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जनविद्या
मित्र (सूर्य) के वियोग में मुरझाई हुई नलिनी के पुष्प कोष का विकास उसी प्रकार नहीं हुआ जिस प्रकार अपने मित्र के वियोग में महासती लज्जित होकर अपना चूड़ाबन्ध प्रकट नहीं करती ।
कवि की कल्पना शक्ति की परीक्षा उत्प्रेक्षा अलंकार में होती है। जो उत्प्रेक्षा हृदय की कृतियों को मात्र चमत्कृत न कर उसे ऊँचाई पर उठा दे वह उदात्त के अनुकूल होती है । किन्तु जो मात्र बुद्धि-विलास या कौतुक हो वह उदात्त के लिए प्रेय सिद्ध होता है । विपुलाचल की शोभा का वर्णन कवि ने उत्प्रेक्षा अलंकार द्वारा किया है
गायइ ।
करिगज्जियह पडहु णं वायर, कोइलकल वह णं तिणरोमेहि गाई पुलइज्जड़, णिज्भहि णं बहुलु पसिज्जइ ।
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वह पर्वत हाथियों के गर्जन से ऐसा प्रतीत होता था मानो नृत्य कर रहा हो, कोकिलों के कलरव द्वारा मानो गान कर रहा हो, नाचते हुए मयूरों द्वारा मानो नृत्य कर रहा हो, तृणरूपी रोमों द्वारा मानो पुलकित हो रहा हो, निर्झरों द्वारा मानो पसीज रहा हो ।
बुद्धिविलास से सम्बन्धित उक्तियां कौतूहल की सृष्टि अधिक करती हैं, हृदय को माती नहीं हैं । प्रस्तुत प्रसिद्धास्पदा हेतूत्प्रेक्षा को इसके उदाहरण के रूप में रखा जा · सकता है
जाह चरण सारुण प्रइकोमल, पेच्छेवि जले पइट्ठ रत्तुप्पल । जाहे पायणमणिहि विचित्त, णिरसियाई राहे ठिय क्सत्तई । जाहे चारुतिवलिहे ण पहुच्चाह, जलउम्मिउ सयसक्कर वच्चाह । जाहे नाहिगंभीरिमजित्तउ, गंगावत्तु ण थाइ भमंतउ । कलिय रोमावलय जइ णवि विहि विरयंतउ । तो मरणहरेण गुरुथरणहरेण मज्भु प्रवसु भज्जंतउ ॥
प्रयस
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जिसके प्रति कोमल लाल चरणों को देखकर ही मानो लाल कमल जल में प्रविष्ट हो गये हैं उसके पैरों के नख़रूपी मणियों से विष्षण चित्त और हतोत्साहित होकर नक्षत्र श्राकाश में जाकर ठहरे हैं । उसकी सुन्दर त्रिवली की शोभा को न पहुँचकर जल की तरंगें अपने सौ टुकड़े कर चली जाती हैं। उसकी नाभि की गहराई से पराजित होकर गंगा का श्रवत्तं भ्रमण करता हुआा स्थिर नहीं हो पाता ।
उदित होते हुए सूर्य का मतवाले हाथी के रूप में रूपक अलंकार द्वारा चित्रण कर कवि ने दृश्योदात्त का रूप उपस्थित किया है