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________________ जनविद्या 63 . एडमंड बर्क ने उदात्त के मूल में 'हर्ष' की स्थापना की है। पीड़ा और खतरे से उत्पन्न दुःखबोष से मुक्त रखने का विचार हर्ष का जनक है। यही हर्ष उदात्त है । इस पर्थ में बर्क ने उदात्त के मूल में 'भयानक' की भावभूमि स्वीकार की है । करंट भी बर्क से प्रभावित थे। इन्होंने अपनी रचना 'कान्क्रीट प्राफ जजमेंट' में सौंदर्यतत्त्व के विवेचन के क्रम में उदात्त पर विचार किया है । कान्ट 'सुन्दर' और 'उदात्त' को पृथक्-पृथक् मानते थे। एक गुणमूलक होता है और दूसरा मात्रामूलक । सुन्दर में सामंजस्य (हारमोनी) होता है और उदात्त में अनुरूपता होती है । कुरूपता में भी उदात्त का प्राधार, आकार (साइज) और शक्ति (पावर) दोनों है । प्रशान्त महासागर का विस्तार और सिंह की प्रांखों का दर्प, दोनों में उदात्त निहित है। कांट ने उदात्त में भय की स्थिति नहीं मानी है। अनन्त विस्तार के समक्ष खड़ा होने पर जब भय का लोप हो जाय और सुखद तथा तृप्तिप्रद अनुभूति का विस्तार हो तभी उदात्त की सृष्टि सम्भव है । कान्ट ने अध्यात्म-स्फूर्ति को ही उदात्त का सारतत्त्व स्वीकार किया है। " हीगेल ने उदात्त का जिस रूप में विश्लेषण किया है उसमें अन्तर की अपेक्षा बाह पक्ष पर अधिक जोर है । इसमें 'विराट' पर अधिक ध्यान दिया जाता है । मिश्र का विशाल पिरामिड उदात्त का रूप है। ब्रडले (आक्सफोडं लेक्चर्स पान पोयट्री) ने उदात्त के अन्तर्गत भय, रोमांच एवं आन्तरिक प्राह्लादपूर्ण वृत्तियों को स्थान दिया है । विश्वरूप श्रीकृष्ण के समक्ष रोमांचित अर्जुन का खड़ा होना उदात्त भाव का द्योतक है । ब्रडले ने उदात्त की व्याख्या के क्रम में पांच स्तरों का उद्घाटन किया है-सबलाइम, ग्रैंड, ब्यूटीफुल, ग्रेसफुल और प्रेटी । उदात्त के एक छोर पर सबलाइम है और दूसरे छोर पर प्रेटी। भारतीय विद्वानों में उदात्त तत्त्व का सर्वथा मौलिक एवं गम्भीरतम विवेचन प्राचार्य श्री जगदीश पाण्डेय की लेखनी से हुआ है। उन्होंने उदात्त के सम्बन्ध में लिखा है-"जहां कहीं किसी वस्तु, स्थिति, घटना तथा शील में हम उत्कर्ष के साथ लोकातिशयता अथवा लोकातिशयता के साथ उत्कर्ष के दर्शन करते हैं वहां हमें उदात्त के दर्शन हो जाते हैं।"... जैसे-जैसे किसी पदार्थ या व्यक्ति की भौतिक सीमाओं का बन्धन टूटता है वैसे-वैसे उसमें सूक्ष्मता, व्याप्ति तथा उद्धार की योग्यता आती जाती है । किसी नायिका के साथ उद्यान में केलि करनेवाले की अपेक्षा पड़ोसी, परिवार, प्रान्त, देश तथा विश्व की ओर क्रमशः उन्मुख होनेवाला नायक उदात्त की सोपान-सरणि बनाता है। लोकातिशय एवं प्रलौकिक में तात्त्विक अन्तर होता है। अलौकिक में चमत्कार का तत्त्व निहित होता है । राम के छूते ही धनुष का चढ़ जाना मलौकिक है किन्तु राम की छवि-माधुरी को देखकर खरदूषण का स्तब्ध-मुग्ध हो जाना 'लोकातिशय' है । मात्र अतिशयता ही उदात्त का काम नहीं करती । यदि ऐसा होता तो अतिशयोक्ति से ही काम चल जाता। इसमें उन्नयन आवश्यक है।
SR No.524756
Book TitleJain Vidya 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages116
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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