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जैनविद्या
उदात्त में उत्कर्ष रहता है। स्वास्थ्य ठीक करने के लिए उपवास करने की अपेक्षा व्रत-भावना में उत्कृष्टता है । स्व से ऊपर उठने पर, उपयोगिता से ऊपर उठने पर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने पर तथा सीमा से विस्तार की भोर जाने पर ही उत्कर्ष की स्थिति सम्भव है। माचार्य श्री जगदीश पाण्डेय ने इन्हें क्रमशः सूक्ष्मोदात्त (Existentialistic Sublime) मूल्योदात्त. (Valus Sublime) परोदात्त (Altro Sublime) तथा विस्तारोदात्त Extentionistic Sublime की संज्ञा प्रदान की है।
शरीर से ऊपर उठकर मन, प्राण, प्रानन्द, चिन्मयता, भाव, विचार, कल्पना की उन्नत भूमियां सूक्ष्मोदात्त के विषय हैं। जहां किसी आदर्श या मूल्य के लिए उत्सर्ग की उन्नत भूमिका मिले वहां मूल्योदात्त होगा। विष के स्वाद का पता लगाने के लिए प्राण दे देनेवाला वैज्ञानिक मूल्योदात्त का उदाहरण होगा । 'स्व' के 'पर' में लय हो जाने की भूमिका परोदात्त है। गांधीजी परोदात्त की अमिताभ विभूति थे। जब कोई दृश्य सनातन अथवा सार्वभौम की कल्पना में रमा दे तब विस्तारोदात्त की सिद्धि होती है । इसका देशपक्ष लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई के रूप में पाया जाता है । 'कामायिनी' में हिमगिरि के उत्तुंग शिखर की ऊंचाई तथा प्रलय की जलराशि के चित्र को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
कवि नयनन्दी उदात्त भाव के कवि हैं। इनकी कृति में प्रात्मा के उत्थान का परमोदात्त रूप चित्रित हुआ है। बारह सन्धियों में रचित 'सुदंसणचरिउ' को पढ़ लेने के बाद भारतीय संस्कृति का वह उदात्त रूप स्पष्ट होता है जो भोग के स्थान पर त्याग एवं वैराग्य को समेट कर चलता है । यह व्यक्ति के साथ-साथ समाज के विकास का इतिहास-दर्शन है । व्यक्ति इच्छामों एवं वासनामों की पूर्ति का अधम साधन-मात्र नहीं है वरन् है आत्मशक्ति से सम्पन्न प्रज्ञा-पुरुष । वह चर्मशरीरी नहीं, शुद्ध-बुद्ध प्रात्मा है। 'सुदंसणचरिउ' में जहां एक ओर विलास की अपकर्षता है वहां दूसरी ओर एक महामानव के चरमोत्कर्ष की गाथा भी है । सम्पूर्ण प्रलोभनों को ठुकराता एवं लौकिक-अलौकिक उपसर्गों की उपेक्षा करता कथानायक सुदर्शन जब साधना के महापथ पर अग्रसर हो जाता है तो वह व्यक्ति नहीं रहकर व्यक्तित्व बन जाता है, द्रव्य नहीं रहकर भाव बन जाता है ।
जीव अपनी क्षुद्र सीमानों में बद्ध है । इससे ऊपर उठकर शुद्ध, चैतन्य, आनन्द-धन की स्थिति प्राप्त कर लेना ही जीवन का पुरुषार्थ है । कवि इस दर्शन को भाव का रूप प्रदान करने के लिए नायक के जीवन को अपना वर्ण्य-विषय बनाता है । कवि का लक्ष्य है जन-जीवन को अमृत-आलोक का दान । व्यक्ति की समाधि समष्टि में है। व्यष्टि के माध्यम से लोक को प्राध्यात्मिक-संजीवनी प्रदान करना कवि की दृष्टि है। रूप की प्रासक्ति आत्मा के उत्कर्ष की सबसे बड़ी बाधा है। इस बाधा के संवरण के बाद ही जड़ता का उत्कर्ष . केवल-ज्ञान की सोपान-सरणि बन सकता है।
___'सुदंसणचरिउ' की कथा प्रात्मा के उत्थान की कथा है । प्रात्मा का उत्थान एक -- दिन, एक युग या एक जन्म में सम्भव नहीं है। यह तो उत्तरोत्तर विकास-सरणि है। कथा