SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 70 जैनविद्या ता जगसरवरम्मि णिसि कुमुइणि, उदु पफल्लकुमुयउबासिणि। उम्मूलिय पच्चूसमयंगें, गमु सज्जिउ ससिहंसविहंगें। 5.10 जगतरूपी सरोवर से तारारूपी प्रफुल्ल कुमुदों से उद्भासित रात्रिरूपी कुमुदिनी को प्रत्यूषरूपी मतवाले हाथी ने उन्मूलित कर दिया। शशिरूपी हंस पक्षी ने गमन की तैयारी की। दृश्योदात्त का एक रूप तब होता है जब प्रकृति में निहित आनन्द या मंगल का दर्शन कवि कराता है । अंग्रेज कवि शैली ने गगन-विहारी पक्षी को 'मुक्ति का प्रात्माराम' गायक कहा था और टैगोर ने बरसात के तुमुल छंद में, नवधन मेघ के गंभीर घोष में किसी के प्राणों का गान सुना था प्राजि उत्ताल तुमुलछन्द, प्राजि नवधन-विपुल-मन्द्रे । प्रामार पराने ये गान बाजाबे से गान तोमर करो साय, माजि जल भरा बरषाय ॥ आविर्भाव कविता कवि नयनन्दी ने रात्रि को रमणी के रूप में देखा है और रूपक अलंकार द्वारा उसे मानवी स्वरूप प्रदान किया है। गहमरगयभायणे वरवंदणु, संझाराउ घुसिण ससि चंबणु । ससिमिगु कत्यूरी गिर सामल, वियसिय गह कुवलय उड़ तंदुल। लेविण मंगलकरणणुराइय, णिसितरट्टि तहिं समए पराइय। 5.8 . नभरूपी मरकत पात्र में श्रेष्ठ वंदन के लिए संध्या रागरूपी केसर, शशिरूपी चंदन, चन्द्रमृगरूपी श्यामल कस्तूरी, विकसित नक्षत्ररूपी प्रफुल्ल कमल तथा तारारूपी तंदुल-इन मंगल-सामग्री को लेकर अनुरागयुक्त निशारूपी रमणी उस समय मा पहुंची। दृश्योदात्त चित्रमयता में अपने को अधिक स्पष्ट करता है। चित्रमय विधान में कविकल्पना इन्द्रिय-बोध के अनेक स्तरों पर संश्लिष्ट रूप में कार्य करती है। इससे कविता में अनेक अर्थों को स्पष्ट करनेवाले चित्र उभरने लगते हैं। सरोवर के वर्णन में कवि ने लिखा है कलमरालमुहबलियसयवलं, लुलियकोलउलहलियकंबलं । पीलुलीलपयचलियतलमलं, गलियगलिणरयपिंगहुयजलं । मगिलविहुयकल्लोलहयथलं, तच्छलेण गं छिवइ गहयलं। 7.16 — कलमराल के मुखों द्वारा कमल-दल तोड़े जा रहे थे तथा डोलते हुए वराहों के झंडों द्वारा जड़ें खोदी जा रही थीं। हाथियों की क्रीड़ा से उनके द्वारा नीचे का कीचड़ चलायमान होकर ऊपर पा रहा था । कमलों से झड़ी हुई रज से जल पिंगलावर्ण हो रहा था। पवन से झकझोरी हुई तरंगों द्वारा थल भाग पर आघात हो रहा था, मानो वह उसी बहाने नभस्तल को छू रहा हो।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy