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________________ 62 . जनविद्या इस विषय के विचारकों में लांजाइनस का नाम सबसे पहले पाता है । इसने अपनी प्रसिद्ध रचना 'पेरी हुप्साउस' में कला के अनिवार्य तत्त्व के रूप में उदात्तता (सब्लीमीरी) और भावोन्मेष (एक्सटेंसी) को महत्त्व दिया है । उनके अनुसार 'विस्मयकारी असाधारण सिद्धान्त' उदात्त की आत्मा है । असाधारण विस्तार, असाधारण सौन्दर्य, असाधारण भव्यता, असाधारण पूर्णता में ही उदात्त की भावना निहित है। अल्प की उपेक्षा महान् में, वामन की अपेक्षा विराट में, क्षुद्र की अपेक्षा महत्तम में, नद की अपेक्षा महानद में और लघु-लघु उर्मियों की अपेक्षा व्याल-सी तरंगों में उदात्तता अधिक है। उदात्त के उत्स पर प्रकाश डालते हुए इन्होंने पांच तत्त्वों को महत्व दिया हैक. महान्धारणा (Noesis) ख. उद्दाम भावावेग ग. उक्ति-निर्माण (schemata) घ. अभिजात्य पद-विन्यास (Phrasis) ङ. शालीन प्रबन्ध-रचना (synthesis) . उदात्त में सर्वाधिक महत्त्व महान् विचार, भाव या कथ्य का होता है । इसमें कवि अपने उत्कृष्ट विचारों का सम्प्रेषण करता है। इसी को महान् धारणा कहा गया है । उद्दाम भावावेग के अन्तर्गत श्रद्धा, सौंदर्य, माधुरी, दीप्ति प्रादि का समावेश किया जाता है । आवेग के प्रभाव में उदात्त की दृष्टि में बाधा पड़ती है। विषय को गरिमामय करने के लिए उक्तिकौशल अनिवार्य है । अलंकार और शब्द-चयन इसके अन्तर्गत पाते हैं । रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, पर्यायोक्ति, जैसे अलंकार उदात्त के अनुकूल पड़ते हैं । इन सबके मिलने से शालीन प्रबन्ध-रचना की भित्ति निर्मित होती है। ... शैलीगत उदात्तता के भीतर लांजाइनस ने तीन तत्त्वों का समावेश किया है । प्रथम तत्त्व को उसने दीप्ति-भाव (माइडिया प्राफ ग्लो) कहा है। भव्यता, सौंदर्य, मार्दव और प्रौदार्य की जीवन्त अभिव्यक्ति के लिए दीप्तिमय भाषा की अनिवार्यता है । इसी से शैली में पोज एवं प्रवाह की संरचना होती है। लाक्षणिक प्रयोगों से सम्पन्न भाषा में उदात्त का निवास होता है। द्वितीय तत्त्व के रूप में विपर्यय-भाव को (माइडिया आफ इल्यूजन) लिया जाता है। इसमें अलंकार इस रूप में न रहें कि वे बोझ बन जांय । तृतीय तत्त्व के रूप में वैपरीत्य-भाव (माइडिया माफ कन्ट्रास्ट) का समावेश किया गया है । परस्पर विरोधी रंगों की संघटना द्वारा रंगों को उभारने की कला उदात्त के लिए श्रेय है । इस शैली के नियोजन द्वारा जिस गरिमामय रचना की सृष्टि होती है वह बंशी की ध्वनि की तरह कानों को ही नहीं आत्मा तक को सम्मोहित कर देती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि 'उचित' मोर 'उदात्त में अन्तर है । काव्यशास्त्रीय नियमों से निर्दोष होने पर भी रचना में उदात्त तत्त्व का समावेश नहीं हो सकता । इसके विपरीत यदि रचना में कुछ दोष भी हैं फिर भी वह महान् हो सकती है । भनेक दोषों के रहते हुए भी होमर, वाल्मीकि और तुलसी महान् हैं।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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