SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6. बनविद्या वह एक क्षण लुकता और झड़प देता था, एक क्षण में लौटता पौर ग्वाल-दल को पीटता था। क्षण में बह छिप जाता, किसी को त्रास देता और नीचे को चला जाता। क्षण में क्रीड़ा करता और ग्रह के समान पीड़ा देता । एक क्षण में दौड़ता और फिर वैसे ही वापस आता जैसे मन । एक क्षण में दिखाई देता और फिर विलुप्त हो जाता, जैसे धन । इसमें ऐसी निर्बन्ध एवं स्वछन्द शैली का पाश्रय लिया गया है जिससे गतिमयता प्रत्यक्ष हो जाय । झपट्टा मारनेवाली गति को वि तोगजुयलेण भासुरो, उक्कमेइ गहे रणं खगेसरो। रणरहसेरण को वि सुहरू पवह यंभु उम्मूलिवि पावइ । बाणवंतु थिरथोरकर दुणिवार सुरवारण गावइ ॥ 9.1 कोई भट अपने तरकसों से ऐसा चमक उठा मानो गरुड़ आकाश में उड़ रहा हो। कोई सुभट रण के प्रावेग से एक बड़ा खंभा उखाड़कर दौड़ पड़ा मानो मद झराता हुमा स्थिर और स्थूल सूंडवाला दुर्निवार ऐरावत प्रकट हुप्रा हो । देमेत्रियस ने ध्वन्यात्मक कर्कशता से भी प्रौदात्य की वृद्धि स्वीकार की है। निम्नलिखित पंक्तियों में ध्वन्यात्मक कर्कशता के द्वारा विराट परिवेश प्रस्तुत किया गया है तेण दाणोहगंग वि दोयंड संतासिया । ताण चिक्कारसवेण पंचाणणा रोसिया ॥ तेहिं रूजंतहि दिसाचक्कमाउरियं । तेण प्रासामरहिं पड़तेहि चिक्कारियं । प्रोवडतेहिं तेहिं पि भूमंडली होल्लिया। ताए झलसायरा सायरा सत्त उच्छल्लिया ॥ 11.8 अपने गंडों में मद बहाते हुए हाथी भी संत्रस्त हो उठे और उनके चीत्कार शब्द से सिंह रुष्ट हो उठे । सिंहों की दहाड़ से दिशाचक्र आपूरित हो गया। इससे सागर-पर्यन्त गिरते हुए दिग्गजों ने चीत्कार छोड़ी। उनके गिर पड़ने से भूमण्डल डोलने लगा। उससे तरंगों युक्त सातों सागर उछलने लगे। मालंकारिक शैली का प्रयोग ___ सफल कलाकार उदात्त के अनुकूल अलंकारों का विधान करते हैं । उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, विरोधाभास प्रादि का सद्भाव उदात्त के अधिक अनुकूल पड़ता है। इन प्रलंकारों के प्रयोग में कवि ने प्रायः मसृण शैली का प्रयोग किया है। इस शैली की मूल निधि सौंदर्य है । प्रणय, परिणय, सौंदयांकन आदि के वर्णन में यह शैली उपस्थित हुई है । सायंकाल की तुलना विरहिणी नारी से देते हुए कवि ने उपमा अलंकार का बड़ा सटीक वर्णन किया है मित्तविनोएँ गलिणि महासइ, कणिय चूडल्लउ ण पयासइ। 8.17
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy