रकार रात्रिभोजन तप के महाफल को समाप्त कर देता है ।
सुसरण देवहो अभयदेवि वम्मा लिया ।
सरम्मि जिह पोमिरगी गयवरेण विद्धंसिया ।। 8.37.7-8
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नविद्या
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सुदर्शन ने महाराज की प्रभयादेवी को उसी प्रकार कलुषित किया है जिस प्रकार सरोवर में घुस कर गजपति पद्मिनी का विध्वंस कर डालता है।
तिणकट्ठोहि सिहि तीरिणिसयसहसहि सायर। .. रण लहइ तिती जिह तिह जीउ वि भोयतिसायर ॥ 11.9.9
जिस प्रकार अग्नि, तृण व काष्ठ से तथा सागर लाखों नदियों से तृप्ति नहीं पाता उसी प्रकार तृषातुर जीव भी भोगों से संतुष्ट नहीं हो पाता। अर्थान्तरन्यास
जब कभी सामान्य बात कहकर उसके समर्थन में विशेष बात अथवा विशेष बात कहकर उसके समर्थन में सामान्य बात कही जाय तब प्रर्थान्तरन्यास अलंकार होता है -
प्रमिलताण वि दीसइ णेहो दूरे वि संठियाणं पि।
जइ वि हु रवि गयरणयले इह तहवि हु लइइ सुहु णलिणी॥ 8.4.13-14 परस्पर न मिलनेवाले तथा एक दूसरे से दूर स्थित व्यक्तियों में भी स्नेह देखा जाता हैं । यद्यपि सूर्य प्राकाशतल में है तो भी इस पृथ्वी पर नलिनी को उसका सुख मिलता है।
सामल कोमल सरस सुणिम्मल, कयली वज्जेवि केयइ णिफल ।
सेवइ फरसु वि छप्पउ, भुल्लउ, जं जसु रुच्चइ तं तसु भल्लउ । 7.5.6-7
भौंरा भूलकर श्यामल, कोमल, सरस और सुनिर्मल कदली को छोड़कर निष्फल केतकी के स्पर्श का सेवन करता है । ठीक है जो जिसे रुचे, वही उसे भला है ।
उक्त दोनों उद्धरणों में क्रमशः स्नेह-सम्बन्धी सामान्य बात का समर्थन 'सूर्य और . कमलिनी' के उदाहरण से किया गया है । विशेष बात भौंरे के स्वभाव को लक्षित करके उससे रुचि और चाहना सम्बन्धी सामान्य प्रवृत्ति का समर्थन लिया गया है। अत: दोनों ही स्थितियों में अर्थान्तरन्यास अलंकार हुआ।
भ्रांतिमान
कहिं वि क विमरणकरचरण किय पयडए । भमरगण मिलवि तहि गलिणमण णिवडए । 7.18
'
भम
कहीं कोई अपने लाल हाथ और पैर प्रकट करने लगी जिन्हें कमल समझकर भ्रमरगण उन पर एकत्र होने लगे।
- उक्त पद्यांश में नायिकाओं के लाल हाथ और पैरों को कमल समझने की भ्रान्ति भौंरों को हुई है अतः यहां भ्रान्तिमान अलंकार है ।
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जैनविचा
कि तार तिलोत्तम इंबपिया, कि गायवहू इ ह एवि पिया। कि देववरंगरण किं व विहि, कि कित्ति प्रमी सोहग्गणिही । किं कति सुबुद्धि कइंदथुना, कि रोहिणी रण सुकंतिजुया । कि मंवोपरि कि जणयसुमा, कि वा दमयंती चारभुमा । कि पीइ रई अह खेयरिया, कि गंग उमा तह किणरिया । 4.4.1-5
यह तारा है या तिलोत्तमा या इन्द्राणी या कोई नागकन्या प्रा खड़ी हुई है अथवा यह कोई उत्तम देवांगना है ? यह घृति है या कृति या सौभाग्यनिधि ? यह कान्ति है या सुबुद्धि या कवीन्द्रों द्वारा स्तुत सरस्वती या उत्तम कान्ति से युक्त रोहिणी ? यह मन्दोदरी है या जनकसुता या सुन्दर भुजाओंवाली दमयन्ती? यह प्रीति, रति, खेचरी, गंगा, उमा अथवा किन्नरी में से कौन है ? रूपवती मनोरमा में सादृश्य के कारण अनेक नारीरूपों की कल्पना की गई है किन्तु निश्चय नहीं हो पाया अतः यहां सन्देह अलंकार है।
विरोधाभास
हऊँ कुलीणु अवगणियउ उच्छलंतु अकुलीगउ वृत्तउ । 9.6.1 मैं (धूलिरज) कुलीन (पृथ्वी में लीन) होने पर अपमानित होता हूँ और ऊपर उछलते हुए-अकुलीन (पृथ्वी से असंलग्न) कहलाता हूं। यहां कुलीन होने पर भी अपमान पाना और अकुलीन होने पर उन्नत माना जाना वास्तव में विरोधी बातें हैं किन्तु 'कु' का अर्थ पृथ्वी समझ लेने पर कोई विरोध नहीं रह जाता। प्रतिशयोक्ति
पयपम्भारणमियवसुहायल चूरियसयलविसहरा। खरकण्णाणिलेण णीसेस वि प्राकंपवियसायरा ।
प्रहगंभीरबहलगलगज्जियवहिरियसयलकारगणा । 9.7.7-10 - वे (हाथी) अपने पदों के भार से वसुधातल को झुका रहे थे, पाताल के समस्त नागों को चूरित कर रहे थे, अपने कानों के तीव्र वायु वेग से समस्त समुद्रों को कंपायमान कर रहे थे, वे अत्यन्त गम्भीर थे, अपनी घोर गर्जना से समस्त वन को बहरा कर रहे थे ।
हाथियों की शक्ति का मिथ्यात्वपूर्ण वर्णन होने के कारण उक्त पद्यांश में 'प्रत्युक्ति' पथवा 'पतिशयोक्ति' प्रलंकार है। कारणमाला
जहां अगले-अगले अर्थ के प्रति पहिले-पहिले अर्थ हेतु-रूप में वर्णित हों वहां कारणमाला प्रलंकार होता है। 'सुदंसणचरिउ' में एक उदाहरण है -
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जैनविद्या
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कुलसंतइए धम्मु संपज्जइ, धम्मे पाउ खिज्जए।
पावक्खएण बोहि ताए वि पुण, सासयपूरि गमिज्जए। 5.2.1 कुलसंतति से धर्म संपादन होता है और धर्म से पाप क्षीण होता है । पापक्षय से ज्ञान और ज्ञान से फिर मोक्षरूपी शाश्वतपुरी को गमन किया जा सकता है।
सामान्यक
__ यह 'मीलित' से मिलता-जुलता अलंकार है। 'मीलित' में एक वस्तु दूसरी से सम्पर्क में आने पर रंग साम्य के कारण उसमें विलीन हो जाती है और अलग नहीं दिखायी पड़ती। 'सामान्यक' में रंग और रूप की समानता होने पर भी दो वस्तुएं अलग-अलग दीख पड़ती हैं किन्तु दोनों इतनी समान दीख पड़ती हैं कि यह मालूम करना संभव नहीं होता कि कौन क्या है ? 'सुदंसणचरिउ' में अरुण और कोमल रक्तोपल और नायिका के करतलों का अभेदत्व 'सामान्यक' का उदाहरण है -
क वि चाहह सारुणकोमलाहं, अंतरु रत्तुप्पलकरयलाहं । 7.14.4 . कोई अरुण और कोमल रक्तोपलों तथा अपने करतलों में भेद जानना चाहती थी। मानवीकरण
जब अमानव में मानव के गुणों का आरोप किया जाय तब अंग्रेजी में मान्य 'मानवीकरण' अलंकार होता है । 'सुदंसणचरिउ' में जलक्रीड़ा के समय रमणियों से विलोडित जल और युद्धभूमि के उड़ते हुए धूलि के मानवीकरण उत्तम हैं
तहुं पइसरेवि जलु पय घरेइ, पुण रमणएसे विन्भम करेइ । एं तहि जे तहिं जे लोणउ बडेइ, तिवलिउ पिहंतु थणहरे चडेइ । चुंबेवि क्यणु बालहं घरेइ, कामुयणरासु जलु अणुहरेइ । प्राइउ करेण दुरुच्छलेह, प्रासत्तिए पुणु णं वरि पडेइ । 7.17.3-6
सरोवर में कामिनी के प्रविष्ट होने पर जल उसके पैर पकड़ता, फिर उसके रमण प्रदेश में विभ्रम करता , जहां-तहां लीन होकर दलन करता तथा त्रिवली को ढ़ककर वक्षस्थल पर चढ़ता, मुख को चूमकर बाल पकड़ता । इस प्रकार जल कामी-पुरुष का अनुसरण करने लगा। कामिनी के हाथ से पाहत होने पर दूर उछलता किन्तु प्रासक्ति से पुनः ऊपर मा पड़ता।
जाम ताम सहसा धूलीरउ, उठ्ठिउ बलहं णाई विणिवार । लग्गेवि पयह णाई मण्णावइ, विहुणिउ तइ वि कडिथिइ पावइ । तहे अवगणियो वि रणउ रूसइ वच्छत्थले पेल्लंतु व दीसइ । बुण्णिवारघायहं रणं संकइ, दिठिपसरु एं मंडए ढंकइ। 9.5
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28:4
जैनविद्या
धूलिरज सहसा उठकर दोनों संन्यों को युद्ध से रोकने लगा । वह मानो उनके पैरों लगकर मनाने लगा । फटकार दिये जाने पर भी वह कटाक्षों से उनकी कटि पर स्थिति प्राप्त करता । वहां से अपमानित होने पर 'कष्ट नहीं होता और वक्षस्थल में प्रेरणा करता हुभा दिखाई देता । वह योद्धाओं के दुर्निवार घातों से शंकित हुआ उनके दृष्टि-प्रसार को बलपूर्वक ढ़क देता ।
उक्त दोनों उदाहरणों में से पहले में जल कामासक्त पुरुष और दूसरे उदाहरण धूलि युद्धोन्मादियों में समझौता कराने की चेष्टा करनेवाले बिचौलियों की चेष्टाएँ प्रदर्शित कर रहे हैं ।
लोकोक्ति
'लोकोक्ति' को अलंकार के रूप में पाश्चात्य साहित्यशास्त्र में अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है । 'सुदंसणचरिउ' में उल्लेखनीय लोकोक्तियां इस प्रकार हैं
1. गए सलिलसमूहे पालिहि वंधणु कि कुरणमि । 7.11.12
जल
के ' बह जाने पर पाल बांधने से क्या प्रयोजन ?
2. होउ सुवण्गेण वि तें पुज्जइ कण्णजुयलु जसु संगे छिज्जइ । 8.3.5
जिसके संसर्ग से कान छिदे उस सोने की दूर से ही पूजा भली ।
3. बुद्धसद्ध कि कंजिउ पूरइ । 8.8.8
'इच्छा की पूर्ति क्या कांजी से होगी ?
दूष की 4. लुरणेवि सीसु कि प्रक्वय छुम्भहि । 8.14.4
सीस काटकर उस पर अक्षत फेंकने से क्या लाभ ?
'यश देनेवाले 'सुकवित्व', 'त्याग' और 'पौरुष' इन तीनों तत्त्वों में से 'सुकवित्व' के लिए अपने को समर्थ पानेवाले 'नयनंदी' भ्रमर यश के भागी बने हैं। उनके सुलक्षण कवित्व मैं सहज प्रलंकारों से भूषित होने पर अधिक निखार और रूप बढ़ा है, ऐसा उक्त विवेचन से स्पष्ट हैं।
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सुदंसणचरिउ का छान्दस वैशिष्ट्य
-डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
अपभ्रंश के काव्यों में प्रायः छन्दों की बहुत ही चामत्कारिक योजना प्राप्त होती है, किन्तु मुनि नयनन्दी (11 वीं शती) द्वारा विरचित अपभ्रंशकाव्य 'सुदंसणचरिउ' में तो छन्दों की विपुलता और विविधता के साथ ही विस्मयकारी विचित्रता भी दृष्टिगत होती है । वैसे तो कवि ने अपनी इस काव्यरचना को 'पद्धडियाबन्ध' (1.2.3) कहा है-'णियसन्तिएं तं विरयेमि कव्वु, पद्धडियाबन्धे जं प्रउन्धु', किन्तु यह अपभ्रंश छन्द-शैली की सामान्य अभिधा प्रतीत होती है । वास्तविकता यह है कि कवि ने इस काव्य में अपनी छान्दस निपुणता प्रदर्शित करने का विशेष प्रायोगिक प्रयत्न किया है। कवि ने अनेक अपरिचित या अल्पज्ञात छन्दों का नामोल्लेख भी कर दिया है और कहीं-कहीं उनके लक्षणों को भी अंकित कर दिया है। जैसे–'ससितिलमो णाम छंदो' (1.11), 'उविंदवज्जा', 'उपजाई' (4.13.1 और 3), मंजरी, खंडिया, गाहा-'इय तिमंगियाणाम छंदो' (4.14.1 व 3) 'छंदु दिनमणि इमो' (7.18), 'पारंदियाणाम पद्धड़िया' (8,17), 'चंडवालुत्ति णामेण दंडो इमो' (8.26), 'भुजंगप्पयामो इमो णाम छंदो' (12.9) आदि ।
____ इस काव्य के छन्दों की विविधता और विचित्रता इसकी कथावस्तु के वैविध्य और वैचित्र्य को संकेतित करती है । राजा श्रेणिक (विम्बिसार) और गौतम गणधर के प्रश्नोत्तर के रूप में, बारह सन्धियों में परिबद्ध 'सुदंसणचरिउ' कथात्मक काव्य है। इसकी रचना विशेषतया जैनधर्म के लोकप्रसिद्ध पंचनमस्कार-मन्त्र के जप का माहात्म्य बताने के लिए हुई है। मूल कथा इस प्रकार है
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जनविद्या
प्राचीन अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी (वर्तमान बिहार-राज्य में स्थित प्रमण्डलीय नगर भागलपुर की उपनगरी) के सेठ ऋषभदास की सेठानी अर्हद्दासी से उत्पन्न पुत्र देखने में अतिशय सुन्दर था, इसलिए उसका नाम सुदर्शन रख दिया गया। युवावस्था में उसके मदनमनोहर रूप को देख नगर की नारियां उस पर मोहासक्त हो जाती थीं । एक दिन सुदर्शन ने अपने घनिष्ठ मित्र कपिल के साथ नगर-भ्रमण के क्रम में मनोरमा नाम की अपूर्व सुन्दरी युवती को देखा । दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गये । अन्त में, सुदर्शन और मनोरमा के माता-पिता की इच्छा से दोनों का विधिवत् विवाह कर दिया गया ।
संयोग ऐसा हुआ कि सुदर्शन के मित्र कपिल की पत्नी कपिला उस . (सुदर्शन) पर मोहित हो गई । कपिला ने छल से सुदर्शन को अपने यहां बुलाया और उससे काम-याचना की। किन्तु सुदर्शन ने नपुंसक होने का बहाना बनाकर मित्रपत्नी के कामाचार से अपना पिण्ड छुड़ाया।
एक बार वसन्त में उद्यान-यात्रा के क्रम में चम्पानरेश की पुत्रहीन रानी प्रभया ने सुदर्शन सेठ की पुत्रवती पत्नी मनोरमा को देखा तो उसे भी उस सेठ से अपने पुत्र की उत्पत्ति की कामना जाग उठी। इस कार्य के लिए कामान्ध रानी ने अपनी पण्डिता नाम की सखी से सहायला मांगी। सुदर्शन सेठ प्रत्येक अष्टमी तिथि को श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग (ध्यानविशेष) किया करता था। एक दिन जब वह ध्यानलीन था, तभी पण्डिता उसके पास पहुंची और विभिन्न कामोद्दीपक प्रलोभनों द्वारा उसने उसे ध्यानच्युत करने की चेष्टा की। किन्तु इस असत्प्रयास में जब वह असफल हो गई तब सुदर्शन को सशरीर उठाकर रानी के शयनागार में ले गई । वहां भी सुदर्शन अपने ध्यान से तिलमात्र भी विचलित नहीं हुमा । तब रानी ने एक कपटजाल रचा। उसने स्वयं अपने शरीर को क्षत-विक्षत कर शोर मचा दिया कि सेठ सुदर्शन ने उसका बलात् शीलहरण किया है। राजा धात्रीवाहन (धाड़ीवाहन) ने सेठ को प्राणदण्ड की प्राज्ञा दी। राजपुरुष सेठ सुदर्शन को पकड़कर श्मशान ले गये । सुदर्शन सेठ स्वभावतः धर्मध्यान में लीन था । वधिकों ने जब उस पर शस्त्रप्रहार किया तब व्यन्तर देव ने प्राकर शस्त्र को स्तम्भित कर दिया । इस प्रकार, धर्म के प्रभाव से सुदर्शन सेठ के चरित्र और प्राण, दोनों की रक्षा हुई।
राजा धात्रीवाहन को रानी प्रभया के कपटजाल का जब पता चला तब वह निर्वेद से भर उठा । उसने सुदर्शन सेठ की शरण में जाकर क्षमा याचना की और अपना प्राधा राज्य उसे देने का वचन दिया । सुदर्शन सेठ ने राजा को अभयदान दिया और उसके राजवैभव को ठुकराकर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। राजा के घर लौटने से पूर्व ही रानी अभया ने प्रात्मघात कर लिया और मरकर वह पाटलीतुत्र नगर में व्यन्तरी (बेताल) हो गई। रानी की सखी पण्डिता भी भागकर पाटलीपुत्र चली गई और वहाँ देवदत्ता नाम की गणिका के घर रहने लगी।
मुनि सुदर्शन भी तपोविहार करते हुए पाटलीपुत्र पहुंचे । पण्डिता से परिचय पाकर, देवदत्ता गणिका ने सुदर्शन मुनि को घर में ले जाकर बन्द कर दिया और अपनी उद्दीपक कामचेष्टाओं से मुनि के व्रत भ्रष्ट करने के अनेक उपाय किये । अन्त में, निराश होकर गणिका
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जनविद्या
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ने उन्हें ले जाकर श्मशान में डाल दिया । वहां पूर्वभव की रानी अभया ने पूर्व द्वेषवश व्यन्तरी के रूप में उपस्थित होकर मुनि सुदर्शन के चारों ओर घोर उपसर्ग (विघ्न) करना प्रारम्भ किया । अन्त में वह पराजित होकर भाग गई । सुदर्शन मुनि ने अपने ध्यान-तप के बल से चार घाति कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। यह सब चमत्कार सुदर्शन मुनि द्वारा पंचनमस्कार-मन्त्र के ध्यानपूर्वक जप करने के प्रभाव से ही हुमा । इस प्रकार, पंच-नमस्कार-मंत्र का माहात्म्य वर्णन कर गौतमस्वामी ने राजा श्रेणिक से कहा कि कोई भी नर-नारी इस मन्त्र की आराधना द्वारा सांसारिक वैभव पौर मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है ।
__ प्रस्तुत ग्रन्थ के कथानक से स्पष्ट है कि इसकी केन्द्रीय घटना एक स्त्री का पर-पुरुष पर मोहासक्त होकर उसका प्रेम प्राप्त करने के निमित्त उत्कट रूप में प्रयत्नशील होना है।
कथाकोविद मुनि नयनन्दी ने अपने कालजयी काव्य 'सुदंसणचरिउ' की इसी मूलकथा को काव्यवैभव के परिवेश में बड़ी आकर्षक रीति से पल्लवित किया है । यथाप्रसंग द्वीप, देश, नगर, राजा, राजवंभव आदि के मनोरम वर्णन, प्रकृति के मोहक चित्रण, रत्यात्मक श्रृंगार के उद्भावन, निर्वेदात्मक शान्तरस के प्रस्तवन आदि में कुशल कवि ने विषय की उपस्थापना के अनुकूल विभिन्न छन्दों की रचना की है।
कवि नयनन्दी द्वारा प्रयुक्त छन्द मुख्यतः चार प्रकार के हैं
मात्रिक, वाणिक, मात्रिक विषमवृत्त तथा वाणिक विषमवृत्त । सन्धि के क्रम से विभिन्न छन्दों की योजना इस प्रकार हैसन्धि 1-पद्धडिया, अलिल्लह (अरिल्ल, अलिल्ल, अडिल्ल), पादाकुलक, भुजंगप्रयात,
प्रमाणिका और शशितिलक । सन्धि 2-अलिल्लह, पद्धडिया, मध्यम, रसारिणी, चित्रलेखा, विद्युल्लेखा, करिमकरभुजा पौर
त्रोटक । सन्धि 3-रमणी, मन्दाक्रान्ता, शार्दूलविक्रीडित, पद्धडिया, अलिल्लह, मालिनी, मत्तमातंग,
दोधक, कामबाण और समानिका । सन्धि 4-मदनविलास, अलिल्लह, त्रोटनक, पादाकुलक, मदन, मदनावतार, प्रानन्द, इन्द्रवज्रा,
उपजाति, उपेन्द्रवजा, मंजरी, खण्डिका प्रौर गाथा। सन्धि 5-पद्धडिया, अलिल्लह, चप्पइ, मौक्तिकदाम, चन्द्रलेखा मोर वसन्तचत्वर । सन्धि 6-पद्धडिया, मधुभार, तोमरेख, अलिल्लह, हेला, मन्दचार, अमरपुरसुन्दरी, कामबाण,
चन्द्रलेखा, रत्नमाला, पादाकुलक, मदन पौर मदनावतार । सन्धि 7-वंशस्थ, अलिल्लह, मागधनकुटिका, मदनावतार, उर्वशी, कामलेखा, पद्धडिया,
शालभंजिका, विलासिनी और दिनमणि । सन्धि 8-वसन्तचत्वर, पद्धडिया, पथ्या, परपथ्या, विपुला, गाथा, दोहा, पादाकुलक,
कामावतार, चित्रलेखा, विलासिनी, सारीय, उष्णिका, चित्रा, चारुपदपंक्ति,
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जैनविद्या
भ्रमरपदा, पावली, मदनावतार, मदन, चंडपालदंडक, चन्द्रलेखा, वस्तु, पृथिवी,
रासाकुलक और मौक्तिकदाम । सन्धि 9-विलासिनी, अलिल्लह, कुसुमविलासिनी, विसिलोय, विज्जुला, पद्धडिया, सिद्धक,
मुखांगलीलाखंडक, अमरपुरसुन्दरी, चारुपदपंक्ति, मदन, मौक्तिकदाम, तोणक
और समानिका। सन्धि 10-निःश्रेणी, विलासिनी, पंचचामर, विषमवृत्त (वाणिक), सोमराजी और पद्धडिया। सन्धि 11-विषमवृत्त (वाणिक), मदिरा, पद्धडिया, अमिल्लह, स्रग्विणी, विलासिनी,
कुवलयमालिनी, शशितिलक, मन्दारदाम, मानिनी, मणिशेखर और मानन्द । सन्धि 12-पद्धडिया, अनुसारतुला, विद्युन्माला, चन्द्रलेखा, अलिल्लह, मदनावतार और
भुजंगप्रयात ।
इन छन्दों के अतिरिक्त, कडवकों के आदि-अन्त में ध्रुवक, पत्ता, द्विपदी, पारणाल (षट्पदी), रचिता मादि छन्दों का भी समीचीन संगुंफन हुआ है।
इस प्रकार, इस छोटे से काव्यग्रन्थ में छन्दों का इतना सघन प्रयोग कविमनीषी नयनन्दी की सुतीक्ष्ण छन्दःप्रतिभा का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत करता है । संस्कृत के बड़े से बड़े महाकाव्यों में भी छन्दों का इस प्रकार का प्रयोग-वैपुल्य प्रायोदुर्लभ ही है । यहां, कवि द्वारा प्रसंगानुकूल प्रयुक्त कतिपय छन्दों का सौन्दर्य-निरूपण प्रस्तुत है । ----- प्रथम सन्धि के ग्यारहवें कडवक में जिनेन्द्र-स्तुति के लिए प्रयुक्त 'शशितिलक' छन्द की भक्त्यात्मक-मनोरमता और गेयता ध्यातव्य है । इस मात्रिक/वाणिक छन्द में बीस मात्राएं रहती हैं और सभी वर्ण लघु होते हैं । मात्रा की लघुता के कारण इसमें गेयता का सहज समावेश हुमा है । यथा
जय मह कुसुमसरइसुपहरप्रवहरण । _जय जणणजरमरणपरिहरण सुह-चरण ॥
जय षणयकयसमवसरणागयजणसरण । .......... जय विमलजसपसरभुवरणयलसियकरण ॥ 1.11.5-8.
_ 'मलिल्लह' (अडिल्ल, अरिल्ल, अलिल्ल) मात्रिक छन्द की गति में अद्भुत नर्तनशीलता है । यह छन्द सोलह मात्राओं का होता है और प्रत्येक चरण के अन्त में लघु रहता है । यह प्राकृत और अपभ्रंश का अतिशय प्रिय छन्द है। कवि ने इसका प्रयोग हृदय को प्रस्पन्दित करनेवाले मगधदेश के सुन्दर सरोवरों के वर्णन-क्रम में किया है । यथा
जहिं सुसरासण सोहियविग्गह, कयसमरालीकेलिपरिग्गह । रायहंस वरकमलुक्कंठिय, विलसइं बहुविहपत्तपरिट्ठिय । 1.3.7-8
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जनविद्या
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____सुदर्शन सेठ की भावी पत्नी मनोरमा के सौन्दर्य-वर्णन के क्रम में कवि नयनन्दी ने 'त्रोटनक' छन्द का प्रयोग किया है। सोलह मात्रावाले इस छन्द के प्रत्येक चरण के अन्त में क्रमशः लघु-गुरु रहते हैं । उद्दीपक सौन्दर्य पर प्रांखें फिसल-फिसल जाती हैं । यहां देखने के भाव में प्रारोह-अवरोह का क्रम ध्यातव्य है । छन्दःशास्त्रियों की यथाप्रथित परम्परा के अनुसार लक्षण-उदाहरण एक साथ प्रस्तुत करते हुए कवि ने लिखा है
कि तार तिलोत्तम इंदपिया, कि मायबहू इह एवि थिया । कि देववरंगण किव विही, कि कित्ति प्रमी सोहग्गरिकही। 4.4.1-2 सिक्खावय चारि प्रणत्यमियं, जो जपंइ जीवहियं समियं ।
जो कम्ममहीरहमोहणउ, छंबो इह बुच्चइ तोरणउ ॥ 4.4.7-10
वध के लिए सुदर्शन सेठ को श्मशान ले जाते समय उसकी पत्नी मनोरमा के विलाप के लिए कवि नयनन्दी ने प्रसंगानुसार, लक्षणोदाहरणमूलक 'रासाकुलक' छन्द का प्रयोग किया। है। इसमें इक्कीस मात्राएं होती हैं और चरणान्त में नगण (तीन लघु) रहते हैं। विलाप या शोक की अभिव्यक्ति की मार्मिकता के लिए संस्कृत के कवि प्रायः 'वियोगिनी' छन्द का प्रयोग करते हैं । 'रासाकुलक' में रास की प्राकुलता का भाव निहित है । संगम के पूर्वानुभूत सुख का स्मरण करती हुई मनोरमा करुण स्वर में कहती है
सुमिरमि चारकवोलहि पत्तावलिलिहण, ईसि ईसि यणपेल्लण वरकुंतलगहणु । तो वि फुट्ट महारउ हियाउ वज्जमड,
बुत छंदु सुपसिख इय रासाउलउ । 8.41.17-20 संस्कृत के विद्वान् कवि रावण ने 'शिवताण्डव स्तोत्र' में 'पंचचामर' वार्णिक छन्द का प्रयोग किया है तो अपभ्रंश के रससिद्ध कवि नयनन्दी ने विमलवाहन मुनि के वर्णन में लक्षणो. दाहरणमूलक 'पंचचामर' छन्द की योजना की है क्योंकि इस छन्द में वर्ण्य माश्रय के वर्चस्वी व्यक्तित्व का द्योतन होता है । इस छन्द में सोलह वर्ण होते हैं अर्थात् प्रारम्भ में जगण (लघु, गुरु, लघु), फिर रगण (गुरु, लघु, गुरु), पुनः लगण, रगण और जगण तथा अन्त में गुरु रहता है । यथा
महाकसाय गोकसाय भीमसत्ततोरणो । अहिंसमग्गु पीस गग्गु कम्मबंधसारणो ॥ कुतित्पपंगु मुक्कसंगु तोसियाणरामरो ।
लगुत्तिसोलअक्सरेहिं छंदु पंचचामरो ॥ 10.3.18-21 कठिन वाणिक वृत्तों में अन्यतम 'दण्डक' छन्द की प्रायः प्रयोगविरलता देखी जाती है। किन्तु, अपभ्रंश के कवि नयनन्दी ने 'चण्डपाल-गण्डक' छन्द का प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि छन्दःशास्त्र उनका वशंवद था। बत्तीस वर्णों (प्रत्येक चरण में) के इस छन्द में क्रमशः नगण (तीन लघु), सगण (लघु, लघु, गुरु), पाठ बार यगण (लघु, गुरु, गुरु) और
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अन्त में लघु-गुरु रहते है । इस लम्बे छन्द से हृदय में निहित जटिलता का संकेत होता है । स्वैरिणी रानी प्रभया ने सुदर्शन सेठ से अपना काम प्रस्ताव इसी छन्द में किया है
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सुहय जइ इच्छसे संखकुंतेंडुणीहा रहा राभहीरंगगंगात रंगावलीपंडरं । पढममितिचारपंचछत्तट्ट प्रणष्ण- माणिक्क भूमिहि भाभा सियासेसविग्गंतरं ॥ विविकुसुमोहक जक्कसंमिस्सकत्थूरिकप्पूरकस्सोरयामोयधावंतइंदिविरं । चलियंतियपायमंजीरभंकारसद्देण उम्मत्तणच्चतमोरेहि उन्भासियं मंदिरं ।। 8.26
राक्षसों के साथ राजा धात्रीवाहन के भयंकर युद्ध का वर्णन कवि ने 'तोलक' छन्द में किया है । परुषायुक्त इस वार्णिक वृत्त में युद्धोचित उत्साह का प्रवाह निहित है, इसलिए युद्ध की विकट स्थिति के चित्रण के लिए यह सातिशय उपयुक्त है। इस छन्द में क्रमश: रगण ( गुरु, लघु, गुरु), जगरण (लघु, गुरु, लघु), रगरण, जगण और रगण की योजना रहती है।
यथा
रक्खसेण पत्थरालु मुक्कु सेलु जक्लणे । वाइवाहणेण चंडु वज्जदंड तक्खणे ॥ रक्खसे मुक्कु हंतु चंदु विष्फुरंतो । धाइवाहणेण राहु तप्यहा हरतो ॥ 9.15.4
कहना न होगा कि मैंने इस निबन्ध में छन्दः शास्त्र के पारगामी कवि नययन्दी की छान्दस विशिष्टता का दिग्दर्शन मात्र उपस्थापित किया है । छन्दोयोजना की दृष्टि से प्रतीव रमणीय इस प्रपभ्रंश - काव्य के छन्दः शास्त्रीय अध्ययन के लिए स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध प्रपेक्षित है । कवि के शब्दों में यह सचमुच ही, अपूर्व काव्य है ।
1. सुदंसणचरिउ, सम्पादक - डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक - प्राकृत जैन, शास्त्र और महिसा शोध संस्थान, वैशाली, बिहार 1970 ।
2 सम्प्रति, पाटलिपुत्र (पटना) में सुदर्शन मुनि का यह स्थान गुलजार बाग रेलवे स्टेशन से उत्तर में प्रवस्थित है जो 'कमलदह' के नाम से प्रसिद्ध है - ० ।
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सुदंसणचरिउ प्रयोजन की दृष्टि से
... -श्री श्रीयांशकुमार सिंघई
सुदंसणचरिउ स्पष्टतः एक चरितकाव्य है जिसमें मुनि नयनन्दी ने अपने चरित-नायक सुदर्शन के व्यक्तित्व को अपने प्राभ्युदयिक प्रयोजन के मौचित्य में ही स्वीकार किया है। इसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि इसमें चरितनायक या नायिका जैसे किसी पात्र का सुस्पष्ट प्रभावोत्पादक नख-शिख वर्णन नहीं है और न ही यहां शृंगार-प्रमुख भोग-संभोग की दृष्टि कोई महत्त्व पा सकी है । सुदर्शन (3.10-11), मनोरमा (4.2-3) और अभया. (7.9,7.19, 8.20-21) के शरीर सौंदर्य का यत्किचित् सोपम समावेश इसमें अवश्य है पर वह भी प्रोक्त का विसंवादी नहीं है । धाईवाहन राजा की महारानी अभया के शयनागार में पंडिता द्वारा जबरदस्ती लाये गये सामायिकलीन सुदर्शन के प्रति कामासक्त प्रभया की लुभाऊ कामचेष्टायें (828) अवश्य इसका अपवाद हो सकती थीं यदि उनका तालमेल उभयव्यापारसम्पन्न हो जाता किन्तु ढ़प्रतिज्ञ सुदर्शन की निर्वेदनिमग्नता से वे भैस के सामने बीन बजाने जैसी ही साबित हुई हैं। इसी प्रकार बसन्ताग़मन को भी कवि शृंगार के रंग में रंगता अवश्य है पर उसका जोर भी नायकों को अपने व्रताचरण से डिगा नहीं पाता और न ही कामपीड़ित मलनामों की चतुराई कारगर सिद्ध होती है । पन्ततः सारा प्रसंग रागसम्पृक्त श्रृंगार की अपेक्षा निर्वेद-निर्मित व्रताचरण की ही महत्ता ख्यापित करता है ।
___ साहित्यकार प्रायः अपने धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक विचारों को प्रचारित करने के प्रयोजन से रचनाकर्म में प्रवृत्त होता है, भले ही रचना के स्थूल कलेवर में प्रोक्त प्रयोजन का भाव न होता हो पर सूक्ष्मता में इसके होने का प्रमाण निःसन्देह
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ही है। सुदंसरणचरिउ की रचना करने में मुनि नयनन्दी का प्रयोजन है - 'जितेन्द्रिय व्यक्तित्वों के प्रति जनसाधारण में प्रास्था पैदा करने के साथ-साथ उन्हें निर्वेदनिमग्न स्वपुरुषार्थं द्वारा जितेन्द्रिय बनने की प्रेरणा देना ।' तभी तो वह सर्वविध जितेन्द्रिय व्यक्तियों के समाहारभूत मूलमंत्र णमोकार को अपनी रचना का सहारा बनाते हैं तथा उसकी लौकिक, परम-लौकिक, पारलौकिक और प्रलौकिक महिमा के बखान में अपनी बुद्धि नियोजित कर काव्यसृष्टि में सफलता भर्जित करते हैं ।
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afa ने अपने आपको महान् कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा में हुए अंगों के ज्ञाता व प्रशेष ग्रन्थों के पारगामी विद्वान् महातपस्वी मुनि माणिक्यनंदि के अनिन्द्य व जगविख्यात प्रथम शिष्य के रूप में बताया है (12.1 ) । इससे स्पष्ट होता है कि कवि णमोकार मंत्र के अन्त्यपाद " णमो लोए सव्व साहूणं" में समाविष्ट एक साधु है । अतः उसका प्रयोजन भी साधुत्व की मर्यादा के बाहर नहीं होना चाहिये ।
साधारणतया यह प्रतिपत्ति होती है कि मुनि नयनन्दी ने णमोकार मंत्र को प्रत्यधिक ब्यापक बनाने के प्रयोजन से ही सुदंसणचरिउ की रचना की होगी किन्तु म्रपने मेधामणिफलक कवि के व्यक्तित्व को प्रतिविम्बित करने पर कवि का प्रयोजन इतना सा ही मालूम नहीं पड़ता अपितु उसके विविध प्रायाम अपने गूढ़ गंभीर प्रयोजन को लिये हुए प्रतीत होते हैं ।
वस्तुतः सुख पाना व दुःख मिटाना प्रत्येक प्राणी का प्रयोजन होता है जिसकी पूर्ति हेतु ही वह प्रयत्नशील रहता है किन्तु सुख और सुखाभास का अंतर समझे बिना बालू में से तेल निकालने जैसा प्रयत्न ही करता रहता है । सदसद्विवेक की चाह के बिना जागतिक भ्रमणात्रों में उलझी उसकी मन्द या प्रखर बुद्धि और कर भी क्या सकती है ? फलतः करुणाबुद्धिवश जितेन्द्रिय व्यक्तित्वों का एक प्रयोजन यह भी हो जाता है कि वे सुखाभिलाषी किन्तु सुखाभासी विनम्रजनों को सच्चे सुख का स्वरूप बताकर उसे प्राप्त करने का उपाय भी बतायें । वस्तुतः उनका यह प्रयोजन उपचार मात्र है, यथार्थं नहीं । यथार्थतः तो अपने में अपनी सुखावाप्ति व दुःख निवृत्ति ही उनका प्रयोजन है। उनकी बतावन या उपदेशवृत्ति उपचार भी इसलिए है कि इसके बोध से भव्यजन स्वयमेव सहज ही अपने प्रयोजन को पूरा करने में समर्थ हो जाते हैं । उपचरित उपचार की परम्परा में उनकी यह बतावन या उपदेश-वृत्ति समाज, संस्कृति और भाषा के परिवेश में घुल-मिल जाती है अर्थात् उनसे प्रभावित व संस्कारित होती है । यदि ऐसा न हो तो उसे कोई सुने या समझे ही नहीं । अनादि काल से रूढ़िवादी व दुरभिप्रायग्रस्त जीव को उसकी हठ छुड़ाने के लिए यही एक उपाय है अतः उसे उसकी संस्कृति और भाषा में ही रचा पचा कर अपने बतावनवाले प्रयोजन को समझाने का रास्ता प्रशस्त हो जाता है । प्रपने प्रयोजन के प्रति सचेत मुनि नयनन्दी में भी करुणबुद्धिवश उपचरित अर्थात् प्रेरणा देने-रूप प्रयोजन का प्रादुर्भाव हुआ होगा जो णमोकार मंत्र के ब्याज से सुदंसणचरिउ में प्रभिव्यक्त हुआ है। सुदंसणचरिउ के आलोक में हम इस प्रयोजन को निम्न चार रूपों में वर्गीकृत करना चाहेंगे
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1. लौकिक प्रयोजन, 2. परमलौकिक प्रयोजन, 3. पारलौकिक प्रयोजन और 4 अलौकिक प्रयोजन ।
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लौकिक प्रयोजन
भगवद्गुण-संस्तवन, धर्म एवं अभ्युदय से जिनका सीधा संबंध नहीं है और जो केवल for ज्ञान व व्यवहार तक ही सीमित रह गई हैं ऐसी प्रेरणायें व शिक्षायें प्रस्फुटित करना कवि को इष्ट रहा है जिसे हम यहां कवि का लौकिक प्रयोजन कह सकते हैं। सुदंसणचरिउ में यह पर्याप्त रूप से व्याप्त है । निदर्शनार्थ कुछ बानगी प्रस्तुत है
1. युवा सुदर्शन अपने मित्र कपिल के साथ जब बाजार से गुजरता है तो एक सुकुमारशरीर युवती को देखकर ( 41 ) मोहित हो जाता है और कपिल से उसके बारे में पूछता है । कपिल सगोत्र उसका नाम बता देता है (4.4), साथ ही सुदर्शन को शिक्षा देता है कि स्त्री का अभिप्राय दुर्लक्ष्य होता है, उसे समझकर ही अनुराग करना चाहिये (4.5) । एतदर्थं वह विटगुरु वात्स्यायन विरचित कामशास्त्र के अनुसार जाति, अंश, सत्व, देश, प्रकृति, भाव व इंगित आदि विशेषों से स्त्रियों के लक्षण समझाता है। नारी की प्रकृति, भाव, दृष्टियों प्रौर संकीर्ण अशुद्ध विचारधारा के साथ त्याज्य स्त्रियों के लक्षण स्पष्ट कर देता है तथा सौभाग्यशाली स्त्रियों का बोध कराकर स्त्रियों के शुभ और अशुभ लक्षण चिह्नों का ज्ञान भी कराता है (4.5-14)।
यहां कामशास्त्रानुरूप स्त्री-विषयक विवेचन प्रस्तुत करना कवि को प्रभीष्ट है क्योंकि वह अपने चरितनायक को एतद्विषयक ज्ञान से परिपक्व बनाना चाहता है ताकि वह भागे आकस्मिक स्त्रीसंसर्ग के प्रसंग उपस्थित होने पर अपनी सुरक्षा कर सके । संभव है इसी ज्ञान के बल पर सुदर्शन कपिला, महारानी अभया और गरिएका देवदत्ता के दुरभिप्रायों को प्रतिशीघ्र समझ सका हो और प्रपने व्रताचरण या शील की रक्षा में ग्रडिंग व सफल रह पाया हो ।
2. सुदर्शन मौर मनोरमा की कामसंतप्त दशा का वर्णन करने के पीछे कवि का प्रयोजन इस लौकिक तथ्य को उजागर करना रहा है - स्नेह कभी एकाश्रित नहीं होता, यदि घटित भी हो जाय तो स्थिर नहीं होता जैसे छिद्रयुक्त करतल में पानी नहीं ठहरता (5.1) 1
3. छल से बुलाये गये सुदर्शन के साथ जब उसके मित्र की पत्नी कपिला कामपीड़ित हो रतिसुख की वांछा करती है तो सुदर्शन चतुराई से अपने प्रापको नपुंसक बता अपने शील को साफ-पाक बचा लेता है (7.4)। 'मित्रादिक की पत्नियाँ या परायी स्त्रियां मां-बहन आदि के समान पूज्य हैं और पुरुष उनके सामने यथार्थतः नपुंसक ही है ।' यहां इस तथ्य को उजागर करने का प्रयोजन यह है कि पुरुष को भी अपने शील की रक्षा करनी चाहिये ।
4. सुदर्शन पर कामासक्त प्रभया जब अपनी अनुचरी पंडिता को अपना दुरभिप्राय बताती है तो पंडिता पतिव्रता स्त्री के अनुरूप ही लोक में अनिन्द्य प्राचरण करने का उपदेश देती है ( 8.2-7) जो शील के महत्त्व को ख्यापन करने व अस्थिर चित्त को सुस्थिर करने के प्रयोजन से प्रतिशय प्रेरणादायक व महनीय है।
5. अपने व्रताचरण के पालन में दृढनिश्चयी सेठ सुदर्शन प्रष्टमी के दिन प्रारंभपरिग्रह का परित्याग कर शुद्धमन हो श्मशान की ओर जा रहा था तो अपशकुन हुए ( 8.15 ) । कवि के अनुसार ये अपशकुन भावी उपसर्ग के सूचक हैं। इस प्रकार निमित्त - नैमित्तिक संबंधों
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पर माधारित ज्योतिष-विषयक ज्ञान को विश्वसनीय बतलाना कवि का प्रयोजन है और 'अपशकुन के भय से व्रत नहीं छोड़ना चाहिये' यह अनुकरणीय है।
6. पंडिता द्वारा जबरदस्ती रानी के शयनागार में लाये गये सुदर्शन का चिन्तन लौकिक सदाचार का प्रेरक है-'क्या मैं वह प्रेमकांड करू जो पंडिता बता रही है, हाय-हाय यह तो बड़ा निन्दनीय है, करना तो दूर इसका विचार भी बुरा है । जो कोई काम से खंडित नहीं हुमा वही सराहनीय पंडित है । सत्पुरुष का मन गंभीर होता है. वह विपत्ति में भी कायर नहीं बनता । क्या सुरों द्वारा मंथन किये जाने पर सागर अपनी मर्यादा छोड़ देता है (8.23)।'
7. सेठ सुदर्शन मुनि समाधिगुप्त से धर्मोपदेश सुन विरक्त हो जाता है मौर मुनिदीक्षा स्वीकार करने के पूर्व अपने पुत्र को लोकव्यवहार और राजकीय व्यवहार की शिक्षा (6 18-19) देना नहीं भूलता । 'दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व इस लौकिक कर्तव्य का निर्वाह भी होना चाहिये' यह प्रेरणा देना यहां कवि का प्रयोजन है।
.. 8. 'अपकार करनेवाले के प्रति भी उपकार करे (9.17), कुलपुत्रियों के लिए संसार में एक अपना पति ही सेवन करने योग्य है (8.6), जीवन पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर होता है (9.20) इत्यादि वाक्यों का समावेश मात्र लौकिक प्रयोजन के ही निदर्शन हैं।
___ इनके अतिरिक्त कवि का स्वयं का भी अपना एक लौकिक प्रयोजन है-यश-लाभ के लिए काव्य की रचना करना । वे स्वयं लिखते हैं-सुकवित्व, त्याग और पौरुष द्वारा ही भुवन में यश कमाया जाता है । सकवित्व में तो मैं अप्रवीण हूं, धनहीन होने से त्याग भी क्या कर सकता हूं तथा सुभटत्व तो दूर से ही निषिद्ध है । इस प्रकार साधनहीन होते हुए भी मुझे यश का लोभ है अतः शक्ति अनुसार पद्धड़िया छन्द में अपूर्व काव्य की रचना करता हूं (1.1-2) । परमलौकिक प्रयोजन
भगवद्भजन करना, व्रताचरण में लगना, मंत्रादि का स्मरण-उच्चारण प्रादि करना तथा वीतरागी उपादानों में श्रद्धामूलक विश्वास पैदा करना धर्माभिव्यंजन के लिए प्रथम भूमिका में एक प्रावश्यक पात्रता है । यह पात्रता अपने पाठक या श्रोता में पैदा करने के उद्देश्य से कवि जो प्रेरणायें प्रस्तुत करता है वे परमलौकिक प्रयोजन के अन्तर्गत निश्चित होती हैं । वस्तुतः ऐसी प्रेरणायें लौकिकता की ही पोषक हैं फिर भी भोगविलासितावाली लोकरुचि से हटकर धर्म की जिज्ञासा को जागृत करना इनका प्रयोजन होता है, यही इनका परमत्व है । सुदंसणचरिउ की रचना का स्थूल प्रयोजन भी यही है। .... णमोकार मंत्र के प्रति जनसाधारण में प्रास्था उत्पन्न करने व उसकी प्रभावना के उद्देश्य से कवि अपने काव्य का मारंभ णमोकार मंत्र से करता है तथा कहता है कि इस पंचणमोकार को पाकर एक ग्वाला भी सुदर्शन होकर मोक्ष गया (1.1)। विचारणीय है कि णमोकार मंत्र के प्रभाव से मोक्ष होता है क्या? यदि होता है तो हम जैसे लोगों को जो प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक णमोकार मंत्र का जाप-स्मरण-उच्चारण प्रादि करते हैं, मोक्ष क्यों नहीं हो जाता और यदि नहीं होता है तो कवि का उपर्युक्त कपन झूठा क्यों नहीं है ?
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बनविधा
लमोकार मंत्र के प्रति अपार श्रद्धा रखते हुए भी हमारा मोक्ष नहीं होता तथा णमोकार मंत्र के प्रति प्रास्थावान् होकर ग्वाला सुदर्शन बनकर मोक्ष गया है। ये दोनों ही कथन शत: प्रतिशत सही हैं।
हम णमोकार मंत्र के प्रति केवल बुद्धिगत श्रद्धा रखते हैं, मागे नहीं बढ़ते, ग्वाला इससे प्रागे बढ़ा । मरणकाल आने पर वह निदान करता है कि मैंने णमोकार मंत्र का प्राज तक जो भी श्रद्धासहित ध्यान किया है उसका यदि कुछ फल है तो मैं इसी वणिक् कुल में पैदा होऊं ताकि अपने पापों को नष्ट करके बहुसुखस्वरूप मोक्ष को पा सकू (2.14)। वह वणिक कुल में इसलिए पैदा होना चाहता है क्योंकि वह यह मानता है कि यह मंत्र इसी कुल की माम्नाय का है।
यहां दो विशेषतायें सामने पाती हैं-(1) वह णमोकार मंत्र का विवेकपूर्वक ध्यान करता था और (2) णमोकार मंत्र के प्रति आस्था रखकर स्वयं पाप-मल को नष्ट करने का पुरुषार्थ करना चाहता था। वह यह कदापि नहीं मानता था कि णमोकार मंत्र के प्रभाव से ही मेरा मोक्ष हो जायगा । यदि मानता तो वैसा निदान क्यों बांधता, सीधा मोक्ष ही क्यों न मांग लेता ? .
स्पष्ट है कि ग्वाले ने णमोकार मंत्र के अवलम्बन से अपनी प्रास्था को द्विगुणित किया, उसे वीतरागता को समर्पित किया और उससे प्रेरणा लेकर अपने वीतरागी स्वभाव तक पहुंचने का स्वपुरुषार्थ किया जिससे वह सुदर्शन बनकर मोक्ष चला गया। हम ऐसा नहीं करते प्रतः हमारा मोक्ष नहीं होता । णमोकार मन्त्र के प्रभाव से ग्वाले को मोक्ष हुआ उसमें उसका जो अपेक्षित स्वपुरुषार्थ गर्भित है वही मोक्ष का अविनाभावी कारण है, यह जानना
चाहिये।
इस प्रकार ग्वाले से सुदर्शन और फिर मोक्ष तक की यात्रा को गभित करनेवाली पंचणमोकार-मन्त्र-प्रभावना कथा सिद्ध करती है कि णमोकार मन्त्र का जाप-स्मरण प्रादि म्यक्ति में धर्म की जिज्ञासा को जगाते हैं। कवि का परमलौकिक प्रयोजन भी यही है कि जिसके अनुरूप अर्थात् पाठकों में धर्म प्रकट करने की पात्रता पैदा करने के लिए उसने कई प्रसंगों में कई प्रेरणायें दी हैं । कुछ का उल्लेख इस प्रकार है
1. जिनेन्द्रदेव जो उक्त प्रयोजन की पूर्ति में प्रादर्श हैं, के प्रति प्रास्था पैदा करके कवि राजा श्रेणिक के माध्यम से सद्विचार प्रकट करता है-मनुष्यत्व का फल धर्म की विशेषता है । मित्रता का फल हितमित उपदेश है । वैभव का फल दीन-दुःखियों को प्राश्वासन देना है । तर्क का फल सुन्दर सुसंस्कृत भाषण करना है। शूरवीरता का फल भीषण रण मांडना है । तपस्या का फल इन्द्रिय-दमन है । सम्यक्त्व का फल कुगति का विध्वंस करना है। सज्जनता का फल दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना है । बुद्धिमत्ता का फल पाप की निवृत्ति तपा मोक्ष का फल संसारनिवृत्ति है । जीभ का फल प्रसत्य की निन्दा करना है, सुकवित्व का मान जिनेन्द्र भगवान् का गुणगान करना है। प्रेम का फल सद्भाव प्रकट करना व अच्छी प्रमुता का फल.प्राज्ञापालन है । ज्ञान का फल गुरुजनों के प्रति विनय प्रकाशित करना तथा नेत्रों का फल जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का दर्शन करना है (1.10)। ....
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2. धर्म को प्रकट करने की पात्रतावाले श्रेसठ शलाका-पुरुषों के जीवन-चरित्र जानने की इच्छा पैदा कर देता है (1.12) ।।
3. ऋषभदास द्वारा जैनेश्वरी दीक्षा लेने के समय जब सुदर्शन उन से कहता है कि मैं भी दीक्षा लूंगा तो वह उसे समझाता है-'तू अभी जिनभवन निर्माण करा तथा जिनाभिषेक, जिनपूजा व जिनस्तुति कर, अपरिमित पौर सुपवित्र मुनिदान दे तथा जिनवरों ने जो कुछ जिनशासन में बताया है, उपदेश दिया है उसके अनुसार कर' (6.20)। .
___4. धर्माभिव्यक्ति की पात्रता के लिए दुराचरण या दुर्व्यसनों का त्याग अत्यन्त मावश्यक है । कवि ने जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार खेलना, चोरी करना और परदारगमन इन सातों ही दुर्व्यसनों को युक्तिपूर्वक अहितकर बताया है तथा उनके दुष्परिणामों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं (2.10-11)।
5. व्रताचरण में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देने के लिए कवि ने मुनि समाधिगुप्त से गृहस्थधर्म का उपदेश दिलवाया है जिसमें मद्य-मांस-मधु और पांच उदुम्बर फलों के त्यागरूप श्रावक के आठ मूल-गुणों का, पांच अणुव्रतों, तीन गुणवतों तथा चार शिक्षाव्रतों का सुस्पष्ट प्ररूपण किया है (6.2-8) । उसके अनुसार रात्रिभोजन-त्याग के बिना व्रत शोभा नहीं देते। खलजन के प्रति किये गये उपकार क्या हित करेंगे ? जिस प्रकार पर्वतों में मंदर पर्वत श्रेष्ठ है उसी प्रकार व्रतों में रात्रिभोजन त्याग सारभूत है (6.9) । रात्रिभोजन से तप का महाफल भी नष्ट हो जाता है (6.10) । रात्रिभोजन के कुपरिणाम से मनुष्य पुण्यहीन हो जाता है, अहर्निश उद्यम करके अपने को संतापित करता है तो भी अणुमात्र सुख नहीं पाता (6.11)।
__रात्रिभोजन के फल से ही मनुष्य लक्ष्मीविहीन, दरिद्री होकर भिक्षाटन करते व नौकरी-चाकरी करते हुए भटकता रहता है (6.12)। सुन्दरशरीर, धन-सक्ष्मी आदि का मिलना व विमलयश मादि की वृद्धि का होना रात्रिभोजन त्याग का ही फल है (6.13)। पता नहीं क्यों कवि रात्रिभोजन त्याग के सुफल (6-14) तथा रात्रिभोजन के दुष्परिणाम (6.15) स्त्रियों को अलग से बताना चाहता है जबकि उसके प्रस्तुतिकरण में कोई प्रतिरिक्त वैशिष्ट्य भी नहीं है।
6. इन्द्रियों के वशीभूत महापुरुषों या देवों की दुर्दशा (10.8) व इन्द्रिय लम्पटता के हानिकारक परिणामों (10.7) को प्रदर्शित कर इन्द्रियविजय की ही महत्ता (10.9) ख्यापित की है। नरजन्म में भी यदि इन्द्रियविजयी होकर धर्म न किया जावे तो घर पाती हई शाश्वत सुखरूपी लक्ष्मी को घर से बाहर निकाल देने जैसा है (10.10) । कवि यह भी मानता है कि सर्पादिक विषले प्राणी तो इसी एक जन्म में असह्य दुःख देते हैं किन्तु विषय तो करोड़ों जन्म-जन्मांतरों में दुःख उत्पन्न करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है (2.10) ।
7. व्रतदिवस अष्टमी को प्रारंभ-परिग्रह से मुक्त सेठ सुदर्शन कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था। वहां से पंडिता द्वारा जबरदस्ती अभया के शयानागार में लाया गया (8.22-25; 8.29) तब तथा मुनिदशा में व्यंतरी द्वारा उपसर्ग किये जाने पर (11.15-16) कवि ने अपने नायक को अडिग व अस्खलित बताया है। इस प्रकार व्रतपालन में दृढ़प्रतिज्ञ
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रहने की प्रेरणा दी है। कठोर मुनिधर्म का दिग्दर्शन करके उच्छृंखलता व प्रमाद को व्रताचरण में सर्वथा निषेध्य बताया है तथा महान् उपसर्गों के बीच सुदर्शन मुनि की स्थिरता (11.17) से व्रत की गरिमा को सर्वोत्कृष्ट सिद्ध कर दिया है । ऐसे ही व्रतमाहात्म्य से विपत्ति के समय व उपसर्गकाल में व्यंतर श्रादि देव रक्षा भी करते हैं ( 9.18 ) । वह कहता है— 'अपने मन में राग और द्वेष का त्याग करके लेशमात्र भी व्रतों का पालन किया जावे तो देवों प्रौर मनुष्यों की पूजा प्राप्त करना तो प्राश्चर्य ही क्या निर्दोष और पूज्य मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है । उत्तम सम्यग्दर्शनरूपी प्राभूषण को धारण करनेवाले भव्यजनों द्वारा जिनेन्द्र का स्मरण करने पर समस्त पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्य के उदित होने पर अन्धकार ( 8.43 ) ।
पात्रता पैदा करने के इस परमलौकिक प्रयोजन के निर्वाह में कवि पर्याप्त सफल साबित हुआ है । आपेक्षिक मर्यादाओं में प्रर्थप्रतिपत्ति करने पर यहां न स्खलन है और न ही संद्धांतिक विवाद |
पारलौकिक प्रयोजन
पुण्याचरण या पापाचरण के फलस्वरूप मरणोपरांत अर्थात् अगले जन्म में जीव स्वर्ग-नरक प्रादि प्राप्त करता है ऐसे प्रसंगों को उपस्थित करना ही कवि के लिए पारलौकिक प्रयोजन कहलाता है। सुदंसणचरिउ में इसका निर्वाह प्रत्यधिक उपयोगिता के प्राधार पर नहीं हुआ है । परलोक से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ प्रसंग अवश्य अवतरित हुए हैं । जैसे
1. जो कोई मनोहर जिनमन्दिर निर्माण कराते हैं वे अन्य जन्म में चिरकाल तक स्वर्ग में रमण करते हैं । ( 6.20 ) । यहां जिनमन्दिर निर्माण का पुण्यफल परलोक में स्वर्ग प्राप्ति प्रतिपादित हुआ है ।
2. व्रतमहिमा को भी परलोक से जोड़ा गया है। जैसे- श्रावक व्रतों का पालन करके मनुष्य स्वर्ग जाता है और वहां हारों व मणियों से भूषित देवियों से रमण करता हुआ चिरकाल तक रहता है ( 6.8) ।
·
3. णमोकार मंत्र के फल से जिनवर होते हैं, चौदह रत्नों और नव-निधियों से समृद्ध चक्रवर्ती होते हैं, अपने प्रतिपक्षियों को जीतनेवाले महापराक्रमी मल्ल बलदेव श्रौरबासुदेव होते है, महान् गुणों और ऋद्धियों को धारण करनेवाले सोलह स्वर्गों में देव होते हैं तथा नौ अनुदिश विमानों में एवं पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले महान् जीव होते हैं (2.9) 1
4. सुभग ग्वाला भी अगले जन्म प्रर्थात् परलोक में णमोकार मंत्र के प्रभाव से afra कुल में पैदा होकर पापों का नाश करना चाहता है (2.14 ) ।
5. वणिक् ऋषभदास मुनि बनकर देवलोक को गये ( 6.20 ) ।
6. प्रभया रानी मरकर व्यंतरी हुई जिसने मुनि सुदर्शन पर उपसर्ग किया ।. मौकिक प्रयोजन
लौकिक व्यवहार एवं धर्म-विषयक पात्रता प्रजित करने की प्रेरणा देने के प्रतिरिक्त कवि विशुद्ध धर्म को अपनाने के लिए कुछ ऐसी प्रेरणायें व शिक्षायें अपने पाठकों को देना
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चाहता है जिनको हृदयंगम करने से धर्माचरण के लिए उनका पुरुषार्थ प्रबल हो जाता है और वे अपने विवेकपरक पाचरण का बोध कर अनाकुलता की ओर बढ़ने की प्रेरणा पा लेते हैं, समस्यानों से मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा देनेवाले राधान्तों का परिबोध कराना ही यहां कवि का अलौकिक प्रयोजन है, तभी तो उसे अनाकुलतापरक चिन्तन और तदनुरूप प्राचरण का उद्योत करना ही अभीष्ट है।
णमोकार मंत्र की प्रभावना या माहात्म्य प्रदर्शित करने के सहारे से ही सही सुदंसणचरिउ का सम्पूर्ण प्रमेय साधक की स्वपुरुषार्थनिष्ठ साधना का परिदृश्य उपस्थित करता है । निष्ठा, बोध और प्रवृत्तिमूलक व्यापार से सम्पन्न प्रात्मिक क्रियायें अन्तरंग साधना तथा वतादि के परिपालन और ध्यानादि के नियोजन हेतु लोक विरुद्ध-व्यापार-सम्पन्न शारीरिक, वैचारिक क्रियायें बहिरंग साधना के अन्तर्गत पाती हैं । अतंरंग साधना लोकव्यवहार निरपेक्ष होने से लोकरुचिसम्पन्न लौकिकजनों के दृष्टिगोचर नहीं हो पाती अतः प्रलौकिक है किन्तु बाह्य साधना लोकव्यवहारसापेक्ष व लौकिकजनगम्य होती है । अन्तरंग साधना साधना का सूक्ष्म रूप है तो बहिरंग साधना भी साधना का स्थूल रूप है । दोनों का साध्य एक मनाकुलता ही है । लौकिक या शारीरिक क्रियामों पर आधारित बाह्य साधना भी निस्सन्देह अन्तरंगस्थ अनाकुलता की रक्षक, परिचायक और उपबृहक होती है। यदि साधना का बाह्याचार माकुलतावर्धक हो तो वह साधना ही नहीं है।
मसानिया वैराग्य और यशस्कामी शास्त्राभ्यास परमलौकिक प्रयोजन को तो पुष्ट कर सकते हैं, अलौकिक को नहीं। तदर्थ तो भेदविज्ञान की कला से जागृत वैराग्य और तत्त्वबोध की बढ़ता प्रयोजनीय होती है । वह वैराग्य और तत्त्वज्ञान ही क्या जो अनाकुल न हो । भेदविज्ञान की कथा से जागृत वैराग्य और तत्त्वज्ञान प्रनाकुल ही होता है । सुदंसणचरिउ अनाकुल वैराग्य और तत्त्वज्ञान के संस्कार देने में चरितकाव्य की हैसियत से अपनी पर्याप्त उपयोगिता रखता है। जैसे
मुनिश्री समाधिगुप्त वणिक् ऋषभदास को गृहस्थधर्म का उपदेश देते हैं । इस प्रसंग में उनका व्रताचरण का उपदेश तत्त्वज्ञान के निर्देशपूर्वक होता है । कवि प्रथमतः माप्त, प्रागम पौर तत्त्वों में श्रद्धान स्वरूप सम्यक्त्व को प्रतिपादित करता है। उसके अनुसार मिथ्यात्व पाप है और उससे कहीं भी शांति नहीं मिल सकती । सम्यक्त्व के बिना घोर और प्रबल तप संचय करने से शरीर का शोषण-मात्र होता है। बहुत कहने से क्या? वह तप वैसा ही प्रकृतार्य जाता है जैसे दुर्जन के प्रति किया गया उपकार । जिस प्रकार वृक्ष में मूल तथा शरीर में सिर सारभूत अंग है उसी प्रकार व्रतों में सारभूत सम्यक्त्व ही है (6.1)।
यहाँ कवि ने व्रताचरण के संबंध में लोकव्याप्त प्रज्ञानांधकार व अंधविश्वास का जिन स्पष्ट शब्दों में खंडन किया है वह मनाकुल मानन्द की अवाप्ति में अतिशय प्रयोजनीय है। मिथ्यात्व ही सर्वशान्ति का मंजक हैं, इस सार्थकता की रष्टि से तात्त्विक तो है ही।
इसी प्रकार कवि श्रावक के मूलगुणों, अणुव्रतों, गुणवतों और शिक्षाव्रतों का प्रतिपादन कर मधुबिन्दु दृष्टांत (6.16-17) से संसार की निस्सारता सिद्ध करता है और वैराग्यसम्पदा को जगाने के लिए वणिक्वर से कहता है-इस निस्सार संसार में तप ही परम सार है
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जिसके द्वारा भव-भव में किया हुमा कर्ममल नाश को प्राप्त होता है (6.17)। विवेकबुद्धि श्रेष्ठी यह सब सुनकर व गृहस्थदशा में ध्यान करना संभव नहीं है और ध्यान के बिना मोक्ष पाना प्रत्यंत दुर्लभ है यह जानकर ध्यान के लिए अनुकूलता पाने के प्रयोजन से निर्वेदभाव को प्राप्त होता है (4.18) । वस्तुतः महाकषायों को जीत कर तथा संसार का अंत कर प्रनाकुल मानन्द में निमग्न रहने हेतु ही तप ग्रहण करना चाहिये । स्वर्गादि की प्राप्ति तथा यशोऽवाप्ति के लोभ से तप लेना ठीक नहीं । कवि की स्पष्टोक्ति है कि शल्यों, कषायों और मदों का भले प्रकार से त्याग कर चित्त में समताभाव धारण करना चाहिये तथा दोषमुक्त धर्म का स्मरण करना चाहिये (6.6) । कायोत्सर्ग मुद्रा या जाप जपने का दिखावी आचरण करने मात्र से समताभाव नहीं पाता और न ही कोई वैरागी होता है । वैराग्य तो प्रात्मा की अपनी परिधि में ही होता है, शरीर में नहीं । वह आत्म-परिणामों की संभाल से ही प्रकट होता है।
श्रेष्ठी सुदर्शन रानी अभया के शयनागार में भी पात्मिक परिणामों को संभाल कर तात्त्विक चिन्तन करता है तो अपने अन्दर के वैराग्य को जगा लेता है तथा प्रतिज्ञा करता है'यदि मैं इस अवसर पर किसी तरह यम के प्राघात से उबर गया तो कल दिन होते ही जिनेन्द्रोपदिष्ट तप ले लूंगा (8.24) ।' उसका यह निर्णय अविचारित नहीं है । पुरुषार्थ की उग्रता और अनुकूलता की अपरिमित ललक के परिणामस्वरूप ही उसने यह प्रतिज्ञा की होगी, यह स्पष्ट है । सुविचारित प्रतिज्ञा लेने का ही परिणाम है कि उपसर्ग टल जाने प्रथात् प्राणों की रक्षा हो जाने पर वह अपने पाप में दृढ़ रहता है और प्राप्त होती हुई राज्य ऋद्धि को ठुकराकर तपश्चरण करना ही स्वीकार करता है । राजा के द्वारा यह समझाये जाने पर कि अभी तो वैभव स्वीकारो बाद में (बुढापा पाने पर) तप ले लेना, वह कहता है-'हे राजन् ! सर्वदा ही यम से कोई नहीं छूटता, वह चाहे बाल हो, युवा हो या. वृद्ध । विशेषतः इस अवसर्पिणी काल में जहाँ जीवन जल के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर है (9.20)। कवि विमलवाहन मुनि से भी यह कहलवाता है कि शरीर की स्थिति को विनश्वर जानकर झटपट प्रात्महित में प्रयत्न करना चाहिये (11.9) ।
.. श्मशान में राजा के सैनिकों से परिवृत्त सुदर्शन का यह चिन्तन दार्शनिकता व सुस्पष्ट अलौकिकता का परिचायक होने के कारण अध्यात्मप्रधान भेदविज्ञानपरक द्रव्यदृष्टि का ही प्रस्फुटन है-'किसका पुत्र व किसका घर और कलत्र ? परमार्थ से न कोई शत्रु है मौर न मित्र ! कभी मैंने भी संसार में भ्रमण करते हुए अन्य भव में इन पर प्रहार किया होगा जिसके कारण ये निमित्त पाकर अपने हाथों में शस्त्र ले मुझ पर प्रहार करने में लग गये हैं। तीन लोक में कहीं भी अर्जित कर्म फल दिये बिना नाश नहीं हो सकता। स्वभावतः तो मैं रत्नत्रय से संयुक्त, ऊर्ध्वमति, नाना प्रकार के बाह्य-प्राभ्यन्तर ग्रन्थों से परित्यक्त जिनेन्द्र के समान शुद्ध प्रात्मा हूं (6.7)।' इस प्रकार सिद्ध होता है कि सुदर्शन का वैराग्य गूढ-गम्भीर तात्त्विक चिन्तन का परिणाम है। अपने पापको जिनेन्द्र के समान ही शुद्ध मान लेने का पुरुषार्थ साधारण नहीं, अलौकिक है ।
तात्त्विक श्रद्धान और प्रनाकुल प्रतीन्द्रिय आनंद की चाह के बिना इन्द्रियों की संभाल में ही रत रहकर यदि किसी ने अपने को वैरागी या साधुता का पात्र समझ लिया हो तो कवि
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उससे कहता है-वह कैसा साधु जो इन्द्रिय-लम्पटी हो ? जिस प्रकार अग्नि तृण व काष्ठ से तथा सागर लाखों नदियों से तृप्त नहीं हो पाता उसी प्रकार भोगाभिलाषी व लुब्धेन्द्रियविषयी जीव भोगों से संतुष्ट नहीं होता (11.9)। ऐसे लोगों को वह पात्र नहीं समझता अपितु एतद्विषयक एक तात्त्विक रहस्य की घोषणा करता है । वह रहस्य है जो दृढ़तर मिथ्यात्व और मद से उन्मत्त हैं वे संक्षेप से अपात्र हैं (6.7), वैराग्य या साधुता उनमें कहाँ ?
अपने में व्याप्त सम्यक्चारित्र के जोर से सुदर्शन कहता है-आगम में धर्मोपदेश सुलभ है, सुकविजनों में विशेष बुद्धि सुलभ है, मनुष्यभव में प्रिय कलत्र सुलभ है किन्तु बड़ी दुर्लभ है जिनशासन के अनुसार एक प्रति पवित्र वस्तु जिसे मैं पहिले कभी प्राप्त नहीं कर सका, उस सम्यक्चारित्र को मैं कैसे नष्ट कर दूं (8.32)?
यहाँ प्रागम के उपदेश और शाब्दिक बुद्धि से भी श्रेष्ठ सम्यक्चारित्र को प्रतिपादित किया है क्योंकि चित्त की अव्याकुलता तो स्व रूप में रमण करनेवाली वृत्तिस्वरूप जो सम्यक्चारित्र है, उससे ही होती है, आगम के उपदेश मात्र से नहीं । आगमोपदिष्ट तत्त्व के अनुरूप प्रवृत्ति का पुरुषार्थ किये बिना अनाकुलता कहाँ ? वीतरागता के विरुद्ध माचरण करनेवाले दृढ़तर गृहीत मिथ्यात्व में प्रवृत्त एवं अपने गुरुत्व के मद से उन्मत्त वेषधारियों को अपात्र कहकर कवि ने धर्मजिज्ञासुजनों को एक सर्वोत्कृष्ट शिक्षा प्रदान की है ।
वस्तु की अवस्था और उसकी परिणमनमिता को जाने बिना निरन्तर प्राकुलता और कर्तव्यबुद्धि का अहंकार जीव में बना रहता है । कवि ने वस्तु-व्यवस्था के अनुरूप होनेवाले कार्यों का परिज्ञान एक विशिष्ट दार्शनिक सिद्धान्त के आलोक में कराया है तथा प्रवाह में इसका निर्वाह सचमुच बहुत बड़ी सूझबूझ और अलौकिक पुरुषार्थ का प्रेरक है। दार्शनिकता है-प्रत्येक कार्य अपनी भवितव्यता के अर्थात् होने योग्य स्वभाव से ही होता है । एतन्निर्वाह . में कवि उदाहरण को भी उसी भवितव्यता के रंग में रंग देता है । वह कहता है-श्मशान में सूर्य भवितव्यतावश अस्त हो गया जैसे दानव का दलन करनेवाला शूरवीर भी प्रहारों से आहत होकर भवितव्यतावश मृत्यु को प्राप्त होता है (8.16)।
कामपीड़ित अभया सब कुछ जानती हुई भी पंडिता की सीख स्वीकार नहीं करती और मानती है कि भावी प्रति दुर्लध्य है (8.6) । अर्थात् जो होना है वह मिटाया नहीं जा सकता । तुम तो जबरदस्ती उसे उठाकर यहाँ ले मानो मैं उसके साथ पुरुषायित करूगी । जो बात देवाधीन है उसका कौन निवारण कर सकता है (8.21) ?
. जैसे कामी के चित्त से काम नहीं छूटता वैसे ही रानी का दुराग्रह छूटना सम्भव नहीं है । अपने इस निर्णय का मिलान वह इस दार्शनिक सिद्धान्त से करती है जो कुछ जिस द्वारा होनाहै वह एकांग रूप से घटित होकर ही रहेगा (8.9)। वह सोचती है- बेचारी इस वसुधाधिप पत्नी का दोष ही क्या है, जब त्रैलोक्य ही भवितव्यता के अधीन है (8.10)।, । .
भवितव्यता का अर्थ है होने योग्य । जो होने योग्य है वही होता है और जो होने योग्य नहीं है वह कभी नहीं होता, उसे करने में कोई समर्थ भी नहीं है । 'जो जो देखी वीतराग ने सो सो होसी वीरा रे । अनहोनी कबहूं नहिं होसी काहे होत अधीरा रे ।'
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.. अपनी अनाकुलवृत्ति बनाने के लिए यह कितना सटीक सिद्धान्त है अतः क्यों न वस्तुव्यवस्था को प्रमुख कर सूक्ष्म तत्त्वावधारण से जगत् एवं तद्भूत जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों/ पदार्थों को समझा जाय । इस समझ की भूमि पर ही सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होता है, इसी समझ से ज्ञान सम्यक्त्व के आलोक में चकासने लगता है और राग-द्वेष आदि विकल्पों से परे रहकर सम्यक्चारित्र के परम आनन्द से आत्मा को आह्लादित कर देता है। प्राकुलतागभित सर्व समस्याओं को दूर करने का समाधान भवितव्यता के मर्म को समझने से मिल जाता है। वस्तुतः भवितव्यता का ही सही अर्थों में प्रवभासन होने पर मुक्तियात्रा प्रारम्भ होती है और उसके ही दृढ़-विश्वास-मिश्रित स्वपुरुषार्थ से परिपूर्ण होती है। परिणाम में जीव अनुपम अतीन्द्रिय और अनाकुल प्रानन्द का नाथ बन जाता है, पूर्ण मुक्त हो जाता है, जैसे-ग्वाला, सुदर्शन बनकर अनंत सुखी अर्थात् केवली परमात्मा बन गया।
कवि ने स्वयं ही सुदंसणचरिउ को केवलि-चरित्र कहा है (12.10)। इसमें कोई विप्रतिपत्ति भी नहीं है । कवि ने अपने ग्रन्थ में सुदर्शन को उपसर्ग केवसी बताकर उनके द्वारा उपदेश भी दिलवाया है (12.5) । इसके अलावा ग्रंथ के प्रारंभ में वह सुदर्शन को पांचवां अन्तःकृत केवली भी बताता है (1.2)। वर्द्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में दश अन्तःकृत केवली हुए। यथा-1. नमि, 2. मतंग, 3. सौमिल, 4. रामपुत्र, 5. सुदर्शन, 6. यमलीक, 7. बलीक, 8. किष्कवलि, 9. पालम्ब और 10. अष्टपुत्र ।' ऋषभादि प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में भी अन्य दश-दश अन्तःकृत केवली हुए।
अन्तःकृत की परिभाषा है-'संसारस्य अन्तःकृतो यस्तेऽन्तःकृतः । यहां प्रश्न हैसंसार का अन्त तो सभी केवली करते हैं फिर वे सभी अन्तःकृत केवली क्यों नहीं हुए। यह भी निश्चित है कि भगवान् महावीर के तीर्थ में दश ही नहीं और भी कई केवली हुए हैं । अनिबद्ध केवलियों का उल्लेख भी प्राता ही है । दारुण उपसर्गों को जीतकर केवलज्ञान प्रजित करनेवाले उपसर्ग केवली होते हैं, ऐसे केवलियों का अवस्थान भी हो सकता है और वे उपदेश भी देते हैं, यह संभव है । किन्तु अन्तःकृत केवली तो उपसर्ग . को जीतकर केवलज्ञान अजित करते हैं तथा अन्तर्मुहूर्त में ही सर्व कर्मों का अन्त कर सिद्ध बन जाते हैं, यह विद्वज्जनों एवं प्रागमाभ्यासी वृद्धजनों से प्राप्त श्रुति है । यदि यह सही है तो मुनि नयनंदी के अनुसार बताये गये सुदर्शन केवली अन्तःकृत केवली नहीं हो सकते भले ही कवि ने नाम सादृश्य से उन्हें पांचवा अन्तःकृत केवली बता दिया हो ।
. आराधना-कथा-कोश', जो भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य ब्रह्म नेमिदत्त द्वारा रचित ग्रन्थ है, में पंचणमोकार मंत्र-प्रभावना-कथा के रूप में सुदर्शन की कथा है जो सुदंसणचरिउ से समानता रखती है किन्तु उन्होंने सुदर्शन को अन्तःकृत केवली नहीं बताया है। विद्वज्जन इस विषय पर विचार करें।
1. षट्खंडागम धवलाटीका, 1/1-1-2/104, जै.सं.सं. सोलापुर प्रकाशन । 2. वही-1/1-1-2/104 3. वही-1/1-1-2/104 4. वी. नि. सं. 2494 में नागौर (राज.) से प्रकाशित।
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व्यसनों के दुष्परिणाम
सप्पाइ दुक्खु, इह दिति एक्क भवे दुणिरिक्खु । विसय व भंति, जम्मतरकोडिहि दुह जणंति । वढ मायरेण, जो रमइ जूउ वहुउफ्फरेण । सो च्छोहजुत्तु, पाहणइ जणरिण सस परिणि पुत्तु । मंसासणेण, वड्ढेई बप्पु बप्पेण तेण । पहिलसइ मज्जु, जूउ वि रमेइ बहुवोससज्जु । पसरइ अकित्ति, ते कज्जे कीरइ तहो णिवित्ति। महरापमत्त, कलहेप्पिणु हिंसइ इट्ठमित्तु । रच्छहे पडेइ, उम्भियकर विहलंघलु रगडेइ । जे सूर होंति, सवरा हु वि सो ते णउ हरणंति । वणे तिण चरंति, णिसुणेवि खडकउ णिक उरति ।
वरणमयउलाई, किह हणइ मूढ किउ तेहि काई।
पर्ष-सादिक विषले प्राणी असह्य दुःख देते हैं किन्तु इसी एक जन्म में, पर विषय तो करोड़ों जन्मजन्मांतरों में दुःख उत्पन्न करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। जो मूर्ख बड़े आदर से जुआ खेलता है, वह क्षोभ में प्राकर अपनी जननी, बहिन, गृहिणी तथा पुत्र का भी हनन कर डालता है। मांस खाने से दर्प (अहम्) बढ़ता है, उस दर्प से वह मद्य का भी अभिलाषी बनता है और जूमा भी खेलता है तथा अन्य दोषों में भी प्रासक्त होता है। इस प्रकार उसकी अकीति फैलती है । मदिरा द्वारा प्रमत्त हुआ मनुष्य कलह करके अपने इष्टजनों की भी हिंसा कर बैठता है, रास्ते में गिर पड़ता है और विह्वल हो हाथ उठाकर नाचने लगता है। जो सच्चे वीर होते हैं वे शबर (मांसभक्षी जंगली जाति) होकर भी वन में घास चरकर जीनेवाले निरीह प्राणियों, जो जरा सी खड़खड़ाहट से ही भयभीत हो जाते हैं, को नहीं मारते । मूर्खजन इन वनमृगों को क्यों छेदता है, मारता है ? इन (बचारों) ने क्या (बिगाड़) किया है ?
सदसणचरिउ 2.10
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सुदंसणचरिउ के मूल्यात्मक प्रसंग एक व्याकरणिक विश्लेषण
- डॉ. कमलचन्द सोगाणी
मनुष्यों का मूल्यात्मक व्यवहार ही समाज के चहुंमुखी विकास के लिए महत्त्वपूर्ण है । व्यवहार में मूल्यों का प्रभाव समाज में अराजकता को जन्म देता है । कर्तव्यहीनता, दुराचार व शोषण नैतिक मूल्यों में अनास्था का परिणाम है। नैतिक मूल्यों का वातावरण नैतिक मूल्यों के ग्रहण की प्रथम सीढ़ी है। इस वातावरण के निर्माण में काव्य का बहुत बड़ा योगदान होता है । रस, अलंकार मोर छन्द काव्यरूपी शरीर को निस्संदेह सौन्दर्य प्रदान करते हैं, किन्तु काव्यरूपी शरीर का प्राण होता है मूल्यात्मक चेतना की उसमें उपस्थिति । काव्य में प्रत्येक रस की प्रभिव्यक्ति एक विशिष्ट प्रयोजन को लिये हुए होती है, किन्तु काव्य का अन्तिम प्रयोजन समाज में शाश्वत मूल्यों को सींचना व उनको जीवित रखना ही होना चाहिए । सामयिक मूल्यों के लिए लिखा गया काव्य महत्त्वपूर्ण हो सकता है, पर उसमें प्रतिपादित शाश्वत मूल्य ही उसको अमरता प्रदान करते हैं। नयनंदी कृत सुदंसणचरिउ ( सुदर्शन-चरित) जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित एक चरितकाव्य है ।
व्यसन महामारी की तरह व्यक्ति व समाज को खोखला कर देते हैं । उनका त्याग समाज में प्रार्थिक व्यवस्था, लैंगिक सदाचार, व्यक्तिगत एवं कौटुम्बिक शान्ति और अहिंसात्मक वृत्तिको पनपाता है । शील का पालन जीवन का प्राभूषरण है । चारित्र को नष्ट होने से बचाना
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मूल्यों के प्रति निष्ठा का द्योतक है । ऐसे मूल्यात्मक प्रसंगों का सुदंसणचरिउ में से चयन करके हमने उनका व्याकरणिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इससे जहां एक मोर मूल्यात्मक जीवन में प्रास्था रढ़ होगी, वहीं दूसरी ओर अपभ्रंश भाषा के व्याकरण को प्रयोगात्मक रूप से समझने में सहायता मिलेगी। व्याकरणिक विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है वे अन्त में दे दिये गए हैं । मूल्यात्मक प्रसंगों का अनुवाद भी किया गया है । व्याकरण और अनुवाद एक दूसरे से संबंधित होते ही हैं।
प्रायणि पुत्त बह प्रागमे सत्त वि वसण वृत्त । सप्पाइ दुक्खु इह दिति एक्क भवे दुम्पिरिक्खु । विसय विरण भंति जम्मतरकोरिहिं दुहु वर्णति । चिक रद्दवत्तु णिवडिउ गरयग्णवे विसयबुतु। बढु मायरेण जो रमइ जूउ बहुउफ्फरेण। 5 सो च्छोहजुत्त पाहणइ जणणि सस घरिणि पुत्तु। जूयं रमंतु गलु तह य बुहिडिल्लु विहरू पत्तु । मंसासणेण बढेइ वपु बप्पेण तेल । महिलसइ मज्जु जूउ वि रमेइ बहुबोससज्जु । . पसरह प्रकित्ति ते कज्जे कोरइ तहो णिवित्ति। 10 जंगलु मसंतु वणु रक्खसु मारिउ परए पत्तु । महरापमत्तु कलहेप्पेण हिंसइ टुमित्तु । रच्छहे पडेइ उग्भियकर विहलंघलु गई। होता सगव्य गय जायव मज्जें खयहो सब्य । साइणि व वेस रत्तापरिसरण परिसइ सुवेस। 15 तहो जो बसेइ सो कायर उच्छिउ प्रसेइ । वेसापमत्तु णिवणु हुउ इह वणि चाववतु । कयवीरगवेसु णासंतु परम्मुहु छट्टकेसु । जे सूर हॉति सवरा हु वि सो ते गउ हणंति । वणे तिण चरंति गिसुणेवि सडक्कउ गिर रंति। 20 वरणमयउलाइ किह हणइ मूढ़ किउ तेहिं काइ । पारविरत्तु पक्कबह गरए गउ बंभवत् । चलु चोर पिट्ठ गुरुमायबप्पु माणइ न इट्ट । रिणय भयबलेण बंचा ते अवर वि सो छलेण । भयकवि तु गउ गिद्दभक्खु पावेइ मूढ़। 25 परिय एह सुपसिद्धी गामें विज्जलेह । पत्ता-पावेज्जइ बंधेवि णिज्जइ विस्थारेवि रहे बच्चरे । वंडिज्जइ तह खंडिज्जइ मारिज्जइ पुरवाहिरे ॥
2.10
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(3)
- मायष्णि (मायण्ण) विधि 2/1 सक पुत्त (पुत्त) 8/1 जह (म)=जिस प्रकार प्रागमे (आगम) 7/1 सत्त (सत्त) 1/2 वि वि (प्र)=संख्यावाचक शब्दों के पश्चात् प्रयुक्त होने पर 'समस्तता' का अर्थ होता है । वसण (वसण) 1/2 वृत्त (वृत्त) भूक 1/2 अनि । (1)
सप्पाइ [(सप्प)+ (आइ)] [(सप्प)-(प्राइ) 1/2] दुक्खु (दुक्खु) 2/1 इह (अ)=यहां विति (दा) व 3/2 सक एक्का (एक्क) 7/1 वि भवे (भव) 7/1 दुणिरिमखु (दुणिरिक्ख) 2/1 वि ।
विसय (विसय) 1/2 वि (म)=किन्तु ण (अ)=नहीं भंति (मंति) 1/1 जम्मतरकोडिहि-जम्मतरकोडिहिं [(जम्म) + (अंतर)+ (कोडिहिं)] [(जम्म)-(अंतर)(कोडि) 7/2 वि] दुहु (दुह) 2/1 जणंति (जण) व 3/2 सक ।
चिरु [अ] =दीर्घकाल के लिए रद्दवत्तु [रुद्ददत्त] 1/1 णिविरिउ (णिविड+ णिविडिप्र) भूकृ 1/1 रणरयण्णवे [(णरय)+ (अण्णवे)] (णरय)-(अण्णव)7/1] विसयबुत • [(विसय)-(जुत्त) भूकृ 1/1 अनि]।
बढ़ (वढ) 1/1 वि प्रायरेण (क्रि वि अ)=उत्साहपूर्वक जो (ज) 1/1 सवि रमह (रम) व 3/1 सक जूउ (जून) 2/1 बहुउफ्फरेण [(बहु) वि-(डफ्फर) 3/1] । (5)
सो (त) 1/1 सवि च्योहजुत्तु [(च्छोह)-(जुत्त) भूक 1/1 पनि] पाहणड (पाहण) व 3/1 सक जणणि (जणणी) 2/1 सस (ससा) 2/1 घरिणि (घरिणी) 2/1 पुत्त (पुत्त) 2/11
. जूयं (जूय) 2/1 रमंतु (रम-रमंत) वकृ 1/1 णलु (णल) 1/1 तह य (म)=पौर इसी प्रकार हिडिल्लु (जुहिछिल्लु) 1/1 विहरु (विहर) 2/1 पत्त (पत्त) भूकृ 1/1 पनि ।(7)
मंसासणेण [(मंस)+ (असणेण)] [(मंस)-(असण) 3/1] वढेइ (वड्ढ) व 3/1 प्रक बप्पु (दप्प) 1/1 स्प्पेण (दप्प) 3/1 तेण (त) 3/1 सवि । (8)
महिलसह (अहिलस) व 3/1 सक मज्जु (मज्ज) 2/1 जूउ (जून) 2/1 वि (म)= भी रमेह (रम) व 3/1 सक बहुदोससज्जु [(बहु) वि-(दोस)-(सज्जु)3 2/1]। (9)
पसरह (पसर) व 3/1 प्रक प्रकित्ति (अकित्ति) 1/1 ते=(त) 3/1 सवि कम्ज-कण (कज्ज) 3/1 कोरइ (कोरइ) व कर्म 3/1 सक अनि तहो' (त) 5/1 णिवित्ति (णिवित्ति) 1/11
. .. .............. . (10)
(6)
1. शून्य विभक्ति, अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ, 147. 2. दुनिरीक्ष 3. सर्जु सज्जु गमन, अनुसरण, (संस्कृत-हिन्दी कोश, आप्टे)।- . 4. यह विधि-अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ 215। ... 5. अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ 248 ।
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(14)
जंगलु (जंगल) 2/1 असंतु (प्रस-असंत) वकृ 1/1 वणु (वण) 1/1 रक्खसु (रक्खस) 1/1 मारिउ (मार-+मारिअ) भूकृ 1/1 परए (णरअ) 7/1 पत्त (पत्त) भूक 1/1 अनि ।
- मइरापमत्तु [(मइरा)-(पमत्त) भूकृ 1/1 अनि] कलहेप्पिणु (कलह+एप्पिणु) संकृ हिंसइ (हिंस) व 3/1 सक इट्टमित्त [(इठ्ठ)-(मित्त) 2/1] । . (12)
रच्छहे' (रच्छ) 6/1 पडेइ (पड) व 3/1 अक उम्भियकर [(उन्भ-+उब्भिय) संक (कर)2/1] विहलंघलु (विहलंघल) 1/1 वि पडेइ (णड) व 3/1 प्रक। (13)
___ होता (हो-होंत) वकृ 1/2 सगव्व (सगव्व) 1/2 वि गय (गय) भूकृ 1/2 अनि जायव (जायव) 1/2 मज्जें=मज्जे (मज्ज) 3/1 खयहो (खय) 6/1 सव्व (सव्व) 1/21
साइणि* (साइणी) 1/1 व (अ)=की तरह वेस (वेसा) 1/1 रत्तापरिसण (रक्त+रक्ता-घरिसण) 2/1 ।
. (15) सहो (त) 6/1 स जो (ज) 1/1 सवि वसेइ (वस) व 3/1 प्रक सो (त) 1/1 सवि कायर (कायर) 1/1 वि उच्छिउ (उच्छिट्ठप्र) 2/1 'अ' स्वार्थिक असेइ (प्रस) व 3/1 सक।
(16) . वेसापमत्तु [(वेसा)-(पमत्त) भूकृ 1/1 पनि] रिणवणु (णिखण) 1/1 वि हुउ (हप्र) भूक 1/1 इह (अ)=यहां वणि (वणि) 1/1 वि चारुदत्त (चारुदत्त) 1/1।
(17) कयबीणवेसु [(कय) भूक अनि-(दीण) वि-(वेस) 1/1] णासंतु (णास) वकृ 1/1 परम्मुह (परम्मुह) 1/1 वि छुट्टकेसु [(छुट्ट) भूक अनि-(केसु) 1/1] । (18)
जे (ज) 1/2 स सूर 1/2 वि होंति (हो) व 3/2 अक सवरा (सवर) 1/2 हु (अ)=ही वि (अ)=चाहे सो (त) 1/1 सवि ते (त) 1/1 सवि गउ (अ)=नहीं हणति (हण) व 3/2 सक।
(19)
-
6. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
_ [हे-प्रा-व्या 3-135] 7. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है ।
[हे. प्रा. व्या. 3-134] 8. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है।
[हे. प्रा. व्या. 3-134] * साइणि=शकिनी=पिशाचिनी [संस्कृत-हिन्दी कोष] 9. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में हस्व के स्थान पर दीर्घ हो जाते हैं।
[हे. प्रा. व्या. 1-4] ।
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बनविदा
(21)
बणे (वण) 7/1 तिण (तिण) 2/1 घरंति (चर) व 3/2 सक णिसुवि (णिसुण-+-एवि) संकू बाइकउ (खडका) 2/1 णिरु (म)=निश्चित रंति (डर) व 3/2 अक।
(20) वणमयउलाई [(वण)-(मय)-(उल) 2/2] किह (अ)=क्यों हणइ (हण) व 3/1 सक मूढ़ (मूढ) 1/1 वि किउ (कि→किन) भूक 1/1 तेहि तेहिं (त) 3/2 स काईकाई (कि) 1/1 स ।
पारविरत्त [(पारद्धि)-(रत्त) भूकृ 1/1 मनि] चक्कवइ (चक्कवइ) 1/1 गरए10 (गरप) 7/1 गउ (गर) भूक 1/1 अनि बंभवत (बंभदत्त) 1/1 | (22)
चलु (चल) 1/1 चोर (चोर) 1/1 पिठ्ठ (घिछ) भूकृ 1/1 अनि गुरुमाषबप्पु [(गुरु)-(माया)1 (बप्प) 2/1] मारणइ (माण) व 3/1 सक न (अ) =नहीं इठ्ठ (इट्ठ) भूक 1/1 अनि ।
(23) रिणयभुयबलेण [(णिय) वि-(भुय)-(बल) 3/1] बंचइ (वंच) व 3/1 सक ते (त) 2/1 स प्रवर (अवर) 2/2 वि (अ)=भी सो (त) 1/1 सवि छलेण (छल) 3/11 (24)
भयकवि [(भय)-(कूव) 7/1] छुदु (छूढ) 1/1 वि णउ (म)=नहीं गिद्दभुक्षु [(गिद्द)-(मुक्ख) 2/1] पावेह (पाव) व 3/1 सक मूढ (मूढ) 1/1 वि। (25)
पडिय (पद्धडिया) 1/1 एह (एप्रा) 1/1 सवि सुपसिद्धि (सुपसिद्धि) 1/1 रणामें (णाम) 3/1 विज्जलेह (विज्जलेहा) 1/1 ।
(26)
घत्ता-पावेज्जह (पाव) व कर्म 3/1 सक बंधेवि (बंध+एवि) संकृणिज्जइ (णी) व कर्म 3/1 सक वित्थारेवि (विस्थार+एवि) संकृ रहे13 (रह) 7/1 चच्चरे (चच्चर) 7/1
डिज्जइ (दंड) व कर्म 3/1 सक तह (प्र) तथा खंडिज्जइ (खंड) व कर्म 3/1 सक मारिज्जइ (मार) व कर्म 3/1 सक पुरवाहिरे [(पुर)-(वाहिर) 7/1 वि] ।
- जिस प्रकार प्रागम में सभी सातों व्यसन समझाए गये (हैं) (उनको) हे पुत्र ! (तुम) सुनो (1) । सर्पादि (प्राणी) यहां एक जन्म में (ही) कठिनाई से विचार किये जानेवाले (घोर) दुःख को देते हैं (2) । किन्तु (इन्द्रिय) विषय करोड़ों जन्मों के अवसर पर दुःख उत्पन्न करते रहते हैं । इसमें (कोई) सन्देह नहीं है (3) । (इन्द्रिय) विषयों में लीन
10. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है, 'गमन' अर्थ में द्वितीया होती हैं।
(ह. प्रा. व्या. 3-135) 11. माया+माय (समासगत शब्दों में रहे हए स्वर परस्पर में दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाते हैं।
(हे. प्रा. व्या. 1-4) 12 प्र-पाप-पाव=पकड़ लेना, प्राप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश । 13. रहे-चौराहे पर, टिप्पण, सुदंसणचरिउ, पृष्ठ 268 (2-10)।
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52
जैनविद्या
रुद्रदत्त दीर्घ काल के लिए नरकरूपी समुद्र में पड़ा (4) । जो मूर्ख उत्साहपूर्वक जूमा खेलता है, वह (जूमा में लीन होने के कारण) रोष से जकड़ा हुआ माता, बहिन, पत्नी और पुत्र को कष्ट देता है (5,6) । जूमा खेलते हुए नल ने और इसी प्रकार युधिष्ठिर ने (भी) कष्ट पाया (7) । मांस खाने के कारण अहंकार बढता है, उस अहंकार के कारण (वह) मद्य की इच्छा करता है, जूमा भी खेलता है (तथा) बहुत सी बुराइयों में गमन (करने लगता है) (8,9) । (उसका) अपयश फैलता है । उस कारण से उससे निवृत्ति की जानी चाहिए (10)। मांस खाते हुए वण राक्षस मारा गया (और) (उसने) नरक पाया (11)। मदिरा के कारण नशे में चूर हुमा (मनुष्य) झगड़ा करके प्रिय मित्र को (भी) कष्ट पहुंचाता है (12) । (कभी) (वह) राजमार्ग पर गिर जाता है (तथा) (कभी) (वह) उन्मत्त शरीरवाला (होकर) हाथ को ऊंचा करके नाचता है (13)। मदिरा (पीने) के कारण घमंडी होते हुए सभी यादव विनाश को प्राप्त हुए (14)। वेश्या सुन्दर वेश दिखलाती है (और) पिशाचिनी की तरह खून (के कणों) का घर्षण करती (है) (15)। उसके (घर में) (काम-क्रीड़ा के लिए) जो रहता है, वह अस्तव्यस्त (व्यक्ति) (मानो) जूठन खाता है (16) । वेश्या में मस्त हुमा व्यापारी चारुदत्त यहां धन-रहित हो गया (17) । (धन-रहित होने के कारण) (चारुदत्त को) (अपने यहां से) दूर हटाती हुई (वेश्या) (उससे) विमुख (हुई) (और) (उसके द्वारा) (उसके) बाल काट दिए गए (मौर) (उसका) वेश दयनीय बना दिया गया (15) । जो वीर होते हैं, चाहे वह शबरों का (समूह) ही हो, वे वन में रहनेवाले मृगों के समूहों को, जो वन में घास चरते है (पौर) (केवल) खड़खड़ आवाज सुनकर निश्चित डर जाते हैं, नहीं मारते हैं (19,20,21)। (उनको) मूर्ख (व्यक्ति) क्यों मारता है ? उनके द्वारा क्या किया गया है (21) ? शिकार का प्रेमी चक्रवती ब्रह्मदत्त नरक में गया (22) । चंचल और निर्लज्ज चोर गुरु, मां और बाप को (भी) प्रादरणीय नहीं मानता है (23) । वह उनको तथा दूसरों को भी निज भुजाओं की बदौलत (तथा) जालसाजी से ठगता है (24) । (वह) उपेक्षित मूढ (व्यक्ति) संकटरूपी कूए में (गिरता है) (मौर) (वह) निद्रा (और) भूख को नहीं पाता है (25) । यह (वह) पद्धडिया छन्द (है), (जिसकी) विद्युल्लेखा नाम से ख्याति है (26)।
घत्ता-(चोर) पकड़ा जाता है, बांधकर ले जाया जाता है, चौराहे और मुख्य मार्ग पर (उसके) (चोरी के कार्य को) फैलाकर (वह) दंडित किया जाता है । तथा शहर के बाहरी भाग में काटा जाता है और मारा जाता है ।
परवसुरयहो अंगारयहो सूलिहिं भरणं जायं मरणं । 1 इय णिएवि जणो तोवि मूढमणो चोरी करइ उ परिहह । जो परजुवइ इह महिलसइ सो गीससइ । गायइ हसइ । 3 सहिऊण जए णिवडइ गरए होऊ अबुहा रामण पमुहा । 12 परयाररया चिरु खयहो गया सत्त वि बसणा एए कसण । 13
.
..
(2.11)
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जनविद्या
53
परबसुरयहो [(पर) वि-(वसु)-(रय)146/1] अंगारयहो (मंगारय)15 6/1 सूलिहि सूलिहिं (सूली) 7/2 भरणं (भरण) 1/1 वि जायं (जाय) भूक 1/1 अनि मरणं (मरण) 1/1।
___ इय (इम) 2/1 सवि णिएवि (णिप्र) संकृ जणो (जण) 1/1 तो (म)=उस समय में वि (म)=भी मूढमणो (मूढमण) 1/1 वि चोरी (चोरी) 2/1 करइ (कर) व 3/1 सक गउ (म)=नहीं परिहरइ (परिहर) व 3/1 सक ।
... (2) ___जो (ज) 1/1 सवि परजुवइ [(पर) वि-(जुवइ) 2/1] इह (म)=इस लोक में पहिलसइ (प्रहिलस) व 3/1 सक सो (त) 1/1 सवि जीससइ (णीसस16) व 3/1 प्रक गायह (गा-+गाय) व 3/1 सक हसइ" (हस) व 3/1 सक ।
6
(3)
(12)
___ सहिकरण (सह) संकृ जए (जन) 7/1 रिणवडइ (णिवड) व 3/1 अक गरए (परम) 7/1 होऊ1 (होस) भूकृ 1/1 प्रबुहा (अबुह) 1/1 वि रामण (रामण)1/1 पमुहा (पमुन) 1/1 वि।
परयाररया [(पर) वि-(यार)-(रय) भूक 1/1 अनि] चिर (म)=आखिरकार खयहो10 (खय) 6/1 गया (गय) भूकृ 1/1 पनि सत्त (सत्त) 1/2 वि वि (अ)=समुच्चय अर्थ में, वसणा (वसण) 1/2 एए (एम) 1/2 सवि कसणा (कसण) 1/2 वि। (13)
पर-द्रव्य में अनुरक्त होने के कारण अंगारक (चोर) के द्वारा सूलियों पर धारण करनेवाला मरण प्राप्त किया गया (1) । इसको जानकर भी मनुष्य उस समय (चोरी करने के समय) में मूर्ख (बन जाता है) (और) चोरी करता है । (दुःख है कि वह) चोरी करने को नहीं छोड़ता है (2)। जो अन्य की स्त्री को चाहता है, वह (उससे) मिलता-जुलता है, (उसकी) प्रशंसा करता है (और) (उसके लिए) लालायित रहता है (3) । जगत् में (अपमान) सहकर (वह) नरक में गिरता है । आदरणीय रावण (भी) अज्ञानी बना (और) पर-स्त्री में अनुरक्त हुआ (12)। आखिरकार विनाश को पहुंच गया। (इस तरह से) ये सातों व्यसन अनिष्टकर (होते हैं) (13)।
14, 15. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हे. प्रा. व्या. 3-134) 16. निश्वस्=णीसस लालायित होना, Monier William, Sanskrit Eng. ___Dich. See श्वस् । 17. हस्=मिलना-जुलना, आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश । 18. मात्रा के लिए 'उ' को 'ऊ' किया गया है । 19. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हे. प्रा. का. 3-134)
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54
जनबिया
इपरहं दिव्बाहरणहं पासिड : सोलु वि जुबइहे मंग्नु मासिउ । हरिवि खीय जाकिर दहवयणे सीलें सीय बड्ड एउ जल । तह प्रणतमइ सीलगुरुक्किय खगकिरायउबसग्गहं युक्किय । रोहिणि खरजलेण संभाविय सीलगुणेण गइए । ण बहाइय । हरि-हलि - चक्कवट्टि - जिणमायउ प्रज्ज वि तिहुयणम्मि विक्खायउ । (5) एयउ सीलकमलसरहंसिउ फणिणर खय रामरहिं पसंसिउ । जगणिए छारपुंज परि जायउ उ कुसील मयणेणुम्मायउ । सीलबंतु बुहयणे सलहिज्जइ सोलविवज्जिएण कि किज्जा । घत्ता-इस जाणेविणु सीलु परिपालिज्जए माए महासइ । एं तो लाहु णियंतिहे हले मूलछेउ तुह होसइ ॥ (10)
(8.7) इयरह इयरहं (इयर) 6/2 वि दिग्वाहरणहरिम्बाहरणहं [(दिव्व)+ (माहरणह)] [(दिव्व)-(प्राहरण) 6/2] पासिउ (पास-+पासिप्र) भूकृ 1/1 सीलु (सील) 1/1 वि (अ)=भी जुवइहे (जुवइ) 6/1 मंडणु (मंडण) 1/1 भासिउ (भास) भूक 1/11
- हरिवि (हर+इवि) संकृ णीय (णीय) भूकृ 1/1 अनि जा (जा) 1/1 सवि किर (म)=जैसा कि बतलाया जाता है, वहवयणे =दहवयणे (दहवयण) 3/1 सोले सीलें (सील) 3/1 सीय (सीया) 1/1 दढ (दड्ढ) भूक 1/1 अनि गउ (अ)=नहीं जलणे= अलणे (जलण) 3/1।
(2) तह (प्र)=उसी प्रकार अणंतमइ (प्रणंतमइ) 1/1 सीलगुरुश्किय [(सील-(गुरु)(क्किय) भूकृ 1/1 अनि] खगकिरायउवसग्गहें खगकिरायउवसग्गहं [(खग)-(किराय)(उवसग्ग)20 6/1]।
- (3) रोहिणि (रोहिणि) 1/1 खरजनेण[(खर) वि-(जल)n 3/1] संभाविय (संभाविय)-भूकृ 1/1 अनि सीलगुणेण[(सील)-(गुण) 3/1] णइए (गई) 3/1 ण (म) =नहीं
स्त्री. वहाइय (वह → वहाव → वहावियवहाविय-वहाइय → वहाइया) भूकृ 1/11 (4)
हरि-हलि-बकवट्टि-जिएणमायउ [(हरि) (हलि)-(चक्कट्टि)-(जिण)-(मामा) 1/2] अन्तु (म)=प्राज वि (म)=भी तिहुयणम्मि (ति-हुयण) 7/1 विक्खायउ (विक्खाया) भूक 1/2 अनि ।।
(5.)
20. अपभ्रंश भाषा का व्याकरण, पृष्ठ 151, कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हे. प्रा. व्या. 3-134) 21. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हे. प्रा. ष्या. 3-137)
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जनविद्या
55
एयउ (एया) 1/2 सवि सीलकमलसरहंसिउ [(सील)-(कमल)-(सर)-(हंसी) 1/2] परिणणरत्यरामरहि फणिणरसयरामरहिं [(फणि)+ (णर)+ (खयर)+ .
स्वी. (अमरहिं)] [(फणि)-(गर)-(ख-यर)-(अमर) 3/2] पसंसिउ (पसंस + पसंसी) 1/2 वि ।
(6) जणरिण (जणणि) 8/1 ए (म)=आमन्त्रण का चिह्न= (हे) छारपुंज[(छार)(पुंज) 1/1] वरि (प्र)=अधिक अच्छा जायउ (जा--जाम22-+जाय) विधि 3/1 प्रक गउ (म)=नहीं कुसील (कुसील) 1/1 मयणेजुम्मायउ [(मयणेण)+ (उम्मायउ)] मयरणेण (मयण) 3/1 उम्मायउ8 (उम्मायम) 1/1 वि ।
(7) ____ सीलवंतु (सीलवंत) 1/1 वि पुहयणे =बुहयणे (बुहयण) 3/1 सलहिन्मइ (सलह) व कर्म 3/1 सक सोलविवज्जिएण [(सील)-(विवाज्जिन) 3/1] कि (किं) 1/1 सवि किज्जइ (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक भनि ।
(8) घत्ता-इय(इन)2/1 स नाणेषिणु (जाण+एविणु) संकृ सीलु (सील)2/1 परिपालिज्जए - (परिपाल-परिपालिज्ज) व कर्म 3/1 सक मा (मा) 8/1 ए (अ)=हे महासइ (महासइ)
स्त्री 8/1 रणं (म)=है तो (प्र)=तो लाहु (लाह) 1/1 णियंतिहे (णिय-णियंत→ णियंती)346/1 हले (हला) 8/1=हे सखि. मूलछेउ [(मूल)-(छेप्र) 1/1] तुह (तुम्ह) 6/1 होसइ (हो) भवि 3/1 अक।
(9,10) अन्य सुन्दर प्राभूषणों के (समान) युवती का शील भी प्राभूषण समझा गया (है) (मौर) कहा गया (है) (1) । जो सीता रावण के द्वारा हरण करके ले जाई गई (वह), जैसा कि बतलाया जाता है, शील के कारण अग्नि के द्वारा नहीं जलाई गई (2) । उसी प्रकार कठोर शीलधारण की हुई मनन्तमती विद्याधरों और जंगली (मनुष्यों) के उपद्रव से रहित हुई (3) । तेज धारवाले (नदी के) के जल में डुबाई गई रोहिणी, शील गुण के कारण नदी के द्वारा नहीं बहाई गई (4) । नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थकर-(इनकी) माताएं आज भी (शील के कारण) तीनलोक में प्रसिद्ध (१) (5)। ये शीलरूपी कमलसरोवर की हंसनि (थीं), (प्रतः) (वे) नागों, मनुष्यों, आकाश में चलनेवाले (मनुष्यों) और देवों द्वारा प्रशंसा के योग्य (हुई) (6) । हे माता ! (यदि) (कोई) (जलकर) राख का ढेर हो जाए (तो) (यह) अधिक अच्छा (है),(किन्तु) काम-वासना के कारण पागलपन पैदा करनेपाला कुशील (अच्छा) नहीं (है) (7) । बिद्वान् व्यक्ति के द्वारा शीलवान (मनुष्य) प्रशंसा किया जाता है । (कोई बताए) शीलरहित होने से क्या (प्रयोजन) सिद्ध किया जाता है (8)? 22. प्रकारान्त धातुओं के अतिरिक्त शेष स्वरान्त धातुओं में 'अ' (य) विकल्प से जुड़ता है,
अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 2651 23. उन्मादक=उन्मायन। 24. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
हि. प्रा. बा. 3-134)
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जैनविद्या
धत्ता- इसको समझकर हे माता ! हे महासती ! (यदि ) शील पालन किया जाता है तो लाभ है । ( वरना ) हे सखी ! ( उदाहरणों को) देखते हुए ( मेरे द्वारा ) (यह ) ( समझा गया है) ( कि ) आपके आधार का ( ही ) नाश हो जायेगा (9, 10 ) ।
56
1
रग फिट्टइ पेयवणे इह गिद्धु रण फिट्टइ तुंबरणारयगेड रण फिट्टइ वुज्जणे बुट्ठसहाउ रण फिट्टइ लोहु महाधरणवंते
रण फिट्टइ जोब्बरगइ रो
विभि
मरट्टु
महाकरिज हु
पावकलंकु
प्रसगाहु
रंग फिट्ट ग फिट्टह
रग फिट्टइ
रंग फिट्टइ
रण फिट्टइ
पाविहे
ग फिट्टइ प्रायहे जो घत्ता - ग्रहवा जं जिह जेरण किर जिह श्रवसमेव होएवउ । तं तिह तेरण जि बेहिएरम तिह एक्कंगेरग सहेवउ ॥
ण (भ) = नहीं फिट्टइ (फिट्ट) व 3 / 1 इस लोक में गिद्धु (गिद्ध) 1 / 1 पंकए ( पंक) 7 / 1 1 / 1 अनि ।
पंकए भिगु पठ्ठे । पंडियलोयविवेज 1
गिद्धरणचिरो विसाउ ।
रग फिट्टइ मारणचित्तु कयंते 1
रंग
फिट्टइ वल्लहे चित्तु चट्टु । 5
रग फिट्टइ सासए सिद्धसमूह । ग फिट्टए कामुयचित्ते भसंकु । सुछंदु वि मोतियवामउ एह ।
10
(8.9)
=
श्रक पेयवणे26 ( पेयवण ) 7 / 1 इह ( अ ) भिंगु (भिंग) 1 / 1 पट्टु (पइट्ठ) भूकृ
(1)
तुंबरणारयगेउ [ ( तुंबर) - ( णारय ) - ( अ ) 1 / 1 ] पंडियलोयविवेज [ ( पंडिय) - (लोय ) - ( विवेध) 1 / 1] ।
(2)
[30] अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 237
बुजणे 26 ( दुज्जण) 7/1 वुट्टसहाउ [ ( दुट्ठ) भूक अनि - (सहा) 1 / 1 ] रिङ्खणचिरो [ ( णिण ) - (चित्त) 277 / 1] विसाउ ( विसा ) 1 / 1 | (3)
लोहु (लोह) 1 / 1 महाघणवंते ( महाधरणवंत ) 287 / 1 वि मारणचित्तु [ ( मारण) - (चित्त) 1 / 1] कयंते ( कयंत ) 29 7/1 । (4) जोब्वणइत्ते ( जोव्वरण - इत्त) 7 / 1 वि मरट्टु ( मरट्ट) 1 / 1 वल्लहे ( वल्लह) 7 / 1 चित्तु (चित्त) 1 / 1 चट्ट (चट्ट) 1 / 1वि । (5)
fafa (far) 7/1 महाकरिजूहु [ ( महाकरि ) - ( जूह) 1 / 1] सासए 2 (सासन ) 7/1 सिद्धसमूह [ ( सिद्ध ) - (समूह) 1 / 1 ] । (6)
25 से 34. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे. प्रा. का. 3-136)
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जैन विद्या
पाविहे (पाव) 5/1 पावकलंकु [ (पाव) - ( कलंक) 1/1] कामुयचित्ते [ (कामुय ) (चित्त) 7 / 1 ] झसंकु ( झसंक) 1 / 1।
(7)
प्राय 84 (प्राय) 7 / 1 जो (ज) 1 / 1 सवि प्रसगाह (प्रसगाह) 1 / 1 सुछंदु (सुछंद) 1 / 1 वि (प्र) = ही मोतियवामउ ( मोत्तियदाम) 1 / 1 'अ' स्वार्थिक एह (एम) 1 / 1 सवि । (8)
+
ग्रहवा (प्र) = अथवा जं (प्र) = जहाँ जिह (प्र) = जिस प्रकार जेण ( ज ) 3 / 1 स प्रे किर (प्र) = पादपूरक प्रवसमेव ( अ ) = प्रवश्य ही होएवउ ( होहो एवा विधिकृ. हो वा होएव) विधिकृ 1 / 2 तं ( प्र ) = वहां तिह (प्र) = उसी प्रकार तेरा (त) 3 / 1 स . जिं (भ) = ही बेहिएरण ( देहिन) 3 / 1 तिह ( प्र ) = वैसे एक्कंगेरण ( एक्कंग) 3 / 1 वि सहेवउ ( सह + एवा सहेवा सहेवउ ) विधिकृ 1 / 2 (9, 10)
57
इस लोक में श्मशान से गिद्ध अलग नहीं होता है । कमल में घुसा हुमा भौंरा ( उससे ) दूर नहीं होता है (1) । तुम्बर और नारद का गीत नहीं छूटता है । ज्ञानी समुदाय ( मनुष्यों) का विवेक नष्ट नहीं होता है ( 2 ) । दुष्ट स्वभाव दुर्जन से प्रोझल नहीं होता है । निर्धन के चित्त से चिन्ता समाप्त नहीं होती है ( 3 ) । महाधनवान् से लोभ नहीं जाता है । यमराज से मारने का भाव दूर नहीं होता है ( 4 )। यौवनवान् से अहंकार नहीं हटता है । प्रेमी में लगा हुआ मन विचलित नहीं होता है ( 5 ) । महान् हाथियों का समूह विध्य पर्वत से नीचे नहीं आता है । सिद्धों का समूह शाश्वत (जीवन) से रहित नहीं होता है ( 6 ) । पापी से पाप का कलंक छूटता नहीं है । कामुक चित्त से कामदेव हटता नहीं है ( 7 ) | ( इसी प्रकार ) ( रानी का ) जो कदाग्रह ( प्रनैतिक निश्चय ) ( है ) ( वह ) ( उसके ) हटेगा, ( ऐसा लगता है) । यह ही मौत्तिकदाम छन्द ( है ) ( 8 ) ।
मन से नहीं
धत्ता - या ( ऐसा कहें कि ) जहां (घटनाएँ ) जिस प्रकार अवश्य हो जिस व्यक्ति के द्वारा जैसी उत्पन्न की जायेंगी, वहाँ (वे) उसी प्रकार उस ही व्यक्ति के द्वारा प्रकेले वंसी ही सही जायेगी । ( इसको टाला नहीं जा सकता है । (9, 10)
सुलहउ पायालए णायणाहु सुलहउ गवजलहरे जलपवाहु सुलहउ कस्सीरए घुसिर्णापड सुलहउ दीवंतरे विविहभंडु सुलहउ मलयायले सुरहिवाउ सुलहउ पहुपेसरणे कए पसाउ सुलहउ रविकंतमणिहिं हयासु सुलहउ प्रागमे धम्मोवएसु सुलहउ मणुयराणे पिठ कल जिणसासरणे जं ण कया विपत्तु
सुलहउ
सुलहउ
सुलहउ
सुलइउ
सुलहउ
विरहबाहु 1
वज्जलाहु
I
कमलसंडु 1
कामाउरे
वइरायरे
माणससरे
पाहाणे
गयरगर
ईसासे जरणे
वरलक्खणे
सुईणे
हिरण्णखंड 1
उरिहाउ । 5
कसाउ 1
पयसमासु । विसे ।
सुलहउ
सुलहउ
सुलहउ
1
पर एक्कु जि वुल्लहु भइपवित् किह णासमि तं चारिवि 110
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जनविद्या
__घत्ता- एम वियप्पिवि जाम घिउ अविनोलचितु सुहवंसणु ।
प्रभयादेवि विलक्स हुय ता णियमणे चितइ पुणु पुण ॥ 8.32
(1)
सुलहउ (सुलहन) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक पायालए (पायालम) 7/1 'अ' स्वार्थिक रणायणाहु [(णाल)-(णाय) 1/1] कामाउरे [(काम) + (प्राउरे)] [(काम)-(प्राउर) 7/1वि] विरहडाहु [(विरह) - (डाह) 1/1] .. गजलहरे [(णव) वि- (जलहर) 7/1] जलपवाहु [(जल) - (पवाह) 1/1]
बहरायरे [(वइर) + (प्रायरे)] [(वइर) – (आयर) 7/1] वज्जलाहु [(वज्ज).(लाह) 1/1]
• (2) कस्सीरए (कस्सीरम) 7/1 'अ' स्वार्थिक घुसिपिंडु [(घुसिण)-(पिंड) 1/1] माणससरे (माणससर) 7/1 कमलसंधु [(कमल)-(संड) 1/1]
दीवंतरे [(दीव) + (अंतरे)][(दीव)-(अंतर) 7/1] विविहभंदु [(विविह](भंड) 1/1] पाहाणे (पाहाण) 7/1 हिरण्णखंदु [ (हिरण्ण)-(खंड) 1/1] (4)
___ मलयायले [(मलय)+ (अयल)] [(मलय) (प्रयल) 7/1] सुरहिवाउ [(सुरहि) वि-(वाउ) 6/1] गयणंगणे (गयणंगण) 7/1 उडुणिहाउ [(उडु)-(णिहान) 1/1] ।
(5) पहुपेसणे [(पहु)-(पसण) 7/1] कए (कम) भूकृ7/1 अनि पसाउ (पसाम) 1/1 ईसासे (ईसा-स) 7/1 वि जणे (जण) 7/1 कसाउ (कसाम) 1/11 (6)
रविकंतमणिहि रविकंतमणिहि (रविकंतमणि) 3/2 हुयासु (हुयास) 1/1 वरलक्खणे [(वर)-(लक्खण) 7/1] पयसमासु [(पय)-(समास) 1/1] | (7)
मागमे (मागम) 7/1 धम्मोवएसु [(धम्म) + (उवएसु)] [(धम्म)-(उवएस) 1/1] सुकईयणे [(सुकई)35-(यण) 7/1] मइविसेसु [(मइ)-(विसेस) 1/1] । (8)
मणुयत्तणे (मणुयत्तण) 7/1 पिउ (पिन) 1/1 वि कलत्तु (कलत्त) 1/1 पर प्र =किन्तु एक्कु (एक्क) 1/1 वि जि (अ) ही दुल्लहु (दुल्लह) 1/1 वि पइपवित्त (अइपवित्त) 1/1 वि।
(9)
बिणसासणे [(जिण)-(सासण) 7/1] जं (ज) 2/1 स ग (म)=नहीं कया वि अ =कभी भी पत्तु (पत्त) भूकृ 1/1 अनि किह (अ)=कैसे जासमि (णास) व 1/1 सक तं (त) 2/1 स चारित्तवितु [(चारित्त)-(वित्त) 2/1] | (10)
35. समास में दीर्घ हुआ है, (हे. प्रा. व्या, 1-4)।
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जनविद्या
पत्ता-एम (म)=इस प्रकार वियप्पिवि (वियप्प+इवि) संकृ जाम (म)=जब पिउ थिन भूक 1/1 अनि प्रविमोलचितु (अविनोलचित्त) 1/1 वि सुहबसणु [(सुह) विदसण 1/1] प्रभयादेवि (अभयादेवि) 1/1 विलक्ख (विलक्ख) 1/1 वि हय (ह) भूक 1/1 ता (ता) 1/1 सवि णियमणे [ (णिय) वि-(मण) 7/1] "चितइ (चित) व 3/1 सक पुणु पुणु (अ)=बार-बार ।
पाताल में सर्पो का स्वामी सुप्राप्य (है); काम से पीड़ित (व्यक्ति) में विरह का संताप स्वाभाविक (है) (1)। नये बादल में जल का प्रवाह सरल (है); हीरे की खान में हीरे की प्राप्ति आसान है (2) । कश्मीर में केसरपिंड सुलभ (है); मानसरोवर में कमलों का समूह सुलभ (है) (3) । द्वीपों के अन्दर नाना प्रकार की वाणिज्य वस्तुएं सुप्राप्य (हैं); पत्थर में सोने का अंश सुलभ (है) (4)। मलय पर्वत से सुगन्ध-युक्त वायु का (चलना) स्वाभाविक (है); व्यापक प्राकाश में तारों का समूह स्वाभाविक (है) (5)। स्वामी का प्रयोजन पूर्ण किया गया होने पर पुरस्कार प्रासान (है); ईर्ष्या-युक्त व्यक्ति में कषाय स्वाभाविक (है) (6) । सूर्यकान्त मणियों द्वारा अग्नि आसानी से प्राप्त की जा सकती है। उत्तम व्याकरण-शास्त्र में पदों में समास आसान (है) (7) । मागम में मूल्यों के उपदेश सुलभ (हैं); सुकविजन में बुद्धि की श्रेष्ठता सुलभ (है) (8) । मनुष्य अवस्था में प्रिय पत्नी सुलभ (है); किन्तु जिनशासन में एक ही अतिपवित्र (चारित्र) दुर्लभ (है); जिसको (पहिले) (मैंने) कभी भी प्राप्त नहीं किया। उस चरित्ररूपी धन को (मैं) कैसे बर्बाद कर दूं (9,10) ?
पत्ता-इस प्रकार विचार करके जब (सुदर्शन) (जिसका) दर्शन मनोहर (है) शान्तचित्तवाला हुमा (तो) प्रभयादेवी लज्जित हुई (पौर) वह निज मन में बार-बार विचार करने लगी।
36. विलक्ष=विलक्खलज्जित (माप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश)।
.
...
संकेत सूची
- अव्यय इसका अर्थ=
लगाकर लिखा गया है। - अकर्मक क्रिया
अनियमित कर्मवाच्य
विम] - क्रिया विशेषण अव्यय
[इसका अर्थ लगाकर
लिखा गया है । - प्रेरणार्थक क्रिया
भविष्यत्काल भाववाच्य
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जनविद्या
1/1 अक या सक
-
उत्तम पुरुष/
एकवचन
1/2 अक या सक'
-
2/1 अक या सक
भूतकाल - भूतकालीन कृदन्त
वर्तमानकाल वर्तमान कृदन्त विशेषण विधि सर्वनाम सम्बन्ध भूतकृदन्त
सकर्मक क्रिया -- सर्वनाम विशेषण
स्त्रीलिंग
हेत्वर्थ कृदन्त - इस प्रकार के कोष्ठक
में मूल शब्द रखा गया
2/2 अक या सक
उत्तम पुरुष/
बहुवचन मध्यम पुरुष/
एकवचन मध्यम पुरुष
बहुवचन अन्य पुरुष/
एकवचन अन्य पुरुष/ बहुवचन
3/1 अक या सक
3/2 अक या सक
-
()
है
[( +( )+( )-] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न | 2/1 किन्हीं शब्दों में संधि का द्योतक है। यहां | 2/2 अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही | 3/1 रख दिए गये हैं। [( )-( )-( )] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर -' चिह्न | समास के द्योतक हैं। जहां कोष्ठक के बाहर केवल संख्या [जैसे 1/1, 1/2, 2/1 ""प्रादि ही लिखी है वहां कोष्ठक के अन्दर का शब्द संज्ञा है।
- प्रथमा/एकवचन - प्रथमा/बहुवचन - द्वितीया/एकवचन
द्वितीया/बहुवचन तृतीया/एकवचन तृतीया/बहुवचन चतुर्थी/एकवचन चतुर्थी/बहुवचन पंचमी/एकवचन पंचमी/बहुवचन षष्ठी/एकवचन
षष्ठी/बहुवचन - सप्तमी/एकवचन
सप्तमी/बहुवचन संबोधन/एकवचन संबोधन/बहुवचन
अहां कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं, वहां कोष्ठक के बाहर 'मनि' भी लिखा गया है।
8/1
8/2
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सुदंसणचरिउ उदात्त की दृष्टि से -डॉ. गदाधर सिंह
जो प्रालम्बन हमारे हृदय को उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित कर देता है, वह उदात्त है । प्राचार्य श्री जगदीश पाण्डेय ने उदात्त की विवृत्ति करते हुए लिखा है - " शब्दों में प्रोऽम् उदात्त है । गंगावतरण का हरहर उदात्त है । नियाग्रा प्रपात का हरहर घोष उदात्त है । प्रलय के महाविप्लव को झेलती मनु की नौका का हृदय उदात्त है । श्रर्द्धरात्रि के प्रसंख्य तारों का जमाव उदात्त है। शिव की प्रविचल मंगलशान्ति उदात्त है । प्रेम के वेग में तुलसी का सांप - रस्सीवाला मोह उदात्त है। राम या भरत का शील उदात्त है । और ग्रांखों का दर्प उदात्त है । XXX और फांसी पर चढ़ने के पहले बाबूजी ?' कहनेवाला पात्र उदात्त है । प्रोऽम् में ऊर्जस्वित प्राण हैं। गंगावतरण में अतिशय वेग है। मनु की नौका में निःशेष सहिष्णुता है । तारों के जमाव में निस्सीम प्रायः विस्तार है । तुलसी में लगन का पूरा पागलपन है | राम में त्याग और भरत में अनुराग की प्रतिशेयता है । फांसीवाले पात्र में प्रमाद का प्रतिगुणन है । "1
मृगराज को गर्दन 'एक सिगरेट दोगे
पाश्चात्य साहित्य - शास्त्र में सौन्दर्य-विवेचन के प्रसंग में उदात्त तत्त्व का भी विवेचन अनिवार्य रूप से होता प्राया है। काव्य में उदात्त तत्त्व की विवेचना करनेवाले पाश्चात्य विद्वानों में लांजाइनस (ई.पू. पहली शती), बर्क, कांट, हीगेल, ब्रॉडले, कैरंट, ब्रुक, वाल्टपेटर, सारायना, बोसांके, युग प्रादि की गणना की जाती है ।
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.
जनविद्या
इस विषय के विचारकों में लांजाइनस का नाम सबसे पहले पाता है । इसने अपनी प्रसिद्ध रचना 'पेरी हुप्साउस' में कला के अनिवार्य तत्त्व के रूप में उदात्तता (सब्लीमीरी) और भावोन्मेष (एक्सटेंसी) को महत्त्व दिया है । उनके अनुसार 'विस्मयकारी असाधारण सिद्धान्त' उदात्त की आत्मा है । असाधारण विस्तार, असाधारण सौन्दर्य, असाधारण भव्यता, असाधारण पूर्णता में ही उदात्त की भावना निहित है। अल्प की उपेक्षा महान् में, वामन की अपेक्षा विराट में, क्षुद्र की अपेक्षा महत्तम में, नद की अपेक्षा महानद में और लघु-लघु उर्मियों की अपेक्षा व्याल-सी तरंगों में उदात्तता अधिक है। उदात्त के उत्स पर प्रकाश डालते हुए इन्होंने पांच तत्त्वों को महत्व दिया हैक. महान्धारणा (Noesis) ख. उद्दाम भावावेग ग. उक्ति-निर्माण (schemata) घ. अभिजात्य पद-विन्यास (Phrasis) ङ. शालीन प्रबन्ध-रचना (synthesis)
. उदात्त में सर्वाधिक महत्त्व महान् विचार, भाव या कथ्य का होता है । इसमें कवि अपने उत्कृष्ट विचारों का सम्प्रेषण करता है। इसी को महान् धारणा कहा गया है । उद्दाम भावावेग के अन्तर्गत श्रद्धा, सौंदर्य, माधुरी, दीप्ति प्रादि का समावेश किया जाता है । आवेग के प्रभाव में उदात्त की दृष्टि में बाधा पड़ती है। विषय को गरिमामय करने के लिए उक्तिकौशल अनिवार्य है । अलंकार और शब्द-चयन इसके अन्तर्गत पाते हैं । रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, पर्यायोक्ति, जैसे अलंकार उदात्त के अनुकूल पड़ते हैं । इन सबके मिलने से शालीन प्रबन्ध-रचना की भित्ति निर्मित होती है।
... शैलीगत उदात्तता के भीतर लांजाइनस ने तीन तत्त्वों का समावेश किया है । प्रथम तत्त्व को उसने दीप्ति-भाव (माइडिया प्राफ ग्लो) कहा है। भव्यता, सौंदर्य, मार्दव और प्रौदार्य की जीवन्त अभिव्यक्ति के लिए दीप्तिमय भाषा की अनिवार्यता है । इसी से शैली में पोज एवं प्रवाह की संरचना होती है। लाक्षणिक प्रयोगों से सम्पन्न भाषा में उदात्त का निवास होता है। द्वितीय तत्त्व के रूप में विपर्यय-भाव को (माइडिया आफ इल्यूजन) लिया जाता है। इसमें अलंकार इस रूप में न रहें कि वे बोझ बन जांय । तृतीय तत्त्व के रूप में वैपरीत्य-भाव (माइडिया माफ कन्ट्रास्ट) का समावेश किया गया है । परस्पर विरोधी रंगों की संघटना द्वारा रंगों को उभारने की कला उदात्त के लिए श्रेय है । इस शैली के नियोजन द्वारा जिस गरिमामय रचना की सृष्टि होती है वह बंशी की ध्वनि की तरह कानों को ही नहीं आत्मा तक को सम्मोहित कर देती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि 'उचित' मोर 'उदात्त में अन्तर है । काव्यशास्त्रीय नियमों से निर्दोष होने पर भी रचना में उदात्त तत्त्व का समावेश नहीं हो सकता । इसके विपरीत यदि रचना में कुछ दोष भी हैं फिर भी वह महान् हो सकती है । भनेक दोषों के रहते हुए भी होमर, वाल्मीकि और तुलसी महान् हैं।
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जनविद्या
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. एडमंड बर्क ने उदात्त के मूल में 'हर्ष' की स्थापना की है। पीड़ा और खतरे से उत्पन्न दुःखबोष से मुक्त रखने का विचार हर्ष का जनक है। यही हर्ष उदात्त है । इस पर्थ में बर्क ने उदात्त के मूल में 'भयानक' की भावभूमि स्वीकार की है । करंट भी बर्क से प्रभावित थे। इन्होंने अपनी रचना 'कान्क्रीट प्राफ जजमेंट' में सौंदर्यतत्त्व के विवेचन के क्रम में उदात्त पर विचार किया है । कान्ट 'सुन्दर' और 'उदात्त' को पृथक्-पृथक् मानते थे। एक गुणमूलक होता है और दूसरा मात्रामूलक । सुन्दर में सामंजस्य (हारमोनी) होता है और उदात्त में अनुरूपता होती है । कुरूपता में भी उदात्त का प्राधार, आकार (साइज) और शक्ति (पावर) दोनों है । प्रशान्त महासागर का विस्तार और सिंह की प्रांखों का दर्प, दोनों में उदात्त निहित है। कांट ने उदात्त में भय की स्थिति नहीं मानी है। अनन्त विस्तार के समक्ष खड़ा होने पर जब भय का लोप हो जाय और सुखद तथा तृप्तिप्रद अनुभूति का विस्तार हो तभी उदात्त की सृष्टि सम्भव है । कान्ट ने अध्यात्म-स्फूर्ति को ही उदात्त का सारतत्त्व स्वीकार किया है। "
हीगेल ने उदात्त का जिस रूप में विश्लेषण किया है उसमें अन्तर की अपेक्षा बाह पक्ष पर अधिक जोर है । इसमें 'विराट' पर अधिक ध्यान दिया जाता है । मिश्र का विशाल पिरामिड उदात्त का रूप है।
ब्रडले (आक्सफोडं लेक्चर्स पान पोयट्री) ने उदात्त के अन्तर्गत भय, रोमांच एवं आन्तरिक प्राह्लादपूर्ण वृत्तियों को स्थान दिया है । विश्वरूप श्रीकृष्ण के समक्ष रोमांचित अर्जुन का खड़ा होना उदात्त भाव का द्योतक है । ब्रडले ने उदात्त की व्याख्या के क्रम में पांच स्तरों का उद्घाटन किया है-सबलाइम, ग्रैंड, ब्यूटीफुल, ग्रेसफुल और प्रेटी । उदात्त के एक छोर पर सबलाइम है और दूसरे छोर पर प्रेटी।
भारतीय विद्वानों में उदात्त तत्त्व का सर्वथा मौलिक एवं गम्भीरतम विवेचन प्राचार्य श्री जगदीश पाण्डेय की लेखनी से हुआ है। उन्होंने उदात्त के सम्बन्ध में लिखा है-"जहां कहीं किसी वस्तु, स्थिति, घटना तथा शील में हम उत्कर्ष के साथ लोकातिशयता अथवा लोकातिशयता के साथ उत्कर्ष के दर्शन करते हैं वहां हमें उदात्त के दर्शन हो जाते हैं।"...
जैसे-जैसे किसी पदार्थ या व्यक्ति की भौतिक सीमाओं का बन्धन टूटता है वैसे-वैसे उसमें सूक्ष्मता, व्याप्ति तथा उद्धार की योग्यता आती जाती है । किसी नायिका के साथ उद्यान में केलि करनेवाले की अपेक्षा पड़ोसी, परिवार, प्रान्त, देश तथा विश्व की ओर क्रमशः उन्मुख होनेवाला नायक उदात्त की सोपान-सरणि बनाता है।
लोकातिशय एवं प्रलौकिक में तात्त्विक अन्तर होता है। अलौकिक में चमत्कार का तत्त्व निहित होता है । राम के छूते ही धनुष का चढ़ जाना मलौकिक है किन्तु राम की छवि-माधुरी को देखकर खरदूषण का स्तब्ध-मुग्ध हो जाना 'लोकातिशय' है । मात्र अतिशयता ही उदात्त का काम नहीं करती । यदि ऐसा होता तो अतिशयोक्ति से ही काम चल जाता। इसमें उन्नयन आवश्यक है।
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जैनविद्या
उदात्त में उत्कर्ष रहता है। स्वास्थ्य ठीक करने के लिए उपवास करने की अपेक्षा व्रत-भावना में उत्कृष्टता है । स्व से ऊपर उठने पर, उपयोगिता से ऊपर उठने पर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने पर तथा सीमा से विस्तार की भोर जाने पर ही उत्कर्ष की स्थिति सम्भव है। माचार्य श्री जगदीश पाण्डेय ने इन्हें क्रमशः सूक्ष्मोदात्त (Existentialistic Sublime) मूल्योदात्त. (Valus Sublime) परोदात्त (Altro Sublime) तथा विस्तारोदात्त Extentionistic Sublime की संज्ञा प्रदान की है।
शरीर से ऊपर उठकर मन, प्राण, प्रानन्द, चिन्मयता, भाव, विचार, कल्पना की उन्नत भूमियां सूक्ष्मोदात्त के विषय हैं। जहां किसी आदर्श या मूल्य के लिए उत्सर्ग की उन्नत भूमिका मिले वहां मूल्योदात्त होगा। विष के स्वाद का पता लगाने के लिए प्राण दे देनेवाला वैज्ञानिक मूल्योदात्त का उदाहरण होगा । 'स्व' के 'पर' में लय हो जाने की भूमिका परोदात्त है। गांधीजी परोदात्त की अमिताभ विभूति थे। जब कोई दृश्य सनातन अथवा सार्वभौम की कल्पना में रमा दे तब विस्तारोदात्त की सिद्धि होती है । इसका देशपक्ष लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई के रूप में पाया जाता है । 'कामायिनी' में हिमगिरि के उत्तुंग शिखर की ऊंचाई तथा प्रलय की जलराशि के चित्र को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
कवि नयनन्दी उदात्त भाव के कवि हैं। इनकी कृति में प्रात्मा के उत्थान का परमोदात्त रूप चित्रित हुआ है। बारह सन्धियों में रचित 'सुदंसणचरिउ' को पढ़ लेने के बाद भारतीय संस्कृति का वह उदात्त रूप स्पष्ट होता है जो भोग के स्थान पर त्याग एवं वैराग्य को समेट कर चलता है । यह व्यक्ति के साथ-साथ समाज के विकास का इतिहास-दर्शन है । व्यक्ति इच्छामों एवं वासनामों की पूर्ति का अधम साधन-मात्र नहीं है वरन् है आत्मशक्ति से सम्पन्न प्रज्ञा-पुरुष । वह चर्मशरीरी नहीं, शुद्ध-बुद्ध प्रात्मा है। 'सुदंसणचरिउ' में जहां एक ओर विलास की अपकर्षता है वहां दूसरी ओर एक महामानव के चरमोत्कर्ष की गाथा भी है । सम्पूर्ण प्रलोभनों को ठुकराता एवं लौकिक-अलौकिक उपसर्गों की उपेक्षा करता कथानायक सुदर्शन जब साधना के महापथ पर अग्रसर हो जाता है तो वह व्यक्ति नहीं रहकर व्यक्तित्व बन जाता है, द्रव्य नहीं रहकर भाव बन जाता है ।
जीव अपनी क्षुद्र सीमानों में बद्ध है । इससे ऊपर उठकर शुद्ध, चैतन्य, आनन्द-धन की स्थिति प्राप्त कर लेना ही जीवन का पुरुषार्थ है । कवि इस दर्शन को भाव का रूप प्रदान करने के लिए नायक के जीवन को अपना वर्ण्य-विषय बनाता है । कवि का लक्ष्य है जन-जीवन को अमृत-आलोक का दान । व्यक्ति की समाधि समष्टि में है। व्यष्टि के माध्यम से लोक को प्राध्यात्मिक-संजीवनी प्रदान करना कवि की दृष्टि है। रूप की प्रासक्ति आत्मा के उत्कर्ष की सबसे बड़ी बाधा है। इस बाधा के संवरण के बाद ही जड़ता का उत्कर्ष . केवल-ज्ञान की सोपान-सरणि बन सकता है।
___'सुदंसणचरिउ' की कथा प्रात्मा के उत्थान की कथा है । प्रात्मा का उत्थान एक -- दिन, एक युग या एक जन्म में सम्भव नहीं है। यह तो उत्तरोत्तर विकास-सरणि है। कथा
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जैन विद्या
नायक प्रकृति, संस्कृति और संस्कार से एक उदात्त मानव है । विलास का महारास उसके हृदय में क्षोभ उत्पन्न करने में असमर्थ है । वह वासना का मुरझाया हुमा केतकी-पुष्प नहीं अपितु धर्म-सरोवर में खिला हुमा कमल है जिसके पराग में मोक्ष लिपटा है। वह पलायनवादी संन्यासी नहीं वरन् परिवार-सूत्र में बंधा हुमा विरल-गृहस्थ है। मर्यादा-गम्भीर, पुरुषोत्तम, मानवीय भावों से सम्पन्न महामहिम यह पुरुष सहज ही उदात्त की आधारशिला है ।
'सुदंसणचरिउ' में जिस जीवन-दर्शन को स्वीकार किया गया है वह वासना की विडम्बना, इन्द्रिय-विजय की सुफलता, धर्म की दुर्लभता एवं सम्यक्ज्ञान का प्रतिपादक है । कवि प्राश्चर्यचकित है कि इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर भी जीव सुखदायी धर्म का चिन्तन क्यों नहीं करता? धर्मरूपी प्रदीप के प्रकाश में चलने पर ही जन्म-मरणरूपी आवागमन के अन्धकारमय कूप में गिरने से बचा जा सकता है। इस दृष्टि को सामने रखने के कारण कवि ने कहीं प्रालिंगन, मुस्कान, मदन परवशता, विरहजाल, नीवी-बंधन, रतिसुख, स्पर्श-सुख, थरथर-गात के उल्लेख द्वारा वासना के मोहक स्वर्ग को धरती पर उतारा है और कहीं काम एवं भोग का अपकर्ष दिखाकर कष्टमय साधना को शाश्वत अनिवार्यता का गौरव प्रदान किया है । सत्य को घटनामों में और अर्थ को बिम्बों में साकार करने से ही साहित्य की सृष्टि होती है । कोरा सत्य साहित्य के लिए प्रेय ही है। 'सुदंसणचरिउ' प्रेय को श्रेय में परिवर्तित करने का सत्प्रयास है और इसी अर्थ में यह उदात्त है ।
शिल्प-विधान
काव्य के दो पक्ष होते हैं-रागपक्ष और शिल्पपक्ष । प्रथम का सम्बन्ध अनुभूति से है, भाव से है, विचार से है । काव्य में अमूर्त भाव या विचार को मूर्तरूप प्रदान किया जाता है, निर्गुण-निराकार को सगुण-साकार विग्रह देना पड़ता है। इसके लिए कवि को कल्पनाशक्ति एवं शब्दशक्ति का प्राश्रय लेना पड़ता है। इन्हीं के द्वारा अमूर्त मूर्तरूप धारण करता है और भाव या विचार में मनोरमता आती है । इसे ही शिल्प कहते हैं ।
- काव्य के क्षेत्र में कवि संस्कृत की उस उत्तरवर्ती परम्परा का अनुयायी है जिसमें प्रलंकृत पद-रचना को काव्य की प्रात्मा के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। कालिदास एवं भवभूति की सरस काव्य-रचना का स्थान माघ एवं दण्डी की अलंकार-प्रधान · रचना ने ले लिया था । नयनन्दी काव्य में अलंकारों को प्रधानता देनेवाले कवि हैं
लक्सरणवंति य सालंकारिय,
सुकइकहा इव जरणमणहारिय। 2.6 वह सुलक्षणों से युक्त और अलंकार धारण किये हुए लोगों के मन को उसी प्रकार प्राकृष्ट करती थी जैसे काव्य के लक्षणों से संपन्न प्रलंकारयुक्त सुकवि कृत कथा।
नयनन्दी की दृष्टि में रस का प्राधान अलंकारों में ही निहित है। प्रलंकार-रहित काव्य रससृष्टि करने में समर्थ नहीं हो सकते ।
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जैनविधा
णो संजावं तरुणिमहरे विभारतसोहे । णो साहारे भमियभमरे व पुंडच्छुवंरे । पो पीऊसे रणहि मिगमदे चंदणे रणेव चंदे । सालंकारे सुकइभणिदे जं रसं होइ कन्वे ॥ 3.1
न तो प्रवाल की ललिमा से शोभित तरुणी के अधर में, न भौंरों को नचानेवाले प्राम में और न मधुर इक्षु-दण्ड में, न अमृत में, न कस्तूरी में, न चन्दन में और न चन्द्र में वह रस मिलता है जो सुकवि रचित प्रलंकारयुक्त काव्य में प्राप्त होता है ।
प्रश्न है कि क्या नयनन्दी ने अलंकार को काव्य के बाह्य शोभाकारक धर्म के रूप में स्वीकार किया है ? कुछ प्राचार्यों ने अलंकार की उपयोगिता मात्र इतनी ही मानी है कि जिस प्रकार हारादि.अलंकार रमणी के नैसर्गिक सौंदर्य की शोभावृद्धि के उपकारक होते हैं, उसी प्रकार उपमादि अलंकार काव्य की रसात्मकता के उत्कर्षक हैं । इस अर्थ में प्रलंकार काव्य के बाह्य शोभाकारक धर्म ही ठहरते हैं । नयनन्दी ने इससे व्यापक अर्थ में अलंकार को स्वीकार किया है । सम्भवतः वे वामन (काव्यालंकार सूत्र) के अनुयायी हैं। जिन्होंने अलंकार शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया है । संकीर्ण अर्थ में प्रलंकार , काव्य के वे धर्म हैं जिन्हें दण्डी ने शोभाकर कहा था
काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते । काव्यादर्श, 2.1 ___ व्यापक अर्थ में सौंदर्य मात्र को अलंकार कहते हैं, इसके अन्तर्गत वे सभी विधाएँ मा जाती हैं जिनके कारण काव्य हमारे मन को आकृष्ट करता है
काव्यं प्राह्ममलंकारात् । सौंदर्यमलंकारः ॥ . नयनन्दी ने शब्द-अर्थ की समृद्धि, कोमल-पद, गम्भीर, उदार, छन्दानुवर्ती भादि सभी का ग्रहण अलंकार के भीतर किया है
चडियसरासणु व सुगुरगड्ढउ,
महकइकहबंधु व प्रत्यढउ । 2.5 वह महाकवि के ऐसे कथाबन्ध के समान था जो अर्थ से समृद्ध है।
कोमलपयं उपारं छंबाणुवरं गहीरमस्थळं ।
हियइच्छियसोहग्गं कस्स कलत्तं व इह कव्वं ॥ 8.1 कोमल-पद, उदार, छन्दानुवर्ती, गम्भीर, अर्थसमृद्ध तथा मनोवांछित सौंदर्ययुक्त कलत्र मौर काव्य इस संसार में किसी सौभाग्यशाली को ही प्राप्त होता है।
काव्य का लक्ष्य मात्र प्रानन्द प्राप्ति ही नहीं है। वरन् कवि की मंगलवाणी शाश्वतसुख अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति का कारण भी है। काव्य के उपसंहार में नयनन्दी ने लिखा है
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जनविद्या
67
जो पढइ सुरणइ भावइ लिहेइ,
सो सासयसुहु भइरें लहेइ। 12.10 जो कोई इस (केवलि-चरित्र) को पढ़े, सुने, भावे या लिखे वह शीघ्र ही शाश्वत सुख का लाभ प्राप्त करे।
नयनन्दी में उदात्त शैली का अनन्त प्रसार है। इनके उदात्तशिल्प की सबसे प्रमुख विशेषता है प्राच्छादन की कला । इसमें कलाकार शब्दों का ऐसा वात्याचक्र प्रस्तुत कर देता है कि एक-एक शब्द शत-शत शब्दों का हो जाता है । प्रारम्भ में ही कवि ने भगवान् जिनेन्द्र, मगष-देश एवं राजा श्रेणिक का ऐसा आलंकारिक वर्णन प्रस्तुत किया है कि प्राध्यात्मिक सर्जनात्मकता से संयुक्त वातावरण का सम्मोहक ध्वनि-धूम छा जाता है और पाठक उदात्त की भूमिका में स्वतः अवस्थित हो जाता है।
जसु रुउ णियंतउ सहसणेत्त, हुउ विभियमणु एउ तित्त पत्तु । .. जसुचरणंगुठे सेलराइ, टलटलियउ चिरजम्माहिसेइ ।
महि कंपिय उच्छिल्लिय समुद्र, गेल्लिय गिरि गलगज्जिय गइंद । प्रोसरिय सोह जग्गिय फणिव, उखसिय भक्तिणहे ससिविणिद। 1.1
जिनके रूप को देखते ही इन्द्र विस्मित हो गया और तृप्ति को प्राप्त न हुमा, जिनके जन्माभिषेक के समय चरणांगुष्ठ से सुमेरु भी चलायमान हो उठा, पृथ्वी काँप उठी, समुद्र उछल उठे, पर्वत डोलने लगे, गजेन्द्र चीत्कार करने लगे, सिंह दूर हो गए, फणीन्द्र जाग उठे, आकाश में चन्द्र और सूर्य तत्काल विहँस उठे-इत्यादि ।
ये पूरी पंक्तियां ध्वनि, भाषा, शब्द-नियोजन, नाद, प्राकृति, समासिकता, पालंकारिकता आदि के कारण विराट परिवेश को उपस्थित करती हुई उदात्त को प्रस्तुत कर
रही हैं।
उदात्त-सरणि के लिए प्रावश्यक है कि गति की भिन्न-भिन्न भंगिमानों को रचनाकार मूर्तता प्रदान करे । इसमें पाठकों को ऐसा अनुभव होना चाहिये कि कथा-प्रवाह समतल धरातल पर ही नहीं चल रहा है वरन् आवश्यकतानुसार पंख पसार कर भी और कभी-कभी चील की तरह आकाश में उड़ते-उड़ते झपट्टा मार कर भी चल रहा है। इससे काव्य में तेजस्विता एवं जीवन्तता पाती है ।
खगे हिक्का थक्का देइ झग, खरणे लोट्टइ पेट्टइ गोवथा । खणे गासइ तासइ एहि अहो, खणे कोडइ पीडइ गाँइ गहो । सणे धावइ प्रावइ गाँइ मणो, सणे दोसइ गासइ गाई घणो । मह एक चमक्कु वहंतु मणे, इल रक्यु समक्स पहत्तु सणे ॥ 2.13
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6.
बनविद्या
वह एक क्षण लुकता और झड़प देता था, एक क्षण में लौटता पौर ग्वाल-दल को पीटता था। क्षण में बह छिप जाता, किसी को त्रास देता और नीचे को चला जाता। क्षण में क्रीड़ा करता और ग्रह के समान पीड़ा देता । एक क्षण में दौड़ता और फिर वैसे ही वापस आता जैसे मन । एक क्षण में दिखाई देता और फिर विलुप्त हो जाता, जैसे धन ।
इसमें ऐसी निर्बन्ध एवं स्वछन्द शैली का पाश्रय लिया गया है जिससे गतिमयता प्रत्यक्ष हो जाय । झपट्टा मारनेवाली गति
को वि तोगजुयलेण भासुरो, उक्कमेइ गहे रणं खगेसरो। रणरहसेरण को वि सुहरू पवह यंभु उम्मूलिवि पावइ ।
बाणवंतु थिरथोरकर दुणिवार सुरवारण गावइ ॥ 9.1
कोई भट अपने तरकसों से ऐसा चमक उठा मानो गरुड़ आकाश में उड़ रहा हो। कोई सुभट रण के प्रावेग से एक बड़ा खंभा उखाड़कर दौड़ पड़ा मानो मद झराता हुमा स्थिर और स्थूल सूंडवाला दुर्निवार ऐरावत प्रकट हुप्रा हो ।
देमेत्रियस ने ध्वन्यात्मक कर्कशता से भी प्रौदात्य की वृद्धि स्वीकार की है। निम्नलिखित पंक्तियों में ध्वन्यात्मक कर्कशता के द्वारा विराट परिवेश प्रस्तुत किया गया है
तेण दाणोहगंग वि दोयंड संतासिया । ताण चिक्कारसवेण पंचाणणा रोसिया ॥ तेहिं रूजंतहि दिसाचक्कमाउरियं । तेण प्रासामरहिं पड़तेहि चिक्कारियं । प्रोवडतेहिं तेहिं पि भूमंडली होल्लिया।
ताए झलसायरा सायरा सत्त उच्छल्लिया ॥ 11.8 अपने गंडों में मद बहाते हुए हाथी भी संत्रस्त हो उठे और उनके चीत्कार शब्द से सिंह रुष्ट हो उठे । सिंहों की दहाड़ से दिशाचक्र आपूरित हो गया। इससे सागर-पर्यन्त गिरते हुए दिग्गजों ने चीत्कार छोड़ी। उनके गिर पड़ने से भूमण्डल डोलने लगा। उससे तरंगों युक्त सातों सागर उछलने लगे। मालंकारिक शैली का प्रयोग
___ सफल कलाकार उदात्त के अनुकूल अलंकारों का विधान करते हैं । उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, विरोधाभास प्रादि का सद्भाव उदात्त के अधिक अनुकूल पड़ता है। इन प्रलंकारों के प्रयोग में कवि ने प्रायः मसृण शैली का प्रयोग किया है। इस शैली की मूल निधि सौंदर्य है । प्रणय, परिणय, सौंदयांकन आदि के वर्णन में यह शैली उपस्थित हुई है । सायंकाल की तुलना विरहिणी नारी से देते हुए कवि ने उपमा अलंकार का बड़ा सटीक वर्णन किया है
मित्तविनोएँ गलिणि महासइ, कणिय चूडल्लउ ण पयासइ। 8.17
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जनविद्या
मित्र (सूर्य) के वियोग में मुरझाई हुई नलिनी के पुष्प कोष का विकास उसी प्रकार नहीं हुआ जिस प्रकार अपने मित्र के वियोग में महासती लज्जित होकर अपना चूड़ाबन्ध प्रकट नहीं करती ।
कवि की कल्पना शक्ति की परीक्षा उत्प्रेक्षा अलंकार में होती है। जो उत्प्रेक्षा हृदय की कृतियों को मात्र चमत्कृत न कर उसे ऊँचाई पर उठा दे वह उदात्त के अनुकूल होती है । किन्तु जो मात्र बुद्धि-विलास या कौतुक हो वह उदात्त के लिए प्रेय सिद्ध होता है । विपुलाचल की शोभा का वर्णन कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार द्वारा किया है
गायइ ।
करिगज्जियह पडहु णं वायर, कोइलकल वह णं तिणरोमेहि गाई पुलइज्जड़, णिज्भहि णं बहुलु पसिज्जइ ।
1.8
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वह पर्वत हाथियों के गर्जन से ऐसा प्रतीत होता था मानो नृत्य कर रहा हो, कोकिलों के कलरव द्वारा मानो गान कर रहा हो, नाचते हुए मयूरों द्वारा मानो नृत्य कर रहा हो, तृणरूपी रोमों द्वारा मानो पुलकित हो रहा हो, निर्झरों द्वारा मानो पसीज रहा हो ।
बुद्धिविलास से सम्बन्धित उक्तियां कौतूहल की सृष्टि अधिक करती हैं, हृदय को माती नहीं हैं । प्रस्तुत प्रसिद्धास्पदा हेतूत्प्रेक्षा को इसके उदाहरण के रूप में रखा जा · सकता है
जाह चरण सारुण प्रइकोमल, पेच्छेवि जले पइट्ठ रत्तुप्पल । जाहे पायणमणिहि विचित्त, णिरसियाई राहे ठिय क्सत्तई । जाहे चारुतिवलिहे ण पहुच्चाह, जलउम्मिउ सयसक्कर वच्चाह । जाहे नाहिगंभीरिमजित्तउ, गंगावत्तु ण थाइ भमंतउ । कलिय रोमावलय जइ णवि विहि विरयंतउ । तो मरणहरेण गुरुथरणहरेण मज्भु प्रवसु भज्जंतउ ॥
प्रयस
4.2
जिसके प्रति कोमल लाल चरणों को देखकर ही मानो लाल कमल जल में प्रविष्ट हो गये हैं उसके पैरों के नख़रूपी मणियों से विष्षण चित्त और हतोत्साहित होकर नक्षत्र श्राकाश में जाकर ठहरे हैं । उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा को न पहुँचकर जल की तरंगें अपने सौ टुकड़े कर चली जाती हैं। उसकी नाभि की गहराई से पराजित होकर गंगा का श्रवत्तं भ्रमण करता हुआा स्थिर नहीं हो पाता ।
उदित होते हुए सूर्य का मतवाले हाथी के रूप में रूपक अलंकार द्वारा चित्रण कर कवि ने दृश्योदात्त का रूप उपस्थित किया है
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जैनविद्या
ता जगसरवरम्मि णिसि कुमुइणि, उदु पफल्लकुमुयउबासिणि।
उम्मूलिय पच्चूसमयंगें, गमु सज्जिउ ससिहंसविहंगें। 5.10
जगतरूपी सरोवर से तारारूपी प्रफुल्ल कुमुदों से उद्भासित रात्रिरूपी कुमुदिनी को प्रत्यूषरूपी मतवाले हाथी ने उन्मूलित कर दिया। शशिरूपी हंस पक्षी ने गमन की तैयारी की।
दृश्योदात्त का एक रूप तब होता है जब प्रकृति में निहित आनन्द या मंगल का दर्शन कवि कराता है । अंग्रेज कवि शैली ने गगन-विहारी पक्षी को 'मुक्ति का प्रात्माराम' गायक कहा था और टैगोर ने बरसात के तुमुल छंद में, नवधन मेघ के गंभीर घोष में किसी के प्राणों का गान सुना था
प्राजि उत्ताल तुमुलछन्द,
प्राजि नवधन-विपुल-मन्द्रे । प्रामार पराने ये गान बाजाबे से गान तोमर करो साय, माजि जल भरा
बरषाय ॥ आविर्भाव कविता कवि नयनन्दी ने रात्रि को रमणी के रूप में देखा है और रूपक अलंकार द्वारा उसे मानवी स्वरूप प्रदान किया है।
गहमरगयभायणे वरवंदणु, संझाराउ घुसिण ससि चंबणु । ससिमिगु कत्यूरी गिर सामल, वियसिय गह कुवलय उड़ तंदुल।
लेविण मंगलकरणणुराइय, णिसितरट्टि तहिं समए पराइय। 5.8 .
नभरूपी मरकत पात्र में श्रेष्ठ वंदन के लिए संध्या रागरूपी केसर, शशिरूपी चंदन, चन्द्रमृगरूपी श्यामल कस्तूरी, विकसित नक्षत्ररूपी प्रफुल्ल कमल तथा तारारूपी तंदुल-इन मंगल-सामग्री को लेकर अनुरागयुक्त निशारूपी रमणी उस समय मा पहुंची।
दृश्योदात्त चित्रमयता में अपने को अधिक स्पष्ट करता है। चित्रमय विधान में कविकल्पना इन्द्रिय-बोध के अनेक स्तरों पर संश्लिष्ट रूप में कार्य करती है। इससे कविता में अनेक अर्थों को स्पष्ट करनेवाले चित्र उभरने लगते हैं। सरोवर के वर्णन में कवि ने लिखा है
कलमरालमुहबलियसयवलं, लुलियकोलउलहलियकंबलं । पीलुलीलपयचलियतलमलं, गलियगलिणरयपिंगहुयजलं ।
मगिलविहुयकल्लोलहयथलं, तच्छलेण गं छिवइ गहयलं। 7.16 — कलमराल के मुखों द्वारा कमल-दल तोड़े जा रहे थे तथा डोलते हुए वराहों के झंडों द्वारा जड़ें खोदी जा रही थीं। हाथियों की क्रीड़ा से उनके द्वारा नीचे का कीचड़ चलायमान होकर ऊपर पा रहा था । कमलों से झड़ी हुई रज से जल पिंगलावर्ण हो रहा था। पवन से झकझोरी हुई तरंगों द्वारा थल भाग पर आघात हो रहा था, मानो वह उसी बहाने नभस्तल को छू रहा हो।
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जनविद्या
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बिम्ब योजना उदात्त के लिए श्रेय है । नयनन्दी के काव्य में बिम्बों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । उनके यहां बिम्बों के सभी प्रकार - चाक्षुष, श्रोत्र, प्रास्वाद्य, घ्राण, स्पर्शबिम्ब, शब्द- बिम्ब, गहवर - बिम्ब, जटिल-बिम्ब, पूर्ण - अपूर्ण - बिम्ब, रस- बिम्ब, विराट-बिम्ब, प्रादि के प्रभूत उदाहरण प्राप्त होते हैं । नयनन्दी के बिम्बों का मूल स्रोत है ज्ञान । जैन साहित्य में संसार की नश्वरता एवं जन्म चक्र की भयावहता को प्रतिबिम्बित करनेवाले जिन चित्रों का वर्णन हुआ है उन सबको यहां प्रतिष्ठा प्राप्त है । भँवर, वात, जलचर, बड़वानल, लहर, धर्मरूपी रत्न, उपसर्ग, अग्नि, सिंह, सर्प, सिन्धु, फूल, शल्य, दीप, इत्यादि ऐसे बिम्ब हैं जिनके प्रतीक - गर्भत्व को इस काव्य में प्राध्यात्मिकता का नूतन परिधान प्रदान किया गया है ।
कुल मिलाकर इस सम्बन्ध में कवि ने जैन धर्म दर्शन के उदात्त रूप को भाव-सिद्धि प्रदान की है । इसके उदात्त में प्राद्योपान्त शास्त्रीयता की गुरु- गम्भीरता है, कवि हृदय की करुण - विगलता है तथा जीवन के कंटकाकीर्णं पथ पर ग्रांधी, पानी तथा वज्रपात में विषयों से विरक्त हो, शीत, शांति एवं क्षमा के प्रदीप को जलाये हुए सावधानी से एकाकी चलते हुए महामानव की भ्रमरगाथा है । यदि कवि ने 'कवि - शिक्षा' के हठयोग को कुछ कम कर भावयोग से काम लिया होता तो उनकी कृति उदात्त की सिद्धिसरणि प्रमाणित होती ।
O
1. प्राचार्य श्री जगदीश पाण्डेय - उदात्त, सिद्धांत और शिल्पन, श्रर्चना प्रकाशन, धारा, प्रथम संस्करण 1974 ई.
2. प्राचार्य श्री जगदीश पाण्डेय - उदात्त, सिद्धांत और शिल्पन |
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मद्यपान के दुष्परिणाम
संधिज्जतए
सुहुमइँ सत्त
तं जो घोट्टइ
गायइ णच्चइ
कविलाई बंद
श्रभणिउ जंपइ
जुवह लग्गइ
भहउ वंक
uss विहत्थहो
छेरह हेर
रुज्भइ बज्झइ मुच्छाजुत्तहो मुह लंघेवि
भज्जगुणंतए
होंति बहुत्सइँ
सो रु लोट्टई ।
सुयr fres
विहसइ कंपइ
रंगइ वग्गइ
माउं जि संगइ |
गज्जइ रिकह
रथह कत्थहो
दारइ
मारइ ।
जुज्झइ मुज्झइ । मंडल मुहे तहो । पुणु पुणु सुंघेवि ।
अर्थ - (नशीले) गुणों की वृद्धि करने के लिए मदिरा सड़ाई जाती है । तब उसमें बहुत से सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं। जो मनुष्य इसे पीता है वह ( उन्मत्त होकर ) लोटता है, गाता है, नाचता है, सज्जनों की निन्दा करता है, कुत्तों की वन्दना करता है, हंसता है, बिना बुलाये बोलता रहता है, रेंगता है, कूदता है, युवतियों से लगता है, माता के संग लगने लगता है, भौंहें मरोड़ता है, गाता है, रेंकता है—व्याकुल होकर जहां कहीं पड़ ( गिर) जाता है । चिल्लाता है, पुकारता है, खोजता है, फाड़ता है, मारता है, अटकता है, बंधता है, जूझता है, घबराता है । मूच्छित हो जाता है, कुत्ते उसे लांघ जाते हैं, उसे बार-बार सूंघते है और उसके मुंह में मूत्र भी कर देते हैं ।
सुदंसणचरिउ 6.2
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भारतीय भाषाओं में सुदर्शनचरित-विषयक साहित्य
-डॉ. जयकुमार जैन
जैन साहित्य में अनेक चरितकाव्य लिखे गये हैं। महावीर के समकालीन पंचम अन्तःकृत केवली सुदर्शन को भी अनेक कवियों ने अपनी लेखनी का विषय बनाया है । तद्विषयक साहित्य के विवेचन के पूर्व सुदर्शनचरित पर संक्षिप्त उल्लेख सर्वथा समीचीन होगा। जैन वाङ्मय में सुदर्शन का पावन प्राख्यान णमोकार (पंचनमस्कार) मन्त्र के माहात्म्य को प्रदर्शित करने के लिए गुम्फित किया गया है । यह मन्त्र जैन परम्परा में अनादि मूलमन्त्र के नाम से विख्यात है। इसमें जैनधर्ममान्य अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य उपाध्याय एवं साधु का नमस्कारपूर्वक मंगल-स्मरण किया गया है। जैनधर्म के प्राणभूत इस मन्त्र को बहुत प्रतिष्ठा मिली है। सुदर्शन मुनि अपने पूर्वभवों की श्रृंखला में एक बार विन्ध्याचल पर एक भिल्लराज थे जिनका नाम व्याघ्र था। वहां से मरकर वे एक गोपाल के गृह में कूकर उत्पन्न हुए। यहीं से उनके जीवन में विस्तृत परिवर्तन हुआ ।. एक बार कानों में धार्मिक उपदेश सहसा ही पड़ जाने से उनका चित्त धर्म में प्रवृत्त हुमा और वे मरकर एक व्याध के यहां पुत्र हुए। मनुजभव की यह प्राप्ति कैवल्यप्राप्ति की सरणि बनी। वहां से शरीर त्यागने पर व्याधपुत्र का वह जीव पुण्यकर्मों के कारण चतुर्थभव में सुभग नामक एक ग्वाला हुमा । गाये चराते समय उसने एक दिगम्बर मुनिराज को देखा। श्रद्धा के वशीभूत होकर उसने उनकी वन्दना-स्तुति की। मुनिराज से प्राप्त णमोकारमन्त्र के प्रभाव से सुभग गोपाल ही अग्रिम
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जैनविद्या
जन्म में श्रेष्ठीपुत्र सुदर्शन हुआ। उन्हीं सुदर्शन ने दंगम्बरी दीक्षा धारण करके अपार यातनाएँ सहकर घोर तपस्या द्वारा कैवल्य को प्राप्त किया और संसार की जन्म-जन्मान्तर परम्परा का नाश कर निर्वाण को प्राप्त किया ।
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उपलब्ध जैन साहित्य में अन्तःकृत केवली मुनि सुदर्शन के चरित के कुछ संकेत सर्वप्रथम हमें प्राकृत भाषा में निबद्ध शिवार्य ( शिवकोटि) कृत मूलाराधना या भगवती आराधना में उपलब्ध होते हैं । वहां कहा गया है—
अण्णाणी वि य गोवो प्राराधित्ता मदो णमोक्कारं ।
चम्पाए सेट्ठिकुले जादो पत्तो य सामण्णं ॥1758॥
अर्थात् सुभग नामक ग्वाला ने अज्ञानी होते हुए भी मरते समय णमोकार मन्त्र की आराधना की जिसके फलस्वरूप वह चम्पानगरी के श्रेष्ठीकुल में उत्पन्न होकर श्रामण्य या मुक्ति को प्राप्त हुआ ।
मूलाराधना में सुदर्शनचरित के प्रख्यान का संकेत होने पर भी चरित वर्णित नहीं हुआ है । कथाकोशों और काव्यों के रूप में आनुषंगिक या स्वतन्त्र रूप से उनके चरित्र को लेकर जो ग्रन्थ लिखे गये हैं उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
1.
बृहत् कथाकोश
बृहत्कथाकोश के रचयिता हरिषेणाचार्य ने ग्रन्थ- प्रशस्ति में अपना पर्याप्त परिचय दिया है अतः इनका परिचय अन्धकाराच्छन्न नहीं है । हरिषेण के प्रगुरु ( गुरु के गुरु) पुनाट संघ के प्राचार्य मोनी भट्टारक थे। हरिषेण ने अपने कथाकोश की रचना वर्द्धमानपुर में की थी । इसका रचनाकाल अन्तःप्रमाण के आधार पर शक सं. 833 (931 ई.) है 12 बाह्य प्रमाणों के प्रालोचन - प्रत्यालोचन से भी यही काल निश्चित होता है ।
बृहत्कथाकोश संस्कृत भाषा में निबद्ध पद्यबद्ध रचना है । भगवती आराधना के इष्टान्तों में संसूचित कुल 157 कथाओं का इसमें वर्णन किया गया है । इसका परिमाण 12500 अनुष्टुप् प्रमाण है । इसकी 60वीं कथा सुभग गोपाल की है जो 173 पद्यप्रमाण है । इसमें णमोकार मन्त्र के माहात्म्य का विस्तृत विवेचन किया गया है । कथा के अन्त में इसे जिननमस्कार समन्वित कहा गया है । 3 जैन कथाओं की विकास परम्परा में तो इस ग्रन्थ का अद्वितीय महत्त्व स्वीकृत है ही, साथ ही काव्यों के स्रोतों के रूप में इसकी महती प्रतिष्ठा है । श्राचारविषयक तत्त्वों का भी इसमें सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है ।
2. सुदंसणचरिउ
सुदंसणचरिउ के रचयिता नयनन्दी प्राचार्य माणिक्यनन्दि त्रैविद्यदेव के शिष्य हैं । उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा का इस प्रकार विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है— कुन्दकुन्दान्वयी लक्षत्राचार्य पद्मनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णुनन्दि, विशाखनन्दि, रामानन्दि, त्रिलोकनन्दि, माणिक्यनन्दि, नयनन्दि । ग्रन्थकार के स्वयं के उल्लेख के अनुसार उन्होंने सुदंसणचरिउ की रचना. धारानगरी के एक जैन मन्दिर के विहार में बैठकर वि. सं. 1100 ( 1043 ई.) में की थी । उस समय धारा में त्रिभुवननारायण श्रीनिकेत नरेश भोजदेव का राज्य था 15
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जैन विद्या
-75
सुदंसणचरिउ 12 सन्धियों में विभक्त काव्य की दृष्टि से प्रत्यन्त मूल्यवान् रचना है। यद्यपि इसमें इतिवृत्त का प्रवाह अन्य जैन काव्यों की ही तरह है तथापि काव्यकोशल की दृष्टि से चरितकाव्यों का अनुपम उदाहरण है । इसमें पदे पदे कवि का पाण्डित्य एवं अलंकारप्रेम दर्शनीय है । अन्य जैनचरितकाव्यों की तरह इसमें भी नायक का जन्म, पराक्रम, पाणिग्रहण, विलास एवं पूर्वभवों का चित्रण हुआ है । एक विरहिणी का कामदेव के प्रति उलाहना वर्णित करते हुए कवि कहता है
पण पुणु सा पभणइ जरिणयताव । रे रे मयरद्वय खलसहाव । छलु लहेवि तुहुं वि महु तवहि देहु । सपरिसहो होइ कि जुत्तु एहु ॥
5.1.5-6
अर्थात् तापदग्ध विरहिणी बार-बार कहती है 'हे दुष्ट स्वभाववाले कामदेव, तुम मुझे छलकर संताप दे रहे हो । क्या सज्जन के लिए यह समीचीन है।' इस उदाहरण से सुदंसणचरिउ की भाषा, अलंकार सुषमा एवं प्रथंगांभीर्य की सुन्दर झलक मिलती है ।
3. कहाको
कवि, मुनि और पण्डित इन तीन विशेषणों से विशिष्ट श्रीचन्द की यह प्रपभ्रंश भाषा की रचना है । " दंसणकहरयणकरंडु और कहाकोसु की ग्रन्थ प्रशस्तियों के अनुसार श्रीचन्द की गुरु परम्परा इस प्रकार है - देशीगरण कुन्दकुन्दाम्नायी श्रीकीर्ति, श्रुतकीर्ति, सहस्रकीर्ति, वीरचन्द्र, श्रीचन्द । यद्यपि कहाकोसु की प्रशस्ति में रचनाकाल का उल्लेख नहीं है तथापि मुनि श्रीचन्द ने अपने अन्य ग्रन्थ दंसणकहरयणकरंडु की रचना वि. सं. 1123 (1066 ई.) में कर्ण राजा के राज्य में श्रीमालपुर में की थी ।
arty में 53 सन्धियां हैं जिनमें कुल 100 कथायें हैं। इनमें से अधिकतर का कथानक बृहत्कथाकोश के ही समान है । सन्धियां अनेक कडवकों में विभक्त हैं। इसकी 22 वीं सन्धि के 16 कडवकों में सुभग गोपाल एवं अग्रिमभव के सुदर्शन सेठ का विस्तृत विवेचन हुआ है ।
4. कथाकोश
इस ग्रन्थ के रचयिता प्रभाचन्द हैं। ये राजा जयसिंह देव के राज्य में धारानगरी के निवासी थे। जयसिंह 1018-55 ई. के मध्यवर्ती धारानरेश भोज के बाद शासनारूढ़ हुए । अतः उनका काल 11 वीं शताब्दी का मध्य माना जा सकता है । कुछ विद्वान् इन्हें प्रमेयकमलमार्तण्ड के रचयिता प्रभाचन्द्र से अभिन्न मानते हैं । 10 किन्तु भाषापरीक्षण से यह तथ्य समीचीन नहीं जान पड़ता है । कथाकोश की उपलब्ध प्राचीनतम हस्तप्रति वि. सं. 1368 (1311 ई.) में लिखित है । 11 इसी एकमात्र प्रति से मुद्रित प्रति का सम्पादन हुआ है ।
इस कथा कोश में मूलाराधना की गाथा 'अण्णाणी वि य................ " पत्तो य सामण्ण' में दृष्टान्त रूप में सूचित सुदर्शन मुनि की कथा दी गई है। इसका प्रारंभ 'अंगदेशे चम्पानगर्या राजा नृवाहनः होता है तथा 'सुकान्तपुत्रं निजपदे घृत्वा विमलवाहनमुनिपार्श्व तपो गृहीत्वा केवलमुत्पाद्य मोक्षं गतः' से समापन हो जाता है । 12
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जनविद्या
5. पुण्याश्रवकथाकोश
पुण्याश्रकथाकोश रामचन्द्र मुमुक्षु की रचना है। उन्होंने पुण्याश्रव-कथाकोश की प्रशस्ति में अपना संक्षिप्त परिचय दिया है । कन्नड भाषा का पाण्डित्यपूर्ण ज्ञान होने से उन्हें दक्षिण भारत का निवासी होना चाहिये । ये केशवनन्दि के शिष्य थे । पद्मनन्दि नामक प्राचार्य से उन्होंने व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था। प्रशस्ति में प्रथम दो पद्यों से उक्त तथ्यों की सूचना मिलती है ।13 रामचन्द्र मुमुक्षु का समय विवादास्पद है । विभिन्न प्रमाणों के आधार पर डा. नेमिचन्द्र शास्त्री इनका समय तेरहवीं शताब्दी का मध्यभाग स्वीकार करते हैं ।।
___पुण्याश्रवकथाकोश 4500 श्लोकप्रमाण रचना है। कवि ने 57 पद्यों में इसका सारांश भी लिखा है । वैदर्भी शैली में निबद्ध इस कृति में पाराधना, दर्शन, स्वाध्याय, पंचनमस्कारमन्त्र आदि से सम्बद्ध कथाएं हैं। पंचनमस्कार मन्त्र की आराधना, के फल को प्रकट करनेवाले सुग्रीव, वृषभ, वानर, विन्ध्यश्री, अर्धदग्धपुरुष, सर्प-सर्पिणी, पंकमग्न हस्तिनी, दृढ़सूर्यचोर और सुप्रसिद्ध सुदर्शन श्रेष्ठी के वृत्तान्त इसमें वर्णित हुए हैं। 6. सुदर्शनचरित
विपुल काव्य प्रणयन की दृष्टि से सुदर्शनचरित15 के रचयिता भट्टारक सकलकीति का स्थान सर्वोत्कृष्ट पोर महत्त्वपूर्ण है । इनके पिता का नाम कर्मसिंह पौर माता का नाम शोभा या । ये हूंवड जाति के थे और प्रणहिलपुर पट्टन के निवासी थे। बलात्कार गण ईडर शाखा का प्रारंभ भट्टारक सकलकीति से होता है ।18 विभिन्न प्रमाणों से सकलकीति का समय चौदहवीं शती का अन्तिम चरण तथा पन्द्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ठहरता है ।17 .- सुदर्शनचरित 8 सर्गों में विभक्त है । इसमें शीलव्रत के पालन में दृढ़ सेठ सुदर्शन का चरित वणित है । इसकी शैली उदात्त, भाषा प्रालंकारिक एवं सूक्तियों से समन्वित है। कथानक परम्परागत ही चित्रित हुमा है । 7. सुवर्शनचरित
संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रस्तुत काव्य के रचयिता विद्यानन्दि ने प्रत्येक अधिकार की मन्तिम पुष्पिका में अपना नामोल्लेख किया है । ग्रन्थ की अन्त्यप्रशस्ति में गुरुपरम्परा का स्पष्ट एवं विस्तृत वर्णन हुआ है । इस प्राधार पर उनकी गुरु-शिष्य परम्परा इस प्रकार है-10
मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण कुन्दकुन्दाम्नायी
प्राचार्य प्रभाचन्द्र
पदमनन्दि
देवेन्द्रकीति
विद्यानन्दि (प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता)
मल्लिभूषण
श्रुतसागर
सिंहनन्दि
नेमिदत्त
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जैन विद्या
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20
विद्यानन्द प्रष्टशाखा प्राग्वाटवंशी ( परवार ) जाति के थे तथा इनके पिता का नाम हरिराज था । डा. हीरालाल जैन ने विभिन्न प्रमाणों के प्राधार पर विद्यानन्दि का समय वि. सं. 1513 (1456 ई.) के लगभग माना है 22
सुदर्शनचरित 12 अधिकारों में विभक्त है । प्रथम अधिकार में तीर्थंकर वन्दना एवं पूर्वाचार्यं स्मरण के साथ भगवान् महावीर का समागम, द्वितीय में श्रावकाचारोपदेश, तृतीय में सुदर्शन जन्मोत्सव, चतुर्थ में मनोरमा के साथ विवाह, पंचम में सुदर्शन का सेठ होना, षष्ठ में प्रलोभन भौर अभयमतीव्यामोह, सप्तम में उपसर्ग निवारण एवं शीलप्रभाव, अष्टम में मनोरमा के पूर्वभव, नवम में बारह भावनाएं, दसवें में दीक्षा एवं तप, ग्यारहवें में कैवल्य तथा बारहवें में मोक्ष प्राप्ति का वर्णन हुआ है । सम्पूर्ण ग्रन्थ अनुष्टुप् छन्दों में है परन्तु अधिकारों के अन्त में छन्दों में परिवर्तन हुआ है। मध्य में 'उक्तं च' कहकर अन्य ग्रन्थों से प्राकृत एवं संस्कृत के पद्य उद्धृत किये गये हैं ।
नोट - विद्यानन्दि कृत इस सुदर्शनचरित के बारहवें अधिकार के अन्त में एक श्लोक पाया जाता है
गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभम् ।
नेमिदत्तो व्रती भक्त्या भावयामास शर्मदम् ।। 31 ।।
इस आधार पर कुछ विद्वानों ने इसे ब्रह्म नेमिदत्त विरचित मानने की भ्रांति की है तथा कुछ विद्वान् केवल बारहवें अधिकार को नेमिदत्त विरचित मानते हैं । परन्तु भावयामास भू धातु लिट् लकार का रिजन्त प्रयोग है श्रतः उसका नेमिदत्त ने ( अपने गुरु से ) रचना कई यह अर्थ लेना ही सुसंगत होगा। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा कृत "सम्वर्द्धन किया" या 'सम्पादन किया' अर्थ भी समीचीन नहीं है । डा. गुलाबचन्द्र चौधरी ने भी लिखा है कि विद्यानन्दि कृत उक्त काव्य को ही भ्रान्ति से उनके शिष्य ब्रह्म नेमिदत्त या मल्लिभूषण या विश्वभूषण कृत मान लिया गया है। 23
8. सुदर्शनरा
ब्रह्मजिनदास भट्टारक सकलकीर्ति के अनुज एवं अन्तेवासी थे । ये हूंवड जाति के धनी र समृद्ध श्रावक कर्णसिह एवं श्राविका शोभा के पुत्र थे । अनेक मूर्तिलेखों में इनका नामोल्लेख हुआ है । एक मूर्ति का स्थापना काल वि. सं. 1510 (1453 ई.) है । फलतः ब्रह्मजिनदास का समय पन्द्रहवीं शताब्दी माना जा सकता है 1 24
ब्रह्मजिनदास ने यद्यपि संस्कृत में भी अनेक ग्रन्थ लिखे हैं पर मूलतः ये राजस्थानी कवि हैं | राजस्थानी में इनकी 50 से भी अधिक कृतियां उपलब्ध हैं । इनमें एक सुदर्शन रास भी है जो पंचनमस्कार मन्त्र के महत्त्व को प्रकट करने के लिए लिखी गयी है ।
9. सुदंसणचरिउ
अपभ्रंश काव्य निर्माण में महाकवि रइवे को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है । ये काष्ठासंघ माथुरगच्छ की पुष्करण शाखा के थे। इनका जन्म पद्मावती पुरवाल वंश में हुआ था ।
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जनविद्या
पितामह का नाम संघपति, पिता का नाम हरिसिंह, मां का नाम विजयश्री और पत्नी का नाम सावित्री था । कवि ने अपने गुरु के रुप में विभिन्न कृतियों में गुणकीति, यशकीति, श्रीपाल, कमलकीति, शुभचन्द्र एवं भट्टारक कुमारसेन का उल्लेख किया है। इन्ही की प्रेरणा से कवि ने विभिन्न कृतियों का प्रणयन किया । अपभ्रंश साहित्य के अधिकारी विद्वान् डा. राजाराम जैन ने अन्तः बाह्य परीक्षण के आधार पर रइधू का काल वि. सं. 1457-1536 (1400 ई.1479 ई.) निर्धारित किया है ।25 उन्होंने अद्यावधि महाकवि रइधू के जिन उपलब्ध-अनुपलब्ध 37 ग्रन्थों का अन्वेषण किया है उनमें सुदंसणचरिउ भी एक है। यह रचना अनुपलब्ध है।
10. सुदर्शनचरित
वीरदास का दूसरा नाम पासकीर्ति भी मिलता है । सम्भवतः वीरदास त्यागी होने के बाद पासकीर्ति (पार्श्वकीति) नाम से प्रसिद्ध हुए । ये बलात्कारगण की कारंजा शाखा के भट्टारक धर्मचन्द्र द्वितीय के शिष्य थे । इन्होंने सुदर्शनचरित की रचना सं. 1549 (1627 ई.) में की थी । यह कृति मराठी भाषा की है। प्रस्तुत रचना में शीलव्रत और पंचनमस्कार मन्त्र का प्रभाव दिखाने के लिए सेठ सुदर्शन की कथा का अंकन किया गया है ।26
___मराठी भाषा में ही मेघराज के गुरुबन्धु कामराज ने सुदर्शनपुराण की रचना की थी। इनका समय भी लगभग 17 वीं शताब्दी है । अन्यत्र भी आनुषंगिक रूप से सुदर्शनचरित का विवेचन हुआ है।
सुदर्शनचरित विषयक स्वतन्त्र एवं मानुषंगिक साहित्य के इस विवेचन से अनायास ही हम इस निष्कर्ष को प्राप्त कर सकते हैं कि भारतीय भाषाओं के विकास में जैन कवियों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है तथा एक समृद्ध एवं ऐश्वर्यशाली साहित्यिक परम्परा का निर्माण किया है । निःसंशय सुदर्शनचरित विषयक साहित्य के अध्ययन से भारतीय भाषाओं के साहित्य का भण्डार और अधिक समृद्ध होगा ।
1. हरिषेण, बृहत्कथाकोश, प्रशस्तिपद्य 3-5 ।
सिंघी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, 1943, सम्पादक-उपाध्ये, डॉ. ए. एन. । 2. वही, प्रशस्तिपद्य 11-13। 3. 'इति श्री जिननमस्कारसमन्वितसुभगगोपाल कथानकमिदम्' वही, 60वीं सुभगगोपालकथा
की अन्तपुष्पिका। 4. 12.9, सुदंसणचरिउ, नयनन्दि, सम्पादक-जैन डॉ. हीरालाल, प्राकृत-जैनशास्त्र एवं
अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, 1960 । 5. सुदंसणचरिउ की अन्त्यप्रशस्ति । -6. प्राकृत ग्रन्थमाला अहमदाबाद, 1969, सम्पादक-जन डॉ. हीरालाल ।
साल।
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जैन विद्या
7. शास्त्री नेमिचन्द्र, तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, चतुर्थ भाग पृ. 132 1
8. एयारह तेवीसा वाससया विक्कमस्स णरवइणो । जया गया हु तइया समारिणयं सुंदरं कव्वं ॥ कण्णणरिदंहो रज्जेस हो सिरिसिरिमालपुरम्मि | बुहसिरिचंदे एउ किउ णंदउ कव्वु जयम्मि ||
- दंसणकहरयणकरंडु, प्रशस्तिपद्य 1, 2
9. कथाकोश, प्रस्तावना, पृ. 36, शास्त्री डॉ. नेमिचन्द्र, सम्पादक - उपाध्ये डॉ. ए. एन., भारतीय ज्ञानपीठ (भा. दि. जैन ग्रन्थमाला ) 1974 |
10. (i) जैन महेन्द्रकुमार, प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र की भूमिका ।
(ii) शास्त्री नेमिचन्द्र, तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, भाग - 3, g. 50-51 1
11. कथाकोश, अन्त्यपुष्पिका, पृ. 147 ।
12. कथाकोश, 23वीं कथा, पृ. 41-43
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13. (i) मुमुक्षु रामचन्द्र, पुण्याश्रवकथाकोश, शोलापुर, 1964 प्रशस्तिपत्र 1-2 | (ii) डॉ. जयकुमार, पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 20 ।
14. शास्त्री डॉ. नेमिचन्द्र, तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, भाग 4, पृ. 70
15. रावजी सखाराम दोशी, सोलापुर, वी. नि. सं. 2455।
16. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ. 158 ।
17. जैन डॉ. जयकुमार, पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 27
18. सम्पादक - जैन डॉ. हीरालाल,
19,70 I
भारतीय ज्ञानपीठ (भारतीय दि. जैन ग्रन्थमाला),
19. सुदर्शनचरित, 12.47-51 ।
20. जैन सिद्धान्त भास्कर, अंक 17, पृ. 51 ।
21. सुदर्शन चरित प्रस्तावना, पृ. 13-17 ।
22. शास्त्री नेमिचन्द्र, तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, भाग 3, पृ. 405
23. चौधरी डॉ. गुलाबचन्द्र, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 6, पृ. 199 ।
24. जैन डॉ. जयकुमार, पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 28
25. जैन डॉ. राजाराम, महाकवि रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ. 120 । 26. शास्त्री डॉ. नेमिचन्द्र, तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, भाग 4, g. 3201
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जीवन का यथार्थ
................."णरजम्म जम्महं । तं पावेप्पिणु मढमइ जो णवि धम्मु करेइ ।
सो सासयसुहलच्छिहि एतिहिं कुप्परु देइ। छणम्मि छणम्मि पहिठ्ठ चलेइ, ण कि पि वि प्राउ गलंतु कलेइ । तुम चिरुजीउ पहिठ्ठ हवेइ, मरेहि सणेप्पिणु रोसु करेई । ण जाणइ मझु पडेसइ कालु, अचितिउ गावइ मच्छहो जालु । ____x xxx मुमो णरु कासु वि होइ ण इठ्ठ, संबधव ते वि वहति अणिठ्ठ । छिवंति ण णावइ कालउ सप्पु, पिया सुय तक्खरणे चितहिं अप्पु। विणासि सरीरहो जाणिवि थत्ति, हियत्थे पयत्तणु कोरइ झत्ति।
अहो जण धम्म पईउ जि लेहु, बलेवि म जम्मणकूवे पडेहु । अर्थ-सब जन्मों में नरजन्म श्रेष्ठ है। उस नरजन्म को पाकर जो धर्म नहीं करता वह मूढबुद्धि शाश्वतसुखरूपील्लक्ष्मी (मोक्ष) को धक्का देता है । क्षण प्रतिक्षण हर्ष मानता हुधा चलता है और अपनी गलती हुई आयु को नहीं देखता । 'तुम चिरंजीव रहो' ऐसा वचन सुनकर हर्षित होता है और ‘मर जानो' सुनकर रोष करता है। यह नहीं जानता कि काल मुझ पर उसी प्रकार प्रकस्मात् आ पड़ेगा जिस प्रकार मछली पर जाल ।
. xxxx
मृतक मनुष्य किसी को भी इष्ट नहीं होता। सगे भाई-बंधु भी उसे प्रनिष्ट समझकर बाहर कर देते हैं। उसे छूते भी नहीं है, मानो वह काला सांप हो। उसी क्षण पत्नी, सुत (सब) केवल अपनी चिन्ता करने लगते हैं । अतएव, शरीर की नश्वर स्थिति को जानकर शीघ्रता से प्रात्महित में प्रयत्न करना चाहिये । अरे मनुष्य ! धर्मरूपी प्रदीप को लो (पकड़ो) जिससे लौटकर पुनः जन्मरूपी कूप में न गिरो।
-सुदंसणचरिउ 10.10
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हेमचन्द्र-अपभ्रन्श-व्याकरण
सूत्र-विवेचन
-डॉ. कमलबन्न सोगाणी
उत्थानिका
यह गौरव की बात है कि हेमचन्द्राचार्य ने अपभ्रंश की व्याकरण लिखी। उन्होंने इसकी रचना संस्कृत भाषा के माध्यम से की । अपभ्रंश व्याकरण को समझाने के लिए संस्कृतव्याकरण की पत्ति के अनुरूप संस्कृत भाषा के सूत्र लिखे गये । किन्तु सूत्रों का प्राधार संस्कृत भाषा होने के कारण यह नहीं समझा जाना चाहिए कि अपभ्रंश-व्याकरण को समझने के लिए संस्कृत के विशिष्ट ज्ञान की प्रावश्यकता है । संस्कृत के बहुत ही सामान्यज्ञान से सूत्र समझे जा सकते हैं। हिन्दी, अंग्रेजी आदि किसी भी भाषा का व्याकरणात्मक ज्ञान भी अपभ्रंशव्याकरण को समझने में सहायक हो सकता है ।
अगले पृष्ठों में हम अपभ्रंश-व्याकरण के सूत्रों का विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं। सूत्रों को समझने के लिए स्वरसन्धि, व्यंजनसन्धि तथा विसर्गसन्धि के सामान्यज्ञान की आवश्यकता है । साथ ही संस्कृत-प्रत्यय-संकेतों का ज्ञान भी होना चाहिये तथा उनके विभिन्न विभक्तियों में रूप समझे जाने चाहिये । अपभ्रंश में केवल दो ही वचन होते हैं-एकवचन तथा बहुवचन । प्रतः दो ही वचनों के संस्कृत-प्रत्यय-संकेतों को समझना आवश्यक है। ये प्रत्यय-संकेत निम्न प्रकार हैं
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02
जनविद्या
विभक्ति एकवचन के प्रत्यय
बहुवचन के प्रत्यय प्रथमा
जस् द्वितीया
शस तृतीया
भिस चतुर्थी
भ्यस् पंचमी
भ्यस् षष्ठी
प्राम् सप्तमी
इनमें से (1) सि. इसि, और डि के रूप 'हरि" की तरह चलेंगे। जैसे 'सि' का सप्तमी एकवचन में 'सौ' रूप बनेगा, तृतीया एकवचन में 'सिना' रूप बनेगा । इसी प्रकार दूसरे रूप भी समझ लेने चाहिये ।
. (2) अम्, जस्, शस्, भिस्, भ्यस्, पाम् और सुप् आदि के रूप हलन्त शब्द भूभृत् की तरह चलेंगे । जैसे भिस् का सप्तमी एकवचन में रूप बनेगा 'भिसि', 'अम्' का प्रथमा एकवचन के रूप बनेगा 'पम्', 'सि' का षष्ठी एकवचन में रूप बनेगा 'इसेः' । इसी प्रकार दूसरे रूप भी समझ लेने चाहिये।
(3) 'टा' के रूप ‘गोपा' की तरह चलेंगे । जैसे 'टा' का सप्तमी एकवचन में 'टि' रूप बनेगा, षष्ठी एकवचन में 'ट:' रूप बनेगा, तृतीया एकवचन में टा' बनेगा। इसी प्रकार दूसरे रूप बना लेने चाहिये।
(4) उत्+उ, प्रोत्-+यो, एत्-+ए, इत्+इ, पात्-या आदि हलन्त शब्दों के रूप भी भूमत की तरह ही चलेंगे। 'लुक्' शब्द के रूप भी इसी प्रकार चलेंगे।
..... (5) इनके अतिरिक्त कुछ दूसरे शब्द सूत्रों में प्रयुक्त हुए हैं। उनके रूपों को संस्कृत
ध्याकरण से समझ लेने चाहिये । उन शब्दों के रूप कहीं 'राम' को तरह, कहीं 'स्त्री' की तरह, कहीं 'गुरु' की तरह चलेंगे । इसी प्रकार दूसरे शब्दों को समझ लेना चाहिये । ...
सूत्रों को पांच सोपानों में समझाया गया है(1) सूत्रों में प्रयुक्त पदों का सन्धिविच्छेद किया गया है, (2)- सूत्रों में प्रयुक्त पदों की विभक्तियां लिखी गई हैं, . .., (3) सूत्रों का शब्दार्थ लिखा गया है, (4) सूत्रों का पूरा अर्थ (प्रसंगानुसार) लिखा गया है तथा (5) सूत्रों के प्रयोग लिखे गये हैं।
अगले पृष्ठों में संज्ञा से संबन्धित सूत्र दिए गये हैं। इन सूत्रों से निम्न तेरह प्रकार के शब्दों के रूप निर्मित हो सकेंगे -
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जैन विद्या
(क) पुल्लिंग शब्द - देव, हरि, गामणी, साहु, सयंमू (ख) नपुंसकलिंग शब्द - कमल, वारि, महु
(ग) स्त्रीलिंग शब्द कहा, मइ, लच्छी, घेणु, बहू
सूत्रों के प्राधार से उपर्युक्त तेरह प्रकार के शब्दों के रूप बना लेने चाहिये ।
1. हरि शब्द
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
संबोधन
2. भूभूत् शब्द
प्र.
वि.
तृ.
च.
पं.
प.
स.
हमने सूत्रों को समझाते समय कुछ गणितीय चिह्नों का प्रयोग किया है । यथा
'+' का चिह्न सन्धि के लिए है । '-' का चिह्न समास के लिए है । ' ( ) में मूल शब्द रखा है, और
विभक्तियों को 1 / 1 ( प्रथमा एकवचन ),
2 / 1 ( द्वितीया एकवचन),
2 / 2
(द्वितीयाबहुवचन),
3 / 2 ( तृतीया बहुवचन) श्रादि गणितीय श्रंकों से दर्शाया गया है ।
एकवचन
हरिः
हरिम्
हरिणा
हरये
हरे:
हरेः
हरी
हरे
एकवचन
भूभृत
भूभृतम्
भूभृता
भूभृते
भूभृत:
भूभृतः
भूभृति
हे भूभृत
द्विवचन
हरी
हरी
हरिभ्याम्
हरिभ्याम्
हरिभ्याम्
हर्योः
हर्योः
हरी
द्विवचन
भूभृतो
भूभृतौ
भूभृद्भ्याम्
भूभृद्भ्याम्
भूभृद्भ्याम्
भूभृतोः
भूभृतो:
हे भूभृती
बहुवचन
हरयः
हरीन्
हरिभिः
हरिभ्य:
हरिभ्यः
हरीणाम्
हरिषु
हरयः
बहुवचन
भूभृत:
भूभृतः
भूभृद्भिः
भूभृद्भ्यः
भूभृद्भ्यः
भूभृताम्
83
भूभृत्सु
हे भूभूतः
(5)
(3)
(5)
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जैनविचा
3 गोपा शब्द एकवचन द्विवचन
बहुवचन गोपाः गोपौ
गोपाः गोपाम् गोपौ
गोपः गोपा गोपाभ्याम्
गोपाभिः गोपे गोपाभ्याम्
गोपाभ्यः गोपः गोपाभ्याम्
गोपाभ्यः गोपोः
गोपाम् गोपि गोपोः
गोपासु हे गोपाः हे गोपी
हे गोपाः । 4. प्रौढ़-रचनानुवाद कौमुदी, डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी । 5. राम शम्द
गोपः
एकवचन
द्विवचन :
बहुवचन
..................
रामः
रामो
रामाः
रामम
रामो
रामान्
रामेण
रामाभ्याम्
रामैः
रामाय
रामाभ्याम्
रामेभ्यः रामेभ्यः
रामात्
रामस्य
रामाभ्याम् रामयोः रामयोः हे रामो
.
रामे हे राम
रामाणाम् रामेषु हे रामाः
6. स्त्री शब्द
एकवचन
बहुवचन
स्त्री
स्त्रिीयः
स्त्रिीयः
स्त्रीभिः
स्त्रिीयम् स्त्रिया स्त्रिय स्त्रियाः
द्विवचन स्त्रियो स्त्रियो स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्याम् स्त्रियोः स्त्रिीयोः हे स्त्रियो
स्त्रीभ्यः
स्त्रियाः
स्त्रीभ्यः स्त्रीणाम् स्त्रीषु हे स्त्रियः
स्त्रियाम् हे स्त्रि
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जैन विद्या
सूत्र - विवेचन
1. स्यमोरस्योत्
2. सौ पुंस्योद्वा
3. एट्टि
4/331
स्वमोरस्योत् [ (सि) + (प्रमो:) + (अस्य) + (उत्) ] [(सि) - (म्) 6 / 2] श्रस्य ( अ ) 6 / 1 उत् ( उत्) 1 / 1 । अकारान्त ( शब्दों) के परे 'सि' और 'अम्' के स्थान पर उत्- 'उ' (होता है) । अकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दों के परे सि (प्रथमा एकवचन के प्रत्यय ) श्रम् ( द्वितीया एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'उ' होता है । (देव + सि) = ( देव + उ ) = देवु (देव + श्रम् ) = ( देव + उ ) = देवु ( कमल + सि) = ( कमल + उ ) = कमलु ( कमल + प्रम् ) = ( कमल + उ ) = कमलु
देव (पु.)
कमल (नपुं. )
85
4/332
पुंस्योद्वा [ (पुंसि ) + (प्रोत्) + (वा) ]
(स) 7 / 1 पुंसि (पुंस) 7 / 1 प्रोत् (श्रोत्) 1 / 1 वा ( अ ) = विकल्प से । ( प्रकारान्त) पुल्लिंग ( शब्दों) में 'सि' परे होने पर विकल्प से ( उसका ) प्रोत् 'नो' (होता है) ।
प्रकारान्त पुल्लिंग शब्दों में सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) परे होने पर विकल्प से उसका 'प्रो' हो जाता है ।
देव (पु.) - ( देव + सि) = ( देव + श्रो) = देवो (प्रथमा एकवचन ) ।
(प्रथमा एकवचन ) ( द्वितीया एकवचन ) (प्रथमा एकवचन )
( द्वितीया एकवचन )
4/333
एट्टि [ ( एत्) + (टि)]
एत् ( एत् ) 1 / 1 टि (टा) 7/1
(अकारान्त ) ( शब्दों में ) 'टा' परे होने पर ( अन्त्य 'प्र' का) 'ए' (होता है)।
अकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दों में टा (तृतीया एकवचन का प्रत्यय) परे होने पर अन्त्य 'म' का 'ए' हो जाता है ।
देव (पु.) - ( देव + टा) = ( देवे + टा ) टा= ण और अनुस्वार (-) (4 /342) .. (देवे +टा) = ( देवे + ण) = देवेण ( तृतीया एकवचन )
4. ङिनेच्च
(देवे +टा) = (देवे + ) = देवें (तृतीया एकवचन )
कमल (नपुं) – (कमल +टा) = ( कमले +टा) टा=ण और अनुस्वार (-) (4/342) .. ( कमले + टा ) = ( कमले = रण) = कमलेण (तृतीया एकवचन ) (कमले + टा) = (कमले + 2 ) = कमलें (तृतीया एकवचन )
4/334
ङिच्च [ (ङिना ) + (इत्) + (च) ]
ङिना (ङि) 3 / 1 इत् ( इत्) 1 / 1 च (प्र) = मौर । ( प्रकारान्त शब्दों में )
( ङि परे होने पर ) कि सहित ( प्रन्त्य प्र ) ( के स्थान पर )
'
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जैन विद्या
इत्- और (एत्-ए) होते हैं । प्रकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों में डि परे होने पर जि (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय) सहित अन्त्य 'प्र' के स्थान पर 'ई' और 'ए' होते हैं। देव (.)-दिव+ङि) देवि (सप्तमी एकवचन)
(देव+डि)=देवे (सप्तमी एकवचन) कमल (नपुं) (कमल+ङि)=कमलि (सप्तमी एकवचन)
(कमल+ङि)=कमले (सप्तमी एकवचन) भिस्येद्वा... 4/335
भिस्यद्वा [(भिसि)+ (एव) + (वा)] भिसि (भिस्) 7/1 एत् (एव) 1/1 वा (अ) विकल्प से । (अकारान्त शब्दों में) भिस् परे होने पर एत्-+ए विकल्प से (होता है)। प्रकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों में भिस् (तृतीया बहुवचन का प्रत्यय) परे होने पर अन्त्य 'म' का ए विकल्प से होता है। देव (पु.)-(देव+भिस्) = (देवे--भिस्) : : भिस्=हिं (4/347)
.(देवे+भिस्)=(देवे+-हिं)=देवेहि (तृतीया बहुवचन) कमल (नपुं)-(कमल+भिस्)=(कमले+भिस) भिस्=हिं (4/347)
(कमले+भिस्)=(कमले+हिं) =कमलेहिं (तृतीया बहुवचन) 6. इसेहें-ह. 4/336
असेह- (उसेः) + (हे)-(ह)] इसेः (ङसि) 6/1 [(हे)-(हु) 1/2] (अकारान्त) (शब्दों से परे) 'इसि' के स्थान पर 'हे' प्रौर 'हु' (होते हैं)। प्रकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे सि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हे' मोर 'हु' होते हैं । देवा (पु.) -(देव+ङसि)=(देव+हे) =देवहे (पंचमी एकवचन)
-दिव+सि)= (देव+हु)देवहु (पंचमी एकवचन) कमल (नपुं)-(कमल+ङसि)=(कमल+हे)=कमलहे (पंचभी एकवचन)
--(कमल+ङसि)=(कमल+हु)=कमलहु (पंचमी एकवचन)
Yiwan
: म्यसो हं.-4/337::.
भ्य
स)+ (हुं)]
भ्यसाहाम
भ्यसः (म्यस्) 6/1 हं(ई) 1/1 (अकारान्त शब्दों से परे) भ्यस् के स्थान पर हैं (होता है)। प्रकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे भ्यस् (पंचमी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हुँ होता है। देव (पु.) –(देव+भ्यस्) = (देव+हुं)=देवहुं (पंचमी बहुवचन) कमल (ज.)-(कमल+भ्यस्)=(कमल+ह)=कमलहुं (पंचमी बहुवचन)
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जनविद्या । 8. ऊसः सु-हो-स्सवः 4/338
सः (ङस्) 6/1 सु-हो-स्सवः [(सु)-(हो)-(स्सु) 1/3)] (अकारान्त शब्दों से परे) इस् के स्थान पर सु, हो और स्सु (होते हैं)। प्रकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे इस् (षष्ठी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर सु, हो और स्सु होते हैं । देव (पु.)-(देव- ङस्)=(देव+सु)=देवसु (षष्ठी एकवचन) - (देव+ङस्)=(देव+हो)=वेवहो (षष्ठी एकवचन)
(देव+ ङस्) = (देव+स्सु)=देवस्सु (षष्ठी एकवचन) कमल (नपुं.)-(कमल+ङस्)=(कमल+सु)=कमलसु (षष्ठी एकवचन).. ।
(कमल+ङस्)=(कमल+हो)=कमलहो (षष्ठी एकवचन)
(कमल+ङस्)= (कमल+स्सु) कमलस्सु (षष्ठी एकवचन) 9. प्रामो हं 4/39
प्रामो हं [(प्रामः)+(हं)] प्रामः (प्राम्) 6/1 हं (हं) 1/1 (अकारान्त शब्दों से परे) प्राम के स्थान पर 'हं' होता है। प्रकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे प्राम (षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हं' होता है। देव (पु.)-(देव+प्राम)=(देव+ह)=देवहं (षष्ठी बहुवचन)
कमल (नपुं. -(कमल+प्राम्) = (कमल+ह) कमलहं (षष्ठी बहुवचन) 10. हुं चेदुद्भपाम् 4/340 :
हुंचेवुयाम् [(च)+इत्) + (उद्भयाम्)] हुं (हुँ) 1/1 च (प्र)=और [(इत्)-(उत्) 5/2] . . (पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों में) इत्-+इ, ई और उत्+छ, ऊ से परे (माम् के स्थान पर) हुँ' और 'ह' होते हैं। इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे 'पाम् (षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हु' और 'हं' होते हैं । हरि (पु.) -(हरि+आम्) =(हरि+हुं)=हरिहुँ । (षष्ठी बहुवचन)
(हरि+प्राम्)= (हरि+ह) हरिहं (षष्ठी बहुवचन) गांमणी (पु.) -इसी प्रकार गामणी के गामणीहुं और गामणीहं .
... ... (षष्ठी बहुवचन) वारि (नपुं.) - (वारि+प्राम्) =(वारि! हुं, ह) वारिहुं और वारिहं
. (षष्ठी बहुवचन) साहु (पु.) --(साहु+प्राम्) =(साहु + हुं, हं) =साहुहुं और साहुहं
(षष्ठी बहुवचन) सयंभू (पु.) --इसी प्रकार सयंभू के . . . . . =सयंमूहुं और सयंमूह
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जैविधा महु (नपुं.)-(महु+प्राम्) = (महु + हु, हं) = महुई और महहं
(षष्ठी बहुवचन) नोट-हेमचन्द्र की वृत्ति के अनुसार यह कहा गया हैइकारान्त और उकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे सुप् (सप्तमी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हु' भी होता है । हरि (पु.)-(हरि+सुप्)=(हरि+हुं)=हरिहं इसी प्रकार गामणीहुं, वारिहं, साहुहं, सयंमूह तथा महुई
(सप्तमी बहुवचन) 11 इसि-भ्यस्-डोना है-हुं-हयः 4/341
सि-म्यस्-(डीनाम्) + (हे)]-हुं-हयः सि-भ्यस्-डीनाम् [(ङसि)-(म्यस्)-(ङि) 6/3] । हे-हुं-हयः [(हे)-इं)-(हि) 1/3] (इकारान्त मोर उकारान्त से परे) सि, भ्यस, मोर जि के स्थान पर क्रमशः हे, हुं और हि (होता है)। इकारान्त मौर उकारान्त पुल्लिग पोर नपुंसकलिंग शब्दों से परे हसि (पंचमी एक वचन के प्रत्यय), भ्यस् (पंचमी बहुवचन के प्रत्यय) और कि (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय), के स्थान पर क्रमशः हे, हुं और हि होता है। हरि (पु.) (हरि+कसि)=(हरि+हे)=हरिहे (पंचमी एकवचन) गामणी (पु.) और वारि (नपुं.) के =गामीणोहे और वारिहे
__(पंचमी एकवचम) साहु (पु.), सयंभू (पु) और महु (नपुं) के साहुहे, सयंमूहे और महहे
(पंचमी एकवचन) हरि (पुं)-(हरि+भ्यस्) + (हरि+हुं) =हरिहुं (पंचमी बहुवचम) गामणी (पु.) और वारि (नपुं.) के गामणीहुं और वारिहूं
(पंचमी बहुवचन) साहु (पु.), सयंमू (पु.) और महु (नपुं.) के साहुहूं, सयंमूहं और महुहुँ
__(पंचमी बहुवचन) हरि (पु.)-(हरि+ (डि)=(हरि+हि)=हरिहि (सप्तमी एकवचन) गामणी (पु.) पौर वारि (नपुं) के =गामणीहि और वारिहि
(सप्तमी एकवचन) साहु (पु.), सयंभू (पु.) और महु के साहुहि, सयंभूहि और महुहि
(सप्तमी एकवचन) 12. पाट्टो गानुस्वारौ 4/342
माटो गानुस्वारी [(मात्)+(ट)+(ण)+(मनुस्वारी)] ... मात् (म) 5/1 2: (टा) 6/1 [(ण)-(मनुस्वार) 1/2]
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जैन विद्या
अकारान्त (शब्दों) से परे 'टा' के स्थान पर 'रण' श्रौर अनुस्वार (-) होते हैं । प्रकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे टा के स्थान पर 'ण' और ' होते हैं ।
(तृतीया एकवचन के प्रत्यय )
बेव (पु.) - (देव + टा) = (देव + ण) = (देवे + ण) = देवेण (तृतीया एकवचन) (देव + टा) = (देव + ) = ( देवे + - ) = देवें (तृतीया एकवचन ) कमल (नपुं. ) - ( कमल +टा) = ( कमल + ण) = ( कमले + + ण) = कमलेण ( तृतीया एकवचन )
( कमल + टा) = ( कमल + 2 ) = ( कमले + ) = कमलें
-
+ सूत्र 4/333 से 'देवे' व 'कमले' हुधा है ।
4/343
एं चेत: [ (च) + (इत्) + (उत्ः ) ]
एं (एं) 1 / 1 च (प्र) = प्रर [ ( इत् ) - ( उत्) 5 / 1]
13. एं चेतः
89
इत्+इ, ई और उत् उ, ऊं से परे (टा के स्थान पर) एं और ण तथा ( - ) (होते हैं) ।
(तृतीय एकवचन )
इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग व नपुंसकलिंग शब्दों से परे 'टा' (तृतीया एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'एं', 'ग' मोर' - 'होते हैं ।
हरि (पु.) - ( हरि + टा) = ( हरि + एं, ग, - ) हरिएं, हरिण, हरि
गामणी (पु.) और वारि ( नपुं.) के
साहू (पु.), सयंभू (पु.) और मह (नपुं) के साहुएं, साहुण, साहूं सयंभूएं, सयंभूण, सयंभू
14. स्यम् - जस्-शसां लुक्
( तृतीया एकवचन )
गामणीएं, गामणीरण, गामण (तृतीया एकवचन ) वारिएं, वारिण वारि ( तृतीया एकवचन )
महुएं, महुण, महुं (तृतीया एकवचन )
4/344 स्यम्-जस्–शसां-लुक् [(सि) + (प्रम्) - जस् - [ ( शसाम्) + ( लुक् ) ] [ ( स ) - (प्रम्) - ( जस्) - (शस् ) 6/3] लुक् ( लुक् ) 1 / 1
(प्रपभ्रंश में) सि, ग्रम्, जस् प्रोर शस् के स्थान पर लोप ( होता है)
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों से परे 'सि' (प्रथमा एकवचन के प्रत्यय), प्रम् (द्वितीया बहुवचन के प्रत्यय), जस् (प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय) प्रौर शस् ( द्वितीया बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर लोप होता है ।
( देव + सि, अम्, जस्, शस् ) = ( देव + 0,0,0,0 ) = वेव, बेब, बेब, देव, इसी प्रकार सभी शब्दों के रूप होंगे ।
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जैनविद्या
सयंभू
हैं 43 44 4 4 4 4 4 जुकाम
1 basierterarter
महु
कहा
मई
मइ.
घेण
घेणू
घेणु
बहू
... प्र. एकवचन द्वि. एकवचन - प्र. बहुवचन द्वि. बहुवचन देव (पु.)- देव
देव
देव हरि (पु.)- हरि
हरि हरि
हरि गामणी (पु.)- गामणी .. गामणी गामणी गामणी साहु (पु.)- साहु
साहु साहु
साहु सयंभू (पु.)- सयंभू
सयंभू सयंमू कमल (नपुं)
कमल कमल कमल
कमल वारि (नपुं.)- वारि
वारि वारि
वारि मह (नपुं.)- महु
महु
महु कहा (स्त्री.)- कहा
कहा । कहा . मइ (स्त्री.)
मइ
मइ लच्छी (स्त्री.)- लच्छी
लच्छी लच्छी
लच्छी घेणु (स्त्री.)- घेणु बहू (स्त्री.)- बहू 15. षष्ठ्याः 4/345
षष्ठ्याः (षष्ठी) 6/1 (मपभ्रंश में) षष्ठी विभक्ति के स्थान पर (लोप होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों से परे षष्ठी विभक्ति के एकवचन पौर बहुवचन के स्थान पर लोप होता है । (देव+षष्ठी विभक्ति)=(देव+0)=देव इसी प्रकार सभी शब्दों के रूप होंगे। षष्ठी एकवचन
षष्ठी बहुवचन देव (पु.)- देव
देव हरि (पु.)गामणी (पु.)गामणी
गामणी साहु (पु.)
साहु सयंभू (पु.)सयंभू
सयंभू कमल (नपुं.)कमल
कमल वारि (नपुं.)वारि
वारि महु (नपुं.)
महु कहा (स्त्री.)कहा
कहा. मइ (स्त्री.)
मइ' लच्छी (स्त्री.)- लच्छी
लच्छी घेण । (स्त्री.)घेण
। घेणूबहू (स्त्री.)--
हरि
साहु
मह
मइ
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जनविद्या
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16. अामन्त्र्ये जसो होः 4/346 भिस्सुपोहिं . 4/347
मामन्त्र्ये जसो होः [(जसः)+(हो.)] मामन्त्र्ये (प्रामन्त्र्य) 7/1 जसः (जस्) 6/1 होः (हो) 1/1 (अपभ्रंश में) संबोधन में 'जस्' के स्थान पर 'हो' होता है। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों के सम्बोधन में जस् (प्रथमा बहु
वचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हो' होता है । 17. भिस्सुपोहि 4/347
भिस्सुपोहिं [(भिस्) + (सुपोः) + (हिं)] [(भिस्)-(सुप्) 6/2] हिं (हिं) 1/1 (अपभ्रंश में) भिस् और सुप् के स्थान पर हिं' (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों से परे भिस (तृतीया बहुवचन के प्रत्यय) और सुप् (सप्तमी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हि' होता है। [उपर्युक्त दोनों सूत्रों के उदाहरण एक साथ दिये जा रहे हैं ।] 4/346 (देव+जस्)= (देव+हो)= हे देवहो (संबोधन बहुवचन)
इसी प्रकार दूसरे शब्दों के रूप में होंगे । 4/347 (देव+भिस्)=(देव+हिं)+देवहिं (तृतीया बहुवचन)
(देव+सुप्)=(देव+हिं)=देवहिं (सप्तमी बहुवचन)
इसी प्रकार दूसरे शब्दों के रूप होंगे। 4/346 संबोधन बहुवचन 4/347तृतीया बहुवचन 4/347 सप्तमी बहुवचन हे देवहो
देवहिं - देवहिं हरि (पू.)हे हरिहो
हरिहिं
हरिहिं गामणी (पु.)- हे गामणीहो गामणीहिं गामणीहिं साहु (पु.)- हे साहुहो
साहुहिं साहुहिं सयंभू (पु.)- हे सयंमूहो
सयंभूहि कमल (नपुं.)- हे कमलहो
कमलहिं कमलाहिं वारि (नपुं)- हे वारिहो
वारिहिं
वारिहिं महु (नपुं.)- हे महुहो
महुहिं महुहिं कहा (स्त्री.)- हे कहाहो
कहाहिं कहाहिं मइ (स्त्री.)- हे मइहो
माहिं माहिं लच्छी (स्त्री.)- हे लच्छीहो लच्छिहिं . लच्छीहिं घेणु (स्त्री.)- हे घेणुहो
घेणुहिं घेणुहिं बहू (स्त्री.)- - हे बहुहो 18. स्त्रियां जस्-शसोरदोत् 4/348
स्त्रियां जस्-शसोरदोत [(स्त्रियाम्) + (जस्)-(शसोः)+ (उत्)+ (प्रोत्)]
देव
(पु.)
.
सयंभूहि
बहुहिं.
.
बहुहिं
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जैन विद्या
स्त्रियाम् (स्त्री) 7/1 [ ( जस्) - (शस् ) 6 / 2] उत् ( उत्) 1 / 1 प्रोत् (प्रोत्) 1 / 1 स्त्रीलिंग में जस् और शस् के स्थान पर उत् + उ और प्रोत्+नो (होते हैं) । अपभ्रंश में प्रकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में जस् (प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय) और शस् ( द्वितीया बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान 'उ' और 'नो' होते हैं ।
कहा (स्त्री.) - ( कहा + जस् ) = ( कहा + उ प्र ) = कहाउ, कहाम्रो
( कहा + शस्)
मह (स्त्री), लच्छी (स्त्री), षेणु (स्त्री.) और बहू (स्त्री) के
= महउ, महम्रो ( प्र. बहुवचन ) मउ, मो (द्वि. बहुवचन) लच्छी, लच्छी (प्र. बहुवचन) लच्छी, लच्छीप्रो (द्वि. बहुवचन)
19. ट ए
=
- ( कहा + उ, श्रो) कहाउ, कहाम्रो
=
कहा (स्त्री.) -
मह
(स्त्री.) - लच्छी (स्त्री.) -
धेणु (स्त्री.) - (स्त्री.) -
बहू
20. ङस् - ङस्योर्हे
4/349
टए [(ट) + (ए)] T: (TT) 6/1
ए (ए) 1/1
(स्त्रीलिंग शब्दों में) टा के स्थान पर 'ए' (होता है ) ।
अपभ्रंश में अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में टा (तृतीया एक
बचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'ए' होता है |
( घेणु +टा) =
( बहू +टा) =
( कहा +टा) = ( कहा + ए ) = कहाए
( तृतीया एकवचन ) (तृतीया एकवचन )
( मइ + टा ) = ( मइ + ए ) = मइए
( लच्छी +टा) = ( लच्छी + ए ) = लच्छीए ( तृतीया एकवचन )
( प्रथम एकवचन )
घेउ, घेणुप्रो (प्र. बहुवचन) घेउ, घेणो (द्वि. बहुवचन) बहुउ, बहु (प्र. बहुवचन) बहुउ, बहुचो (द्वि. बहुवचन )
( घेणु + ए ) = वेणुए
( द्वितीया बहुवचन)
(
बहू + ए ) = बहुए
4/350
इस्-ङस्योहें [(ङस्योः) + (है)]
[ ( ङस् ) - ( ङसि ) 6 / 2] हे (हे ) 1/1
कहा (स्त्री.) - ( कहा --- ङस् ) = ( कहा + है) = कहाहे
( कहा + ङसि ) = ( कहा + हे) = कहा हे
( तृतीया एकवचन ) (तृतीया एकवचन )
(स्त्रीलिंग शब्दों में ) 'ङस्' मोर 'सि' के स्थान पर 'है' (होता है) ।
अपभ्रंश में प्रकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में इस् ( षष्ठी एकवचन के प्रत्यय) और ङसि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'है' होता है ।
( षष्ठी एकवचन )
( पंचमी एकवचन )
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जनविद्या
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मइ (स्त्री), लच्छी (स्त्री) के . =महहे, लच्छोहे, घेण्हे, बहूहे
__(षष्ठी एकवचन) घेणु (स्त्री.) और बहू (स्त्री) =मइहे, लच्छीहे, घेण्हे, बहुहे
___ (पंचमी एकवचन) 21. भ्यसामोर्तुः 4/351
भ्यसामोर्तुः [(भ्यस्)+(प्रामोः)+(हुः)] [(भ्यस्)-(प्राम्) 1/2] हुः (हु) 1/1 (स्त्रीलिंग शब्दों में) भ्यस् और पाम् के स्थान पर ('हु' होता है)। अपभ्रंश में प्राकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में भ्यस् (पंचमी बहुवचन के प्रत्यय) और पाम् (षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान 'हु' पर होता है। कहा (स्त्री) (कहा+भ्यस्)=(कहा+हु)=कहाहु (पंचमी बहुवचन)
(कहा+प्राम्)=(कहा+हु)=कहाहु (षष्ठी बहुवचन) मइ (स्त्री), लच्छी (स्त्री)
=मइहु, लच्छोहु, घेणुहु महहु
(पंचमी बहुवचन) घेणु (स्त्री) और बहू (स्त्री) के माहु, लच्छीह, घेणुहु, बहूहु
(षष्ठी बहुवचन) 22. हि 4/352
महि [(डे:) + (हिं)] के: (ङि) 6/1 हिं (हिं)1/1 (स्त्रीलिंग शब्दों में) 'डि' के स्थान पर 'हि' (होता है)। अपभ्रंश में प्राकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में 'हि' (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हि' होता है। कहा (स्त्री)-(कहा+ङि) = (कहा--हिं)=कहाहि (सप्तमी एकवचन) मह (स्त्री)-(मइ+ङि)=(मइ+हिं)=महि (सप्तमी एकवचन) लच्छी (स्त्री), घेणु (स्त्री) के लच्छोहि, घेहि, बहूहि और बहू (स्त्री)
(सप्तमी एकवचन) 23. क्लीवे जस्-शसोरि 4/353
क्लीवे जस्-शसोरि [(जस्)-(शसोः) + (इं)] क्लीवे (क्लीबे) 7/1 [(जस्)-(शस्) 6/2] ई (इं) 1/1 नपुंसकलिंग में जस् और शस् के स्थान पर 'इ' (होता है)। प्रकारान्त, इकारान्त और उकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों में अस् (प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय), शस् (द्वितीया बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर '' होता है। कमल (नपुं.)- (कमल+जस्)=(कमल+इं)=कमलई (प्रथमा बहुवचन)
(कमल+शस्) = (कमल+इं) कमलई (द्वितीया बहुवचन) वारि (नपुं.) और
वारिई, महुइं (प्रथमा बहुवचन) महु (नपुं.)
वारिई, महुइं (द्वितीया बहुवचन)
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94.
24. कान्तस्यात उं स्यमोः
4/354
कान्तस्यात उं [ ( क ) + ( अन्तस्य ) + (श्रतः) + (उं) ] स्यमो : [ ( स ) + ( श्रामोः) ] [ ( क ) - ( अन्त) 6 / 1] प्रत: ( अत् ) 5 / 1 उं ( उं) 1 / 1 [ ( स ) – (आम् ) 6 / 2] (नपुंसकलिंग ) में (संस्कृत के ) ककारान्त शब्द के 'प्रकार' से परे 'सि' और मम् के स्थान पर 'उ' होता है ।
नपुंसकलिंग में संस्कृत के ककारान्त शब्द के अन्त्य प्र से परे सि (प्रथमा एकवचन के प्रत्यय) और श्रम् (द्वितीय एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'उ' होता है । तुच्छक तुच्छ ( नपुं. ) - ( तुच्छध + सि) = (तुच्छभ + उं) = तुच्छउं
(प्रथमा एकवचन )
15
नेत्रक+नेत्त (नपुं. ) भग्नक + भग्गन ( नपुं. )
25. स्यादौ दीर्घ - ह्रस्वौ
देव (पु.) हरि (पु)
4/330
स्यादी [ ( स ) + ( प्रादी)] दीर्घ- ह्रस्वो
[(स) – (प्रादि) 7/1] [ (दीर्घ) - ( ह्रस्व ) 1/2 ]
साहु (पु.) मह (स्त्री)
कमल (नपुं. )
(तुच्छन + श्रम् ) = (तुच्छत्र + उं) = तुच्छउं
नेतउं, भग्गउं
नेत, भग्गउं
( अपभ्रंश में) 'सि' आदि परे होने पर ( अन्त्य स्वर) दीर्घ श्रौर ह्रस्व ( हो जाते है ) । अपभ्रंश भाषा में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग संज्ञा शब्दों में सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय), जस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय), प्रम् ( द्वितीया एकवचन का प्रत्यय), जस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) भादि परे होने पर शब्द के अन्त्य स्वर का ( ह्रस्व होने परं) दीर्घ श्रौर (दीर्घ होने पर ) ह्रस्व हो जाता है ।
ह्रस्व का दीर्घ
देवहि. देवाहि
हरिहि हरीहि
जैनविद्या
हम यहां सुविधा के लिए तृतीया बहुवचन का उदाहरण ले रहें है इसी प्रकार सभी विभक्तियों में समझ लेना चाहिये ।
साहु, साहूह
महिं, महि
कमलहिं, कमलाहि
( द्वितीया एकवचन )
कहा (स्त्री) लच्छी (स्त्री)
गामणी (पु.)
सयंभू (पु.)
बहू (स्त्री)
(प्रथमा एकवचन )
( द्वितीया एकवचन )
दीर्घ का ह्रस्व
काहि कहि
लच्छीहि, छह गामणीहिं, गामणिहि
भूहि, सह बहूहि, बहु
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शिविर-आयोजन
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान के तत्वावधान में गत जून मास में श्रीमहावीरजी में दो शिविरों का आयोजन किया गया जिनका विवरण निम्न प्रकार है
1. सदाचार शिक्षण शिविर-पाज के भौतिक युग में युवकों में नैतिक मूल्यों के संस्कार हढ़ करने हेतु गत 14 जून 87 से 21 जून 87 तक एक माठ दिवसीय शिविर का
आयोजन किया गया। शिविर का उद्घाटन डॉ. जिनेश्वरदास जैन, सहायक निदेशक, सेंट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एण्ड इलेक्ट्रोनिक्स, पिलानी ने किया। . ..
. इस शिविर में जयपुर, कोटा, मुजफ्फरनगर और आगरा के 28 युवकों ने भाग लिया । इनमें 16 युवक नये थे, शेष ने गतवर्ष प्रायोजित शिविर में भी भाग लिया था।
शिविरार्थियों को यौगिक व्यायाम, पूजा एवं प्रक्षाल. का व्यावहारिक ज्ञान, रत्नकरण्ड श्रावकाचार तथा भक्तामर स्तोत्र का अध्ययन कराया गया जिससे उनका शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक विकास हो सके।
श्रीमहावीरजी स्थित मुख्य मन्दिर की परिक्रमा में उत्कीर्ण भावचित्रों का कथ्य एवं मर्म प्रोवरहैड प्रोजेक्टर के माध्यम से बताया गया ।
इस शिविर के प्रशिक्षक थे जैनदर्शन के विद्वान् श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला, जयपुर, श्री राजकुमार छाबड़ा, जयपुर एवं डॉ. कुसुम शाह, जयपुर । यौगिक व्यायाम के प्रशिक्षक थे डॉ. ईश्वरचन्द्र शर्मा, श्रीमहावीरजी ।
2. अपभ्रंश भाषा प्रशिक्षण शिविर-अपभ्रंश व्याकरण के अध्ययन एवं पांडुलिपि सम्पादन हेतु संस्थान ने गत वर्ष भी एक दस दिवसीय शिविर का आयोजन किया था ।
इस वर्ष भी उन्हीं विद्यार्थियों/प्रशिक्षणार्थियों को गहन प्रशिक्षण देने हेतु गत जून मास में एक दस दिवसीय शिविर का आयोजन किया जिसका उद्घाटन हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. रामगोपाल शर्मा 'दिनेश', प्रोफेसर एवं डीन, हिन्दी विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
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जनविद्या
उदयपुर द्वारा सम्पन्न हुमा । अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉक्टर राजाराम जैन, पारा भी इस अवसर पर उपस्थित थे।
इस शिविर में पाण्डुलिपि सम्पादन का प्रशिक्षण डॉ. छोटेलाल शर्मा, प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ द्वारा तथा अपभ्रंश व्याकरण के सूत्रों का प्रशिक्षण डॉ. कमलचन्द सोगाणी, प्रोफेसर, दर्शन-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर द्वारा दिया गया। प्रशिक्षणार्थियों ने पाण्डुलिपि सम्पादन, उनका व्याकरणिक विश्लेषण प्रादि का अभ्यास किया। प्रशिक्षकों ने अपभ्रंश साहित्य में छिपे सांस्कृतिक मूल्यों एवं साहित्यिक सौन्दर्य की अोर प्रशिक्षणार्थियों का पर्याप्त ध्यान आकर्षित किया।
___ इस शिविर में भाग लेनेवाले सभी प्रशिक्षणार्थी स्नातकोत्तर डिग्री सहित थे,. कई पीएच. डी. की उपाधि से भी विभूषित थे।
उपर्यक्त दोनों शिविरों में प्रतिदिन मध्याह्न में आमन्त्रित विद्वानों के भाषण भी प्रायोजित किये जाते थे। इस क्रम में डॉ. जिनेश्वरदास जैन, पिलानी; डॉ. नेमीचंद जैन, इन्दौर; डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल, प्रागरा; डॉ. डी. सी. जैन, दिल्ली; डॉ. गोपीचन्द पाटनी, जयपुर; डॉ. सतीशचन्द्र गुप्ता, श्रीमहावीरजी; आदि के विभिन्न सामयिक विषयों पर गवेषणात्मक भाषणों से शिविरार्थी लाभान्वित हुए। प्रागत सभी विद्वानों ने दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी की प्रबन्धकारिणी कमेटी द्वारा प्रायोजित शिविरों को प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक बताया।
शिविर में भाग लेनेवाले विद्वानों व शिविरार्थियों के मार्गव्यय, प्रावास, भोजन, अध्ययनार्थ सामग्री आदि का समस्त व्यय-भार क्षेत्र कमेटी ने वहन किया ।
नये प्रकाशन
1. बुद्धिरसायण प्रोणमचरितु 2. कातन्त्ररूपमाला 3. बोधकथामञ्जरी 4. मृत्यु जीवन का अन्त नहीं 5. पुराणसूक्तिकोष 6 वर्धमानचम्पू
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इस अंक के सहयोगी रचनाकार
1.
डॉ. प्रावित्य प्रचण्डिया 'दीति'- एम. ए., पीएच. डी. । रिसर्च एसोसिएट, हिन्दी विभाग, क. मु. भाषाविज्ञान एवं हिन्दी विद्यापीठ, प्रागरा। इस अंक में प्रकाशित निबन्ध - सुदंसणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन | सम्पर्कसूत्र - मंगल कलश, 394, सर्वोदयनगर, आगरा रोड, अलीगढ़, 202001, उ. प्र.
2.
डॉ. कमलचन्द सोगाणी - बी. एससी., सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर । मूल्यात्मक प्रसंग - एक व्याकरणिक विवेचन । सम्पर्क सूत्र - टी. एच. 4, उदयपुर - 313001 राज. ।
4.
एम. ए., पीएच. डी. । प्रोफेसर, दर्शनविभाग, इस श्रंक में प्रकाशित निबन्ध - 1. सुदंसरणचरिउ विश्लेषण, 2. हेमचन्द्र अपभ्रंशव्याकरण-सूत्रस्टॉफ कॉलोनी, यूनिवर्सिटी न्यू कैम्पस,
3.
डॉ. गंगाराम गर्ग - एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट्. हेतु शोधरत । प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, महारानी श्री जया कॉलेज, भरतपुर । इस अंक में प्रकाशित निबन्ध - सुदंसणचरि मैं अलंकार योजना । सम्पर्क सूत्र - 110 ए, रणजीत नगर, भरतपुर राज. ।
डॉ. गदाधर सिंह - व्याख्याता, हिन्दी विभाग, ह. दा. जैन कॉलेज, धारा, बिहार । इस अंक में प्रकाशित निबन्ध - सुदंसरणचरिउ उदात्त की दृष्टि से सम्पर्क सूत्र - जापानी फॉर्म, महल्ला कतीरा, धारा, जि. भोजपुर, बिहार ।
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जनविद्या
5. डॉ.जयकुमार जैन-एम.ए., पीएच. डी. । प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, एस. डी. स्नातकोत्तर
महाविद्यालय, मुजफ्फरनगर। इस अंक में प्रकाशित निबन्ध-भारतीय भाषाओं में सुदर्शनचरित विषयक साहित्य । सम्पर्क सूत्र-104, द्वारकापुरी, मुजफ्फरनगर, 251001, उ. प्र.।
6. डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री-एम. ए., साहित्यरत्न, पीएच. डी.। अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नीमच। इस अंक में प्रकाशित निबन्ध-सुदंसणचरिउ का काव्यात्मक वैभव । सम्पर्क सूत्र-243, शिक्षक निवास, नीमच, म. प्र. ।
7. गं. श्रीरंजन सूरिदेव-एम. ए. (प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी), प्राचार्य (पालि, साहित्य,
आयुर्वेद, पुराण एवं जनदर्शन), साहित्यरत्न, साहित्यालंकार, पीएच. डी.। इस अंक में प्रकाशित निबन्ध-सुदंसणचरिउ का छान्दस वैशिष्ट्य । सम्पर्क सूत्र-पी. एन. सिन्हा कॉलोनी, भिखना पहाड़ी, पटना, 800006, बिहार ।
भी धीयोगकुमार सिपई-शास्त्री, प्राचार्य (जनदर्शन)। प्रवक्ता, जनदर्शन विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, जयपुर। इस अंक में प्रकाशित निबन्ध-सुदंसणचरिउ प्रयोजन की दृष्टि से । सम्पर्क सूत्र-5/47, मालवीय नगर, जयपुर, 302017, राज. ।
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जैनविद्या
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जैनविद्या ( शोष-पत्रिका)
सूचनाएं
॥ 1. पत्रिका सामान्यतः वर्ष में दो बार प्रकाशित होगी।
2. पत्रिका में शोध-खोज, अध्ययन-अनुसंधान सम्बन्धी मौलिक अप्रकाशित
रचनाओं को ही स्थान मिलेगा।
रचनाएँ जिस रूप में प्राप्त होंगी उन्हें प्रायः उसी रूप में प्रकाशित किया जायगा । स्वभावतः तथ्यों की प्रामाणिकता आदि का उत्तरदायित्व रचनाकार का रहेगा।
4. रचनाएं कागज के एक अोर कम से कम 3 से. मी. का हाशिया
छोड़कर सुवाच्य अक्षरों में लिखी अथवा टाइप की हुई होनी चाहिये। 5. रचनाएँ भेजने एवं अन्य सब प्रकार के पत्र-व्यवहार के लिए पता
सम्पादक जनविद्या महावीर भवन सवाई मानसिंह हाइवे जयपुर-302003
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2.
जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी
महावीर पुरस्कार दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी (राजस्थान) की प्रबन्धकारिणी कमेटी के निर्णयानुसार जैन साहित्य सृजन एवं लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए रु. 5,001/-(पांच हजार एक) का पुरस्कार प्रतिवर्ष देने की योजनायोजना के नियम1. जैनधर्म, दर्शन, इतिहास, संस्कृति सम्बन्धी किसी विषय पर किसी निश्चित अवधि में
लिखी गई सृजनात्मक कृति पर 'महावीर पुरस्कार' दिया जायगा। अन्य संस्थाओं द्वारा पहले से पुरस्कृत कृति पर यह पुरस्कार नहीं दिया जायगा । पुरस्कार हेतु प्रकाशित/अप्रकाशित दोनों प्रकार की कृतियां प्रस्तुत की जा सकती हैं। यदि कृति प्रकाशित हो तो यह पुरस्कार की घोषणा की तिथि के 3 वर्ष पूर्व तक ही प्रकाशित होनी चाहिये। पुरस्कार हेतु मूल्यांकन के लिए कृति की चार प्रतियां लेखक/प्रकाशक को संयोजक, जैनविद्या संस्थान समिति को प्रेषित करनी होगी। पुरस्कारार्थ प्राप्त प्रतियों पर स्वामित्व संस्थान का होगा । अप्रकाशित कृति की प्रतियां स्पष्ट टंकण की हुई अथवा यदि हस्तलिखित हों तो वे स्पष्ट और सुवाच्य होनी चाहिये । पुरस्कार के लिए प्रेषित कृतियों का मूल्यांकन विशिष्ट विद्वानों/निर्णायकों के द्वारा कराया जायगा, जिनका मनोनयन जैनविद्या संस्थान समिति द्वारा होगा। इन विद्वानों/ निर्णायकों की सम्मति के आधार पर सर्वश्रेष्ठ कृति का चयन जैन विद्या संस्थान समिति द्वारा किया जायगा। सर्वश्रेष्ठ कृति पर लेखक को पांच हजार एक रुपये का 'महावीर पुरस्कार' प्रशस्तिपत्र के साथ प्रदान किया जायगा । एक से अधिक लेखक होने पर पुरस्कार की राशि उनमें
समानरूप से वितरित कर दी जायगी। 7. महावीर पुरस्कार के लिए चयनित अप्रकाशित कृति का प्रकाशन संस्थान के द्वारा
कराया जा सकता है जिसके लिए आवश्यक शर्ते लेखक से तय की जायंगी। महावीर पुरस्कार के लिए घोषित अप्रकाशित कृति को लेखक द्वारा प्रकाशित करने
करवाने पर पुस्तक में पुरस्कार का आवश्यक उल्लेख साभार होना चाहिये । 9. यदि किसी वर्ष कोई भी कृति समिति द्वारा पुरस्कार योग्य नहीं पाई गई तो उस वर्ष
का पुरस्कार निरस्त (रद्द) कर दिया जायगा । 10. उपर्युक्त नियमों में आवश्यक परिवर्तन/परिवर्द्धन संशोधन करने का पूर्ण अधिकार
संस्थान प्रबन्धकारिणी कमेटी को होगा ।
5.
संयोजक कार्यालय : महावीर भवन, एस. एम. एस. हाइवे जयपुर-302003
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका
संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति, श्रीमहावीरजी
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________________ हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन 1-5. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची-प्रथम एवं द्वितीय भाग- अप्राप्य तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम भाग संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल एवं पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ 170.00 6. जैन ग्रन्थ भंडार्स इन राजस्थान (शोध प्रबन्ध)-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 50.00 7. प्रशस्ति संग्रह-संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल अप्राप्य 8. राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 20.00 9. महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व -डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 20.00 10. जैन शोध और समीक्षा-डॉ. प्रेमसागर जैन 20.00 11. जिणदत्तचरित-संपादक-डॉ. माताप्रसाद गुप्ता एवं डॉ. क.च. कासलीवाल 12.00 12. प्रद्युम्नचरित-संपादक-पं. चैनसुखदास न्यायतीथं व डॉ. क.च. कासलीवाल 12.00 13. हिन्दी पद संग्रह-संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल अप्राप्य 14. सर्वार्थसिद्धिसार-संपादक-पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ 10.00 15. चम्पाशतक-संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 6.00 16. तामिल भाषा का जैन साहित्य-संपादक-पं. भंवरलाल पोल्याका अप्राप्य 17. वचनदूतम्-(पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध)-पं. मूलचंद शास्त्री प्रत्येक 10.00 18. तीर्थंकर वर्धमान महावीर-पं. पद्मचन्द शास्त्री 10.00 19. पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्मृति ग्रन्थ 50.00 20. बाहुबलि (खण्डकाव्य)-पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ 10.00 21. योगानुशीलन-श्री कैलाशचन्द्र बाढ़दार 75.00 22. ए की टू ट्र हैपीनैस-बै. चम्पतराय अप्राप्य 23. चूनड़िया-मुनिश्री विनयचन्द्र, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 1.00 24. पाणंदा-श्री महानंदिदेव, अनु.-डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री 5.00 25. णेमीसुर की जयमाल और पाण्डे की जयमाल-मुनि कनककीति एवं कवि नण्हु, अनु.—पं. भंवरलाल पोल्याका 2.00 26. समाधि-मुनि चरित्रसेन, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 4.00 27. बुद्धिरसायण प्रोणमचरितु-कवि नेमिप्रसाद, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 5.00 28. कातन्त्ररूपमाला-भावसेन त्रैविद्यदेव 12.00 29. बोधकथा मञ्जरी-श्री नेमीचन्द पटोरिया 12.00 30. मृत्यु जीवन का अन्त नहीं-डॉ. श्यामराव व्यास 5.00 31. पुराणसूक्तिकोष 15.00 32. वर्धमानचम्पू-पं. मूलचन्द शास्त्री 25.00 33. चेतना का रूपांतरण-ब्र. कु. कौशल प्रेस में